Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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चतुर्थ उद्देशक:गाया २३३ से २३७
२३५ विवेचन-समागम-प्रार्थना पर स्त्री समागम निर्दोष : एक मिथ्या मान्यता रूप उपसर्ग-प्रस्तुत
ओं में एक ऐसे अनुकूल उपसर्ग का विश्लेषण किया गया है, जो अत्यन्त भयंकर हेत्वाभासों द्वारा कुतर्क देकर वासना तृप्ति रूप सुखकर एवं अनुकूल उपसर्ग के रूप में उपपन्न किया गया है।
ऐसे भयंकर अनुकूल उपसर्ग के शिकार कौन ?-सूत्र गाथा २३३ में इस भयंकर मान्यता के प्ररूपक तथा इस उपसर्ग से पीड़ित कौन और कैसे हैं ? इसका संक्षेप में परिचय दिया गया है। प्रस्तुत सूत्र गाथा में उनके लिये ५ विशेषण प्रयुक्त किये गये हैं-(१) पाशस्थ या पार्श्वस्थ, (२) अनार्य, (३) स्त्रीवसंगत, (४) बाल और (५) जिनशासनपराङ्मुख ।
एगे- वत्तिकार ने 'एगे' पद की व्याख्या करते हए मान्यता के प्ररूपक एवं इस उपसर्ग के शिकार प्राणातिपात आदि में प्रवत्त नीलवस्त्रधारी विशिष्ट बौद्ध साधकों, अथवा नाथवादिक मण्डल में प्रविष्ट शैवसाधक विशेषों तथा जैन संघीय ऐसे कुशील एवं पार्श्वस्थ श्रमणों को बताया है। उन्हें 'पासत्या' आदि कहा गया है । इन सब का अर्थ इस प्रकार हैं-(१) पासत्या-इसके दो रूप संस्कृत में बनते हैं-पार्श्वस्थ
और पाशस्थ । प्रथम पार्श्वस्थ रूप का अर्थ है-जिसका आचार-विचार शिथिल हो। शीलांकाचार्य ने इनमें नीलवस्त्रधारी विशिष्ट बौद्ध-साधकों एवं नाथवादी सम्प्रदाय के शैव साधकों को भी समाविष्ट किया है। इन्हें पार्श्वस्थ इसलिए भी बताया है कि ये उत्तम अनुष्ठान से दूर रहते थे, कुशील सेवन करते थे, स्त्री परीषह से पराजित थे। पाशस्थ इसलिए बताया है कि ये स्त्रियों के मोहपाश में फंसे हुए थे।
___अणारिया-ये अनार्य कर्म करने के कारण अनार्य हैं । अनार्य कर्म हैं -हिंसा, असत्य, चोरी-ठगीबेईमानी, मैथुन सेवन एवं परिग्रह । पिछली सूत्रगाथा २३२ में तथा उसके टिप्पण में थेरगाथा के प्रमाण देकर तथाकथित बौद्ध साधकों के हिंसादि में प्रवृत्त होना सिद्ध कर आए हैं। इसीलिए उन्हें अनार्य कहा है।
___ इत्थीवसंगया-जो तरुण कामिनियों की गुलामी करते हों, जो उनके मोहक जाल में फंसकर उनके वशवर्ती बन गये हों, वे स्त्री वंशगत हैं । स्त्रियों के वे कितने अधिक गुलाम थे ? यह उन्हीं के शब्दों में देखिये
प्रिया दर्शनमेवाऽस्तु किमन्यदर्शनान्तरैः ।
प्राप्यते येन निर्वाणं सरागणाऽपि चेतसा ॥ "मुझे प्रिया का दर्शन होना चाहिए, फिर दूसरे दर्शनों से क्या प्रयोजन ? क्योंकि प्रिया दर्शन से सराग चित्त होने पर भी निर्वाण-सुख प्राप्त होता है।" .
बाला--अध्यात्म जगत् में बाल वे हैं जो अपने हिताहित से अज्ञ हों, जो हिंसादि पापकर्म करने की नादानी करके अपने ही विनाश को निमन्त्रण देते हों, जो बात-बात में रोष, द्वष, ईर्ष्या, मोह, कषाय आदि से उत्तेजित हो जाते हैं ।१६
१६ (क) जैन साहित्य का बृहत् इतिहास, भा० १, पृ० १४४
(ख) सूयगडंग सुत्त, मूलपाठ टिप्पण युतं, प्रस्तावना, पृ० १६