Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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चतुर्थ उद्ददेशक : गाथा २२५ से २२६
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( उववाइय) सूत्र में आठ माहन - परिव्राजकों में 'परासर' और 'दीवायण' इन दो परिव्राजकों (ऋषियों) के नामोल्लेख हैं ।
मोक्षप्राप्ति का कारण शीतलजलादि था या और कुछ ? - भ्रान्ति उत्पादक एवं बुद्धिवञ्चक अन्यतीर्थिक लोग मोक्ष के वास्तविक कारणों से अनभिज्ञ होते हैं, इसलिए वे प्रसिद्ध ऋषियों के नाम के साथ कच्चे पानी, पंचाग्नि आदि तप, हरी वनस्पति आदि के उपभोग को जोड़कर उसी को मोक्ष का कारण बताते हैं । वृत्तिकार कहते हैं कि वे परमार्थ से अज्ञ यह नहीं जानते कि वल्कलचीरी आदि जिन ऋषियों या तापसों को सिद्धि (मुक्ति) प्राप्त हुई थी, उन्हें किसी निमित्त से जातिस्मरण आदि ज्ञान उत्पन हुआ था, जिससे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक् चारित्र प्राप्त हुआ था, किन्तु सर्वविरति परिणामरूप भावलिंग के बिना केवल जीवोपमर्दक शीतजल-बीज - वनस्पति आदि के उपभोग से सर्वथा कर्मक्षय नहीं हो सकता । चूर्णिकार भी यही बात कहते हैं कि अज्ञलोग कहते हैं - इन प्रत्येकबुद्ध ऋषियों को वनवास में रहते हुए बीज, हरितवनस्पति आदि के उपभोग से केवलज्ञान उत्पन्न हो गया था, जैसे कि भरतचक्रवर्ती को शीशमहल में केवलज्ञान उत्पन्न हुआ था । वे कुतीर्थी यह नहीं जानते कि किस भाव में प्रवर्त्तमान व्यक्ति को केवलज्ञान होता है ? किस रत्नत्रय से सिद्धत्व प्राप्त होता है, इस सैद्धान्तिक तत्त्व को न जानते हुए वे विपरीत प्ररूपणा कर देते हैं । "
कैसे चारित्र से पतित या बुद्धिभ्रष्ट हो जाते हैं ? – ऐसे अज्ञानियों द्वारा महापुरुषों के नाम से फैलाई हुई गलत बातों को सुनकर अपरिपक्व बुद्धि या मन्दपरिणामी साधक चक्कर में आ जाते हैं, वे उन बातों को सत्य मान लतें हैं, प्रासुक जल पीने तथा स्नान न करने से घबराये हुए वे साधक पूर्वापर का विचार किये बिना झटपट शीतल जल, आदि का उपभोग करने लगते हैं, शिथिलाचार को सम्यक्आचार में परिगणित कराने के लिए पूर्वोक्त दुहाई देने लगते हैं कि जब ये प्रसिद्ध ऋषि सचित्त जल पीकर निरन्तर भोजी रहकर, एवं फल बीज वनस्पति ( कन्दमूल आदि) खाकर मुक्त हुए हैं. महापुरुष बने हैं, तो हम वैसा क्यों नहीं कर सकते ? जैसा कि २२८वीं सूत्रगाथा में कहा है- एते पुत्र सिद्धा इति मे समगुस्सुतं ।” इस प्रकार के हेत्वाभास ( कुतर्क) द्वारा शिथिल श्रमण साध्वाचार से भ्रष्ट हो जाते हैं । उनकी बुद्धि चकरा जाती है, वे किंकर्तव्यविमूढ़ होकर चारित्रभ्रष्ट या मार्गभ्रष्ट हो जाते हैं और अन्त में संसारसागर में डूब जाते हैं । यही बात शास्त्रकार ने २२५वीं सूत्रगाथा में स्पष्ट कह दी हैं - आहंसु महापुरिसा 'मन्दो विसीयती । "8
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(क) “दीवायण महारिसी । पारासरे..." - ( I ) तत्य खलु इमे अट्ठमाहण-परिव्वायग्गा भवंति - कण्हे य करकंडेय अंबडे य परासरे ।
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कण्हे दीवायणे चेव देवगुत्ते य नारए । ओववाइयसुत ं ।
महाभारते - परासरसुतः ( पाराशरः) श्रीमान् व्यासो वाक्य मुवाच ।" - शान्तिपर्व १२।३२७.२० (न) एतद्विषयक विशेष विवेचन 'पुरातत्त्व' ( मासिक पत्रिका) में प्रकाशित 'सूत्रकृतांग मां आवतां विशेष नामो '
शीर्षक लेख में उपलब्ध है ।
- संपादक
(क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक ९६ (ख) सूयगडंग चूर्णि पृ० १६
६ (क) जैन साहित्य का बृहत् इतिहास भा० १
(ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पृ० ४७३-४७४ के अनुसार