Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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२१०
जारमनीष
सूत्रकूतांग-तृतीय अध्ययन-उपसर्गपरिक्षा २१०. एवं समुट्ठिए भिक्खू वोसिज्जागारबंधणं ।
आरंभ तिरिय कटु अत्तत्ताए परिव्वए ॥७॥ . २०६. परन्तु जो पुरुष जगत्-प्रसिद्ध एवं शूरवीरों में अग्रगण्य हैं, वे युद्ध के समय पीछे(युद्ध के फल) की बात की कल्पना तक नहीं करते। (वे समझते हैं कि) मरण से बढ़कर और क्या हो सकता है ? २१०. इसी प्रकार गृहबन्धन का त्याग करके और आरम्भ को त्यागकर संयम पालन के लिए
त्मभाव की प्राप्ति के लिए संयम में पराक्रम करे । विवेचन-आत्मसंवेदन रुप उपसर्ग पर विजयी साधक कोन कैसे?-प्रस्तुत सूत्रगाथाद्वय में संग्राम में सच्चे वीर योद्धा की उपमा देकर आत्म-संवेदन रूप उपसर्ग पर विजयी साधक के स्वरूप, लक्ष्य और कर्तव्य का निरूपण किया गया है।
विश्वविख्यात वीर योद्धाओं की मनोवृत्ति-जो पुरुष संसार में प्रसिद्ध तथा वीरों में अग्रगण्य है, वे युद्ध के अवसर पर कायरों की तरह आगा-पीछा नहीं सोचते कि युद्ध में हार गये या मारे गये तो क्या होगा ? न ही उनके मन में युद्ध में पराजित होने पर पलायन का या गुप्तस्थान को पहले से टटोलने का विचार आता है और न वे दुर्गम स्थानों में छिपकर अपनी रक्षा के लिए पीछे की ओर झांकते हैं। बल्कि वे युद्ध के समय अग्रिम मोर्चे पर रहते है, युद्धक्षेत्र छोड़ कर भागने का उन्हें विचार तक नहीं होता। वे समझते हैं इस युद्ध में अधिक से अधिक हानि मृत्यु से बढ़कर और क्या हो सकती है ? वह मृत्यु हमारी दृष्टि में सदा स्थायी रहने वाली कीर्ति की अपेक्षा तुच्छ है। इसीलिए इस गाथा में कहा गया है-जे उ संगासकालंमि" "मरणं सिया।"
आत्मसंवेदनोपसर्ग-विजेता साधक की मनोवृत्ति-विश्व-विख्यात सुभटों की-सी ही मनोवृत्ति उपसर्ग विजयी संयमवीर की होनी चाहिए, इसे बताते हुए शास्त्रकार कहते हैं- "एवं समुट्ठिए....." अत्तत्ताए परिव्वए।" इसका तात्पर्य यह है कि विश्वविख्यात वीर सुभटों की तरह पराक्रमशाली साधु कषायों और इन्द्रिय विषयों रूपी शत्रुओं पर विजय पाने, परीषहों और उपसर्गों का सामना करमे, एवं जन्म-मरणचक्र का भेदन करने हेतु संयम भार को लेकर जब उद्यत-उत्थित हो जाता है, तब वह पीछे की ओर मुड़कर नहीं देखता कि मेरे घरवालों का क्या होगा? ये विविध भोगोपभोग के साधन न मिले तो क्या होगा? अथवा 'मैं संयम-पालन न कर सका या कभी संयमभ्रष्ट हो गया तो भविष्य में मेरा क्या होगा? उसके मन में ये दुर्विकल्प उठते ही नहीं। वह दृढ़ता पूर्वक यही चिन्तन करता है कि जब एक बार मैंने गार्हस्थ्यबन्धन को काटकर फेंक दिया है और आरम्भ-समारम्भों को तिलांजलि दे दी है, और संयमपालन के लिए कटिबद्ध हआ हूँ, तब वापस पीछे मुड़कर देखने और भविष्य की निरर्थक चिन्ता करने का मेरे मन में कोई विकल्प ही नहीं उठना चाहिए। मेरा प्रत्येक कदम वीर की तरह आगे की ओर होगा, पीछे की ओर नही। अधिक से अधिक होगा तो किसी प्रतिकल परीषह या उपसर्ग को सहने में प्राणों की बलि हो जायेगी। परन्तु सच्चे साधक के लिए तो 'समाधिमरण' सर्वश्रेष्ठ अवसर है, कर्मों को या जन्ममरण के बन्धनों को काटने का।
अत्तत्ताए परिधए-ऐसे संयमवीर साधक का यह मूलमन्त्र है। इसका अर्थ है-'आत्मत्व के लिए
४ सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक ८६