Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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प्रथम उद्देश : गाथा १७ से १०
क्षणिकवाद : दो रूपों में
१७. पंच खंधे वयंतेगे बाला उ खणजोइणो । अन्नो अणनो वाऽऽहु हेउयं च
अहेउयं ॥ १७ ॥
१८. पुढवी आऊ तेऊ य तहा वाउ य एकओ । चत्तारि धाउणो रूवं एवमाहंसु जाणगा ॥ १८ ॥
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१७. कई बाल (अज्ञानी) क्षणमात्र स्थिर रहने वाले पाँच स्कन्ध बताते हैं । वे (भूतों से ) भिन्न तथा अभिन्न, कारण से उत्पन्न (सहेतुक) और बिना कारण उत्पन्न ( अहेतुक ) ( आत्मा को नहीं मानतेनहीं कहते ।
१८. दूसरे (बौद्धों ने बताया कि पृथ्वी, जल, तेज और वायु ये चारों धातु के रूप हैं, ये (शरीर के रूप में) एकाकार हो जाते हैं, (तब इनकी जीव-संज्ञा होती है ) ।
विवेचन-क्षणमंगी पंच स्कन्धवाद : स्वरूप और विश्लेषण - १७वीं गाथा में पंचस्कन्धवादी कतिपय बौद्धों की क्षणिकवाद की मान्यता का प्रतिपादन किया गया है। मूल पाठ एवं वृत्ति के अनुसार पंचस्कन्धवाद क्षणिकवादी कुछ बौद्धों का मत है । विसुद्धिमग्ग सुत्तपिटकगत अंगुत्तरनिकाय आदि बौद्धग्रन्थों के अनुसार पाँच स्कन्ध निम्न हैं
१. रूपस्कन्ध, २ . वेदनास्कन्ध, ३. संज्ञास्कन्ध, ४. संस्कारस्कन्ध और ५. विज्ञानस्कन्ध |
इन्हीं पाँचों को उपादानस्कन्ध भी कहा जाता है । शीत आदि विविध रूपों में विकार प्राप्त होने के स्वभाव वाला जो धर्म है वह सब एक होकर रूपस्कन्ध बन जाता है । भूत और उपादान के भेद से रूपस्कन्ध दो प्रकार का होता है। सुख-दुःख, असुख और अदुःख रूप वेदन (अनुभव) करने के स्वभाव वाले धर्मं का एकत्रित होना वेदनास्कन्ध है । विभिन्न संज्ञाओं के कारण वस्तुविशेष को पहचानने के लक्षण वाला स्कन्ध संज्ञास्कन्ध है, पुण्य-पाप आदि धर्म- राशि के लक्षण वाला स्कन्ध संस्कारस्कन्ध कहलाता है । जो जानने के लक्षण वाला है, उस रूपविज्ञान, रसविज्ञान आदि विज्ञान समुदाय को विज्ञान स्कन्ध कहते हैं । ५७
इन पाँचों स्कन्धों से भिन्न या अभिन्न सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, ज्ञानादि का आधारभूत आत्मा नाम का कोई पदार्थ नहीं है । इन पंचस्कन्धों से भिन्न आत्मा का न तो प्रत्यक्ष अनुभव होता है, न ही
५७ (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक २५ के आधार पर
( ख ) I पंच खन्धा - रूपक्खन्धो, वेदनाक्खंधो, सञ्ञाक्खंधो, संखारक्खंधो, विञ्ञाणक्खंधो ति । तत्थ यं किचि सीतादि हि रूप्पन लक्खणं धम्मजातं, सव्वं तं एकतो कत्वा रूपक्खंधो ति वेदितव्वं । ..."
यं किंचि वेदयित लक्खणं.... वेदनाक्खंधो वेदितव्यो । यं किचि संजाननलक्खणं...संक्खंधो वेदितव्वो । - विसुद्धिमग्ग खन्धनिद्दस पृε३०६ II पञ्चिमे भिक्लवे, उपादानक्खंधा । कतमे पञ्च ? रूपुपादानक्खंधो, वेदनुपादानक्खंधो, सञ्नुपादानमखंधो, संड, खारूपादानक्लंधो, विवाणुपादानक्खंधो । इमे खो, भिक्खवे, पंचुपादानक्खंधा ।
- सुत्तपिटके अंगुत्तरनिकाय, पालि भा० ४ पृ० १६२