Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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प्रथम उद्देशक | गाथा १६८ से १६६
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इसी प्रकार उपसर्मों को सहन करने में कायर, अथवा उपसर्गों से अछूता नवदीक्षित साधक, जो उपसर्ग के साथ जूझने से पहले अपने आपको शूरवीर मानता था, प्रबल उपसर्गों से पराजित हो जाता है । वह दीन बन जाता है, अतएव उपसर्ग पर डटे रहने, और उसके सामने हार न मानने के लिए संयम का सतत अभ्यास आवश्यक है । जब तक संयम का सतत आचरण नहीं होगा तब तक साधक के लिए उपसर्ग - विजय अत्यन्त कठिन है । लूहं - अर्थात् रूक्ष - संयम । अष्टविध कर्म नहीं चिपकने ( राग रहित होने) के कारण संयम को रूक्ष कहा गया है । 3
धम्माण - का अर्थ वृत्तिकार के अनुसार - "दृढ़ः समर्थो धर्मो स्वभावः संग्रामाभंगरूपो यस्य स तथा तम् दृढ़धर्माणम्" जिसका स्वभाव संग्राम में पलायित न होने का दृढ़ है; वही । चूर्णिकार के अनुसार– “दढधन्नाणं" पाठान्तर है, अर्थ है - जिसका धनुष्य दृढ़ है । *
शीतोष्ण परीषह-रूप उपसर्ग के समय मन्द साधक की दशा
१६८. जदा हेमंतमासम्मि सीतं फुसति सवातगं ।
तत्थ मंदा विसीयंति रज्जहीणा व खत्तिया ॥ ४॥ १६६. पुट्ठे गिम्हाभितावेणं विमणे सुप्पिवासिए । तत्थ मंदा विसीयंति मच्छा अप्पोदए जहा ॥ ५ ॥
१६८. हेमन्त (ऋतु) के मास (मौसम) में जब शीत ( ठण्ड ) ( सभी अंगों को) स्पर्श करती है, तब मन्द पराक्रमी (मनोदुर्बल साधक) राज्यविहीन क्षत्रिय की तरह विषाद का अनुभव करते हैं ।
१६६. ग्रीष्म (ऋतु) के प्रचण्ड ताप (गर्मी) से स्पर्श पाया हुआ (साधक) उदास (अनमना - सा ) और पिपासाकुल ( हो जाता है।) उस ( भयंकर उष्ण परीषह) का उपसर्ग प्राप्त होने पर मन्द (शिथिल या मूढ़) साधक इस प्रकार विषाद अनुभव करते हैं, जैसे थोड़े-से जल में मछली ।
विवेचन - शीतोष्णपरिषह रूप उपसर्ग के समय मन्द साधक की मनोदशा — प्रस्तुत गाथाद्वय में हेमन्त ऋतु में शीत और ग्रीष्मऋतु में ताप - परीषह रूप उपसर्गों के समय मन्द साधक किस प्रकार विषाद का अनुभव करते हैं, इसे उपमा द्वारा समझाया गया है ।
जवा हेमन्समा सम्मि''''रज्जहीणा व खत्तिया' – इसका आशय यह है कि जब कभी हेमन्त ऋतु के पौषमाघ महीनों में ठण्डी- ठण्डी कलेजे को चीरने वाली बर्फीली हवाओं के साथ ठण्ड शरीर के सभी अंगों को स्पर्श करने लगती है, तब असह्यशीतस्पर्श से कई मन्द - अल्पपराक्रमी भारीकर्मी साधक इस प्रकार दुःखानुभव करते हैं, जिस प्रकार राज्यभ्रष्ट होने पर क्षत्रिय (शासक) विषाद का अनुभव करते हैं । तात्पर्य यह है - जैसे राज्यभ्रष्ट शासक मन में खेद खिन्न होता है कि लड़ाई भी लड़ी, इतने सैनिक भी
३ (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक ७ε
(ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या ४०५
४ सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक ७८-७९