Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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द्वितीय उद्देशक : गाथा १६६ से २०३
इस प्रकार का खुला आमन्त्रण पाने पर भी साधु के मन में संकोच होता है कि मुझे इन पदाथों का उपभोग करते देख नये बने हुए राजा आदि भक्तों के मन में कदाचित् अश्रद्धा-अप्रतिष्ठा का भाव पैदा हो, इस संकोच के निवारणार्थ साधु को आश्वस्त करते हुए वे कहते हैं-हे पूज्य ! आप निश्चिन्त रहें। इन चीजों के उपभोग से आपकी पूजा-प्रतिष्ठा में कोई कमी नहीं आएगी। हम आपकी पूजा-प्रतिष्ठा करते हैं। राजा या समाज में प्रतिष्ठित व्यक्ति सत्कार सम्मान करता है तो जनता तो अवश्य ही करेगी, क्योंकि साधारण जनता तो श्रेष्ठ कहलाने वाले व्यक्तियों का अनुसरण करती है।' इसी आशय से शास्त्रकार कहते हैं- वत्थगंध'आउसो पूजयामु तं :" साधु को पूजा-प्रतिष्ठा की ओर से आश्वस्त करने हेतु शास्त्रकार 'पूजयामु तं' वाक्य का दो गाथाओं में प्रयोग करते हैं।
चोथा रूप- कई साधनाशील साधक इन संयम विघातक भोगों का खुला उपभोग करके भिक्षुभाव से गृहवास में जाने से यों कतराते हैं कि ऐसा करने से हमारे यम-नियम आदि सब भंग हो जाएँगे, आज तक की-कराई संयम साधना चौपट हो जायगी। अतः सुविहित एवं संकोचशील साधु को आश्वस्त करने एवं गृहवास में फंसाने की दृष्टि से वे कहते हैं-हे सुव्रतधारिन् महामुने ! आपने मुनिभाव में महाव्रत आदि यम-नियमों का पालन किया है, गृहवास में जाने पर वे उसी तरह बरकरार रहेंगे, उनका फल कभी समाप्त नहीं होगा, या गृहवास में भी वे पूर्ववत् पाले जा सकेंगे, उनका फल भी पूर्ववत् मिलता रहेगा, क्योंकि स्वकृत पुण्य-पाप के फल का कभी नाश नहीं होता। अतः नियमभंग के भय से सुखोपभोग करने में संकोच न कीजिए। इसी आशय से शास्त्रकार कहते हैं-"जो तुमे नियमो चिण्णो......"सव्वो सविज्जए तहा ।'
पांचवाँ रूप-इतना आश्वासन देने के बावजूद भी सुसंयमी साधु का मन सहसा यह सोचकर गृहवास में जाने को तैयार नहीं होता कि गृहस्थावास में जाने से मुझे पूर्व स्वीकृत यम-नियमों को भंग करने का महादोष लगेगा, अतः वे फिर दूसरा पासा फेंकते हैं- “साधकवर ! आपने बहुत वर्षों तक संयम में रमण कर लिया, यम-नियमों से युक्त होकर विहार कर लिया, अब आप अनायास प्राप्त उन भोगों को निलिप्त भाव से भोगगे तो आपको कोई भी दोष नहीं लगेगा। इसी आशय को शास्त्रकार व्यक्त करते हैं-'चिरं दूइज्जमाणस्स....."कुतो तव ?
उपसर्ग के प्रभाव-ये और इस प्रकार के अन्य अनेक भोग निमन्त्रणरूप उपसग के रूप हो सकते हैं। इस प्रकार के अनुकूल उपसर्ग हैं, जिन पर विजय करने में कच्चा साधक असमर्थ रहता है। एक बार भोग बुद्धि साधु के हृदय में उत्पन्न हुई कि फिर पतन का दौर शुरू हो जाता है, फिर वह उत्तरोत्तर फिसलता ही चला जाता है। जैसे लोग चावलों के दाने डालकर सूअर को फंसा लेते हैं, वैसे ही भोगवृत्ति-परायण लोग भोग सामग्री के टुकड़े डालकर साधु को भोगों के जाल में या गृहवास में फंसा लेते हैं । यह इस उपसर्ग का प्रथम प्रभाव हैं।
दूसरा प्रभाव-यह होता है कि जो साधक पूर्वोक्त भोग निमन्त्रण के प्रलोभन में फंसकर एक बार संयम में शिथिल हो जाता है, भोगपरायण बन जाता है, वह साधुचर्या के लिए प्रेरित किये जा पर भी उसे क्रियान्वित नहीं कर पाता । संयम का नाम उसे नहीं सुहाता।
तीसरा प्रभाव-वह फिर संयम पालनपूर्वक जीवनयापन करने में असमर्थ हो जाता है। उसे रातदिन भोग्य सामग्री पाने की धुन लगी रहती है।