Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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प्रथम उद्देशक गाथा : १७८ से १८०
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केशों को जड़ से उखाड़ा जाता है, उस समय कई बार रक्त बह जाता है, कच्चा और कायर साधक घबरा जाता है; मन ही मन संतप्त होता रहता है । इसलिए कहा है- "संतत्ता केसलोएणं ।"
ब्रह्मचर्य पालन भी कम कठिन उपसर्ग नहीं - जो साधक कच्ची उम्र का होता है, उसे कामोन्माद का पूरा अनुभव नहीं होता। इसलिए कह देता है - कोई कठिन नहीं है मेरे लिए ब्रह्मचर्य पालन ! परन्तु मनरूपी समुद्र में जब काम का ज्वार आता है, तब वह हार खा जाता है, मन में पूर्वभुक्त भोग या गृहस्थ लोगों के दृष्ट भोगों का स्मरण, और उससे मन में रह रह कर उठने वाली भोगेच्छा की प्रबल तरंगों को रोक पाना उसके लिए बड़ा कठिन होता है । वह उस समय घोर पीड़ा महसूस करता है, जैसे जाल में पड़ी हुई मछली उसमें से निकलने का मार्ग न पाकर वहीं छटपटाती रहती है, और मर जाती है, वैसे ही साधु संघ में प्रविष्ट साधु भी काम से पराजित होकर भोगों को पाने के लिए छटपटाते रहते हैं और अन्त में संयमी जीवन से भ्रष्ट हो जाते हैं । इसीलिए कहा है- 'बंभचेरपराइया' मच्छा पविट्ठा केयणे - का अर्थ - केतन यानी मन्त्स्यबन्धन में प्रविष्ट - फंसी हुई मछलियाँ । 'विद्या' पाठान्तर भी है । उसका अर्थ होता है - ( कांटे) से बींधी हुई मछलियाँ जैसे बन्धन में पड़ी तड़फती हैं । १७
वध-बंध- परीषह के रुप में उपसर्ग—
१७८. आत दंडसमायारा मिच्छासंठियभावणा । हरिसप्पदोसमावण्णा केयि लूसंतिणारिया ॥ १४ ॥ १७६. अप्पेगे पलियंतंसि चारि चोरोत्ति सुव्वयं ।
बंधंति भिक्खुयं बाला कसायवयणेहि य ॥ १५ ॥
१८०.
तत्थ दंडेण संवीते मुट्टिणा अदु फलेण वा । णातीणं सरती बाले इत्थी वा कुद्धगामिणी ॥ १६ ॥
१७८. जिससे आत्मा दण्डित होता है, ऐसे ( कल्याण - भ्रष्ट ) आचार वाले, जिनकी भावना (चित्तवृत्ति) मिथ्या बातों (आग्रहों) में जमी हुई है, और जो राग ( - हर्ष) और प्रद्वेष से युक्त हैं, ऐसे कई अनार्य पुरुष साधु को पीड़ा देते हैं ।
१७९. कई अज्ञानी लोग अनार्यदेश की सीमा पर विचरते हुए सुव्रती साधु यह गुप्तचर है, यह चोर है, इस प्रकार ( के सन्देह में पकड़ कर ) ( रस्सी आदि में) बांध देते हैं और कषाययुक्त ( — कटु ) वचन कहकर (उसे हैरान करते हैं ।)
१७ (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक ८२ (ख) सूयगडंग चूर्णि ( मू० पा० टिप्पण) पू० ३२