Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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सूत्रकृतांग-द्वितोय अध्ययन-वैतालीय कठिन शब्दों को व्याख्या-अन्नयरंमि संजमे-सामायिक, छेदोपस्थानीय, परिहारविर सम्पराय और यथाख्यात। इन पांचों में से किसी एक संयम में या संयम में ६ प्रकार का तारतम्य होने से ६ स्थानों में से किसी भी संयम स्थान में स्थित होकर । समणे सम, श्रम (तप) एवं शम करने वाला या सममना। आवकहा=यावत्कथा-जहाँ तक देवदत्त, यज्ञदत्त इस प्रकार के नाम की कथा चर्चा हो, वहाँ तक, यानी जीवन की समाप्ति तक । समाहिए=सम्यक रूप से ज्ञानादि में आत्मा को स्थापित करने वाला अथवा समाधिभाव-शुभ अध्यवसाय से युक्त । दूरं अति दूर होने के कारण, दूर का अर्थ मोक्ष किया गया है। अथवा सूदूर अतीत एवं सूदूर भविष्य काल को भी 'दूरं' कहा जा सकता है। धम्मजीवों के उच्चनीच स्थान गति रूप अतीत-अनागत धर्म यानी स्वभाव को। 'अविहष्ण' =प्राणों से वियुक्त किये जाने पर भी। समयंमि रीयइसमता धर्म में या संयम में विचरण करे। पण्णसमत्ते=प्रज्ञा में समाप्त पूर्ण अथवा पटु प्रज्ञावाला । वृत्तिकार द्वारा सूचित पाठान्तर है-पेण्हसमत्थे= इसके दो अर्थ किये गये हैंप्रश्नों का उत्तर देने में समर्थ अथवा जिसके प्रश्न (संशय) समाप्त हो गये हों वह संशयातीत-समाप्त प्रश्न । 'समयाधम्ममुदाहरे' =समताधर्म का कथन-प्ररूपण करे अथवा समता धर्म का उदाहरण-आदर्श प्रस्तुत स्थापित करे । चर्णिकार-समिया धम्ममुदाहरेज्ज=इस प्रकार का पाठान्तर स्वीकार करके व्याख्या करते हैं-समिता णाम सम्मं धम्म उदाहरेज्ज= अर्थात् समिता यानी सम्यक् धर्म का उपदेश करे। सुहुमेउ सदा अलसए=सूक्ष्म अर्थात् संयम में सदा अविराधक रहे। बहुजण जमणमि=बहुत-से लोगों द्वारा नमस्करणीय धर्म में । अणाविले=अनाकुल-अकलुष हृदय की तरह क्रोधादि से अक्षब्ध अनाकुल, अथवा चणिकार के अनुसार- ऊणाइल इति निरुवाश्रवः अणातुरो न म्लायति धर्म कथयन =अर्थात् अनाविल का अर्थ आश्रवों को निरोध कर लिया है, जो अनातुर होगा, वही क्षमादि रूप धर्म का धर्मोपदेश देता हुआ नहीं घबरायेगा। समयं उवेहिया=समता माध्यस्थ्य वृत्ति या आत्मौपम्य भाव धारण करके अथवा पाठान्तर है 'समोहिया' उसके अनुसार अर्थ होता है-स्वयम्-आत्मरूप जान-देखकर । अथवा प्रत्येक प्राणी में दुःख । की अप्रियता एवं सुख की प्रियता समान भाव से जानकर । मौणपदं मौनीन्द्र-तीर्थंकर के पद-पथ= संयम में अथवा आचारांग के अनुसार साम्य या सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय रूप मौन-पद में । परिग्रह त्याग-प्रेरणा
११६. धम्मस्स य पारए मुणो, आरंभस्स य अंतए ठिए।
सोयंति य णं ममाइणो, नो य लभंति णियं परिग्गहं ॥॥ १२०. इहलोग दुहावहं विऊ, परलोगे य दुहं दुहावहं ।
विद्धसणधम्ममेव तं, इति विज्जं कोऽगारमावसे ॥१०॥
५ (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक ६१ से ६३
(ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या ३२८ से ३३५ पृष्ठ तक (ग) सूयगडंग चूणि (जम्बूविजयजी सम्पादित टिप्पण) प० २१
(अ) पण्हसमत्थे-समाप्तप्रश्न इत्यर्थः । (ब) सदाजतेत्ति-ज्ञानवान् अप्रमत्तश्च । (स) अणाइले हरदेत्ति-पद्म महापद्मादयो वा हृदा अनाकुलाः, क्रोधादीहि वा अणाइलो, अथवा अणाइल
इति निरुद्धाश्रवः अनातुरो, न म्लायति धर्म कथयन् ।"