Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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द्वितीय उद्देशक : गाथा १२६
१४५ शीत-उष्ण, दंश-मशक आदि परीषहों का कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। उसके लिए ये भयंकर परीषह या उपसर्ग सह्य हो जायेंगे।
कठिन शब्दों की व्याख्या-ठाणं= कायोत्सर्ग, या एक स्थान में स्थित होना। उवधाणवीरिए= तपस्या में पराक्रमी। अज्झप्पसंवुडे=आत्मा में लीन अथवा मनोगुप्ति से युक्त । णो पोहे=न बन्द करे, णाऽवंगुणे= नहीं खोले । ण समुच्छे = इसके दो अर्थ फलित होते हैं-वृत्तिकार ने व्याख्या की है-न समुच्छिन्द्यात् तृणानि कचवरं च प्रमार्जनेन नापनयेत्- अर्थात्-घास-तिनके एवं कचरा झाड़-बुहार कर निकालेहटाए नहीं । चरगा डांस, मच्छर आदि काटने वाले जीव । समविसमाइं=अनुकूल-प्रतिकूल शयन, आसन आदि । मुणी-यथार्थ संस्कार का वेत्ता-मननकर्ता । महामुणी- जिनकल्पिक मुनि या उच्च अभिग्रहधारी साधक । समाहिए=वृत्तिकार के अनुसार-'विचरण-निवास, आसन, कायोत्सर्ग, शयन आदि विविध अवस्थाओं में राग-द्वष रहित होने से ही समाहित-समाधियुक्त होता है। चूर्णिकार के अनुसार- 'एकाकी विचरण समाहित अर्थात्-आचार्य, गुरु आदि से अनुमत होकर करे।' तिविहाऽधिवासिया तीनों प्रकार के उपसर्गों को सम्यक् सहन करे । चूर्णिकार 'तिविहावि सेविया' पाठान्तर मानते हैं । अब्भत्थमुर्वेति भेरवा= भयानक परिषह-उपसर्ग (उपद्रव) आदि अभ्यस्त-आसेवित या सुसह हो जाते हैं। उवणीततरस्स=जिस
अपनी आत्मा ज्ञानादि के निकट पहुँचा दी है, उस उपनीततर साधु का। धम्मट्रियस्स=वत्तिकार के अनुसार-धर्म में स्थित साधु के, चूर्णिकार के अनुसार -जिसका धर्म से ही अर्थ-प्रयोजन है, वह धर्मार्थी । असमाही उ तहागयस्स वि-शास्त्रोक्त आचारपालक साधु का भी राजा आदि के संसर्ग से असमाधि अर्थात्-अपध्यान ही सम्भव है। उसिणोदगतत्तभोइणो-तीन बार उकाला आये हुए गर्म जल का सेवन करने वाला अथवा उष्णजल को ठंडा न करके गर्म-गर्म ही सेवन करने वाला। हीमतो= असंयम के प्रति लज्जावान् है।'
____ उवणीयतरस्स.. ........."'अप्पाणं भए ण बंसए=इसी गाथा से मिलती-जुलती गाथा बौद्ध-धर्म ग्रन्थ सुत्तपिटक में मिलती है। अधिकरण-विवर्जना
१२६ अहिगरणकडस्स भिक्खुणो, वयमाणस्स पसज्झ दारुणं । ___ अट्ठे परिहायती बहू, अहिगरणं न करेज्ज पंडिए ॥ १६ ॥
१७ (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक ६४-६५ (ख) अब्भत्थमवेंति भेरवा=अभ्यस्ता नाम आसेविता""नीराजितवारणस्यऽभैरवा एव भवन्ति ।
-सूत्रकृ० चूणि (मू० पा० टि०) पृ० २३ १८ (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक ६४-६५ (ख) सूत्रकृतांग चूणि (मू० पा० टिप्पण) पृ० २२-२३
तुलना-पतिलीनचरस्स भिक्खुनो भजमानस्स विवित्तमासनं । सामाग्गियमाह तस्स तं यो अत्तानं भवने न दस्सये।
-सुत्तपिटके खुद्दकनिकाये सुत्तनिपाते अट्ठकवग्गे पृ० ३६४