Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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तृतीय उद्देशक : गाथा १५३ से १५४ अष्टदर्शी-अर्वाग्दी -जो सामने निकटवर्ती-प्रत्यक्ष है, उसे ही देखने वाला कहते हैं। उसका सम्बोधन में अदृष्टदर्शिन् रूप होता है।
(५) अदष्ट असर्वज्ञ-असर्वदर्शी को भी कहते हैं, इस दृष्टि से अदृष्टदर्शन का अर्थ हुआ-जो अदृष्ट (असर्वदर्शी) के दर्शन वाला है। जो भी हो, अपश्यदर्शन या अदृष्ट दर्शी भावतः अन्ध होने के कारण सम्यग्दर्शन युक्त नहीं होता । अतः उसे सम्बोधन करते हुए परमहितैषी शास्त्रकार कहते हैं- "दक्खवाहियं सद्दहसु' इसका भावार्थ यह है कि तुम कब तक सम्यग्दृष्टि विहीन रहोगे ? सम्यग्दर्शन सम्पन्न बनने के लिए सर्वज्ञ सर्वदर्शी द्वारा कथित तत्त्वों या सिद्धान्तों या आगमों पर श्रद्धा करो। एक प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानने से समस्त व्यवहार का लोप हो जाने से मनुष्य बहुत-सी बातों में अप्रामाणिक एवं नास्तिक बन जाता है, फिर पुण्य-पाप स्वर्ग-नरक, कर्तव्य-अकर्तव्य, कर्म-अकर्म को नहीं मानने पर उसका सारा ही बहमल्य जीवन (सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रयरूप) धर्म से विहीन हो जाता है। यह कितनी बडी हानि है। इसीलिए इस गाथा के उत्तरार्द्ध में कहा गया है-'हंदिह सुनिरुद्धदसणे"कम्मुणा' सम्यग्दर्शन प्राप्ति का अवसर खो देने से अपने पूर्वकृत मोहनीय कर्म के कारण मनुष्य की सम्यग्दर्शन पूर्वक ज्ञानदृष्टि बन्द हो जाती है ।१६
दुक्खी मोहे पुणो पुणो-इस पंक्ति में शास्त्रकार के दो आशय छिपे हैं-पहला आशय यह है कि सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान के अभाव में अज्ञान, अन्धविश्वास और मिथ्यात्व के कारण मनष्य पाँच तरह से दुःखी हो जाता है-(१) हिताहित, कर्तव्याकर्तव्य, श्रेय-प्रय, हेय-उपादेय का भान भूल जाने, से, धर्म-विरुद्ध कार्य करके, (२) वस्तू-तत्त्व का यथार्थ ज्ञान न होने से इष्ट वियोग-अनिष्ट संयोग में आर्तध्यान या चिन्ता करके; (३) परम हितैषी या आप्त वीतराग सर्वज्ञ सिद्धान्त या दर्शन पर विश्वास न करने से; तथा (४) अज्ञानवश मान-अपमान, निन्दा प्रशंसा, लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, जीवन-मरण आदि द्वन्द्वों में समभाव न होने से। (५) मिथ्यात्वादि के कारण भयंकर पाप कर्मबन्ध हो जाने से बारबार कुगतियों में जन्म-मरणादि करके।
शास्त्रीय परिभाषा में उदयावस्था को प्राप्त असातावेदनीय को या असातावेदनीय के कारण को दुःख कहते हैं, अथवा जो प्राणी को बुरा (प्रतिकूल) लगता है, सुहाता नहीं. उसे भो दुःख कहते हैं। दुःख जिसको हो रहा हो, उसे दुःखी कहते हैं। वही असातावेदनीय कर्म जब उदय में आता है, तब मूढजीव ऐसे दुष्कर्म करता है, जिससे वह बार-बार दुःखी होता है।
दूसरा आशय है-दुःखी मनुष्य पुनः-पुनः मोहग्रस्त विवेकमूढ़ हो जाता है। उपयुक्त छः प्रकारों में से किसी भी प्रकार से दुःखी मानव अपनी बुद्धि पर मिथ्यात्व और अज्ञान का पर्दा पड़ जाने से सही सोच नहीं सकता, वास्तविक निर्णय नहीं कर सकता, तत्त्व पर दढ श्रद्धा नहीं कर सकता. सर्वज्ञोक्त वचनों पर उसका विश्वास नहीं जम सकता; फलतः वह बार-बार कुकृत्य करके विपरीत चिन्तन करके मूढ़ या मोहग्रस्त होता रहता है । अथवा मोहनीय कर्मबन्धन करके फिर चतुर्गतिक रूप भयंकर दुःखकारी अनन्त संसाराटवी में चक्कर काटता रहता है।
१६ सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक ७३ के आधार पर २० सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक ७३ के आधार पर