Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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सूत्रकृतांग : द्वितीय अध्ययन-बेतालीय बोधिदुर्लभता की चेतावनी
१६१. इणमेव खणं वियाणिया, णो सुलभं बोहि च आहियं ।
एवं सहिएऽहिपासए, आह जिणे इणमेव सेसगा ॥१६॥
१६१. ज्ञानादि सम्पन्न या स्वहितैषी मुनि इस प्रकार विचार (या पर्यालोचन) करे कि यही क्षण (बोधि प्राप्ति का) अवसर है, बोधि (सम्यग्दर्शन या सद्बोध की प्राप्ति) सुलभ नहीं है। ऐसा जिन-रागद्वेष विजेता (तीर्थंकर ऋषभदेव) ने और शेष तीर्थंकरों ने (भी) कहा है।
विवेचन-बोधिदुर्लभता की चेतावनी-इस गाथा में शास्त्रकार वर्तमान क्षण का महत्त्व बताकर चेतावनी देते हैं कि बोधि दुर्लभ है। उत्तरार्द्ध में इस तथ्य की पुष्टि के लिए-समस्त राग-द्वष-विजेता तीर्थंकरों की साक्षी देते हैं।
इणमेव खणं-इस वाक्य में 'इणं' (इदं) शब्द प्रत्यक्ष और समीप का और 'खणं' अवसर अर्थ का बोधक है। 'एव' शब्द निश्चय अर्थ में है। शास्त्रकार के आशय को खोलते हुए वृत्तिकार कहते हैं-मोक्ष साधना के लिए यही क्षेत्र और यही काल, तथा यही द्रव्य और यही भाव श्रेष्ठ अवसर है।
द्रव्यतः श्रेष्ठ अवसर-जंगम होना, पंचेन्द्रिय होना, उत्तमकुलोत्पत्ति तथा मनुष्य जन्म प्राप्ति हैक्षेत्रतः श्रेष्ठ अवसर है-साढे पच्चीस जनपद रूप आर्यदेश प्राप्त होना । कालतः घोष्ठ अवसर है-अवसर्पिणी काल का चतुर्थ आदि आरा तथा वर्तमान काल धर्म प्राप्ति के योग्य है। भावतः श्रेष्ठ अवसर है-सम्यकप श्रद्धान एवं चारित्रावरणीयं कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न सर्वविरति स्वीकार करने में उत्साह रूप भाव अनुकूलता।
सर्वज्ञोक्त (शास्त्रोक्त) कथन से ऐसा क्षण (अवसर) प्राप्त होने पर भी जो जीव धर्माचरण या मोक्षमार्ग की साधना नहीं करेगा उसे फिर बोधि प्राप्त करना सुलभ नहीं होगा, यही इस गाथा का आशय है।
इस प्ररणा सूत्र के द्वारा साधक को गम्भीर चेतावनी शास्त्रकार ने दे दी है-'एवं सहिएऽहियासए' इस प्रकार (पूर्वोक्त कथन को जानकर) ज्ञानादि सहित या स्वहितार्थी साधक को अपनी आत्मा में (भीतर) झांकना चाहिए। इस चेतावनी के रहस्य को खोलने के लिए वृत्तिकार एक गाथा प्रस्तुत करते हैं
लद्धलियं बोहिं, अकरें तो अणागयं च पत्तो । अन्न दाई बोहिं, लम्भिसि कयरेण मोल्लेणं?"
३६ (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पृ०७५ के आधार पर
(ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पृ० ३९५ के आधार पर (ग) तुलना-खणं जाणाहि पंडिए'-आचारांग सूत्र १, अ०२ उ०२ सू०६८०४४