Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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सूत्रकृतांग-द्वितीय अध्ययन-वैतालीय
संपसारए-वृत्तिकार के अनुसार-वर्षा आदि के लिए आरम्भजनक या आरम्भोत्तेजक कथाविस्तारक सम्प्रसारक है। आचारांग चूणि के अनुसार-सम्प्रसारक का अर्थ मिथ्या सम्मति देने वाला है। वास्तव में सम्प्रसारक वह है, जो वर्षा, धन-प्राप्ति, रोग-निवारण आदि के लिए आरम्भ-समारम्भजनक उपाय बताये । आचारांगवृत्ति में सम्प्रसारण का अर्थ किया गया है-स्त्रियों के सम्बन्ध में एकान्त में पर्यालोचन करना। मामए=वृत्तिकार के अनुसार- 'यह मेरा है', मैं इसका स्वामी हूँ, इस प्रकार का परिग्रहाग्रही मामक है । आचारांग चूर्णि के अनुसार-गृहस्थ के घर में जाकर जो यह कहता है कि मेरी पत्नी ऐसी थी, मेरी भौजाई या मेरी बहन ऐसी थी, इस प्रकार जो मेरी-मेरी करता है, वह मामक है।' इस प्रकार ममत्व करने से उसके वियोग में या न मिलने पर दुःख होगा, उसकी रक्षा की चिन्ता बढ़ेगी, उसके चुराये जाने या नष्ट होने पर भी आर्तध्यान होगा। ऐसा साधु व्यर्थ की आफत मोल ले लेता है।
कयकिरिए=वृत्तिकार के अनुसार-जिसने अच्छी तरह संयमानुष्ठान रूप क्रिया की है, वह कृतक्रिय है । परन्तु चूर्णिकार के अनुसार इसका अर्थ है जो दूसरों के द्वारा किये हुए कर्म के विषय में पूछने या न पूछने पर अच्छा या बुरा बताता है, वह कृतक्रिय है । आचारांगवृत्ति के अनुसार इसका अर्थ हैजिसने शृगारादि या मण्डनादि क्रिया की है, वह कृतक्रिय है।२६
छणं=छन्न का अर्थ है गुप्त क्योंकि उसमें अपने अभिप्राय को छिपाया जाता है । पसंस=जिसकी सब लोग प्रशंसा करते हैं. जिसे आदर देते हैं, उसे प्रशंसा यानी लोभ कहते हैं। उक्कोस = जो नीच प्रकृति वाले व्यक्ति को जाति आदि मदस्थानों द्वारा मदमत्त बना देता है, उसे उत्कर्ष-मान कहते हैं।
पगासं=जो अन्तर में स्थित होते हुए भी मुख आदि के विकारों से प्रकट हो जाता है, उसे प्रकाशक्रोध कहते हैं।
तेसि सुविवेगमाहिते= इसके दो अर्थ वृत्तिकार ने किये हैं-(१) उन कषायों का सम्यक् विवेक परित्याग आहित-उत्पन्न किया है, अथवा (२) उन्हीं सत्पुरुषों का सुविवेक प्रसिद्ध हुआ है। जेहि सुझोसितं घुयं जिससे कर्मों का धूनन-क्षपण किया जाए, उसे धुत कहते हैं, वह है-ज्ञानादिरत्नत्रय या संयम अथवा ज्ञानादि या संयम जिनके द्वारा भलीभाँति सेवित-अभ्यस्त हैं, उन्हें सुजोषितं' कहते हैं। सहिए के भी संस्कृत में तीन अर्थ होते है-(१) जो हित सहित हो, वह सहित है, (२) ज्ञानादि से युक्त-सहित, (३) 'सहिए' का संस्कृत रूप=स्वहित मानने पर अर्थ होता है-जो सदनुष्ठान के कारण आत्मा का हितैषी हो। महंतरं सब धर्मों से महान अन्तर रखने वाले धर्म-विशेष को अथवा कर्म के अन्तर को।
२६ देखिए टिप्पण २८; पृष्ठ १५३ पर ३० (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पनांक ६६
(ख) सूत्रकृतांग चूणि (मूल पाठ टिप्पण) पृष्ठ २५ ३१ (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक ६९-७०
"सह हितेन वर्तत इति सहितः, सहितो युक्तो वा ज्ञानादिभिः, स्वहितः आत्महितो वा सदनुष्ठानं प्रवृत्तः ।