Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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तृतीय उद्देशक : गाथा १४४ से १५० द्वय में बताया गया है। इसका तात्पर्य यह है कि काम-भोगों के चक्कर में पड़ने वाला साधक इस भ्रम में न रहे कि मैं कुछ दिनों बाद ही जब चाहे तब इसे छोड़ दूंगा, बल्कि एक बार काम-भोगों की चाट लग जाने पर शास्त्र चाहे कितनी ही प्रेरणा देते रहें, गुरुजन आदि चाहे जितनी शिक्षाएँ दें, उसे फटकारें तो भी वह चाहता हुआ भी काम-भोगों की लालसा को छोड़ नहीं सकेगा।
काम-भोगों के त्याग के ठोस उपाय-दो ही उपाय है कामभोगों की आसक्ति से छुटने के-(१) कामी काम-भोगों की कामना ही न करे, (२) प्राप्त कामभोगों को अप्राप्त के समान समझे, उनसे बिलकुल उदासीन रहे। कामी कामे ण"अली कण्हई।" इस पंक्ति का आशय यह है कि अगर कोई साधक अपने पूर्व (गृहस्थ) जीवन में कदाचित् काम से अतृप्त रहा हो तो उसे काम-सेवन के दुष्परिणामों पर विचार करके साधु-जीवन में वज्रस्वामी या जम्बूस्वामी की तरह मन में कामभोगों की जरा भी कामना-वासना न रखनी चाहिए। स्थूलभद्र एवं क्षुल्लककुमार की तरह किसी भी निमित्त से प्रतिबद्ध साधक कदाचित् पूर्व जीवन में कामी रहा हो, तो उसे पूर्वभुक्त कामभोगों का कदापि स्मरण नहीं करना चाहिए, और कदाचित् कोई इन्द्रिय-विषय (काम) प्राप्त भी हो जाये तो नहीं मिले के समान जानकर उसके प्रति निरपेक्ष, निःस्पृह एवं उदासीन रहना चाहिए।"
__काम-त्याग क्यों ?–साधु को काम-त्याग क्यों करना चाहिए ? इसके लिए शास्त्रकार गाथाद्वय द्वारा दो प्रबल युक्तियों से काम-त्याग की अनिवार्यता समझाते हैं-(१) मृत्यु के बाद अगले जन्म में दुर्गति न हो, वहां की भयंकर यातनाएँ सहनी न पड़े, वहाँ असंयमी की तरह रोना-पीटना न पड़े। (२) इसी जन्म में देखो न, सौ वर्ष की आयु वाला मानव जवानी में ही चल बसता है, अतः इस अल्पकालिक जीवन में अविवेकी मानव की भाँति कामभोग में मूच्छित हो जाना ठीक नहीं है।
'मा पच्छा असाधुता भवे""परिदेवती बहु' एवं इह जीवियमेव पासहा "कामेसु मुच्छिया ।" इन दोनों गाथाओं द्वारा साधक को कामभोगों के त्याग की प्रेरणा देने के पीछे पहली युक्ति यह है कि कामभोगों में जो भ्रमवश सुख मानते हैं, वे उनके भावी दुष्परिणामों पर विचार करें कि क्षणिक कामसुख कितने भयंकर चिरंकालीन दुःख लाता है, जिन्हें मनुष्य को रो-रोकर भोगना पड़ता है। कामभोगों को शास्त्रों में किंपाकफल की उपमा देकर समझाया है कि किंपाकफल जैसे दिखने में सुन्दर, खाने में मधुर एवं सुगन्ध सुरस से युक्ति होता है; परन्तु उसके खाने पर परिणाम मृत्यु रूप में आता है, वैसे ही ये कामभोग आपात रमणीय, उपभोग करने में मधुर एवं सुहावने लगते हैं, परन्तु इनका परिणाम दुर्गति गमन अवश्यम्भावी है, जहाँ नाना प्रकार की यातनाएँ सहनी पड़ती हैं। इसीलिए उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है
११ (क) चूर्णिकार १४७ वीं सूत्रगाथा-'से अंतसो."विसीयति' का पाठान्तर-से अंतए अप्पथामए णातिचए अवसे
विसीदति' मानकर कहा है-'से अंतए-अन्त्यायामपि अवस्थायां अन्तश: णातिचए-ण सक्केति, अवसे विसीदति एव । सोवि संयमादि निरुद्यमः ।' अर्थात-वह(मरियल बैल) अन्तिम अवस्था में भी अल्प सामर्थ्य होने से बोझ नहीं ढो सकता, न विषम मार्ग में चल सकता है, अतः विवश होकर दुःख पाता है। इसी
प्रकार साधु भी संयमादि में निरुद्यम हो जाता है। -सूत्रकृतांग चूणि (मूल पाठ टिप्पण) पृ० २७ (ख) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पृ०७१ के आधार पर