Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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सूत्रकृतांग : द्वितीय अध्ययन - वेतालीय
मुक्ति) की ओर गति - प्रगति करने के बजाय दीर्घकाल या महाकाल तक संसार सागर में ही भटकता रहता है, अतः मुनि चाहे कितना ही क्रियाकाण्डी हो, आचारवान् हो, विशिष्ट कुल जाति में उत्पन्न हो, शास्त्रज्ञ हो, तपस्वी हो अथवा उच्च पदाधिकारी आदि हो, उसे मदावेश में किसी की निन्दा या तिरस्कार आदि नहीं करना चाहिए। दूसरों के दोष-दर्शन में पड़कर अपने आत्म-कल्याण के अमूल्य अवसर को खोना तथा पापपुंज इकट्ठा करके अनन्त संसार परिभ्रमण करना है । यही इस गाथा का आशय है । "
उत्कर्ष और अपकर्ष के समय सम रहे - एक साधु अपनी भूतपूर्व गृहस्थावस्था में चक्रवर्ती राजा, मन्त्री या उच्च प्रभुत्व सम्पन्न पदाधिकारी था । दूसरा एक व्यक्ति उसके यहाँ पहले नौकरी करता था, अथवा वह उसके नौकर का नौकर था, किन्तु प्रबल पुण्योदयवश वह संसार से विरक्त होकर मुनि बन गया और उसका मालिक या ऊपरी अधिकारी कुछ वर्षों बाद मुनि बनता है । अब वह अपनी पूर्व जाति कुल आदि की उच्चता के मद में कुसंस्कारवश अपने से पूर्व दीक्षित (अपने भूतपूर्वं दास) के चरणों में वन्दननमन करने में लज्जा करता है, कतराता है, अपनी हीनता महसूस करता है, यह ठीक नहीं है । इसीलिए सूत्र गाथा ११३ में कहा गया है- "जं यावि अणायगे सिया णो लज्जे ।" इस गाथा का यह आशय भी हो सकता है - जो पहले किसी प्रभुत्वसम्पत्र व्यक्ति के नौकर का नौकर था, वह पहले मुनि-पदारूढ़ हो जाने पर अपने भूतपूर्व प्रभुत्व सम्पन्न, किन्तु बाद में दीक्षित साधु द्वारा वन्दना किये जाने पर जरा भी लज्जित न हो, अपने में हीन भावना न लाये अपने को नीचा न माने ।
'समयं सयाचरे' - इसीलिए अन्त में, दोनों कोटि के साधकों को विवेक सूत्र दिया गया है कि वे दोनों सदैव समत्व में विचरण करे । 'मुनि-पद' समता का मार्ग है, इसलिए वह कभी हीन तो हो ह नहीं सकता। वह तो सर्वदा, सर्वत्र विश्ववन्द्य पद हैं, उसे प्राप्त कर लेने के बाद तो भूतपूर्व जाति, कुल आदि सब समाप्त हो जाते हैं । वीतराग मुनीन्द्र के धर्म संघ में आकर सभी साधु समान हो जाते हैं । - इसीलिए मदावेश में आकर कोई साधु अपने से जाति आदि से हीन पूर्व दीक्षित साधु का न तो तिरस्कार करे, न ही उसको वन्दनादि करने में लज्जित हो । इसी कारण 'समयं सयाचरे' का अर्थ यह भी सम्भव है - समय - जैन सिद्धान्त पर या साध्वाचार पर सदा चले ।' साधक में उत्कर्ष तो मदजनित है ही, अपकभी दूसरे के वृद्धिगत उत्कर्ष मद को देखकर होता है, इसलिए यह भी मदकारक होता है । क्योंकि ऐसा करने से कषायवश अधिक पाप कर्मबन्ध होगा, इसलिए समभाव या साधुत्व (संयम) में विचरण करना चाहिए। मान और अपमान दोनों ही साधु के लिए त्याज्य है । ४
३ (क) सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति, पृ० ६१ के आधार पर
(ख) तुलना कीजिये - अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं च संश्रिताः ।
मामात्मपरदेहेषु प्रहिषग्नोऽभ्यसूयकः ॥ १८ ॥ तानहं द्विषतः क्रूरान् संसारेषु नराधमान् ।
क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु ॥ १६॥
- गीता० अ० १५/१८-१६
४ (क) सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति, पृ० ६१ के आधार पर
(ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या, पृ० ३२२ से ३२६ के आधार पर