Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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प्रथम उद्देशक : गाथा ६३ से १४
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भी सुलभ नहीं है। किसी प्रति में मायाइ पियाइ लुप्पति"पाठान्तर है, अर्थ होता है-माता के द्वारा, या पिता के द्वारा धर्ममार्ग से भ्रष्ट कर दिया जाता है। चूर्णिकार ने नागार्जुनीय सम्मत पाठान्तर सूचित किया है-"मातापितरो य भातरो विलभेज्ज सुकेण पच्चए ।" पुत्रादि के बदले माता, पिता, पितामहादि या भाई आदि भी मरने के बाद परलोक में कैसे उनके कर्मफल प्राप्त कर सकते हैं ? या पुत्रादि को मातापिता आदि परलोक में कैसे प्राप्त हो सकते हैं ? पेहिया=देखकर, चूर्णि में पाठान्तर है-देहिया । अर्थ समान है। सुन्वते सुव्रत-श्रेष्ठ ब्रतधारी बनकर। वृत्तिकार इसके बदले 'सुट्टिते' पाठान्तर सचित करके व्याख्या करते हैं-भली भांति धर्म में स्थित-स्थिर होकर । जमिणं क्योंकि जो पुरुष सावद्य-अनुष्ठानों से निवृत्त नहीं होते, उनकी यह दशा होती है। पुढो पृथक्-पृथक् । जगा पाणिणो= जीवधारी प्राणी । लुप्पंति=विलुप्त-दुःखित होते हैं। गाहती=नरकादि यातना स्थानों में अवगाहन करते है-भटकते हैं । अथवा उन दुःख हेतुक कर्मों का गाहन-वर्धन (वृद्धि) करते हैं । 'जो तस्सा मुच्चे अपुट्ठवं'= अशुभाचरण जन्य पापकर्मों के विपाक से अस्पृष्ट-अछुए रहकर (भोगे बिना) वे मुक्त नहीं हो सकते।' अनित्यभाव-दर्शन
६३ देवा गंधव्व-रक्खसा, असुरा मूमिचरा सिरीसिवा ।
__राया नर-सेटि-माहणा, ठाणा ते वि चयंति दुक्खिया ॥५॥ . . ६४ कामेहि य संथवेहि य, गिद्धा कम्मसहा कालेज जंतवो।
ताले जह बंधणच्चुते, एवं आउखयम्मि तुट्टती ॥ ६ ॥ ६३. देवता, गन्धर्व, राक्षस, असुर, भूमिचर (भूमि पर चलने वाले), सरीसृप (सरक कर चलने वाले सांप आदि तियंच), राजा, मनुष्य, नगरसेठ या नगर का श्रेष्ठ पुरुष और ब्राह्मण, ये सभी दुःखित हो कर (अपने-अपने) स्थानों को छोड़ते हैं।
• ६४. काम-भोगों (की तृष्णा) में और (माता-पिता, स्त्री-पुत्र आदि)परिचितजनों में गृद्ध-आसक्त प्राणी (कर्मविपाक के समय) अवसर आने पर अपने कर्म का फल भोगते हुए आयुष्य के क्षय होने पर ऐसे टूटते (मर जाते) हैं, जैसे बन्ध से छुटा हुआ तालफल (ताड़ का फल) नीचे गिर जाता है।
विवेचन-सभी प्राणियों के जीवन की अस्थिरता एवं अनित्यता-प्रस्तुत दो गाथाओं में दो पहलुओं से जीवन की समाप्ति बताई है-(१) चारों ही गति के जीवों के स्थान अनित्य हैं, (२) आसक्त प्राणी आयुष्य क्षय होते ही समाप्त हो जाते हैं। सभी स्थान अनित्य हैं--संसार में कोई भी गति, योनि पद, शारीरिक स्थिति या आर्थिक स्थिति आदि स्थायी नहीं है, चाहे वह देवगति का किसी भी कोटि का देव हो, चाहे मनुष्य गति का किसी भी श्रेणी का मानव हो, चाहे तिर्यञ्चगति का किसी भी जाति का विशालकाय जन्तु हो, अथवा और कोई हो, सभी को मृत्यु आते ही, अथवा अशुभ कर्मों का उदय होते ही अपनी पूर्व स्थिति विवश व दुःखित होकर छोड़नी पड़ती है, इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं-देवा गंधव्व
४ (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति ५४
(ख) सूत्रकृतांग चूर्णि (मूलपाठ टिप्पण) पृ० १६