Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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सूत्रकृतांग-द्वितीय अध्ययन-वैतालीय कठिन शब्दों की व्याख्या-पलियंतं वत्तिकार ने इसके संस्कृत में दो रूप-'पल्यान्त' एवं 'पर्यन्त' मानकर व्याख्या की है कि पुरुषों का जीवन अधिक से अधिक तीन पल्य (पल्योपम) पर्यन्त टिकता है। और पुरुषों का संयम जीवन तो पल्योपम के मध्य में होता है । अथवा पुरुषों का जीवन पर्यन्त सान्त -नाशवान् है । जोगवं संयम-योग से युक्त यानी पंचसमिति-त्रिगुप्ति से युक्त होकर । अणुसासणं= शास्त्र या आगम के अनुसार । अणुपाणा= सूक्ष्म प्राणियों से युक्त । वीरेहि कर्मविदारण-वीर अरिहन्तों ने । कोहकायरियाइपीसणा-क्रोध और कातरिका=माया, आदि शब्द से मान, लोभ, मोहनीय कर्म आदि से दूर । अभिनिम्बुड़ा=शान्त ।१७ परीषहसहन-उपदेश
१०१ ण वि ता अहमेव लुप्पए, लुप्पंती लोगंसि पाणिणो ।
एवं सहिएऽधिपासते, अणिहे से पुट्ठोऽधियासए ॥१३।। १०२ धुणिया कुलियं व लेववं, कसए देहमणासणादिहि ।
अविहिंसामेव पव्वए, अणुधम्मो मुणिणा पवेदितो । १४॥ १०३ सउणी जह पंसुगुंडिया, विधुणिय धंसयती सियं रयं ।
एवं दविओवहाणवं, कम्मं खवति तवस्सि माहणे ॥१५॥ १०१. ज्ञानादि से सम्पन्न साधक इस प्रकार देखे (आत्म-निरीक्षण करे) कि शीत-उष्ण आदि परीषहों (कष्टों) से केवल मैं ही पीड़ित नहीं किया जा रहा हूँ, किन्तु संसार में दूसरे प्राणी भी (इनसे) पीड़ित किये जाते हैं । अतः उन परीषहों का स्पर्श होने पर वह (संयमी) साधक क्रोधादि या राग-द्वषमोह से रहित होकर उन्हें (समभावपूर्वक) सहन करे।
१०२. जैसे लीपी हुई दीवार-भीत (लेप) गिरा कर पतली कर दी जाती है, वैसे ही अनशन के द्वारा देह को कृश कर देना-सुखा देना चाहिए । तथा (साधक को) अहिंसा धर्म में ही गति प्राप्ति करनी चाहिए । यही अनुधर्म-परीषहोपसर्ग सहन रूप एवं अहिंसादि धर्म समयानुकूल या मोक्षानुकूल है, जिसका प्ररूपण मुनीन्द्र सर्वज्ञ प्रभु ने किया है।
१०३. जैसे धूल से भरी हुई पक्षिणी अपने अंगों या पंखों को फड़फड़ाकर शरीर में लगी हुई रज को झाड़ देती है, इसी प्रकार भव्य उपधान आदि तपस्या करने वाला तपस्वी पुरुष कर्म रज को झाड़ (नष्ट कर) देता है।
विवेचन-परीषह और उपसर्ग : क्यों और कैसे सहे ?-प्रस्तुत त्रिसूत्री में शीत और उष्ण परीषहोंउपसर्गों को सहन करने का उपदेश क्यों है ? तथा परीषहादि कैसे किस पद्धति से सहना चाहिए ? इस सम्बन्ध में मार्ग निर्देश किया गया है । परीषह जैन धर्म का पारिभाषिक शब्द है। तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है....'मार्गाच्यवन-निर्जराथं परिषोढव्याः परीषहाः,-धर्ममार्ग से विचलित या भ्रष्ट न होने तथा निर्जरा के लिए जो कष्ट मन-वचन-काया से सहे जाते हैं, वे परीषह कहलाते हैं ।१८ ऐसे परीषह २२ हैं।
१७ (क) सूत्रकृतांक शीलांकवृत्ति पत्र ५७ १८ तत्त्वार्थसूत्र अ० ९/३