Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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चतुर्थ उद्देशक गाथा ८० से ८३
गृद्धि, राग-द्वेषलिप्तता एवं अपमान या अवमान- ये तीनों दोष हैं परिभोगषणा के ५ दोष इस प्रकार हैं-
१. अंगार दोष, २. धूम दोष,
३. संयोजना दोष,
५. कारण दोष ।
४. प्रमाण दोष
ओमाणं परिवज्जए – वृत्तिकार ने इसकी व्याख्या यों की है - भिक्षा के समय साधु गृहस्थ के यहाँ जाये, उस समय यदि कोई उसे झिड़क दे, अपमानित कर दे या अपशब्द या मर्मस्पर्शी शब्द कह दे तो भी साधु उस अपमान को दिल-दिमाग से निकाल दे, या गृहस्थ कोई सरस चीज न दे, बहुत ही कम दे या तुच्छ रूखा-सूखा आहार देने लगे, तब उस पर झुंझलाकर उसका अपमान न करे । ज्ञान और तप के मद का परित्याग करे । ये चारों आहार विवेक सूत्र साधु को आरम्भ मुक्त होने के लिए बताये हैं ।
१
-आठ प्रकार
कठिन शब्दों की व्याख्या - जिता = जो परीषह उपसर्ग तथा काम-क्रोधादि ६ शत्रुओं से पराजित हैं । हेच्चा = छोड़कर । विज्जं = विद्वान् । अणुक्कसे = वृत्तिकार के अनुसार- अनुत्कर्षवान् अर्थात् - के मदस्थानों में से किसी भी प्रकार का मद न करता हुआ । चूर्णिकार ने 'अणुक्कसो' और 'अणुक्कसामी', ये दो पाठान्तर माने हैं । इनके अर्थ क्रमशः इस प्रकार है-अनुत्कर्ष का अर्थ है, जो जाति आदि मदस्थानों द्वारा उत्कर्ष ( गर्व ) को प्राप्त नहीं होता और अनुत्कषाय का अर्थ है - जो तनुकषाय हो, जिसका कषाय मन्द हो । अप्पलीणं = वृत्तिकार के अनुसार - अप्रलीन का अर्थ है - असम्बद्ध = अन्यतीर्थी, गृहस्थ या पार्श्वस्थ आदि के साथ संसर्ग न रखता हुआ । चूर्णिकार के अनुसार - अप्पली का अर्थ - अपलीन हो, अर्थात् अपने आप का उन अन्यतीर्थिकों आदि से ग्रहण - सम्पर्क न होने दे । 'मज्झेण मुणि जावए' = मध्यस्थभाव से मुनि जीवनयापन करे अर्थात् न तो उन पर राग करे, न ही द्व ेष, अथवा मुनि उनकी निन्दा - प्रशंसा से बचता हुआ व्यवहार करे । ताणं परिब्वए = शरण प्राप्त करे । चूर्णिकार ने 'जाणं परिब्बए' पाठ मानकर अर्थ किया है - ज्ञान भिक्षु ( अनारम्भी - अपरिग्रही की सेवा में) पहुँचे । विउ = विज्ञ | कडेसु = दूसरों द्वारा कृत - बनाये हुए में से । घासमेसेज्जा = कल्पनीय ग्राह्य ग्रासआहार की एषणा = गवेषणा करे । बिप्पभुक्को = राग-द्वेष से मुक्त होकर । ओमाणं = अपमान या अष्टविध मद ।
लोकवाद - समीक्षा
८०. लोगावायं निसामेज्जा इहमेगेसि आहितं । विवरीतपण्णसंभूतं अण्णणबुतिताणुयं ॥ ५॥
८१. अनंते णितिए लोए सासते ण विणस्सति । अंतवं णितिए लोए इति धीरोऽतिपासति ॥ ६ ॥
६ (क) सूत्रकृतांम शीलांक वृत्ति, पत्रांक ४८-४९
(ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या, पृ० २४७ से २६१ तक
(ग) सूयगडंग चूर्णि ( मू० पा० टिप्पण) पृ० १३-१४