Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
१००
सूत्रकृतांग-प्रथम अध्ययन-समय
"अओ सब्वे अहिंसिया"-किसी भी प्राणी को किसी भी रूप से पीड़ा देना, सताना, मारना-पीटना डराना आदि हिंसा है, और किसी भी प्रकार की हिंसा से प्राणी को दुःख होता है। हिंसा करना निर्ग्रन्थ क्यों छोड़ते हैं ? इस प्रश्न का उत्तर दशवैकालिक एवं आचारांग में स्पष्ट दिया गया है कि समस्त जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई भी नहीं चाहता, सभी को अपना जीवन प्रिय है, सभी सुख चाहते हैं, दुःख सभी को अप्रिय है, इसीलिए निग्रन्थ प्राणिवध को घोर पाप समझकर उसका त्याग करते हैं।
___ यह भी सत्य है कि असत्य, चोरी, मैथुन-सेवन, परिग्रह वृत्ति आदि पापास्रवों से भी प्राणियों को शारीरिक-मानसिक दुःख होता है, इसलिए ये सब हिंसा के अन्तर्गत आ जाते हैं। प्रस्तुत गाथा में प्रयुक्त 'य' (च) शब्द से उपलक्षण से असत्यादि का त्याग भी समझ लेना चाहिए।
हिंसा आदि पापास्रव अविरति के अन्तर्गत हैं, जो कि अशुभ कर्मबन्धन का एक कारण है । इस दृष्टि से भी शास्त्रकार ने प्राणिहिंसा का निषेध किया है। ,
ज्ञानी के ज्ञान का सार : हिंसा न करे-प्राणिहिंसा निषेध के पूर्वोक्त विवेक सूत्र को और स्पष्ट करते हुए शास्त्रकार सूत्र गाथा ८५ में कहते हैं-'एवं खु नाणिणो सारं किंचणं'-अर्थात् ज्ञानी होने का सारनिष्कर्ष यही है कि वह किसी भी प्राणी की हिंसा न करे ।
ज्ञानी कौन ? उसके ज्ञान का सार क्या?-यहाँ ज्ञानी उसे नहीं बताया गया है, जो पोथी-पण्डित हो, , रटारटाया शास्त्र पाठ जिसके दिमाग में भरा हो, अथवा जो केवल शास्त्रीय ज्ञान बघारता हो, अथवा जिसका लौकिक या भौतिक विद्याओं का पाठन-अध्ययन प्रचुर हो । यहाँ ज्ञानी के मुख्य दो अर्थ फलित होते हैं-(१) अध्यात्म-ज्ञानवान्-जो आत्मा से सम्बन्धित पुण्य-पाप, आस्रव-संवर, बन्ध-मोक्ष, निर्जरा, आत्मा का स्वरूप, कर्मबन्ध, शुद्धि, विकास-ह्रास आदि का सम्यग् ज्ञाता हो।
(२) सभी प्राणियों को मेरे समान ही सुख प्रिय हैं, दुःख अप्रिय, सभी को अपने प्राण प्यारे हैं, सभी जीना चाहते हैं, मरना नहीं। हिंसा, असत्य आदि से मेरे समान सभी प्राणियों को दुःख होता है, इस प्रकार आत्मवत् सर्वभूतेषु सिद्धान्त का जिसे अनुभव ज्ञान हो। इसीलिए शास्त्रकार का यहाँ आशय यह है 'ज्ञानस्य सारो विरतिः' ज्ञान का सार है-(पाप कर्मबन्ध या दुःख प्रदान से) विरति। इस दृष्टि से आत्मा को कर्मबन्ध से मुक्त कराने और बन्धन को भली-भांति समझकर तोड़ना ही जब ज्ञानी के ज्ञान का सार है, तब हिंसादि जो कर्मबन्ध या कर्मास्रव के कारण हैं, उनमें वह कैसे पड़ सकता है। इसीलिए यहां कहा गया-'जं न हिंसति किंचणं' । तात्पर्य यह है कि ज्ञानी के लिए न्याय संगत (सार) यही है कि पाप कर्मबन्धन के मुख्य कारण हिंसा को छोड़ दे। किसी भी प्राणी की किसी भी प्रकार से हिंसा न
१८ (क) सव्वे जीवा वि इच्छंति जीविन मरिज्जि। तम्हा पाणिवहं घोरं निग्गंथा वज्जयंति णं ॥
-दशवकालिक अ०६ गा०१० (ख) सव्वे पाणा पियाउया, सुहसाया, दुक्खपडिकूला, अप्पियवहा, पियजीविणो, जीविउकामा, सम्वेसि जीवियं पियं ।"
-आचारांग श्रु० १, अ० २, सू० २४०-२४१ (ग) सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि । ईक्षते योग-युक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः॥ -गीता ६/२९