Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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सूत्रकृतांग--द्वितीय अध्ययन-वैतालीय - अष्टापद पर्वत पर विराजमान भगवान् ऋषभदेव ने मार्गदर्शन के लिए अपने समीप समागत ९८
पुत्रों को जो प्रतिबोध दिया था, जिसे सुनकर उनका मोहभंग हो गया, वे प्रतिबुद्ध होकर प्रभू के
पास प्रवजित हो गए, वह प्रतिबोध इस अध्ययन में संगृहीत है', ऐसा नियुक्तिकार का कथन है। - यहाँ द्रव्य विदारण का नहीं, भाव विदारण का प्रसंग है। दर्शन, ज्ञान, तप, संयम आदि भाव
विदारण हैं, कर्मों को या राग-द्वष-मोह को विदारण (नष्ट) करने का सामर्थ्य इन्हीं में है। भाव विदारण के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत अध्ययन के तीन उद्देशकों में वस्तु तत्त्व का प्रतिपादन वैशालिक ज्ञातपुत्र महावीर भगवान् द्वारा किया गया है, जिसका उल्लेख अध्ययन के अन्त
में है। । प्रथम उद्देशक में सम्बोध (हित-प्राप्ति और अहित-त्याग के सम्यक् बोध) और संसार की अनि
त्यता का उपदेश है। " द्वितीय उद्देशक में मद, निन्दा, आसक्ति आदि के त्याग का तथा समता आदि मुनिधर्म का
उपदेश है। तृतीय उद्देशक में अज्ञान-जनित कर्मों के क्षय का उपाय, तथा सुखशीलता, काम-भोग, प्रमाद आदि के त्याग का वर्णन है। प्रथम उद्देशक में २२, द्वितीय उद्देशक में ३२ और तृतीय उद्देशक में २२ गाथाएँ हैं। इस प्रकार इस वैतालीय या वैदारिक अध्ययन में कुल ७६ गाथाएँ हैं, जिनमें मोह, असंयम, अज्ञान, राग
द्वेष आदि के संस्कारों को नष्ट करने का वर्णन है। । सूत्र गाथा संख्या ८६ से प्रारम्भ होकर सूत्रगाथा १६४ पर द्वितीय अध्ययन समाप्त होता है।
३ (क) कामं तु सासणमिणं कहियं अट्ठावयंमि उसभेणं । अट्ठाणंउति सुयाणं सोऊण ते वि पव्वइया ।
-सूत्र कृ० नियुक्ति गा० ३६ (ख) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक ५३
"भावविदारणं तु दर्शन-ज्ञान-तपः-संयमाः, तेषामेव कर्मविदारणे सामर्थ्य मित्युक्त भवति। विदारणीयं... पुनरष्टप्रकारं कर्मति"""
सूत्र० शी० वृत्ति, पत्रांक ५३ ५ "वेसालिए वियाहिए।"
-सूत्र शी० वृत्ति भाषानुवादसहित भा० १ पृ० ३०० ६ (क) पढमे संबोहो अणिच्चया य, बीयंमि माणवज्जणया ।
अहिगारो पुण भणिओ, तहा तहा बहुविहो तत्थ ॥ ४० ॥ उद्दे संमि य तइए अन्नाणचियस्स अवचओ भणिओ। वज्जेयव्यो य सया सुहप्पमाओ जइजणेणं ॥४१॥
-सूत्र कृ० नियुक्ति (स) जैन-अगम-साहित्यः मनन और मीमांसा पृ० ८१