Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
प्रथम उद्देशक : गाथा २० से २७ सर्वदुःखों से विमुक्त होने का मार्ग यह या वह ?
'सम्बदुक्खा विमुच्चई' इस पंक्ति के पीछे शास्त्रकार का यह भी गर्भित आशय प्रतीत होता है कि पंचभूतात्मवादी से लेकर चातुर्धातुकवादी (क्षणिकवादी) तक के सभी दर्शनकार जो सर्वदुःखों से मुक्ति का आश्वासन देते हैं, क्या यही दुःख-मुक्ति का यथार्थ मार्ग है? या श्रमण भगवान महावीर द्वारा प्ररूपित सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र एवं तप के द्वारा कर्मक्षय करके मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, कर्मबन्ध के कारणों से दूर रहना सर्वदुःखमुक्ति का मार्ग है ? इस प्रकार का विवेक प्रत्येक साधक स्वयं करे। सबसे बड़ा दुःख तो जन्म-मरण का है, वह कर्मबन्धन के मिटने से ही दूर हो सकता है, कर्मबन्धन तोड़ने का यथार्थ मार्ग मिथ्यात्वादि पांच आस्रवों से दूर रहना और रत्नत्रय की साधना करना है। ये सब दार्शनिक स्वयं दुःखमुक्त नहीं ... पूर्वगाथा में समस्त अन्य दर्शनियों द्वारा अपने दर्शन को अपना लेने से दुःखमुक्त हो जाने के झूठे आश्वासन का उल्लेख किया गया था, २०वीं गाथा से लेकर २६वीं गाथा तक शास्त्रकार प्रायः एक ही बात को कई प्रकार से दोहराकर कहते हैं, वे दार्शनिक दुःख के मूल स्रोत जन्म, जरा, मृत्यु, व्याधि, चतुगतिरूप संसार चक्र, गर्भ में पुन:-पुनः आगमन तथा अन्य अज्ञान-मोहादिजनित कष्टों आदि को स्वयं पार नहीं कर पाते, तो दूसरों को दुःखों से मुक्त कैसे करेंगे? ये स्वयं दुःखमुक्त नहीं हो पाते, इसके मूल दो कारण शास्त्रकार ने बताये हैं
(१) संधि को जाने बिना ही क्रिया में प्रवृत्त हो जाते हैं,
(२) वे धर्मतत्त्व से अनभिज्ञ हैं। यही कारण है कि शास्त्रकार ने उन सब दार्शनिकों के लिए छह गाथाओं के द्वारा यही बात अभिव्यक्त की है।
. इसी बात को विशेष स्पष्ट करने के लिए शास्त्रकार २६वीं गाथा में कहते हैं-'नाणाविहाई दुक्खाई, अणुभवंति पुणो पुणो अर्थात् वे विभिन्न मतवादी पूर्वोक्त नाना प्रकार के दुःखों को बार-बार भोगते हैं। इस का तात्पर्य यह है कि जब तक जीवन में मिथ्यात्व, हिंसादि से अविरति, प्रमाद, कषाय और योग रहेगा, तब तक चाहे वह पर्वत पर चला जाए, घोर वन में जाकर ध्यान लगा लें, अनेक प्रकार के कठोर तप भी कर लें अथवा विविध क्रियाकाण्ड भी कर ले तो भी वह जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि, गर्भवासरूप संसारचक्र-परिभ्रमण के महादुःखों को सर्वथा समाप्त नहीं कर सकता।
ते गावि संधि गच्चा'-इस पंक्ति में 'ते' शब्द उन लोगों के लिए प्रयुक्त किया गया है, जिनके मिथ्यावादों (मतों) के सम्बन्ध में शास्त्रकार पूर्वगाथाओं में कह आए हैं। वे संसार परिभ्रमणादि दुःखों को समाप्त नहीं कर पाते, इसके दो कारणों में से प्रथम महत्त्वपूर्ण कारण है-संधि की अनभिज्ञता। इस पंक्ति में संधि शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । प्राकृत शब्दकोष के अनुसार सन्धि के यहां प्रसंगवश मुख्यतया ६ अर्थ होते हैं(१) संयोग,
(२) जोड़ या मेल, (३) उत्तरोत्तर पदार्थ-परिज्ञान,
(४) मत या अभिप्राय, (५) अवसर, तथा
(६) विवर-छिद्र ।
६८ (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक २८ के अनुसार ६६ पाइअसद्दमहण्णवो पृष्ठ ८४२