Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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द्वितीय उद्देशक । गाथा २८ से ३२
तप या ब्रह्मचर्य से मैं अपरिपक्व कर्म को परिपक्व कर लूंगा, परिपक्व कर्म को भोगकर अन्त करूँगा । सुख और दुःख तो द्रोण ( माप) से नपे-तुले (नियत) हैं, संसार में न्यूनाधिक या उत्कर्ष - अपकर्ष नहीं है । जैसे सूल 'की गोली फेंकने पर उछलती हुई गिरती है, वैसे ही मूर्ख और पण्डित दौड़कर आवागमन में पड़कर दुःख का अन्त करेंगे ।
संगतिअंतं— शास्त्रकार नियतिवाद या नियति का सीधा नाम न लेकर इसे सांगतिक ( सांतियं) बताते हैं । वृत्तिकार के अनुसार 'सगति' की व्याख्या इस प्रकार है- " सम्यक् — अर्थात् अपने परिणाम से जो गति है, उसे संगति कहते हैं। जिस जीव, को जिस समय, जहाँ, जिस सुख-दुःख का अनुभव करना होता है, वह संगति कहलाती है, वही नियति है । उस संगति = नियति से जो सुख-दुःख उत्पन्न होता है, उसे सांगतिक कहते हैं ।
बौद्ध ग्रन्थ दीघनिकाय में मक्खिल गोसाल के मत वर्णन में नियतिसंगतिभावपरिणता' शब्द का स्पष्ट उल्लेख मिलता है । सूत्रकृतांग द्वितीय श्रुतस्कन्ध सूत्र ६६३ - ६५ में भी नियति और संगति दोनों शब्दों का यत्र-तत्र स्पष्ट उल्लेख है ।
'शास्त्रवार्तासमुच्चय' में नियतिवाद का वर्णन करते हुए कहा गया है - 'चूँकि संसार के सभी पदार्थ अपने-अपने नियत स्वरूप से उत्पन्न होते हैं, अतः ज्ञात हो जाता है कि ये सभी पदार्थ नियति से उत्पन्न हैं । यह समस्त चराचर जगत् नियति से बँधा हुआ है। जिसे, जिससे, जिस समय, जिस रूप में होना होता है, वह उससे, उसी समय, उसी रूप में उत्पन्न होता है । इस तरह अबाधित प्रमाण से सिद्ध इस नियति की गति को कौन रोक सकता है ? कौन इसका खण्डन कर सकता है ?४ साथ ही काल, स्वभाव, कर्म और पुरुषार्थ आदि के विरोध का भी वह युक्तिपूर्वक निराकरण करता है ।
३ (क ) " मक्खलिगोसालो मं एतदवोच - नत्थि महाराज, हेतु, नत्थि पच्चयो सत्तानं सङ्किलेसाय । अहेतू अपच्चया सत्ता सङ्किलिस्संति । नत्थि हेतु, नत्थि पच्चयो सत्तानं विसुद्धिया । अहेतू अपच्चया सत्ता विसुज्झति । नत्थि अत्तकारे, नत्थि परकारे, नत्थि पुरिसकारे, नत्यि बलं, नत्थि वीरियं, नत्थि पुरिसथामो, नत्थि पुरिस-परक्कमो । सब्वे सत्ता, सब्वे पाणा, सव्वे भूता, सब्वे जीवा अवसा अबला, अविरिया नियतिसंगतिभावपरिणता, छस्वेवाभिजातीसु सुखदुक्खं पटिसंवेदेन्ति । यानि बाले च पण्डिते च सन्धावित्वा संसरित्वा दुक्खस्संतं करिस्सति । तत्थ नत्थि इमिनाहं सीलेन व वतेन वा तपेन वा ब्रह्मचरियेन वा अपरिपक्कं वा कम्मं परिपाचेस्सामि, परिपक्कं वा कम्मं फुस्स फुस्स व्यन्ति करिस्सामीति । हेवं नत्थि दोणमिते सुखदुक्खे परियन्तकते संसारे, नत्थि हायनवड्ढने, नथि उक्कंसावकंसे । सेय्यथापिनाम सुत्तगुलेक्त्ति निब्बैठियमामेव पलेति एवमेव बाले च पण्डिते च संधावित्वा संसरित्वा दुक्खस्तं करिस्संतीति ।" - सुत्तपिटके दीघनिकाये ( पाली भाग सामञ्ञफलसुत्त पृ० ४१-५३ )
नियतेनैव रूपेण, सर्वे भावा भवन्ति यत् । ततो नियतिजा ह्यते, तत्स्वरूपानुबन्धतः ॥ यद्यदेव यतो यावत् तत्तदेव ततस्तथा । नियतं जायते न्ययात् क एनं बाधयितुं क्षम: ?
- शास्त्रवार्तासमुच्चय
५ देखिये श्वेताश्वतरो ० श्लोक २ में - कालः स्वभावो नियतिर्यदृच्छा भूतानि योनिः पुरुष इति चिन्त्यम् । संयोग एषां नत्वात्मभावादात्माण्यनीशः खदुःखहेतोसुः ।।”