Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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सूत्रकृतांग-प्रथम अध्ययन-समय
अथवा, प्रधानादि शब्द में आदि शब्द से काल, स्वभाव, नियति आदि का ग्रहण करके इस जगत को कोई कालकृत, कोई स्वभावकृत, कोई नियतिकृत, कोई एकान्त कर्मकृत मानते हैं।
पूर्वोक्त कर्ताओं से उत्पन्न जगत् कैसा है ?–प्रश्न होता है-पूर्वोक्त विभित्र जगत्कर्तृत्ववादियों के मत से उन-उन कारणों (कर्ताओं) द्वारा उत्पन्न जगत् कैसा है ? इस शंका के उत्तर में शास्त्रकार उनकी ओर से लोक के दो विशेषण व्यक्त करते हैं-जीवाजीव समाउत्ते और सुहदुक्खसमन्निए, अर्थात् वह लोक, जीव और अजीव दोनों से संकुल है, तथा सुख और दुःख से समन्वित ओत-प्रोत है ।१५।
__ स्वयम्भू द्वारा कृत लोक-महर्षि का कहना है-यह लोक स्वयम्भू द्वारा रचित है। महर्षि के दो मर्थ चूर्णिकार प्रस्तुत करते हैं-(१) महर्षि अर्थात् ब्रह्मा । अथवा (२) व्यास आदि ऋषि महर्षि हैं।
स्वयम्भू शब्द का अर्थ वृत्तिकार करते हैं-विष्णु या अन्य कोई । स्वयम्भू शब्द ब्रह्मा के अर्थ में भी प्रयुक्त होता है और विष्णु के अर्थ में भी । नारायणोपनिषद में कहा है-'अन्तर और बाह्य जो भी जगत् दिखायी देता है, सुना जाता है, नारायण (विष्णु) उस सारे जगत् को व्याप्त करके स्थित हैं। नारायणार्थवशिर उपनिषद में कहा है-पुरुष नारायण (विष्णु) ने चाहा कि मैं प्रजाओं का सृजन करूं और उससे प्राण, मन, इन्द्रियाँ, आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, ब्रह्मा, रुद्र, वसु यहाँ तक कि सारा जगत् नारायण से ही उत्पन्न होता है ।
- पुराण में वर्णित ब्रह्मा द्वारा सृष्टि रचना के क्रम की तरह मनुस्मृति में भी उसी प्रकार का वर्णन मिलता है। यह 'जगत् सर्वत्र अन्धकारमय था, सुषुप्त-सा था। उसके पश्चात् महाभूतादि से ओज का वरण करके अन्धकार को हटाते हुए अव्यक्त स्वयम्भू इस (जगत्) को व्यक्त करते हुए स्वयं प्रादुर्भूत हुए। वे अतीन्द्रिय द्वारा ग्राह्य, सूक्ष्म, अव्यक्त, सनातन, सर्वभूतमय एवं अचिन्त्य स्वयम्भू स्वतः उत्पत्र
१४ (क) मूलप्रकृतिरविकृतिर्महदाद्याः प्रकृतिविकृतयः सप्त ।
षोडशकस्तु विकारो, न प्रकृतिर्न विकृतिः पुरुषः ॥ (ख) सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक ४२
-सांख्यकारिका १
१५ (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक ४२
(ख) सूत्रकृतांग अमर सुखबोधिनी व्याख्या पृ० २१२ १६ (क) सूत्रकृतांग चूर्णि
(ख) जैन साहित्य का बृहत् इतिहास भा० १ पृ (ग) यच्च किञ्चिज्जगत् सर्व दृश्यते श्रूयतेऽपि वा। अन्तर्बहिश्च तत् सर्व व्याप्य नारायणः स्थितः ।।
-नारायणोपनिषद-१३ वा गुच्छ (च) अव पूरुषो हवं नारायणोऽकामयत-प्रज्ञाः सृजयेति । नारायणात् जायते, मनः सर्वेन्द्रियाणि च । खं वागुर्यो
तिरायः पृथिवी विश्वस्य धारिणी ॥ नारायणाद् ब्रह्मा जायते, नारायणात्प्रजापतिः प्रजायते"नारायणादेव समुत्पद्यते, नारायणात् प्रवर्तन्ते, नारायणे प्रणीयन्ते..."
-नारायणाथर्वशिर उपनिषद् १