Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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सूत्रकृतांग-प्रथम अध्ययम-समय .. (१) अनादि संसार में बार-बार परिभ्रमण, (२) दीर्घ (कल्प) काल पर्यन्त भवनपति देव (असुर) में, (३) अल्पऋद्धि, अल्प आयु और अल्पशक्ति से युक्त अधम किल्विषिक देव के रूप में उत्पत्ति ।३५
कठिन शब्दों की व्याख्या-एयाणवीति मेधावी-पूर्वोक्त कुवादियों के युक्ति विरुद्ध मतों पर गहराई से विचार करके मेधावी निश्चय करे कि इनके वाद सिद्धि-मुक्ति (निर्वाण या मोक्ष) के लिए नहीं है, बंभचेरे
ते वसे-ब्रह्मचर्य (शुद्ध-आत्म-विचार) में वे स्थित नहीं है, अथवा वे संयम में स्थित नहीं है । पावाउया -प्रावादुक-वाचाल या मतवादी । अक्खायारो-अनुरागवश अच्छा बतलाने वाले। सए-सए उवठाणेअपने-अपने (मतीय) अनुष्ठानों से । अन्नहा-अन्यथा-दूसरे प्रकार से । अहो विहोति वसवत्ती-समस्त द्वन्द्वों (प्रपंचों) से निवृत्ति रूप सिद्धि की प्राप्ति से पूर्व भी इन्द्रियों को वशीभूत करने वालों को इसी जन्म में, हमारे दर्शन में प्रतिपादित अनुष्ठान के प्रभाव से अष्टविध ऐश्वर्य रूप सिद्धि प्राप्त हो जाती है। चूर्णिकार के अनुसार पाठान्तर हैं-अधोधि होति वसवत्ती.........""एवं अहो इहेव वसवत्ती। प्रथम, पाठान्तर की व्याख्या की गई है, दूसरे दर्शनों में तो उनके स्वकीय ग्रन्थोक्त चारित्र धर्म विशेष से व्यक्ति को इसी जन्म में, या इसी लोक में अष्टगुण रूप ऐश्वर्य प्राप्त हो जाता है। दूसरे पाठान्तर की व्याख्या हैअधोधि-यानि अवधिज्ञान से सिद्धि होती है, किसको ? जिसकी इन्द्रियाँ वश में हैं, न कि उसे जो इन्द्रियों के वश में है। सम्वकाम समप्पिए-समस्त कामनाएं उनके चरणों में समर्पित हो जाती हैं-अर्थात-वह सभी कामनाओं से पूर्ण हो जाता है । सिद्धिमेव पुराकाउं-सिद्धि को ही आगे रखकर । सासए गढिया गरावत्तिकार के अनुसार-वे लोग स्वाशय अपने-अपने आशय-दर्शन या मान्यता में ग्रथित-बँधे चूर्णिकार ने 'आसएहिं गढिया गरा' पाठान्तर मानकर व्याख्या की है-हिंसादि आश्रवों में वे लोग गृद्धमूच्छित हैं ।
तृतीय उद्देशक समाप्त
३५ (क) 'कल्पकालं प्रभूतकालमुत्पद्यन्ते सम्भवन्ति आसुरा असुरस्थानोत्पन्नाः नागकुमारादय; तत्रापि न प्रधानाः,
किहि ? किल्विषिका: अधमाः । (ख) कप्पकालुववज्जति ठाणा आसुरकिब्बिसा-कल्पपरिमाणः कालः कप्प एव वा काल :तिष्ठन्ति तस्मिन् इति स्थानम् । आसुरेषूत्पद्यन्ते किल्विषिकेषु च ।
-सूत्र कृ० चूर्णि (मू० पा० टि०) पृ० १३ ३६ (क) 'अन्येषां तु स्वाख्यातचरणधर्मविशेषाद् इहैव अष्टगुणश्वर्यप्राप्तो भवति । तद्यथा-अणिमानं लघिमानमित्यादि
अहवा 'अधोधि होति वसवत्ती' अधोधि नाम-अवधिज्ञानं वशवर्ती नाम वशे तस्येन्द्रियाणि वर्तन्ते, नासाविन्द्रियावशक:
-सूत्र कृ. चूणि (मू० पा: टिप्पण) पृ० १३ (ख) सिद्धिप्राप्तेरधस्तात् प्रागपि यावदद्यापि सिद्धिप्राप्तिन भवति, तावदिहैव जन्मन्यस्मदीयदर्शनोक्तानुष्ठानुभावादष्टगुणश्वर्यसद्भावो भवतीति दर्शयति आत्मवशवत्तितु, शीलमस्येति वशवर्ती वशेन्द्रिय इत्युक्त भवति ।
-सूत्र कृ० शीलांक वृत्ति पत्र ४६ हिंसादिषु आश्रवेषु गढिता नाम मूच्छिता:
-सूत्रकृतांग चूणि (मूल पाठ टिप्पण) पृष्ठ १३ "स्वकीये आशये स्वदर्शनाभ्युपगमे ग्रथिताः सम्बद्धाः।" ...
- -सूत्र शी० वृत्ति पत्र ४६