Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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प्रथम उद्देशक । गाथा १५ से १६
बौद्धदर्शन में पदार्थ की उत्पत्ति के पश्चात तत्काल ही निष्कारण विनाश होना माना जाता है, अतः उत्पत्ति के अतिरिक्त विनाश का अन्य कोई कारण नहीं है परन्तु आत्मषष्ठवादी इस अकारण (निर्हेतुक) विनाश को नहीं मानते, और न ही वैशेषिक दर्शन के अनुसार डंडे, लाठी आदि के प्रहार (कारणों) से माने जाने वाले सकारण (सहेतुक) विनाश को मानते हैं। तात्पर्य यह है कि आत्मा हो, चाहे पंचभौतिक लोक (लोकगत पदार्थ), अकारण और सकारण दोनों प्रकार से विनष्ट नहीं होते। ये चेतनाचेतनात्मक दोनों कोटि के पदार्थ अपने-अपने स्वभाव से च्युत नहीं होते, स्वभाव को नहीं छोड़ते, इसलिए नित्य हैं।
आत्मा किसी के द्वारा किया हुआ नहीं (अकृतक) है, इत्यादि हेतुओं से नित्य है, और न कदाचिदनीदृशं जगत्'- जगत् कदापि और तरह का नहीं होता, इसलिए नित्य है।
भगवद्गीता में भी कहा गया है-इस आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते, आग जला नहीं सकती, पानी भिगो नहीं सकता, हवा इसे सुखा नहीं सकती । अतः यह आत्मा अच्छेद्य है, अभेद्य है, अविकार्य (विकार रहित) है, यह नित्य, सर्वव्यापी, स्थिर, अचल और सनातन है ।
असत्पदार्थ की कदापि उत्पत्ति नहीं होती, सर्वत्र सत्पदार्थ की ही उत्पत्ति होती है। अतः सांख्यदर्शन सत्कार्यवाद के द्वारा आत्मा और लोक की नित्यता सिद्ध करता है। सत्कार्यवाद की सिद्धि भी पांच कारणों से की जाती है-५५
(१) असदकरणात्-गधे के सींग की तरह जो वस्तु नहीं होती, वह (उत्पन्न) नहीं की जा सकती।
(२) उपादानग्रहणात्-जो वस्तु सत् है, उसी का उपादान विद्यमान होता है। विद्यमान उपादान ग्रहण करने के कारण सत् की उत्पत्ति हो सकती है, असत् की नहीं।
(३) सर्वसम्मवाभावात्-सभी कारणों से सभी पदार्थों की उत्पत्ति नहीं होती । बालू से तेल नहीं निकल सकता, तिल से ही तेल निकलता है यदि असत्पदार्थ की उत्पत्ति हो तो पेड़ की लकड़ी से कपड़ा गेहुं आदि क्यों नहीं बना लिये जाते ? अतः उपादान कारण से ही कार्य होता है।
५५ (क) जातिरेव हि भावानां, विनाशे हेतुरिष्यते ।
यो जातश्च न च ध्वस्तो, नश्येत् पश्चात् स केन च? -बौद्ध दर्शन (ख) नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि, मैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो, न शोषयति मारुतः॥ अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च ।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः।। गीता अ० २/२३-२४ (ग) नासतो विद्यते भावो, नाभावो जायते सतः।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्वदर्शिभिः ॥ -गीता० अ० २/१६ (घ) असदकरणादुपादानग्रहणात् सर्वसम्भवाऽभावात् ।
शक्तस्य शक्यकरणात्, कारणभावाच्च सत्कार्यम् ॥-सांख्यकारिका