Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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प्रथम उद्देशक : गाथा १ से ६
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जन्म, संवास, अतिसंसर्ग आदि का प्रभाव : कर्मबन्धकारण-चौथी गाथा में जन्म, संवास एवं अतिसंसर्ग के कारण होने वाली मूर्छा, ममता या आसक्ति को कर्मबन्धन का कारण बताया गया है। मनुष्य जिस कुल (उपलक्षण से) राष्ट्र, प्रान्त, नगर, देश, जाति-कौम, वंश आदि में उत्पन्न होता है जिन मित्रों, हमजोलियों, पत्नी-पुत्रों, माता-पिता, भाई-बहन, चाचा, मामा, आदि के साथ रहता है, उसके प्रति वह अज्ञानवश मोह-ममता करता है । इसी प्रकार वह जिन-जिन के सम्पर्क में अधिक आता है, उन्हें वह मूढ़ 'ये मेरे' हैं समझ कर उनमें आसक्त होता है । जहाँ जिस राजीव या निर्जीव पदार्थ पर राग (मोह आदि) होता है, वहाँ उससे भिन्न विरोधी, अमनोज्ञ या अपने न माने हुए पदार्थ पर उसे अरुचि, द्वेष, घृणा या वैरविरोध होना स्वाभाविक है। अतः ममता, मूर्छा या आसक्ति राग-द्वष की जननो होने से ये कर्मबन्ध के कारण हैं। उन कर्मों के फलस्वरूप वह अज्ञ नरक तिर्यंचादिरूप चतुर्गतिक संसार में परिभ्रमण करता हुआ दुःखित होता रहता है । वह जन्म-परम्परा के साथ ममत्वपरम्परा को भी बढ़ता जाता है२२ इस कारण कर्मबन्धन की श्रृंखला से मुक्त नहीं हो पाता।
ममाती लुप्पती बाले-इस वाक्य में शास्त्रकार ने एक महान सिद्धान्त का रहस्योदघाटन कर दिया है कि ममता (मूर्छा, आसक्ति राग आदि) से ही मनुष्य कर्मबन्धन का भागी बन कर संसार परिभ्रमण करके पीड़ित होता रहता है। इससे यह ध्वनित होता है कि मनुष्य चाहे जिस कुलादि में पैदा हो, चाहे जिन सजीव-निर्जीव प्राणि या पदार्थों के साथ रहे, या उनके संसर्ग में आए किन्तु उन पर मेरेपन की छाप न लगाए, उन पर मोह-ममत्व न रखे तो कर्मबन्धन से पृथक रह सकता है अन्यथा वह कर्मबन्धन में फंसता रहता है । अपने आपको खो देता है।
'बाल' का अर्थ बालक नही, अपितु सद्-असद्-विवेक से रहित अज्ञान है ।
अन्नमन्नेहि मुच्छिए-इसके स्थान पर पाठान्तर मिलता है-अण्णे अण्णेहिं मुच्छिए । इस कारण इस वाक्य के दो अर्थ फलित होते हैं -प्रथम प्रकार के वाक्य का अर्थ है-परस्पर मूच्छित होते हैं। जबकि दूसरे वाक्य का अर्थ होता है-अन्य-अन्य पदार्थों में मूच्छित होता है। परस्पर मूच्छित होने का तात्पर्य है-वह मूढ़ माता-पिता, पत्नी, पुत्र आदि में मूच्छित होता है, तो वे भी अज्ञानवश उस पर मूच्छित होते हैं।
अन्य-अन्य पदार्थों में मूच्छित होने का आशय वृत्तिकार ने व्यक्त किया है मनुष्य बाल्यावस्था में क्रमशः माता-पिता, भाई-बहन, मित्र-साथी आदि पर मूर्छा करता हैं, युवावस्था आने पर पत्नी संतान, पौत्रादि पर उसकी आसक्ति हो जाती है। साथ ही अपने जाने-माने कूल, परिवार आ उसकी ममता बढ़ती जाती है। वृद्धावस्था में मूढ़ व्यक्ति की. सर्वाधिक ममता अपने शरीर, धन, मकान आदि के प्रति हो जाती है। इस प्रकार की मूढ़ व्यक्ति की ममता-मूच्र्छा बदलती जाती है। विभित्र अवस्थाओं में विभिन्न वस्तुओं पर ममता टिक जाती है। हमें पिछला पाठ अधिक संगत लगता है। वत्तिकार ने उसी पाठ को मान कर व्याख्या की है।२3
२२ (क) सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पनांक १३
(ख) आचारांग ११२ । २३ (क) सूयगडंगसुत्तं पढमो सुयक्खंधो अ०१ । सू०४ (जम्बूविजयजी सम्पादित) पृ० २
(ख) सूत्रकृतांग मूल शीलांकवृत्ति पत्रांक १३