Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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सूत्रकृतांग-प्रथम अध्ययन-समय का झगड़ा है, न कर्मबन्ध से मुक्ति का कोई प्रश्न है। सांख्यादि दार्शनिक आत्मा को पृथक् तत्त्व मानते हैं तो भी वे उसे निष्क्रिय और अकर्ता मानते हैं, निर्गुण मानते हुए भी भोक्ता मानते हैं। वे मुक्ति मानते हए भी केवल २५ तत्त्वों के ज्ञानमात्र से ही मुक्ति मानते हैं चारित्र की आवश्यकता नहीं समझते। मीमांसक आदि दार्शनिक कर्म (क्रिया) को मानते हैं, तो भी वे सिर्फ वेदविहित एवं प्रायः स्वर्गादिकामनामूलक कर्मों को मानते हैं, और मोक्ष तक तो उनकी दौड़ ही नहीं है । वे स्वर्ग को ही अन्तिम लक्ष्य मानते हैं। नैयायिक-वैशेषिक आत्मा को तो मानते हैं, परन्तु नैयायिक प्रमाण, प्रमेय आदि १६ तत्त्वों के ज्ञान से ही मुक्ति मान लेते हैं। त्याग, नियम, व्रत आदि चारित्र-पालन की वे आवश्यकता नहीं बताते और न उन्होंने कर्मबन्ध का कोई तर्कसंगत सिद्धान्त माना है। कर्मबन्धन से मुक्त करने की सारी सत्ता ईश्वर के हाथों में सौंप दी है। यही हाल प्रायः वैशेषिकों का है-वे बुद्धि सूख-दुःख, इच्छा आदि आत्मा के नौ गुणों के सर्वथा उच्छेद हो जाने को मुक्ति मानते हैं। इनकी मुक्ति भी ईश्वर के हाथ में है । ईश्वर ही जीव के अदृष्ट के अनुसार कर्मफल भोग कराता है-बन्धन में डालता है या मुक्त करता है। कर्मबन्धन से मुक्त होने के लिए न तो अहिंसादि चारित्र-धर्म का पालन करने की अनिवार्यता बताई है और न ही कर्मबन्ध को काटने की कोई प्रक्रिया बताई है। संक्षेप में यही इन श्रमण-माहणों का अपसिद्धान्त है। यही कारण है कि ये सब मतवादी आत्मा एवं उसके साथ बँधने वाले कर्म और उनसे मुक्ति के सम्बन्ध में अपनी असत् कल्पनाओं से ग्रस्त होकर कामभोगों में आसक्त हैं। इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं-अयाणंता विउस्सित्ता सत्ता कामेहि माणवा।" कर्मों का बन्धन जब हिंसादि के कारण नहीं माना जाता, तब उनसे छूटने की चिन्ता क्यों होगी? ऐसी स्थिति स्वच्छन्द कामभोगों में प्रवृत्त होना स्वाभाविक है ।२८ २८ (क) सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्र १४ के आधार पर ।
(ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या के आधार पर, पृ० ५३-५४ (ग) बौद्ध-नात्माऽस्ति, स्कन्धमात्र तु क्लेशकर्माभिसंस्कृतम् । अन्तरा भवसन्तत्या, कुक्षिमेति प्रदीपवत् ॥
-अभिधम्मत्थ० ३ सांख्य- पंचविंशतितत्त्वज्ञो यत्रकुत्राश्रमे रत:जटी मुण्डी शिखी वारि मुच्यते नात्र संशयः ।।
-सांख्यकारिका माठरवृत्ति तस्मान्न बध्यते नैव मुच्यते नाऽपि संसरति कश्चित् । संसरति बध्यते मुच्यते च नानाश्रया प्रकृतिः ।।
-सांख्यकारिका ६२ वैशेषिक-"धर्मविशेषप्रसूताद् द्रव्य-गुण-कर्म-सामान्य-विशेष-समवायानां पदाथानां साधर्म्य वैधाभ्यां तत्त्वज्ञानान्निःश्रेयसाधिगमः ॥"
-वैशेषिकसूत्र १/४/२ नैयायिक-"प्रमाण-प्रमेय-संशय-प्रयोजन दृष्टान्त-सिद्धान्तावयव-तर्क-निर्णय-वाद-जल्प-वितण्डा-हेत्वाभास-छल-जातिनिग्रहस्थानानां तत्त्वज्ञानान्निःश्रेयसाधिगमः ।"
-न्यायसूत्र १/१/१/३ मीमांसक-'चोदनालक्षणो धर्मः, चोदना इति क्रियायाः प्रवर्तकं वचनमाह ।' -मीमांसासूत्र शाब्द मा० ११११२
अतीन्द्रायाणामर्थानां, साक्षाद् द्रष्टा न विद्यते ।
(वेद) वचनेन हि नित्येन, यः पश्यति स पश्यति ॥ -मी० श्लोक० कुमारिलभट्ट चार्वाक-एतावानेव पुरुषो, यावानिन्द्रियगोचरः । भद्र ! वृकपदं पश्य, यद् वदन्त्यबहुश्रु ताः ॥
-वृहस्पति आचार्य