Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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प्रथम अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र ३२७
अतिरिच्छछिन्नाओ-केला आदि कई फलों की तरह कई बीज वाली लंबी फलियाँ तिरछी कटी हुई न हों, तो साधु साध्वी नहीं ले सकते। ये द्रव्य से पूर्ण होते हैं, भाव से पूर्ण होते हैं, नहीं
भी।
तरुणियं वा छिवाडिं- वृत्तिकार व्याख्या करते हैं - तरुणी यानी अपरिपक्व कच्ची छिवाड़ी-मूंग आदि की फली। २
अभज्जियं के तीन अर्थ फलित होते हैं - (१) अभग्न – बिना कूटा हुआ, (२) बिना पीसा हुआ अथवा बिना दला हुआ, (३) अग्नि में दूंजा हुआ या सेंका हुआ न हो। ३
पिहुयं-नये-नये ताजे गेहूँ, मक्का, धान आदि को अग्नि में सेंक कर पोख, होले आदि बनाते हैं, उसे 'पृथुक' कहते हैं।
भज्जियं का अर्थ वृत्तिकार ने कहा है- अग्नि में आधी पकी हुयी गेहूँ आदि की बालियाँ। ५
'मंथु' का अर्थ वृत्तिकार ने गेहूँ आदि का चूर्ण किया है। ६ दशवैकालिक (५।९८) में भी 'मंथु' शब्द का प्रयोग हुआ है। वहाँ अगस्त्यसिंहस्थविरकृत चूर्णि एवं हारिभद्रीय टीका के अनुसार 'बेर' का चूर्ण तथा जिनदासचूर्णि के अनुसार बेर, जौ आदि का चूर्ण अर्थ किया गया है। सुश्रुत आदि वैद्यक ग्रन्थों में भी 'मंथु' 'मंथ' शब्द का व्यवहार हुआ है। अन्यतीर्थिक-गृहस्थ-सहगमन-निषेध
३२७. से ' भिक्खू वा २ गाहावतिकुलं जाव पविसित्तुकामे णो अण्णउत्थिएण व
आचा० टीका पत्रांक ३२२ पर से। २. (क) आचा० टीका पत्रांक ३२२ (ख) दशवैकालिक अ०५ उ० २ गा० २० ३. 'भजिता मीस जीवा'- आचा० चूर्णि मू० पा० टिप्पणी पृ० १०५
आचा० टीका पत्रांक ३२३ आचा० टीका पत्रांक ३२४
आचा० टीका पत्रांक ३२४ ७. दसवेआलियं पृ० २५०
सुश्रुत अ० ४६/४२६ निशीथ सूत्र के द्वितीय उद्देशक (पृ.११८) के निम्नोक्त पाठों की तुलना सू० ३२७, ३२८, ३२९ से कीजिए
-'जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा परिहारिओ अपरिहारिएण सद्धिं गाहावतिकुलं पिंडवातपडियाए णिक्खमति वा पविसति वा जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारत्थिएण वा सपरिहारिओ अपरिहारिएण सद्धिं बहिया विहारभूमि वा वियारभूमि वा णिक्खमति वा पविसति वा ---जे भिक्खू अण्णउत्थिएणवा गारथिएण वा परिहारिओ अपरिहारिएहिं सद्धिंगामाणुगाम दूतिज्जति।' चूर्णिकार के शब्दों में इसकी व्याख्या इस प्रकार है-"अन्यतीर्थिका–श्चरक-परिव्राजक शाक्या-ऽऽजीवकवृद्धश्रावकप्रभृतयः, गृहस्था मरुगादि-भिक्खायरा। परिहारिओ मूलूत्तरदोसे परिहरति । अहवा मूलत्तरगुणे धरेति आचरतीत्यर्थः। तत्प्रतिपक्षभूतो अपरिहारी, ते य अण्णतित्थियगिहत्था। णी कप्पति भिक्खुस्स गिहिणा अहवा वि अण्णतित्थीणं। परिहारियस्स अपरिहारिएण सिद्धिं पविसिडं जे॥". - अर्थात् - अन्यतीर्थिकों से यहाँ आशय है-चरक, परिव्राजक, शाक्य (बौद्ध)आजीवक (गोशालक