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पड्विंशतितमं पर्व चेतांसि 'तरणाङ्गोपजीविनामुद्धतात्मनाम् । पुंसां च्युताधिकाराणामिव दैन्यमुपागमन् ॥५७॥ प्रतापी भुवनस्यैकं चक्षुर्नित्यमहोदयः। भास्वानाक्रान्ततेजस्वी बमासे भरतेशवत् ॥५॥ इति प्रस्पष्टचन्द्रांशुमहासे शरदागमे । चक्रे दिग्विजयोद्योगं चक्री चक्रपुरस्सरम् ॥५९॥ प्रस्थानभेयों गम्भीरप्रध्वानाः प्रहतास्तदा । श्रता बर्हिभिरुचैघनाडम्बरशङ्किभिः॥६०॥ कृतमङ्गलनेपथ्यो बभारोरस्थलं प्रभुः । शरलक्ष्म्येव संभक्तं सहारहरिचन्दनम् ॥६१॥ ज्योत्स्नामये दुकूले च शुक्ले परिदधौ नृपः । शरच्छ्रियोपनीते वा मृदुनी दिव्यवाससी ॥२॥ आजानुलम्बिना ब्रह्मसूत्रेण विवभौ विभुः । हिमाद्रिरिव गङ्गाम्बुप्रवाहेण तटस्पृशा ॥६३॥ 'तिरीटोदग्रमर्धासौ कर्णाभ्यां कुण्डले दधौ । चन्द्रार्कमण्डले वक्तुमिवायाते जयोत्सवम् ॥६४॥
वक्षःस्थलेऽस्य रुरुचे रुचिरः कौस्तुमो मणिः। जयलक्ष्मीसमुद्वाहमङ्गलाशंसिदीपवत् ॥६५॥ पंक्ति आकाशमें ऐसी शोभा बढ़ा रही थी मानो पद्मराग मणियोंकी कान्तिसहित हरित मणियोंकी बनी हुई वन्दनमाला ही हो ।।५६।। जिस प्रकार अधिकारसे भ्रष्ट हुए मनुष्योंके चित्त दीनताको प्राप्त होते हैं उसी प्रकार नावोंके द्वारा आजीविका करनेवाले उद्धत मल्लाहोंके चित्त दीनताको प्राप्त हो रहे थे । भावार्थ - शरदऋतुमें नदियोंका पानी कम हो जानेसे नाव चलानेवाले लोगोंका व्यापार बन्द हो गया था इसलिए उनके चित्त दुःखी हो रहे थे ।।५७।। उस समय सूर्य भी ठीक महाराज भरतके समान देदीप्यमान हो रहा था, क्योंकि जिस प्रकार भरत प्रतापी थे उसी प्रकार सूर्य भी प्रतापी था, जिस प्रकार भरत लोकके एकमात्र नेत्र थे अर्थात् सबको हिताहितका मार्ग दिखानेवाले थे उसी प्रकार सूर्य भी लोकका एकमात्र नेत्र था, जिस प्रकार भरतका तेज प्रतिदिन बढ़ता जाता था उसी प्रकार सूर्यका भी तेज प्रतिदिन बढ़ता जाता था, और जिस प्रकार भरतने अन्य तेजस्वी राजाओंको दबा दिया था उसी प्रकार सूर्यने भी अन्य चन्द्रमा तारा आदि तेजस्वी पदार्थोंको दबा दिया था - अपने तेजसे उनका तेज नष्ट कर दिया था ।।५८॥ इस प्रकार अत्यन्त निर्मल चन्द्रमाकी किरणें ही जिसका हास्य है ऐसी शरद् ऋतुके आनेपर चक्रवर्ती भरतने चक्ररत्न आगे कर दिग्विजय करनेके लिए उद्योग किया ॥५९।।
उस समय गम्भीर शब्द करते हुए प्रस्थान कालके नगाड़े बज रहे थे, जिन्हें मेघके आडम्बरकी शंका करनेवाले मयूर अपनी ग्रीवा ऊँची उठाकर सुन रहे थे ॥६०॥ उस समय जिन्होंने मंगलमय वस्त्राभूषण धारण किये हैं ऐसे महाराज भरत हार तथा सफेद चन्दनसे सुशोभित जिस वक्षःस्थलको धारण किये हुए थे वह ऐसा जान पड़ता था मानो शरद्ऋतुरूपी लक्ष्मी ही उसकी सेवा कर रही हो ॥६१॥ महाराज भरतने चाँदनीसे बने हुएके समान सफेद, बारीक और कोमल जिन दो दिव्य वस्त्रोंको धारण किया था वे ऐसे जान पड़ते थे मानो शरदऋतुरूपी लक्ष्मीके द्वारा ही उपहारमें लाये गये हों ।। ६२ ।। घुटनों तक लटकते हुए ब्रह्मसूत्रसे महाराज भरत ऐसे सुशोभित हो रहे थे, जैसा कि तटको स्पर्श करनेवाले गंगा जलके प्रवाहसे हिमवान् पर्वत सुशोभित होता है ।। ६३ ॥ मुकुट लगानेसे जिनका मस्तक बहुत ऊंचा हो रहा है ऐसे भरत महाराजने अपने दोनों कानोंमें जो कुण्डल धारण किये थे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो जयोत्सवकी बधाई देनेके लिए सूर्यमण्डल और चन्द्रमण्डल ही आये हों ॥ ६४ ॥ भरतेश्वरके वक्षःस्थलपर देदीप्यमान कौस्तुभ मणि ऐसा सुशोभित होता था, १ द्रोण्युडुपाद्युपजीविनाम् । नदीतारकाणामित्यर्थः । २ मङ्गलालंकारः । ३ सेवितम् । ४ किरीटोदन - ल०, द०, अ०, स०।