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आदिपुराणम्
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'सापयेन्प्रकृतस्वनान् । पीनापीनाः पयस्विन्यः पयः पीयूषमुत्सुकाः ॥४७॥ क्षीरस्य निजान् वत्सान् हुम्भागम्भीरनिःस्वनान् । धेनुष्याः पाययन्ति स्म गोपैरपि नियन्त्रिताः ॥ ४८ ॥ प्राक्स्वीया जलदा जाताः शिखिनामप्रियास्तदा । रिक्ता जलधनापायादहो कष्टा दरिद्रता ॥ ४९॥ "व्यावहासीमिवातेनुर्गिरयः पुष्पितैर्दुमैः । व्यात्युक्षीमिव तन्वानाः स्फुरनिर्झरशीकरैः ॥ ५०॥ प्रवृद्धवसो'' रेजुः कलमा भृशमानताः । परिणामात्प्रशुष्यन्तौ ' जरन्तः पुरुषा इव ॥ ५१॥ "विरेजु रसना पुष्पैर्मदा लिपटलावृतैः । इन्द्रनीलकृतान्तर्यैः " सौवर्णैरिव भूषणैः ॥५२॥ घनावरणनिर्मुक्ता दधुराशा दृशां मुदम् । नटिका" इव नेपथ्यगृहाद्वङ्गमुपागताः ॥५३॥ अदधुर्धनवृन्दानि मुक्तासाराणि भूधराः । सदशानीव" वासांसि निष्प्रवाणीनि" सानुभिः ॥ ५४ ॥ पवनाधोरणारूढाभ्रे मुर्जीमूतदन्तिनः । सान्तर्गजा निकुञ्जेषु सासारमदशीकराः ॥ ५५ ॥ शुकावलीप्रवालाभचञ्चुस्तेने दिवि श्रियम् । हरिन्मणिपिनद्वेव तोरणाली सपद्मभा ॥५६॥ जिनके स्तन बहुत ही स्थूल हैं और जो हम्भा शब्द कर रही हैं ऐसे दूधवाली गायें दूध पीने के लिए उत्सुक तथा बार-बार हम्भा शब्द करते हुए अपने बच्चोंको दूधरूपी अमृत पिला रही थीं ॥४७॥ जो गायें ग्वालाओंके यहाँ बन्धकरूपसे आयी थीं अर्थात् दूधके ठेकापर आयी थीं, उन्होंने उन्हें यद्यपि बाँध रखा था तथापि वे 'हुम्भा' ऐसा गम्भीर शब्द करनेवाले एवं दूध पीने के लिए उत्सुक अपने बच्चोंको दूध पिला ही रही थीं || ४८ || जो मेघ पहले मयूरोको अत्यन्त प्रिय थे वे ही अब शरदऋतुमें जलरूप धनके नष्ट हो जानेसे खाली होकर उन्हें अप्रिय हो गये थे सो ठीक ही है क्योंकि दरिद्रता बहुत ही
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कष्ट
समय फूले हुए वृक्षोंसे पर्वत ऐसे जान पड़ते थे झरते हुए झरनों के छींटोंसे ऐसे जान पड़ते थे एक-दूसरेके ऊपर जल डाल रहे हों ॥५०॥
देनेवाली होती है || ४९ || उस मानो परस्पर में हँसी ही कर रहे हों और मानो फाग ही कर रहे हों - विनोदवश कलमी जातिके धान, जो कि बहुत दिन के अथवा जिनके समीप बहुत पक्षी बैठे हुए थे, जो खूब नव रहे थे और जो अपने परिपाक से जगत्के समस्त जीवोंका पोषण करते थे, वे ठीक वृद्ध पुरुषोंके समान सुशोभित हो रहे थे ।।५१।। सहजनाके वृक्ष मदोन्मत्त भ्रमरोंके समूहसे घिरे हुए अपने फूलोंसे ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो जिनके मध्यभागमें इन्द्रनील मणि लगा हुआ है ऐसे सुवर्णमय आभूषणोंसे ही सुशोभित हो रहे हों ॥५२॥ जिस प्रकार आभूषण आदि पहननेके परदेवाले घरसे निकलकर रंगभूमिमें आयी हुई नृत्यकारिणी नेत्रोंको आनन्द देती है उसी प्रकार मेघोंके आवरणसे छूटी हुई दिशाएँ नेत्रोंको अतिशय आनन्द दे रही थीं ॥ ५३ ॥ पर्वतोंने जो अपनी शिखरोंपर जलरहित सफेद बादलोंके समूह धारण किये थे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो अंचलसहित नवीन वस्त्र ही हों ॥ ५४ ॥ जिनपर वायुरूपी महावत बैठे हुए हैं, जो भीतर-ही-भीतर गरज रहे हैं और जो लतागृहों में जलकी बूँदेंरूपी मदधाराकी बूँदें छोड़ रहे हैं ऐसे मेधरूपी हाथी जहाँ-तहाँ फिर रहे थे ।। ५५ ।। जिनकी चोंच मूँगाके समान लाल है ऐसी तोताओंकी
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१ हुँभा इत्यनुकरणारावभृतः । २ पाययन्ति स्म । ३ प्रकर्षेण कृत । ४ प्रवृद्धोधसः । ५ धेनवः । ६ -मुत्सुकाम् ल० । ७ क्षीरमात्मानमिच्छून् । ८ 'धेनुष्या बन्धके स्थिता' इत्यभिधानात् । ९ परस्परहसनम् । १० परस्परसेचनम् । ११ वृद्धवयस्काः प्रवृद्धपक्षिणश्च । १२ परिपक्वात् । १३ वृद्धाः | १४ सर्जकाः । १५ मध्यैरित्यर्थः । १६ नर्तक्यः । १७ अलंकारगृहात् । १८ वर्षाणि । १९ वस्तिसहितानि । 'स्त्रियां बहुत्वे वस्त्रस्य दशा स्युर्वस्तयः' इत्यभिधानात् । अन्यदपि दशावर्तावस्थायां वस्त्रान्ते स्युर्दशा अपि । २० वस्त्राणि । २१ नूतनानि । 'अनाहतं निष्प्रवाणि तन्त्रकं च नवाम्बरे' इत्यभिधानात् । २२ हस्तिपक । 'आधोरणी हस्तिपक:' इत्यभिधानात् । २३ मेघ । २४ सानुषु । २५ आकाशे । २६ पद्मरागसहिता ।