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षडविंशतितमं पर्व
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स्वयं धतमभाद् व्योम स्वयं प्रच्छालितः शशी । स्वयं प्रसादिता नद्यः स्वयं संमाजिता दिशः ॥ ३८ ॥ शरलक्ष्मीमुखालोकदर्पणे शशिमण्डले । प्रजादृशो धृतिं भेजुरसंमृष्टसमुज्ज्वले ॥ ३९ ॥ वनराजीस्ततामोदाः कुसुमाभरणोज्ज्वलाः । मधुव्रता भजन्ति स्म कृतकोलाहलस्वनाः ॥४०॥ तन्व्यो वनलता रेजुर्विकासिकुसुम स्मिताः । सालका इव गन्धान्धविलोलालिकुलाकुलाः ॥४१॥ दर्षोद्धुराः” खुरोत्खातभुवस्ताम्रीकृतक्षणाः । वृषाः प्रतिवृषालोककुपिताः प्रतिसस्त्रनुः ॥४२॥ अवाकिरन् शृङ्गायैर्वृषभा धीरनिःस्वनाः । वनस्थलीः स्थलाम्भोजमृणालशकलाचिताः ॥४३॥ वृषाः ककुदसंलग्नमृदः कुमुदपाण्डुराः । व्यक्ताङ्कस्य मृगाङ्कस्य लक्ष्मीमभिरु स्तदा ॥ ४४ ॥ क्षीरत्लत्रमयीं कृत्स्नामातन्वाना वनस्थलीम् । प्रस्नुवाना वनान्तेषु प्रसस्रुर्गोमतल्लिकाः” ॥४५॥ कुण्डोऽन्योऽमृतपिण्डेन" घटिता इव निर्मलाः । गोगृष्टयों' वनान्तेषु शरच्छ्रिय इवारुचन् ॥४६॥ सुशोभित हो रही थी क्योंकि जिस प्रकार नवोढ़ा स्त्री बन्धुजीव अर्थात् भाई-बन्धुओंपर राग अर्थात् प्रेम रखती है उसी प्रकार वह शरदऋतु भी बन्धुजीव अर्थात् दुपहरिया के फूलोंपर राग अर्थात् लालिमा धारण कर रही थी, नवोढा स्त्री जिस प्रकार देदीप्यमान होती है उसी प्रकार शरदऋतु भी बाण जातिके फूलोंसे देदीप्यमान हो रही थी और नवोढा स्त्री जिस प्रकार सखियोंसे घिरी रहती है उसी प्रकार वह शरदऋतु भी हंसीरूपी सखियोंसे घिरी रहती थी ||३७|। उस समय आकाश अपने-आप साफ किये हुएके समान जान पड़ता था, चन्द्रमा प आप धोये हुएके समान मालूम होता था, नदियाँ अपने-आप स्वच्छ हुई-सी जान पड़ती थीं और दिशाएँ अपने-आप झाड़-बुहारकर साफ की हुईके समान मालूम होती थीं ||३८|| जो शरदऋतुरूपी लक्ष्मीके मुख 'देखनेके लिए दर्पणके समान है और जो बिना साफ किये ही अत्यन्त उज्ज्वल है ऐसे चन्द्रमण्डलमें प्रजाके नेत्र बड़ा भारी सन्तोष प्राप्त करते थे || ३९ || जिनकी सुगन्धि चारों ओर फैल रही हैं और जो फूलरूप आभरणोंसे उज्ज्वल हो रही हैं ऐसी वनपंक्तियोंको भ्रमर कोलाहल शब्द करते हुए सेवन कर रहे थे ||४०|| जो फूले हुए पुष्परूपी मन्द हास्यसे सहित थीं तथा गन्धसे अन्धे हुए भ्रमरोंके समूहसे व्याप्त होनेके कारण जो सुन्दर केशोंसे सुशोभित थीं ऐसी वनकी लताएँ उस समय कृश शरीरवाली स्त्रियोंके समान शोभा पा रही थी ।। ४९ ।। जो खुरोंसे पृथिवीको खोद रहे थे, जिनकी आँखें लाल-लाल हो रही थीं और जो दूसरे बैलोंके देखनेसे क्रोधित हो रहे थे ऐसे मदोन्मत्त बैल अन्य बैलोंके शब्द सुनकर बदलेमें स्वयं शब्द कर रहे थे ||४२ ।। उसी प्रकार गम्भीर शब्द करते हुए वे बैल अपने सींगों के अग्रभागसे स्थलकमलोंके मृणालके टुकड़ोंसे व्याप्त हुई वनकी पृथिवीको खोद रहे थे ||४३|| इसी तरह उस शरदऋतुमें जिनके काँधौलपर मिट्टी लग रही है और जो कुमुद पुष्पके समान अत्यन्त सफेद हैं ऐसे वे बैल स्पष्ट चिह्नवाले चन्द्रमाकी शोभा धारण कर रहे थे ||४४ || जिनसे अपने-आप दूध निकल रहा है ऐसी उत्तम गायें वनकी सम्पूर्ण पृथिवीको दुग्ध प्रवाहके रूप करती हुई वनोंके भीतर जहाँ-तहाँ फिर रही थीं ॥ ४५ ॥ इसी प्रकार जिनके स्तन कुण्डके समान भारी हैं और जो अमृतके पिण्डसे बनी हुईके समान अत्यन्त निर्मल हैं ऐसी ती प्रसूत हुई गायें वनोंके मध्य में शरदऋतुकी शोभाके
समान जान पड़ती थीं ॥ ४६ ॥
१ आत्मना प्रसन्नमित्यर्थः । २ प्रसन्नीकृताः । ३ कृशाः अङ्गनाश्च । ४ उत्कृष्टा । ५ वृषभाः । ६ किरन्ति स्म । ७ वनस्थलीं ल० । ८ - चिताम् ल० । ९ धरन्ति स्म । १० प्रशस्तगावः । 'मतल्लिका मचिका प्रकाण्डमुद्धतल्लजौ । प्रशस्तवाचकान्यमूनि' इत्यभिधानात् । ११ पिठराधीनाः । 'पिरुर : स्थात्युखा कुण्डमित्यभिधानात् । 'ऊधस्तु क्लीबमापीनम्' । 'ऊधसोऽनम्' इति सूत्रात् सकारस्य नकारादेशः । १२ सकृत्प्रसूता गावः । 'गृष्टिः सकृत्प्रसूतिका' इत्यभिधानात् । १३ इवाभवन् ल० ।