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षड्विंशतितमं पर्व कलहंसा हसन्तीव विरुतैः स्म शिखण्डिनः । अहो 'जडप्रिया यूयमिति निर्मलमूर्तयः ॥१६॥ चित्रवर्णा घनाबद्धरुचयो गिरिसंश्रयाः । समं शतमखेष्वासैर्बहिणः स्वोन्नतिं जहुः ॥२०॥ "बन्धूकैरिन्द्रगोपश्रीरातेने वनराजिषु । शरल्लक्ष्येव निष्ठ्यूतैस्ताम्बूलरसबिन्दुभिः ॥२१॥ विकासं बन्धुजीवेषु शरदाविर्मवन्त्यधात् । सतीव सुप्रसन्नाशा विपका विशदाम्बरा ॥२२॥ हंसस्वनानकाकाशकणिशोज्ज्वलचामरा । पुण्डरीकातपत्रासीदिग्जयोत्थेव सा शरत ॥२३॥ दिशां"प्रसाधनायाधाद्''वाणासनपरिच्छदम् । शरत्कालो "जिगीषोहि इलाध्यो बाणासनग्रहः ॥२४॥ घनावली कृशा पाण्डुरासीदाशा विमुञ्चती। घनागमवियोगोत्थचिन्तयेवाकुलीकृता ॥२५॥ नमः सतारमारेजे विहसत्कुमुदाकरम् । कुमुद्वतीवनं चाभाज्जयत्तारकितं नमः ॥२६॥ .
निर्मल शरीरको धारण करनेवाले हंस मधुर शब्द करते हुए ऐसे जान पड़ते थे मानो अहो तुम लोग जड़प्रिय - मूर्खप्रिय ( पक्ष में जलप्रिय ) हो इस प्रकार कहकर मयूरोंकी हँसी ही उड़ा रहे हों ॥ १९ ॥ जिनका वर्ण अनेक प्रकारका है, जिनकी रुचि-इच्छा (पक्ष में कान्ति ) मेघोंमें लग रही है और जो पर्वतोंके आश्रय हैं ऐसे मयूरोंने इन्द्रधनुषोंके साथ-ही-साथ अपनी भी उन्नति छोड़ दी थी। भावार्थ - उस शरदऋतुके समय मयूर और इन्द्रधनुष दोनोंकी शोभा नष्ट हो'. गयी थी ॥ २० ॥ वन-पंक्तियोंमें शरदऋतुरूपी लक्ष्मीके द्वारा थूके हुए ताम्बूलके रसके बूंदोंके समान शोभा देनेवाले बन्धक ( दुपहरिया ) पुष्पोंने क्या इन्द्रगोप अर्थात् वर्षाऋतुमें होनेवाले लाल रंगके कीड़ोंकी शोभा नहीं बढ़ायी थो ? अर्थात् अवश्य ही बढ़ायी थी। बन्धूक पुष्प इन्द्रगोपोंके समान जान पड़ते थे ॥ २१ ॥ जिस प्रकार निर्मल अन्तःकरणवाली, पापरहित
और स्वच्छ वस्त्र धारण करनेवाली कोई सती स्त्री घरसे बाहर प्रकट हो अपने बन्धुजनोंके विषयमें विकास अर्थात् प्रेमको धारण करती है उसी प्रकार शुद्ध दिशाओंको धारण करनेवाली कीचड़रहित और स्वच्छ आकाशवाली शरदऋतुने भी प्रकट होकर बन्धुजीव अर्थात् दुपहरियाके फलोंपर विकास धारण किया था - उन्हें विकसित किया था। तात्पर्य यह है कि उस समय दिशाएँ निर्मल थीं, कीचड़ सूख गया था, आकाश निर्मल था और वनोंमें दुपहरियाके फूल खिले हुए थे ।। २२ ।। उस समय जो हंसोंके शब्द हो रहे थे वे नगाड़ोंके समान जान पड़ते थे, वनोंमें काशके फूल फूल रहे थे वे उज्ज्वल चमरोंके समान मालूम होते थे, और तालाबोंमें कमल खिल रहे थे वे क्षत्रके समान सुशोभित हो रहे थे तथा इन सबसे वह शरद्ऋतु ऐसी जान पड़ती थी मानो उसे दिग्विजय करनेकी इच्छा ही उत्पन्न हुई हो ।। २३ ॥ उस शरदऋतुने दिशाओंको प्रसाधन अर्थात् अलंकृत करनेके लिए बाणासन अर्थात बाण और आसन जातिके पुष्पोंका समूह धारण किया था सो ठोक ही है मीकि शत्रुओंको प्रसाधन अर्थात् वश करनेके लिए जिगीषु राजाको बाणासन अर्थात् धनुषका ग्रहण करना प्रशंसनीय ही है ।। २४ ।। उस समय समस्त आशा अर्थात् दिशाओं ( पक्षमें संगमकी इच्छाओं )को छोड़ती हुई मेघमाला कृश और पाण्डवर्ण हो गयी थी सो उससे ऐसी जान पडती थी मानो वर्षाकालके वियोगसे उत्येन्न हुई चिन्तासे व्याकुल होकर ही वैसी हो गयी हो ॥ २५ ।। उस शरदऋतके समय ताराओंसे सहित आकाश ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो कुमुदिनियोंसहित सरोवरकी हँसी ही कर रहा हो
१ जलप्रिया ल०, द०, इ०, स०, अ०, प० । २ मेघकृतवाञ्छाः । ३ इन्द्र चापे. । ४ बन्धुजीवकैः। बन्धूकैः बन्धुजीवकः' इत्यभिधानात् । ५ बन्धूक-कुसुमेषु, पक्षे सुहृज्जीवेषु । ६ पुण्याङ्गनेव । ७ सुप्रसन्नदिक्, पक्षे सुप्रसन्नमानसा। सुप्रसन्नात्मा-ल०। ८ विगतकर्दमा, पक्षे दोषरहिता। ९ पक्षे निर्मलवस्त्राः । १० अलंकाराय । जयार्थं च । ११ झिण्टिकुसुमसर्जककुसुमपरिकरम् । पक्षे धनुःपरिकरम् । १२ जेतुमिच्छोः ।