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आदिपुराणम्
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सरोजलमभूत्कान्तं सरोजरजसा ततम् । सुवर्णरजसाकीर्णमिव कुट्टिमभूतलम् ॥९॥ सरः सरोजरजसा परितः स्थगितोदकम् । कादम्ब जायाः संप्रेक्ष्य मुहुर्मुहुः स्थलशङ्कया ॥ १० ॥ कञ्जकिञ्जल्क पुन्जेन पिञ्जरा षट्पदावली । सौवर्णमणिधेव शरदः कण्ठिका बभौ ॥ ११॥ सरोजलं समासेदुर्मुखराः सितपक्षिणः" । "वदान्यकुलमुद्भूतसौगन्ध्यमिव वन्दिनः ॥ १२ ॥ नदीनां पुलिनान्यासन् शुचीनि शरदागमे । हंसानां रचितानीव शयनानि सितांशुकैः ॥ १३ ॥ सरांसि ससरोजानि सोत्पला 'वप्रभूमयः । सहंससैकता' नद्यो जहइचेतांसि कामिनाम् ॥ १४ ॥ प्रसन्नसलिला रेजुः सरस्यः सहसारसाः । कूजितैः कलहंसानां जितन पुरशिञ्जितैः ॥ १५॥ नीलोत्पलेक्षणा रेजे शरच्छी: पङ्कजानना । व्यक्तमाभाषमाणेव कलहंसी कलस्वनैः ॥१६॥ पक्कशालिभुवो नम्रकणिशाः पिञ्जरश्रियः । स्नाता 'हरिद्रवासन् शरत्कालप्रियागमे ॥ १७ ॥ मन्दसाना मदं भेजुः सहसाना" " मदं जहुः । शरलक्ष्मीं समालोक्य शुद्ध्यशुद्धयोरयं निजः ॥ १८ ॥ की बड़े-बड़े मोतियोंकी मालासे बनी हुई कण्ठमाल ( गले में पहननेका हार ) ही हों ॥ ८ ॥ कमलों की परागसे व्याप्त हुआ सरोवरका जल ऐसा सुन्दर जान पड़ता था मानो सुवर्णकी धूलिसे व्याप्त हुआ रत्नजटित पृथिवीका तल ही हो || ९ || जिसका जल चारों ओरसे कमलोंकी परागसे ढँका हुआ है ऐसे सरोवरको देखकर कादम्ब जातिके हंसोंकी स्त्रियाँ स्थलका सन्देह कर बार-बार मोहमें पड़ जाती थीं अर्थात् सरोवरको स्थल समझनें लगती थीं ॥ १० ॥ जो भ्रमरोंकी पंक्तियाँ कमलोंकी केशरके समूहसे पीली-पीली हो गयी थीं वे ऐसी जान पड़ती थीं मानो सुवर्णमय मनकाओंसे गूंथा हुआ शरदऋतुका कण्ठहार ही हो ।। ११ ।। जिस प्रकार चारण लोग प्रसिद्ध दानी पुरुषके समीप उसकी कीर्ति गाते हुए पहुँचते हैं उसी प्रकार हंस पक्षी भी शब्द करते हुए अतिशय सुगन्धित सरोवर के जलके समीप पहुँच रहे थे ।। १२ ।। शरद् ऋतुके आते ही नदियोंके किनारे स्वच्छ हो गये थे और ऐसे जान पड़ते थे मानो सफेद वस्त्रोंसे बने हुए हंसों के बिछौने ही हों ॥ १३ ॥ कमलोंसे सहित सरोवर, नील कमलोंसे सहित खेतों की भूमियाँ और हंसों सहित किनारोंसे युक्त नदियाँ ये सब कामी मनुष्योंका चित्त हरण कर रहे थे ।। १४ ।। जिनमें स्वच्छ जल भरा हुआ है और जो सारस पक्षियोंके जोड़ोंसे सहित हैं ऐसे छोटे-छोटे तालाब, नूपुरोंके शब्दको जीतनेवाले कलहंस पक्षियोंके सुन्दर शब्दोंसे बहुत ही अधिक सुशोभित हो रहे थे ।। १५ ।। नीलोत्पल ही जिसके नेत्र हैं और कमल ही जिसका मुख है ऐसी शरदऋतुकी लक्ष्मीरूपी स्त्री कलहंसियोंके मधुर शब्दोंके बहाने वार्तालाप करती हुई-सी जान पड़ती थी ।। १६ ।। जिनमें बालें नीचेको ओर झुक गयी हैं और जिनकी शोभा कुछकुछ पीली हो गयी है ऐसी पके चावलोंकी पृथिवियाँ उस समय ऐसी जान पड़ती थीं मानो शरद् कालरूपी पतिके आनेपर हल्दी आदिके उबटन द्वारा स्नान कर सुसज्जित ही बैठी हों ।। १७ ।। उस शरदऋतुकी शोभा देखकर हंस हर्षको प्राप्त हुए थे और मयूरोंने अपना हर्ष छोड़ दिया था । सो ठीक ही है क्योंकि शुद्धि और अशुद्धिका यही स्वभाव होता है । भावार्थहंस शुद्ध अर्थात् सफेद होते हैं इसलिए उन्हें शरदऋतुकी शोभा देखकर हर्ष हुआ परन्तु मयूर अशुद्ध अर्थात् नीले होते हैं इसलिए उन्हें उसे देखकर दुःख हुआ । किसीका वैभव देखकर शुद्ध अर्थात् स्वच्छ हृदयवाले पुरुष तो आनन्दका अनुभव करते हैं और अशुद्ध अर्थात् मलिन स्वभाववाले - दुर्जन पुरुष दुःखका अनुभव करते हैं, यह इनका स्वभाव ही है ।। १८ ।।
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१ कलहंसस्त्रियः । ' कादम्बः कलहंसः स्याद्' इत्यभिधानात् । २ मोहयन्ति स्म । ३ रचिता । ४ जगुः । ५ हंसा: । ६ त्यागिसमूहम् । ७ सौहार्दम् । ८ केदार । ९ पुलिन । १० अपहरन्ति स्म । ११ रजन्या । १२ हंसाः । मन्दमाना ल० । १३ हर्षम् । १४ मयूराः । सहमाना ल० । १५ अयमात्मीयगुणो हि ।