Book Title: Abhidhan Rajendra kosha Part 4
Author(s): Rajendrasuri
Publisher: Abhidhan Rajendra Kosh Prakashan Sanstha

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Page 1334
________________ (२६५५) धणमित्त अभिधानराजेन्द्रः। धणमित्त किंबहुणा भणिएणं,-धम्मेण हवंति सयलसिकीओ। धनमित्रचरित्रं पुनरेवम् धम्मेण विमुकाण उ, जियाण न कया वि फलसिद्धी ॥२४॥ "गुरुसत्तगणसमेयं, गाहाश्मद लामिवस्थि विणयपुरं। तं सोउं धणमित्तो, कयंजली जंपए नमिय त्रि। तत्थाऽसि वसू सिट्ठी, जहा नामेण से भज्जा ॥१॥ एवमिणं मुणिपुंगव!, जं तुम्भेहिं समाई ।। २५ ॥ ताण सुमो धणमिसो, बाबाल वि तस्स उबरया पियरो। जम्माउ वि मह दुक्खं, मुणद चिय पहु! तुमे सनाणेण । पुग्ने घणे पण हे, नहो विहवो नरवु च ।। २॥ को देक पुण हयं, तो कहइ गुरू सुणसु मह!॥ १६ ॥ परिबलियो हेणं, सो कमसो परियणेण वि विमुक्को। ह भरहे विजयपुर-म्भि गंगदत्तु त्ति गिहबई पासि। परिणयणत्थं अधणु-सि को विनय देश से कनं ॥३॥ मगहा से दइया सो-उ धम्मनाम पिन मुख ॥२७॥ तो लजितो नवरा-उणिग्गओ दविण प्रजण सयराहे । धम्मकरणुज्जुयाणं, अनेसि पि हु करे बहुविग्धे । पिच्छ कत्थ वि मरगे, पारोहं किसुयतरुम्मि ॥४॥ मच्छरभरिभो कस्स वि, लाभ नहु सक्कप दवू ॥२८॥ तो सरह खत्तवायं, सो सुयपुव्वं जहा अखीरपुमे । . जापुण कई पिसे पि-च्छिरक्स बवहर कोइ बहुलाभं । जइ दीसह पारोहो, ता तस्स अहे धणं मुणसु॥५॥ पर जरो सत्तमुहे-हि तस्स श्य वासरा जति ॥२६॥ विवपलासेसु धुवं, पारोहे थूलए यहूं दव्वं । अन्नदणे करुणाप, सुंदरनामेण सावपण इमो। तणुए थोवं तह निसि, जनरे यह थोबमियरम्मि ॥६॥ नीनो मुणीण पासे, कदिनो तो पिइय धम्मो ॥ ३०॥ विके पुण पारोहे, रत्तरसे निग्गयम्मि रयणाई। उवसमविवेगसंवर--सारो जहसत्ति नियमतवपबरो। सेए रययं पीप, कणग न हुनीरसे कि पि॥७॥ जिणधम्मो कायम्बो, अतुच्छलम्कीइ कुलजवणं ॥ ३१ ॥ जत्तियमित्ते देसे, पारोहो बच्चोजवे वरि। श्य सुणिय किंचि भावे-ण किंपि दक्खिनो वि गिरहे। तत्सियमिते देसे, अहे त्रिनिहियं क्षणं मुणसु ॥ ८॥ सो पविणचिश्वंदण-करणजुएऽजिग्गहे के वि ॥ ३२॥ तणुप उबरि परोहे, हिदा पिने घुवं धणं मुणसु। मुणिण नमितु पत्तो, सगिहम्मि पमायपरवसो धणियं । विवरीए तयभावो, इय जिच्छेऊण धणमित्तो ॥१॥ नंजा अभिग्गहे के, त्रि के वि अश्यर मढमणो ॥३३॥ "नमो धनदास नमो धरणेन्डाय नमो धजपालाय" इति इकं पुण चिइवंदण-अन्निग्गहं पालए निरहयारं। मन्त्र प- खनति स्म तं प्रदेशम्। कालकमेण मरिच, संपर सो पस तं जाओ ॥ ३४॥ किं तु अन्नवसेण, केवल अंगारपूरियं निय। पुवकयदुक्कयवसा, तए श्म परिसं फर्श पत्तं । तंबमयकलसजुयलं, तो इमो चिंता विसनो ॥१०॥ जिणवंदणप्पानावा, जायं निहिसणाईयं ॥ ३५ ॥ पारोहपायरसद-सरोज कणयम्मि निरिए विधुवं । इय सोउं धणमित्तो, संवेयगो नमि मुमिनाई। इंगाल हिय पिच्छे-लि केवलेही बिगयपुग्नो ।। ११ ।। बहुदुक्खलक्खदलणं, गिदिधम्मं गिएहप सम्मं ॥३६॥ दविणस्थिणा नरेणं, न हु कायन्बो तदा विनिमेयो। दिवसनिसिपदमपहरे, मुत्तुं धम्मक्खणं भई सेसं। ज सम्वस्थ वि गिफर, सिरी मूलं अनिस्वेश्रो ॥ १२ ॥ सहसाणानोगेणं, विणा पत्रोसं च वज्जिस्सं ॥ ३७॥ श्य चिंतिय पुरो वि हु, बहुनुभागे अणेश दविणकए । एवं गिरिदय घोरं, अभिग्गदं वंदिवं च गुरुचरणे । न य पाव काणवरा-डियं पि कत्थर अपुन्नवसा ॥ १३॥ पुरमके कस्सा सा-वगस्स गेदम्मि उत्तर ॥ ३८॥ सिक्खे धाउवायं, मुसुकिलेसं लहेदन अन्न । सुरुदय भोगेणं, सच्चिणि मालिणा समं कुसुमे । होउ वणि प्रो तो चडक, पवदणे भज्ज तयं तो ॥ १४ ॥ घरजिणहरजिणपमिमा- निच्चमच्चे जत्तीए॥३॥ अह यलमग्गवणिज, करेह अजेइ कहनि कि पि धणं । वोए पहरे मोया-गमाविरोहेण कुणश् ववसायं । तं पि नरेसरतकर-पमुहदि धिप्पए तस्स ॥१५॥ संपज्जा अकिलेसे-ण तेण खबु जोयणं तस्स ॥४०॥ तो सब्वपयत्तेणं, गोलग कुण निवश्पभिणं । जह जह धम्मम्मि थिरो.हवेह तह तह पवरुप बिदयो। तह वि तद पुन्नवसओ, न ते वि किंपितु पसीयति ॥ १६ ॥ विच्चे बहुं धम्मे, वीसु गिपहेह तो गेहं॥४१॥ एवं दुई सहतो, परिभमिरो माहियले कया पिइमो। एगेण महिसियसा-वएण दिना य तस्स नियधृया। केवलकलियं गुणसा-यरं गुरुं गयतरे नियर ।।१७।। अश्चम्मिन त्ति काउं, दुन्नि वि चिटुंति धम्मपरा ॥ ४२ ॥ संजायकम्मविवरो, बहुबहुमाणेण नम गुरुचरणे । पत्तो, कया बि सोगो, उत्सम्मि गुलतिमा विकिणिकं । तो कहर मुणवरो त--स्स समुचियं धम्मकदमे ॥ १० ॥ तं बझं पुण तं गुरु-मन्नगिहं गंतुमुच्चलियं ॥४३॥ धम्मेण धणसमिद्धी, जम्मो धम्मेण उत्तमकुनम्मि । तं मेहरो य निहिठबि-य तंबकलसे तो गहिउकामो । धम्मेण दीदमाउं, धम्मेण बदगमारुग्गं ॥ १६॥ बज्काव इंगाले, तं कणयं नियह धणमित्तो ॥४४॥ सयलचउजनाहवनय-म्मि निम्मला भमइ धम्मश्रो कित्ती । किमिणं उज्झाविज्जह य पुढे तेण मेहरों भणह। हसियरहरमणरूवं, रूवं धम्माउ ह हो ॥२०॥ कणगं ति कहिय पिउणा, पवंचिया इच्चिरं भम्हे ॥४५॥ जंतुंजति सुहाई, मणिरयणपहापहासियादसेसु। संप झाबेमो, पप इंगासप निपऊण । जवणेसु भवणवणो, तं सब्वं धम्ममाहप्पं ॥२१॥ तो सेट्टी सुद्धमणो, भणेह भो भह ! सुवन्नमिणं ॥४६॥ जं हरिसनम्नंतं, निवचकं चक्किणो नम चलो। जंपे मेहरो दढ-विमूढ ! कि बाउलो सि मत्तो सि। तं सुद्धधम्मकपद-दुमस्स कुसुमुम्गमं मन्ने ।। २२॥ धनुरिश्रो सि अहवा, सव्वं सुनं दरिद्दस्स ॥४७॥ सरहससुरसुंदरिफर-वालियचलचारुचामरुप्पी लो । जह कणगमिणं ताम-ज्क दाउ गुलतिल्लमाश्यं कि पि । सुरलोष सुरनाहो, हवे धम्मप्पभावेण ॥ २३ ॥ गिपहसु इमं तुम चिय, तह चेव करे सिही वि॥४८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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