Book Title: Abhidhan Rajendra kosha Part 4
Author(s): Rajendrasuri
Publisher: Abhidhan Rajendra Kosh Prakashan Sanstha

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Page 1425
________________ (२७४६ ) अभिधान राजेन्द्रः । धायइ संडदीव एडपूर्वा जिलापेन वाच्यमित्याह । (जाव दोसु मयेत्यादि ) पतस्माद्धि सुत्रात्परतो जम्बूद्वीपप्रकरणे चन्द्राऽऽदिज्योतिषां सूत्राण्यधीतानि तानि च धातकीपुष्करार्द्धपूर्वादि करणेषु न सम्भवन्ति, द्विस्थानकत्वादस्याध्ययनस्य धातकीखessदौ च चन्द्रादीनां बहुत्वादिति । श्राह च "दो चंदा रह दीवे, चचारि य सायरे लवणतोये । धायइखं मे दीवे, वारस चंदा य सूराय ॥१॥” इति । चन्द्राणां द्वित्वेन नक्कत्राऽऽदीनामपि द्वित्वं न स्यात् ततो द्विस्थानेनावतार इति । जम्बूद्वीपप्रकरणाद स्य विशेषं दर्शयन्नाइ - (नवरमित्यादि) नवरं केवलमयं विशेष इत्यर्थः कुरुसुत्रानन्तरं तत्र " कूडसामनी देव. जंबू चेव सु. दंसणे ति ।" उक्तम । इह तु जम्बूस्थाने "घायई रुक्खे चेच त्ति" वक्तव्यं, प्रमाणं च तयोर्जम्बूद्वीपशाल्मल्यादिवत् तयोरेव देवसूत्रेण " अणाढिए वे जंबुद्दीचादिवई " इत्यत्र वक्तव्यत्वे "सुदंसणे चैव त्ति" श्ह वक्तव्यमिति । " धायइसमे दीवे " इत्यादि पश्चिमाप्रकरणं पूर्वार्द्धवदनुव्यम्। श्रतएवाऽऽड(जाब पि कालमित्यादि) विशेषमाह - (नवरं कुरु सामबीत्यादि) धातकी एक पूर्वोत्तरकुरुषु चातकीवृक्क उक्तः, ढ तु महाधातकीवृोध्येतव्यो देवसृते द्वितीयः सुदर्शनसूत्राश्रीतः, इह तु प्रियदर्शनोऽध्येतव्य इति । पूर्वार्द्ध पश्चिमार्द्ध मीलनेन धातकी खरमद्वीपं सम्पूर्णमाश्रित्य द्विस्यानकं " धायइखं मे णं " इत्यादिनाऽऽह धामंडपदच्छिम मंदरस्स एव्त्रयस्स धायमंडे लंदीवेदो जरहाई, दो एयाई, दो हिमताई, दो हेराई, दो हरिवासा दो रम्गवासाई, दो पुत्रविदेहाई, दो विदेहाई, दो देवकुराओ, दो देवकुरुप दुमा, दो देकुरुमहावास देवा, दो उत्तरकुराओ, दो उत्तरकुरुमहमाओ, दो उत्तरकुरुमहदुमात्रामा देवा, दो चुम्न हिमवंना, दो महाहिमवंता, दो निसहा, दो नीलवंता, दो रुप्पी, दो सिहरी, दो सदावई, दो सदावईवासी साई देवा, दो वि माई, दो वासी पचासी देवा, दो गंधाववासी अरुणा देवा, दो मालवतपरियारगा, दो मालवंत परियारगबासी पमा देवा, दो मालवंता, दो चित्तकूमा, दो पउमकूडा, दो नचिनकूमा, दो एगसेला, दो तिमा, दो समयमा, दो जला, दो माजणा, दो सोमणसा, दो विज्जुभा, दो कावई, दो पम्हावई, दो आसीवसा, दो सुहाका, दो चंदपक्या, दो सूरयन्त्रया, दो लागपन्या, दोवा, दोपायसा, दो उसुगारपन्नया, दो चुल्लहिमवंतमा, दो वेसण कूडा, दो महाहिमवंतकडा, दो वेरु. लिया, दो सिहकृमा, दो रूयगमा, दो नीलवंत कूडा, दो वसा, दो रूपिकूडा, दो मणिकंचरमकुमा, दो सिहरिकूमा, दो तिगिच्छिकूमा, दो पमदहा, दो पमदहवासिपीओ देवी सिरीमो, दो महापजमदहा, दो महाप मद्ददवासिणी हिरीयो देवीओ, एवं ० जाव दो पुंरुरीयदहा, दो पुंडरीयद्दवासिणी अच्छीओ देवीओ, दो गं Jain Education International For Private धाय संदी गप्पवाया जाव दो रत्तवईपवायद्दहा, दो रोहियाओ० जाब दो रुप्पकूला । स्थान | (श्रन्तर्णदीवतव्यता 'अंतरणई' शब्दे प्रथमभागे ८‍ पृष्ठे गता) दो कच्छा, दो सुकच्छा, दो महाकच्छा, दो कच्छगाई, दो आत्ता, दो मंगलाबत्ता, दो पुक्खन्ना, दो पुक्ला, दो बच्छा, दो सुवच्छा, दो महात्रच्छा, दो बच्छाव, दो रम्मा, दो रम्मगा, दो रमणिज्जा, दो मंगलाबाई, दो पम्हा, दो सुपम्हा, दो महापम्हा, दो पम्हगाई, दो संखा, दो नलिणा, दो कुमुदा, दो नि पावई, दो बच्या, दो सुत्रप्पा, दो महावप्पा, दो वप्पगाई, दो दो सुगु, दो गंधिला, दो गंधिलावई, दो खेमाओ, दो खेमपुरा, दो रिट्ठाओ, दो रिट्ठपुराओ, दो खग्गीओ, दो मंजूसा, दो ओसहीओ, दो पुंरुरीगिणीच्यो, दो सुमीमा, दो कुंडला ओ दो अपराइयाओ, दो पभंकराओ, दो दो पहावईओ, दो सुभाम्रो, दो रयणसंच - याओ, दो आसपुराओ, दो सीहपुराओ, दो महापुराम्रो, दो बिजयपुरा, दो राजियाओ, दो अवराओ, दो असोयाओ, दो विगयसोगाओ,दो विजयाओ, दो वैजयंतीओ, दो जयंती, दो अपराजियाओ, दो चकराओ, दो खरगपुरा, दो अवज्झाओ, दो अयोज्जाओ, दो भद्दसावला, दो दणक्या, दो सोमणसवणा, दो पंगवगा, दो पंडुकंवल सिनाओ, दो अतिपंकंबल सिक्षाओ, दो रत्तकंवल सिलाओ, दो अइरत्त कंबल मिझाओ, दो मंदरा, दो मंदर चूलियाओ, धायसंमस्स णं दीवस्न बेइया दो गाउयाई उठ्ठे उच्च नेणं पम्चा । "घायइड" इत्यादिनाऽऽह - नरते पूर्वार्द्ध पश्चिमायोईक्षि दिग्भागे तयोर्भावादित्येवं सर्वत्र भरताऽऽदीनां स्वरूपं प्रागुक्तम । (दो देवकुरुमहाडुम त्ति ) द्वौ कूटशास्मल) कावित्य द्वौ तद्वासिदेव वेदेवावित्यर्थः । (दो उत्तरकुरुमहामत्ति) धातकी महाधातकीवृक्काविति । तव सुदर्शनप्रियदर्शनाविति । हिमवदादयः पट् वर्षघरपर्वताः, शब्दापातिविकटापातिमाल्यवत् पर्यायास्ववृत्तवैताख्याश्च तनियासिस्वातिप्रभासारुणपद्मनाभ देवानां द्वयेन द्वयेन सहिताः क्रमेण द्वौ द्वा | (दो मालवंत सि) मालवन्तावुत्तरकुरुतः पूर्वदिग्ध तिनो गजदन्तको स्तः, ततो नशालवनत फेदिका विजयेभ्यः परौ शीतोत्तरकूलवर्तिनौ दक्षिणोत्तराय चित्रकूटों क कारपर्वत, ततो विजयेनान्तरन्द्याविजयेन चासारतावन्यो तथैवान्य पुनस्तथैवान्यादिति पुनः पूर्ववनख एक वेदिकाविजयायाम सीतादतिवर्तीनि तथैव त्रिकटादीनां च वारि द्वयानि ततः सौमनसी देवकुरुपूर्वदिग्वर्तन गजदन्तकी, ततो गजदन्तकावेव देवकुरुपत्यग्भागवर्तिनौ विद्युत् भौ, ततो नशालवनतद्वेदिका विजयेजयः परतस्तथैवाझव त्यादीनां चत्वारि द्वयानि शीतोदाद कि एकलवर्तीनि पुनरन्यानि पश्चिमवनख गम वेदिकानयविजयाम्यां पूर्वतः क्रमेण - Personal Use Only www.jainelibrary.org

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