Book Title: Abhidhan Rajendra kosha Part 4
Author(s): Rajendrasuri
Publisher: Abhidhan Rajendra Kosh Prakashan Sanstha
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(२६५६) अभिधानराजेन्द्रः ।
धण मित्त तं सिविनियजाणे, सगिहे पत्तो नमितु जिविवं।
नियपुरिसाणं भप्पिय, इम्भं च गनो निवो सगिदं ॥७३ ॥ जा संभालता ती-स सहसमाणं तवं जायं ॥४॥
मह धणमित्तो नियमित-पउरनाबयगएण परियरियो। सेणं धम्मपरेणं, अपि समज्जियं बहुंदविणं ।
तित्व कणंतो, संपत्तो निययगेहम्मि ॥ ७४॥ जामोजणप्पबामो, उमद अहो धम्ममाहप्पं ॥५०॥
इसो तस्य पत्तो, गुखसावरकेपली तय नमि । रतो तत्येष पुरे, सुमितनामा बसेर महाम्भो।
धानिसोजबरजपो, अपरिजणो नरवाई बिगभो ॥ ५॥ रयणावहिं स विरए, कोमिमुछेहि रययोर्द।। ५१॥
रखा इम्भो वि साहि, भाभो निसुणिरं च धम्मकहं। केण वि गुरुकजेणं, तस्स बिवत्तहियस्स पासम्मि।
समए संतं, पुजी माजी कहा एवं ।। ७६ ॥ एगागी संपचो, धपमित्तो तह निसनो य ।। ५२ ।।
ह विजयपुरे मगरे, गेदवई मासि गंगदत्त ति। सचिवाझावं सहते-ण काउ जो पभोयणवसेह।
मालामाबाबहुला, मगहा नामेण तस्स पिया ।। ७७॥ पत्तो गिहमके का-3 फज्जमह पहजा तत्थ ॥ ५३॥
संबोसिवानिदाए, इसरवाणणो पियारवररयणं । तारयणाचसिमनिप, वि भणइ जा बिरहमो मए मुका।
पविसिय कहमवि तष्गिह-मबहरए लक्खमलं सा ॥ ७० ॥ सा कत्थ गया रयणावलि ति भो कहाँधणमित्त !॥५४||
नारमा तं मया, न य करी मनप वय बिरसे ।
तो देह बावंभं, वषिभना गंगदत्तस्स | SE || न तुम ममं च मुत्तुं, को विश्वासी तनो तुमे वेव।
भाजावेहनिमोहिय-मणो इमोजणा गिदमणुस्सेहिं। सा गहिया भष्पसुतं, मा भिरकावं विलंबेसु॥ ५५॥
तुह चेवतं अवहम, मा अलियं देसुणे पालं ।। ७० ॥ तो बितर धमित्तो, अहह अहो! कम्मबिलसिवं निबद ।
श्य मुणिय वणिबद्या , नियवररयणोवलंजता सा। संभकर वि व दोसे, श्य वयणिजाई जम्नंति ।। ५६ ।। इतु ब्चिय पमिसिब, परागहगमणं जिणेहि सहाणे ।
काऊण तापसभयं, उववम्ना बंतरण ।। ८१॥
विहियतहाविहकम्मा. जाया मगहा थि एस इन्शु ति। जं परगिहगमणाओ, कलंकमाई जियाण धुवं ॥ ५७॥
मरिजण गंगदत्तो, धमिसोएस उघयन्नो।। २ ।। ता परगेहे गेहो, अणजवणिजया दोसण ।
कुषिएण तेजतर- सुरेण निवरयणवश्यरे तम्मि। गुरुकज्जे विकया चि, एगामी नेव वरिवस्म ।। ५८॥
इजरस तिन्नि पसा, निहणं गमिया कमेणिस्थ ॥३॥ इय बितिय भणमई, इब्भ ! तुम पिवन किंचि जाणेमि ।
तो रम्ना भनुहे, पलोभए सो भणेह एवं ति । सो पाहन जिद, परिसवयणेहि धणमित्त॥५॥
कि तु मरलाम्म तेसि, हेरिद मप नाओ॥४॥ काउंचवहारं रा-डले बितं सेमि तुह सयासाओ।
पुण भसह गुरुत्यणावली चि, तेणेव भवहमा एसा। श्परो बि पमित्रणेई, जं जुसं कुणसुतंत ॥ ६.॥
पत्तं धणामसणं, पालं किल प्रालदाणाभो ॥ ८ ॥ तो धणमित्तो था-रुति साहिो निवाणो सुमित्तेणं ।
धणमित्तधम्मथिरभा-वरीजएदि सुद्दिछिअमरोहि। न इमं मम्मि संभव-कह चिपचित निबो वि ॥६॥
तंबंतरमक्कमिठ, रयणाचलि मोश्या तझ्या ॥ ०६॥ एस पुण निचएण, कहेता पुचिमो तयं चेव ।
श्राद निवो फि आज वि, श्मस्ल काही सुरो जण जाणी। अहहकारिख पुछो, बलमित्तो कहा जह बित्तं ॥ १२ ॥
रवणावीर सहियं, विहवं हरिदी सुमित्तम ।। ८७॥ पभणनियो विविमिहब-हिरभो भो इभ!किमिद कायम्बं?
तो अवसगो मरि- इब्नो नवे बहुं भमिट्टी। सो माह देव! इमिणा, गहिया रयणावनी नूणं ॥ ६३ ॥ चतरसुरजीपो वि हु, यहा निजाही धेरं ॥८८ ।। प्रद जंपर धमित्तो,देच!कॉक मं न सहेमि । पभणे जेण दिम्बे- तेणिमं पत्तिबावमि ॥ १४॥
ज्य सोउं संचिग्गो, राया रयणावलि सुमिसम्स ।
अप्पिसु उविनु सयं, रउजे गिएटेइ चारितं ॥८६ ।। प्रणा मित्रो जसुमं, होस सिरे जगहेर फालभिमा।
घणमित्तो वि हु जिदपुनं ठविऊण नियकुवाम्म । आमंतितेण भणिप, विश्रो दिवसो तो रम्ना ॥ ५ ॥
गिरिडय केवलिपासे, विस्वं कमसो गओ मुक्ख ॥४०॥" सगिद्देसुदो पि पसा, मह धणमित्तो बिसेसधम्मपरो।
"इत्यवेत्य धनमित्रवृत्तक, चिहामुविमुखमणो, पत्तो पुण दिब्वदिवसम्मि ।। ६६ ॥
शुम्वृत्तजनहर्षकारकम् । काउंसिणाण मठ-पयारपुवाद पृष्ऊण जिथे।
अन्यगेहगमनं बथा तथा. तह कान काउसागं, सम्मदिघीण देवारमं ॥ ६७ ।।
सत्यजन्तु भविनो हि सत्पथाः ॥११॥" फाले धम्मिजमाणे, पुरो निचिट्ठ निबम्मि लोए म ।
इति धनमित्रमरित्रम ॥ध०२०। बहुपउरजुमो पत्तो, धणमित्तो दिवठाणम्मि ।। ६८॥ दन्तपुरनगरस्थे स्वनामख्याते वणिजि, भाव.४ । नि. इम्भो वि तत्थ पत्तो, धणमित्तो जाब गिरिहही फालं ।
चू० प्रा० क०। प्रा००। (तद्वक्तव्यता 'हिरवलाय' श. इन्जस्स उहियाभो, पमिया रयणावली ताब॥६५॥ ब्देऽस्मिन्नेव भागे २१११ पृष्ठे दृष्या) उज्जयिनीनगरस्थे स्व. तोत्रणि नरबश्णा, भकिमेयं ति सो विखध्मणो।
नामख्याते वणिजि, ग०२अधि:। (नद्वक्तव्यमा ' प्रानकाजा देरे सत्तरं न हु, ता पुट्ठो तेण धणमित्तो ॥ ७० ॥ य' शब्दे द्वितीयभागे २४ पृष्ठे गता) (तद्वक्तव्यता 'पि. जीइ रयणावलीप, कर विवाओ तुमाण सा किमियं । बासापरीसह' शब्देऽपि अस्मिन्नेर भागे व्या ) च. दोहन बत्ति इमो विहु, जंपा सा चेव देव! श्मा ।। ७१॥ म्पानगरीवास्तब्ये स्वनामस्याते सार्थवाहे, आव०४ अ० । परमत्थमित्थ नवरं, मुणति सम्वन्नुवो तो राया।
प्रा० क० । (तद्वक्तव्यता 'संवेग' शब्दे) शत्रुअयशैनियनंमारियदत्ये स-बिम्हो तं समप्पे ।। ७२ ।।
ल स्वशान्तिमरुदेवयोश्चैत्यस्योद्धारकार के श्रावके, ती०१ कसम्म संमाणे, सुद्धं ति पमुज सिद्विधणमित्तं ।
रूप । अवपिण्यां जायमानस्य स्वयं वासुदेवस्य पूर्वनव.
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