Book Title: Mahavira Jayanti Smarika 1977
Author(s): Bhanvarlal Polyaka
Publisher: Rajasthan Jain Sabha Jaipur
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 247 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मालामा मामामा Lilan महावीर जयन्ती - स्मारिका १९७७ प्रकाशक राजस्थान जैन सभा जयपुर POEROIN TILLULAIT tecntiar For Private & Personal use only www.astoral Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क : १४ २५७५वीं जयन्ती महावीर जयन्ती स्मारिका 1977 प्रधान सम्पादक: भंवरलाल पोल्याका जैनदर्शनाचार्य, सा० शास्त्री सम्पादक मण्डल: डा0 नरेन्द्र भानावत श्री पदमचन्द साह एम. ए., सम्पादनकला विशारद प्रबंध सम्पादक : श्री रमेशचन्द्र गंगवाल विज्ञापन समिति: श्री कपूरचन्द पाटनी श्री देशभूषण सौगानी श्री सुमेरमार जैन श्री मुन्नीलान जैन श्री कैलाशचन्द्र बैद श्री नरेशकुमार सेठी श्री राजकुमार काला एम. ए., एलएल. बी. प्रकाशक : बाबूलाल सेठी मंत्री राजस्थान जैम सभा, नयपुर Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान जैन सभा, जयपुर पदाधिकारीगण एवं कार्यकारिणी के सदस्य अध्यक्ष उपाध्यक्ष उपाध्यक्ष मन्त्री स० मन्त्री सं० मन्त्री कोषाध्यक्ष सदस्य १. श्री राजकुमार काला २. श्री ताराचन्द्र साह ३. श्री पूनमचन्द्र साह __ श्री बाबूलाल सेठी ५. श्री प्रकाशचन्द ठोलिया श्री भागचन्द छाबड़ा श्री सुरज्ञानीचन्द लुहाड़िया ८. श्री कपूरचन्द पाटनी ६. श्री प्रवीणचन्द छाबडा श्री सूरजमल सौगाणी ११. श्री रतनलाल छाबड़ा १२. श्री लल्लूलाल जैन १३. श्री कैलाशचन्द गोधा श्री त्रिलोकचन्द काला श्री रमेशचन्द गंगवाल श्री अरुण कुमार सोनी श्री सुभाष काला श्री राजमल जैन बेगस्या श्री महेशचन्द काला श्री ज्ञानप्रकाश बक्षी कुमारी प्रीति जैन २२. श्री भंवरलाल पोल्याका २३. श्री राधाकिशन जैन २४. श्री रतनलाल जैन २५. श्री जवाहरलाल जैन Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्म : चैत्र विश्व आज जिनकी २५७५वीं जयन्ती मना रहा है mey शुक्ला त्रयोदशी } "ydoo" XXXX जन्म चैत सित तेरस के दिन, बिद्र नादान कुण्डलपुर कन वरना । सुरगिर सुरगुरु पूज रचायो, मैं पूजों भय हरना ॥ २८ J.102 4 तन, मोक्ष : कार्तिक कृष्णा श्रमावस्था Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाशीर्वचन उपाध्याय विद्यानन्द मुनि २६६२, काजी वाड़ा दरियागंज, दिल्ली १६-३-७७ राजस्थान जैन सभा महावीर जयन्ती के पुनीत पर्व पर एक स्मारिका का प्रकाशन कर रही है समयानुकूल कार्य है। स्मारिका में प्रकाशित सामग्री पठनीय एवं प्रमाणित हो यही स्मारिका की विशेषता है। स्मारिका पाठकों के लिए उपयोगी हो यही मेरी शुभाशीर्वाद शुभाशीर्वाद सन्देश राज भवन बैगलोर मार्च 5, 1977 मुझे यह जानकर बहुत खुशी हुई है कि भगवान महावीर के जयन्ती-समारोह के अवसर पर राजस्थान जैन सभा एक जयन्ती स्मारिका प्रकाशित करने जा रही है। स्मारिका में जैन दर्शन, इतिहास, संस्कृति तथा साहित्य पर प्रतिष्ठित विद्वानों के गवेषणापूर्ण लेखों के प्रकाशन से उसकी उपयोगिता बहुत बढ़ जायगी। ऐसी स्मारिका को सब ही प्रबुद्ध पाठक प्राप्त करना तथा ध्यान से अध्ययन करना चाहेंगे । राजस्थान जैन समाज के इस प्रायोजन का में स्वागत करता हूँ और यह हार्दिक कामना करता हूँ कि स्मारिका सर्वाङ्ग सुन्दर तथा सर्वोपयोगी सिद्ध हो । -उमाशंकर दीक्षित राज्यपाल, कर्णाटक Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेठ मूलचन्द सोनी मार्ग अनोप चौक, अजमेर 3-3-77 श्रीयुत् बाबूलालजी सेठी ___मंत्री, राजस्थान जैन सभा, जयपुर सादर जयजिनेन्द्र ! आपका कृपा पत्र मिला। आप प्रागामी श्री महावीर जयन्ती के पुण्य पर्व पर जयन्ती स्मारिका का प्रकाशन कर रहे हैं, यह प्रबगत कर हार्दिक प्रसन्नता हुई। भगवान महावीर स्वामी के विश्व हितैषी उपदेशों के प्रसारार्थ स्मारिका प्रकाशन का प्रयास श्लाघनीय है । वीर प्रभु की देशना का पुण्य लाभ जनसाधारण को अधिकाधिक मिले, यह स्मारिका का लक्ष्य होना चाहिये । सत्य, अहिंसा, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह की पुण्य सलिला में जन-मन निमग्न हो, यह प्रथमतः प्रावश्यक है। क्योंकि समग्न हितैषी उक्त सिद्धान्त सार्वजनीन दृष्टि से विश्व मंच पर स्वीकारे जा चुके हैं। विश्वास है आपके सप्रयास में उक्त भावना का समाबेश होगा । सुष्ठु प्रकाशन के लिये हार्दिक शुभकामनाएं । पापका -भागचन्द सोनी Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका अपनी बात प्रध्यक्षीय सम्पादकीय VII प्रकाशकीय XIII XV ग्राभार जैन सभा का परिचय XVI प्रथम खण्ड 1. वीर स्तवनम् डा. पालाल साहित्याचार्य 2. भगवान् महावीर : जीवन झलक श्री नन्दकिशोर जैन 3. एक पद (कजरी बनारसी) व्यथित हृदय 4. अहिंसा के प्रतीक महावीर पं० सुभाषचन्द्र दर्शनाचार्य 5. भौतिक जगत् और मोक्ष कुमारी प्रीति जैन 6. जैन बौद्ध साधना पद्धति श्री उदयचन्द्र प्रभाकर 7. अर्पित कर में अक्षत चन्दन (गद्य काव्य) श्री घासीराम जैन चन्द्र' 8. पंच कल्याणकों का स्वरूप और भ. महावीर श्री मादित्य प्रचण्डिया 9. परमपूज्य श्री वर्द्धमान को (कविता) श्री हजारीलाल जैन 'काका' 10. भगवान महावीर श्रीमती सुशीला बाकलीवाल 11. भगवान् महाबीर, वीतरागता और निर्वाण डा. देवेन्द्रकुमार शास्त्री Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. जैनधर्म और कर्मसिद्धान्त 13. युगों युगों तक अमर रहेगा महावीर सन्देश तुम्हारा ( कविता 14. मानव जीवन और भ० महावीर 15. सप्तभंगी, प्रतीकात्मक और त्रिमूल्यात्मक 16. शाब्दिक सत्य उसका स्थूल संस्करण होता है 17. तीर्थंकर कौन है ? 18. ये जीवन एक रैन का सपना 19. अपरिग्रह व्रत 20. जैन धर्म श्रौर वैदिक धर्म 21. सच और झूठ 22. व्यवहार नय की उपयोगित 23. जन्म मंगल गीत ( कविता ) 24 तीर्थंकर वर्द्ध मान 25. विश्व के कल्याण (कविता) 26. शून्यवाद समीक्षा 27. काष्ठ नहीं कपास बनो 28. महावीर की प्रजातांत्रिक दृष्टि 29. जैन दर्शन की एक दिव्यदृष्टि 30. समय न चूकत चतुर नर 31. ज्ञान का खजाना ( कविता ) 32. अनेकान्त और जीवन व्यापार 33. शुद्ध भावना, महावीर उवाच ( कविता ) 34. जैन दर्शन का ताविक पक्ष : वस्तुस्वातन्त्र्य 35. मतभेद नहीं अब रह पाये ( कविता ) 36. जैन तर्क वाङ्मय में स्त्री मुक्ति का तार्किक विवेचन 37. aut ? ( लेख प्रतियोगिता में पुरस्कृत लेख ) 38. जनहित में भगवान महावीर ( प्रथम ) (द्वितीय) 13 71 39. भगवान महावीर का जीवन ) श्रायिका ज्ञानमती माताजी पं. अनूपचन्द न्यायतीर्थ महन्त पर्वतपुरी गोस्वामी डा. सागरमल जैन डा. महेन्द्रसागर प्रचण्डिया व्योहार राजेन्द्र सिंह श्री भगवान् स्वरूप जैन डा. कछेदीलाल जैन प्रो. श्रीरंजन सूरिदेव श्री मोतीलाल सुराना पं. गुलाबचन्द जैनदर्शनाचार्य डा. बड़कुल 'धवल' उपाध्याय मुनि श्री विद्यानंदजी श्री शर्मनलाल जैन 'सरस' डा. रमेशचन्द जैन श्री मंगल जैन 'प्र ेमी' डा. निजामउद्दीन प्रा. रमेशचन्द्र शास्त्री डा. नरेन्द्र भानावत वैद्य रमेशचन्द्र जैन श्री जमनालाल जैन श्री मोतीलाल सुराणा डा. हुकमचंद भारिल्ल मुनिश्री नथमल डा. लालचंद जैन श्री प्रकाश श्रमेय श्री हेमन्तकुमार जैन श्री जिनेन्द्र कुमार सेठी सुश्री कनकलता बंद धर्मालंकार 29 32 33 39 53 55 58 59 63 66 67 70 71 74 75 82 83 87 89 92 93 98 99 104 105 108 109 112 113 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 37 47 द्वितीय खण्ड कला, संस्कृति और साहित्य 1. तमिल भारती को जैन मनीषियों का योगदान श्री रमाकान्त जैन 2. जैसलमेर का जैन शिल्प प्रि. श्री कुन्दनलाल जैन 3. प्राचीन जैन राम साहित्य में सीता डा. लक्ष्मीनारायण दुबे 4. श्वेत श्री (गद्य काव्य) श्री सुरेश सरल 5. पंच मुक्तक पं. प्रेमचंद दिवाकर 6. रयणसार के रचयिता कौन ? पं. बंशीधरजी शास्त्री 7. प्राकृत साहित्य में श्री देवी की लोक परम्परा श्री रमेश जैन 8. यह मानव जीवन (गद्य काव्य) कु. ऊषाकिरण 9. श्रम साधना और श्रमण संस्कृति डा. कृपाशंकर व्यास 10. कब से दिन दिखेंगे (गद्य काव्य) श्री मंगल जैन 'प्रेमी' 11. भ. महावीर : मूर्तिलेखों व शिलालेखों में डा. शोभनाथ पाठक 12. एक सत्य का द्वार (कविता) श्री भवानीशंकर 13. खारवेल की तिथि श्री नीरज तथा डा कन्हैयालाल 14. भ. महावीर और बुद्ध की परम्पराओं में डा. प्रेमसुमन जैन जन भाषाओं का विकास 15. जब हम तुमको देख सकेंगे (कविता) श्री अनोखीलाल अजमेरा 16. क्या विमलसूरि यापनीय थे ? डा. कुसुम पटोरिया 17. असम्पृक्त लगाव (गद्य काव्य) डा. नरेन्द्र भानावत 18. संगीत लहर (गद्य काव्य) श्री उदयचन्द्र प्रभाकर शास्त्री 19. प्रिंस आफ वेल्स संग्रहालय में कांस्य मूर्तियां डा. ब्रजेन्द्रनाथ शर्मा 20. महावीर की वाणी (कविता) श्री ज्ञानचंद्र जैन 21. एक विचित्र जिन बिम्ब श्री शैलेन्द्रकुमार रस्तौगी 22 अहिंसा (गद्य काव्य) श्री सेठिया 23. श्रमण संस्कृति की प्राचीनता श्रीमती चन्द्रकला जैन 24. जैनपुर जयपुर डा. कस्तूरचंद कासलीवाल 25. अमृत वचन प्र. भू. लाडलीप्रसाद जैन 26. मंगल गीत (कविता) डा. बड़कुल 27. बाहर का विज्ञान बढ़ाया कितना (कविता) श्री निहालचंद जैन 28. चित्रित जैन पाण्डुलिपियों का क्रमिक विकास कु. कमला जैन 29. जैन धर्म का भारतीय कला और श्री सुदर्शन जैन संस्कृति को योगदान | 63 66 67 77 81 82 83 85 94 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड विविध 1. विश्वास की रक्षा (नाटक) 2. उसकी कहानी : न मरण न मोक्ष 3. नर नारायण बना तोड़ कर कर्मों को जंजीर (कविता) 4. दृष्टान्त की लड़ाई लड़ाई का दृष्टान्त : 5. विचार बिन्दु 6. समय की मांग 7. एक प्रश्न 8. निर्वाण शती वर्ष की महान् उपलब्धि 9. महावीर के उपदेशों की.... 10. नव साहित्य : कसौटी पर 1. Tri-ratna in Jain Philosophy 2. Jainism and Linguistic Analysis 3. India of Mahavira's Time 4. Premediaeval Jain Novels श्रीमती रूपवती किरण श्री सुरेश सरल श्री कल्याणकुमार जैन 'शशि' श्री नीरज जैन पं. प्र ेमचंद दिवाकर डा. जयकिशनप्रसाद खण्डेलवाल श्री गुलाबचंद वैद्य श्री प्रतापचंद जैन श्री हजारीलाल जैन काका चतुर्थ खंड प्रांग्ल भाषा (English Section ) Dr. Prem Chand Jain Dr. Harendra Prasad Verma Dr. S. M. Pabadiya Dr. Jyoti Prasad Jain 19 2 1 1 1 2 2 13 16 17 18 19 1 9 21 27 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ नो बात Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ on महावीर-वारणी १. किसी भी प्राणी की हिंसा न करना ही ज्ञानी होने का सार है। २. जीव मरे या जीये इससे हिंसा का सम्बन्ध नहीं है। यत्नाचार-हीन . प्रमादी पुरुष निश्चित रूप से हिंसक है। यत्नाचारपूर्वक प्रमादहीन प्रवृत्ति करने वाले को जीव की हिंसा हो जाने मात्र से बंध नहीं होता। ३. सम्यक्ज्ञान का फल शुद्ध चारित्र है । ४. अहिंसा, संयम और तपरूप धर्म ही उत्कृष्ट मंगल अर्थात् कल्याणकारी है । ५. अप्रमत्त और सावधान रहते हुए सदा हितकारी, मित और प्रिय वचन बोलना चाहिए। ६. परोपकारी लोग अपनी आपत्तियों का विचार नहीं करते। ७. जीव के अच्छे और बुरे भाव ही पुण्य तथा पाप क्रमशः हैं। . ८. बांधे हुए शुभ और अशुभ कर्मों का फल अवश्य ही भोगना पड़ता है। ६. सन के विकल्पों को रोक देने पर यह प्रात्मा ही परमात्मा बन जाता है । १०. तू ही कर्म करने वाला है, तू ही उनका अच्छा बुरा फल भोगने वाला है तथा तू ही मुक्त होने वाला है फिर कर्मबंधन से मुक्त होकर स्वाधीन होने का प्रयत्न क्यों नहीं करता । । ११. तू स्वयं ही तेरा गुरु है । A फर्म-गुलाबचंद कासलीवाल 35 III भोईवाड़ा, कासलीवाल भवन बम्बई द्वारा प्रचारित Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ★★★ अध्यक्षीय श्राज से 2575 वर्ष पूर्व भारतवर्ष की ही नहीं सम्पूर्ण विश्व की बड़ी ही चिन्ताजनक स्थिति थी। सांसारिक विषय भोगों में मानव इस प्रकार फंस गया था कि उसे हेवाहेय, कर्तव्य - कर्तव्य प्रादि का कतई ज्ञान नहीं रहा था । वह भुला बैठा था कि जिस तरह मेरी आत्मा है उसी प्रकार दूसरों की भी है, जिस प्रकार मैं सुग्बी होना चाहता हूं उसी प्रकार दूसरे प्राणी भी सुखी होना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता । जिह्वालोलुपता की तो उसने हद ही करदी थी। पशु यज्ञ से भी आगे बढ़ कर वह मनुष्य यज्ञ पर आगया था। यह ही नहीं अपने इन कुकृत्यों के समर्थन हेतु उसने न केवल नए नए ग्रन्थों का निर्माण ही किया था अपितु पुराने चले आए ग्रन्थों में भी घटाबढ़ी की थी । वेद भी इससे अछूते नहीं रहे थे । उनमें भी नरबलि तक सम्मिलित होगई थी जिह्वालोलुप यह कह कर बलि का समर्थन कर रहे थे कि देवों के लिए की गई बलि हिंसा नहीं है । प्राणियों के चीत्कार से प्रकाश गूंज रहा था चारों मोर हाहाकार मचा था । सब चाहते थे कि कोई ऐसा शक्तिसम्पन्न मानव इस धरा पर अवतार ले जो उनके कष्टों का अन्त कर सके दुनिया को सत्य की श्रोर मोड़ सके, प्राणियों को दुःख से छुडा उन्हें सुख और शांति प्रदान कर सके । 1 त्रयोदशी को भगवान महावीर ने इस थे जिस पर चल कर दुःखी प्राणियों का अतः उन्होंने दीक्षा ग्रहण की। बारह फलस्वरूप प्राज से 2575 वर्ष पूर्व चैत्र शुक्ला धरा पर जन्म लिया। वे जन्म से ही ऐसे मार्ग की खोज में दुःख दूर हो सके । घर में रहकर ऐसा संभव नहीं था । वर्षं तक की कठोर साधना के पश्चात् जो मार्ग उन्हें सूझा था जीवन में अहिंसा का अवतरण तथा विचारों मे अनेकान्त तथा वाणी में स्याद्वाद का मार्ग | उन्होंने कहा तुम स्वयं जीओ मगर दूसरों को भी जीने दो । प्राग्रह मत करो, सब की सुनो, विभिन्न दृष्टिकोणों से चिन्तन कर सत्य का निर्णय करो । जिस दृष्टिकोण से तुम्हारी बात सच है दूसरे दृष्टिकोण से वह असत्य भी हो सकती है । एक दृष्टिकोण केवल प्रांशिक सत्य का दर्शन कराता है । भ० महावीर का बताया मार्ग केवल एक काल के लिए नहीं था । वह कालातीत था । उस पर चलने की जितनी आवश्यकता तब थी प्राज भी है। उनका सन्देश जन जन तक पहुंचे इस पवित्र भावना के वशीभूत हो स्व० पं० चैनसुखदासजी की प्रेरणा से राजस्थान जैन सभा ने सन् 1962 से जयन्ती पर एक ऐसी स्मारिका के प्रकाशन का निर्णय लिया जो सब की सम्मिलित हो उसमें निबन्ध श्रादि समन्वय परक हों, साम्प्रदायिकता को उभारने वाले न होकर एकता तथा संगठन पर बल देने वाले हों साथ ही जैन इतिहास तथा संस्कृति का परिचय कराने वाले हों । स्मारिका के अब तक 13 अंक पाठकों के हाथ में पहुंच चुके हैं। 14 वां श्रंक उनके हाथ में है । यह निर्णय करना उनका काम है हम कहां तक अपने उद्देश्य की पूर्ति में सफल हुए हैं । स्व० पं० चैनसुखदासजी के स्वर्गवास के पश्चात् सन् 1969 से स्मारिका का सम्पादन पं० भंवरलालजी पोल्याका जैन दर्शनाचार्य करते भारहे हैं। इस वर्ष भी उन्होंने ही हमारा अनुरोध स्वीकार कर अस्वस्थ होते हुए भी काफी अल्प समय में इस कार्य के सम्पादन में जिस कर्त्तव्यनिष्ठा और लगन का परिचय दिया है उसके लिये मेरे पास श्री पोल्याकाजी को धन्यवाद अर्पित करने को शब्द नहीं है । मैं श्री पोल्याकाजी एवं उनके सहयोगी श्री पदमचन्दजी का अत्यन्त आभारी हूं । Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान जैन सभा के कार्यक्रमों में कार्यकारिणी समिति के सभी साथियों का समय समय पर मुझे सम्पूर्ण सहयोग मिलता रहा है, विशेष रूप से सभा की कार्यकारिणी समिति के वरिष्ठ साथी श्री कपूरचन्दजी पाटनी ने कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी अपनी कुशलता से कार्य को सफल बनाने में मेरी मदद की है। वे संस्था के तो प्राण ही हैं । संस्था के अन्य वरिष्ठ साथी श्री प्रवीणचन्द्रजी छाबड़ा भी मुझे मार्ग दर्शन देते रहे है । मैं उन सब का भी अत्यन्त आभारी हूँ। मैं संस्था के उपाध्यक्ष श्री ताराचन्दजी शाह एवं श्री पूनमचन्दजी शाह का भी प्राभारी हूं जिन्होंने समय समय पर अपनी राय देकर सभा को लाभान्वित किया है । संस्था के मंत्री श्री बाबूलाल जी सेठी सम्पूर्ण वर्ष भर सामाजिक सेवा की भावना से कार्य करते रहे हैं, यदि यह कहा जावे कि सेठी जी की लग्नशीलता एवं कर्तव्य निष्ठा ही सभा को गति दे सकी तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है। श्री सेठी के साथ श्री प्रकाशचन्दजी ठोलिया एवं श्री भागचन्दजी छाबड़ा ने भी पूर्ण तन मन से कार्य किया है। मैं उनका भी प्राभारी हूं। श्री वीर सेवक मण्डल का भी समय समय पर सहयोग मिलता रहा है उनके प्रति प्राभार प्रकट किये बिना भी मेरा कार्य अधूरा है। मुझे श्री ज्ञानप्रकाश बक्षी, श्री राजेन्द्रकुमार बिल्टीवाला, श्री हेमकुमार चौधरी. श्री महेशचन्द काला, कैलाशचन्द गोधा, श्री अरुणकुमार सोनी, कुमारी प्रीति जैन आदि का भी विशेष सहयोग मिलता रहा है । मैं उनका भी भाभारी हूं। स्मारिका के प्रकाशन में प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से जिनका सहयोग रहा है उनका वर्णन किये बिना भी नहीं रहा जाता। श्री रमेशचन्द्र जी गंगवाल ने विज्ञापन समिति के संयोजन का भार वहन कर मेरी काफी मदद की है उनके साथ सर्व श्री देशभूषणजी सोगानी, सुमेरकुमार जैन मुन्नीलाल जैन, महेशचन्द काला, कैलाशचन्द वैद प्रादि के सहयोग को भी नहीं भुलाया जा सकता है अर्थ-व्यवस्था में सर्वश्री सुरज्ञानीचन्द लुहाडिया. ताराचन्द साह. देवकुमार शाह, कैलाशचन्द सोगानी त्रिलोक चन्द काला, तेजकरण सोगानी प्रादि का भी काफी सहयोग रहा है । मैं विज्ञापनदातामों का भी प्राभारी हूं जिन्होंने स्मारिका के महत्व को समझ कर विज्ञापन देकर इस स्मारिका को मूर्त रूप देने में मदद की है। मैं समाज के उन सभी लोगों को जिन्होंने विभिन्न समितियों के संयोजक के रूप में भार वहन कर कार्य को सफल बनाया धन्यवाद दिये बिना नहीं रह सकता हूं। ___ स्मारिका का मुद्रण कार्य मूनलाइट प्रिन्टर्स ने किया है। इसके मालिक श्री महावीर प्रसाद जैन एवं प्रेस के अन्य कर्मचारियों के परिश्रम के फलस्वरूप यह स्मारिका समय पर ही पाठकों के हाथ में है वे भी धन्यवाद के पात्र है। ___ स्मारिका में रही त्रुटियों के लिए मैं अपना उत्तरदायित्व स्वीकर करता हूं। भविष्य में इससे भी सुन्दर रूप में स्मारिका प्रकाशित हो सके एतदर्थ पाठकों के सुझावों का स्वागत है। मुझे प्राशा पौर विश्वास है कि पाठकगण पूर्व की भांति प्रस्तुत स्मारिका से लाभान्वित होंगे। स्मारिका में कोई भी कमी है तो इसका दोषी मैं ही हो सकता हूं भविष्य में और सुन्दर बनाई जाने हेतु पाठकों के सुझाव मामन्त्रित हैं। राजकुमार काला प्रध्यक्ष Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Me सम्पादकीय ☺☺☺☺ राजस्थान जैन सभा, जयपुर द्वारा प्रतिवर्ष प्रकाशित होने वाली स्मारिका श्रृंखला में अब तक पिरोई गई 13 कड़ियों के साथ यह 14 वीं कड़ी पिरोते हुए हमें वरबस की स्वनामधन्य श्रद्धय गुरुवर्य पं० चैनसुखदासजी न्यायतीर्थं का नाम स्मरण हो आता है जिनके सत्परामर्श एवं आशीर्वाद से सभा ने स्मारिका प्रकाशन द्वारा भगवान् महावीर का पावन सन्देश तथा जैनधर्म, दर्शन, कला, इतिहास, साहित्य आदि से सम्बन्धित सांदर्भिक सामग्री जन जन तक पहुंचाने का महत्वपूर्ण सुनिर्णय लिया और जीवन पर्यन्त जिन्होंने उसके सम्पादन का भार वहन किया । वे 'शिष्यादिच्छेत् पराजयम्' इस वेदवाक्य के अनुसर्त्ता थे । अपने शिष्यों को अपने से आगे बढ़ते देख उनका हृदय प्रसन्नता से पुलकित हो उठता था । श्राज भी सैंकड़ों उपाधिधारी तथा अनुपाधिधारी उनके शिष्य श्रपने ढंग से उनके अधूरे छोड़े कार्य को आगे बढ़ाने में लगे हुए हैं। श्रद्धानत है हमारा मस्तक उनके पुनीत चरणों में । अभी अभी भगवान् महावीर का 2500 वां निर्वाण वर्ष हम बड़ी धूमधाम से मना चुके हैं मौर नेता तथा विद्वद्वृन्द उनकी उपलब्धियों और अनुपलब्धियों का लेखा जोखा लगाने में संलग्न हैं । जैन के विभिन्न सम्प्रदायों में ऐक्य स्थापन भी निर्वारण वर्ष के उद्देश्यों में से एक था और एकता का वह उद्घोष जब तब जैन पत्रों तथा प्लेटफार्मों पर सुनाई भी पड़ा किन्तु इस प्रोर वास्तविक रूप से हम कितना आगे बढ़े हैं यह प्रश्न विचारणीय एवं समीक्षणीय है। जैन एकता में मुख्य बाधक हमारे बाह्य क्रियाकाण्ड, पूजास्थल, तीर्थक्षेत्र प्रादि हैं। इनको लेकर दिगम्बर श्वेताम्बर ही नहीं लड़ते दिगम्बर दिगम्बर भी लड़ते हैं, मुकदमे बाजी करते हैं, एक दूसरे को नीचा दिखाने का, छीछालेदार करने का प्रयत्न करते हैं । जैनों की जो शक्ति कुछ ठोस उपलब्धियों के लिए लगना चाहिये वह ऐसे कार्यों में लगे क्या यह हम महावीर के अनुयायियों के लिए शोभा की बात है ? संस्कृत के एक कवि ने कहा है न वं भिन्ना जातु वरन्नीह धर्म न वै सुखं प्राप्तुवन्तीह भिन्नाः । न वै भिन्ना गौरवं प्राप्नुवंति न वै भिन्ना प्रशमं रोचते ॥ जिन लोगों में फूट है, जो संगठन शील नहीं हैं उन्हें न तो इस लोक में धर्म की प्राप्ति हो सकती है, न वे सुखी ही हो सकते हैं; न उन्हें गौरव की प्राप्ति हो सकती है औौर न उन्हें कभी जीवन में शांति मिल सकती है । ( vii ) Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसार में सैंकड़ों उदाहरण हमें ऐसे सरलता से सुलभ हो जावेंगे जो हमें संगठन का महत्त्व बता सकें । संगठित तिनके बुहारी का रूप लेकर घर के कूड़े कर्कट को बाहर फेंकने में सफल होती है किन्तु असंगठित अवस्था में स्वयं भी कूड़े के ढेर के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं होती। यही हाल रस्सी का है। छोटे छोटे तन्तु जब संगठित होकर रस्सी का रूप ले लेते हैं तो बड़े बड़े मस्त हाथी भी उससे बांधे जा सकते हैं । अलग-अलग होने की अवस्था में उन तन्तुनों को एक बालक भी प्रासानी से तोड़ सकता है । अलग अलग लकडियां आसानी से तोड़ी जा सकती हैं किन्तु जब वे भारे के रूप में हो उन्हें भुकाया भी नहीं जा सकता । जो संगठिन ईटें मकान का निर्माण करती हैं वे ही असंगठित अवस्था में मलबा कहलाता है । महासागर का निर्माण अनन्त छोटी-छोटी बिन्दुओं से ही होता है । वैदिक मान्यतानुसार हम जिस युग में रह रहे हैं वह कलिकाल है। जैन मान्यत नुसार यह पंचम दुखमा नामक काल है । नाम भेद के अतिरिक्त इनके स्वरूप में कोई विशेष अन्तर नहीं है। महाभारतकार ने इस युग में संगठन की शक्ति का विशेष महत्व बताया है। उन्होंने कहा है'संघे शक्तिर्कलीयुगे' कलियुग में संगठन के अतिरिक्त और कोई शक्ति नहीं है । संगठन के इस महत्व को हमने नहीं समझा इसलिए किसी भी क्षेत्र में भाज हमारी कोई आवाज नहीं है । हमारे से कम संख्या वाले सिख सम्प्रदाय की जो स्थिति है क्या हम उसकी तुलना कर सकते हैं। सरकार भी उनकी आवाज को अनसुना करने का साहस नहीं कर सकती क्योंकि उनकी आवाज के पीछे सगठन की शक्ति होती है । मुस्लिम सम्प्रदाय की भी यही बात है। प्रसन्नता की बात यह है कि हमारी समाज के नेताओं ने इस कमी को अनुभव कर सम्पूर्ण दिसम्बर समाज का एक संगठन बनाने का निर्णय किया किन्तु खेद है विघ्नसंतोषी जीवों को वह प्रिय नहीं हवा । अभी तो उसका विधान बन कर भी तैयार नहीं हवा और उसने विधिवत कार्य करना भी प्रारंभ नहीं किया कि प्रथमैव ग्रासे मक्षिकापात हवा । पूज्य कानजी स्वामी तथा उनके भक्तों द्वारा प्रकाशित साहित्य को लेकर जो भी कुछ अाज समाज में नाटक खेला जा रहा है क्या वह हमारा सिर लज्जा से झुकाने के लिए पर्याप्त नहीं है। इसके पीछे वे लोग हैं जिनकी रोजी रोटी ही ऐसे झगड़ों को बढ़ावा देने के पीछे चलती है । खेद की बात तो यह है कि इस झगड़े में उपाधिकारी विद्वानों और कुछ साधु सन्तों का भी हाथ है। ये वे ही लोग हैं जो समाज में प्रत्येक अच्छी बात का विरोध करते पाए हैं। पू. वर्णी जी को जिन्होंने पीछी कमण्डलु लोसने की धमकी दी थी। ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी का भी जिन्होंने विरोध किया था। ये कोई न कोई झगड़ा हमेशा ही समाज में खड़ा रखना चाहते हैं जिससे कि उनका जीवन यापन होता रहे। खेद है कि कुछ मुनि लोग भी इस झगड़े में सम्मिलित होगए हैं। वे कभी इधर या उधर वक्तव्य देते रहते हैं। उन्हें भी भ्रम है कि कहीं भक्तगण उनका आहारदान बंद न करदें। मुनियों को इस झगड़े से क्या लेना। वे तो ज्ञान ध्यान तप में ही लवलीन रहने वाले होते हैं । ये लोग भगवान् महावीर के अनुयायी और जैनधर्म तथा दर्शन के तलस्पर्शी अध्येता कहे जाते हैं। क्या भगवान महावीर के अनुयायी ऐसा ही कार्य करते हैं ? क्या जैन शास्त्रों का अध्ययन हमें यह ही सिखाता है ? जैन शास्त्रों का स्वाध्याय करने से पूर्व हमें निक्षेपों और नयों को भले प्रकार समझना चाहिये, स्याद्वाद तत्व जो कि जैनागम का प्राण है, हदयंगम करना चाहिये । निक्षेप हमें बताता है कि शब्दों का प्रयोग कैसे होता है । नाम निक्षेप से किसी का भी नाम ( viii ) Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर हो सकता है किन्तु भाव निक्षेप से महावीर केवल वह ही कहला सकता है जिसमें महावीरत्व का गुण हो। द्रव्य निक्षेप से भू. पू. महावीर और होनेवाले महावीर भी महावीर कहला सकते हैं। जन्म के समय महावीर तीर्थंकर नहीं थे। भाव निक्षेप से तो वे तीर्थंकर तब हुए थे जब उन्होंने कैवल्य प्राप्ति के पश्चात् धर्म तीर्थ की प्रवर्तना की थी मगर द्रव्य निक्षेप से वे भविष्य में धर्मतीर्थ की प्रवर्तना करने वाले होने के कारण जन्म से ही तीर्थंकर कहलाते थे। स्थापना निक्षेप से महावीर की मूर्ति भी महावीर कहलाती है और तदनुरूप ही उनकी पूजा, उपासना, स्तुति, सम्मान प्रादि होता है। शब्दों के इस प्रयोगपरिपाटी के न समझने वालों के लिए इसमें लड़ाई का काफी मसाला मिल सकता है। यह ही बात पालकारिक भाषा के सम्बन्ध में भी लागू होती है। किसी भी मोटे आदमी को देख कर उसे प्रायः हाथी कह दिया जाता है इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि वह वास्तव में ही हाथी है । नदी पर रहने का अर्थ यह नहीं होता कि अमुक मनुष्य नदी के बीच पानी पर रहता है अपितु यह है कि वह नदी के किनारे रहता है। शहर में आकाश को छूने वाले मकानों का अर्थ यह नहीं कि वे वास्तव में ही प्राकाश को छूते हैं अपितु यह है कि शहर में बहुत ऊचे ऊंचे मकान हैं । केवल वाक्य में प्रयुक्त शब्दों का ज्यों का त्यों अर्थ करने वालों के लिए यहां भी लड़ाई का काफी मसाला मिल सकता है मगर है वह प्रज्ञान की पराकाष्ठा ही। इसी प्रकार शब्दों का अर्थ करते समय प्रसंग का भी ध्यान रखना पड़ता है। रोटी खाते समय सैधव का अर्थ नमक होगा और लड़ाई के मैदान में यह ही शब्द घोड़े का वाचक होगा। सैंधव का अर्थ करते समय यदि प्रसंग का ध्यान न रखा जाय और रोटी खाते समय खाने वाले द्वारा सैन्धव मांगने पर उसे नमक न परोस उसके सामने घोड़ा खड़ा कर दिया जाय तो सोचिये कैसी विचित्र स्थिति होगी। जैन शास्त्रों के अनुसार बलि प्रथा का प्रारम्भ 'अज' शब्द का अर्थ 'नहीं काम में या पुन: उत्पादन में अशक्य अनाज' न करके बकरा अर्थ करने के कारण हुवा। आपको एक सत्य किन्तु मजेदार घटना बताता हूं। मैं जब सरकारी सर्विस में था हमारे बॉस खेलों के बड़े शौकीन थे। वे नित्य क्लब में टेनिस खेलने जाया करते थे। साथ में उनका चपड़ासी भी जाता था। क्लब में बड़े-बड़े अफसर, जागीरदार आदि आते थे। एक बार स्मृति दोष से वे अपनी कार की चाबी कार में ही लगी छोड़ पाए। उन्होंने चपड़ासी से मोटर में से मोटर की चाबी लाने को कहा तो वह दौड़ा दौड़ा गया और मोटर में चाबी देने का हैण्डिल उठा ले गया क्योंकि वह उसे भी चाबी ही कहता था । दौड़ा दौड़ा जाकर जब उसने उस बड़े हैण्डिल को सम्मान पूर्वकहमारे बॉस को अन्य समुपस्थित सज्जनों के सामने दोनों हाथों में लेकर प्रस्तुत किया तो सब चौंके कि क्या बात है । फिर असल बात ज्ञात होने पर वह कहकहा लगा कि पाप अनुमान कर सकते हैं। सच है प्रसंगानुसार अर्थ न करने वाले इसी प्रकार हंसी के पात्र होते हैं । घड़ा निश्चय नय से मिट्टी का है किन्तु घी के संयोग से घी का घड़ा, दूध के संयोग से दूध का घड़ा, मिर्ची के संयोग से मिर्ची का घड़ा व्यवहार नय के द्वारा कहा जाता है । निश्चय नय से घड़े का अस्तित्व उतने ही प्रदेशों में है जितने कि उस मिट्टी में है किन्तु व्यवहार नय से घड़ा कमरे में है ऐसा भी कहा जाता है। ये परस्पर विरोधी दिखने वाली बातें एक नय से ठीक हैं तो दूसरी नय से ठीक नहीं भी हैं । शास्त्रकारो ने नय का एक लक्षण 'वक्तुरभिप्रायो नयः' ऐसा भी किया है । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतः शास्त्रों का पठन करते समय यह जानना भी प्रावश्यक है कि अमुक बात से ग्रंथकार का वास्त विक अभिप्राय क्या है ? कौनसी नय का श्राश्रय लेकर उन्होंने वह बात कही है। साथ में यह भी जानने की बात है कि शास्त्रकार जिस नय का आश्रय लेकर कोई बात कहते हैं तो इसका अभिप्राय यह नहीं है कि दूसरी नय की अपेक्षा जो बात ठीक है वह उसका खण्डन करते हैं। हाँ वे उसे गौण अवश्य कर जाते हैं । यही जैन शास्त्रकारों के कथन की विशेषता है कि जहां एक कोण से वे किसी बात का खण्डन करते हैं तो दूसरे दृष्टिकोण से उसे स्वीकार भी कर लेते हैं । ऐसा करने पर ही सर्वधर्मसमभाव अथवा सब धर्मों का समन्वय संभव है । श्राचार्य अमृतचन्द्र सूरि ने अपने पुरुषार्थसिद्ध्युपाय नामक ग्रंथ में क्या ही अच्छी बात कही है— एकेनाकर्षन्ती इलथयन्ती वस्तुतत्वमितरेण । अन्तेन जयति जैनी नीतिर्मन्थाननेत्रमिव गोपी ॥ अर्थात् जब जैन शास्त्रकार किसी एक नय से पदार्थ या वस्तु तत्व का दही मथने वाली गोपी के हाथों की तरह वह नय प्रधान हो जाती है श्रीर दूसरी स्खण्डित नहीं होती उसका अस्तित्व बना रहता है । आज समाज में जो निमित्त उपादान अथवा निश्वय व्यवहार के झगड़े समाज का वातावरण गंदा कर रहे हैं उसके पीछे कारण यही है कि हम नय विवक्षा को भूल कर शास्त्रों का अर्थ करने लगे हैं । धर्मतीर्थ का प्रवर्तन निश्चय और व्यवहार दोनों नयों को जानने वाले ही कर सकते हैं । केवल एक नय का आश्रय लेकर मोक्षमार्ग का प्रवर्तन नहीं किया जा सकता । उनही प्राचार्य ने स्पष्ट कहा है कि 'व्ययहार निश्चयज्ञाः प्रवर्तयन्ते जगति तीर्थम् । पं० प्राशाधरजी ने भी अपने मनगारधर्मामृत में यही बात कही है - - जई जिरणमयं पवज्जह ता मा व्यवहार णिच्छए मुनह । एकेरण बिना हिज्जइ, तित्थं प्र रा पुरा तच्चं ॥ वर्णन करते हैं तो नय गौण । वह यदि तू जिनमत में अपनी प्रवृत्ति करना चाहता है तो व्यवहार और निश्चय को मत छोड़ क्योंकि एक के भी प्रभाव में धर्मतीर्थं का प्रभाव ह जायगा । भगवान् महावीर ने 'भी' के प्रयोग के साथ साथ 'ही' के प्रयोग का भी विधान किया है । सापेक्ष वाक्यों में 'ही' उच्चरित नहीं होने पर भी वक्ता के अभिप्राय में छुपी रहती है । हमारे कहने का अभिप्राय यह है कि हम वक्ता के कथन का अपने मनोनुकूल अर्थ करना छोडें । हम उस प्रपेक्षा को समझने का प्रयत्न करें जिस अपेक्षा से वक्ता ने वह बात कही है । इसे समझ लेने पर अधिकांश झगड़े स्वतः ही समाप्त हो जावेंगे । मौर तब धर्मतत्व हमारी प्रात्मा में उतरेगा | जैनत्व का अंश हमारे में प्रावेगा । तब हम नाम निक्षेप के जैनी न रह कर भाव निक्षेप से जैनी बनेंगे । यदि हमने पूर्वाग्रह छोड़कर निष्पक्ष दृष्टि से शास्त्र स्वाध्याय किया तो सहज ही हमारी समझ में यह बात भाजायगी कि किस दृष्टि ने पुण्य हेय भौर किस दृष्टि से उपादेय है । उपादान का क्या कार्य है और निमित्त का क्या ? अपने अपने स्थान पर दोनों का ही महत्व है । धर्मात्मानों के बगैर धर्म की सत्ता नहीं रह सकती । धर्म का एक लक्षण यह भी है कि ( x ) Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरों की मान्यताओं को प्राघात न पहुंचायें। 'मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर करना' । धर्म दूसरों की निन्दा करना नहीं सिखाता, विरोधियों को नष्ट करना नहीं सिखाता, वह तो सबके प्रति समभाव की शिक्षा देता है । समता का प्रदाता ही सच्चा सम्प्रदाय कहलाता है । लेकिन हमारा मार्ग उलटा है | हम धर्म के सम्मुख न होकर उससे विमुख हो रहे हैं। पं० श्रशाधरजी ने ठीक ही कहा था - 'पण्डितं भ्रष्टचारित्रः जठरैश्च तपोधनैः । शासनं जिनचन्द्रस्य निर्मलं मलिनीकृतम् || ' कानजी स्वामी वर्तमान काल की उन विभूतियों में से हैं जिन्होंने हजारों विपथग मियों को सत्पथ के मार्ग पर लगाया है। जो कार्य हमारे नग्न दिगम्बर साधु नहीं कर पाये उस कार्य को उन्होंने कर दिखाया । समाज पर उनका यह उपकार कम नहीं है। उनकी कुछ मान्यतानों से किमी का भी मतभेद होना संभव है, यह भी संभव है कि वे स्वयं भी कहीं गलती पर हों तो भी समय का तकाजा है कि वे मतभेद मनोभेद की हद तक न पहुंचे। संगठित समाज आज की महती श्रावश्यकता है | हमारा दोनों ही पक्षों से नम्र निवेदन है कि वे कोई ऐसा कार्य अपनी ओर से न करें जिससे समाज के संगठित होने में बाधा उपस्थित हो । पहले ही संगठन के कार्य में कई कठिनाइयां हैं । उनमें वृद्धि कर 'हम करेला और नीम चढ़ा' वाली उक्ति चरितार्थं न करें । स्मारिका के प्रकाशन तथा सम्पादन के सम्बन्ध में राजस्थान जैन सभा प्रतिवर्ष नए सिरे से निश्चय करती है । वह निश्चय इतना विलम्ब से होता है कि विद्वान् लेखकों से नई कृतियां प्राप्त करना बड़ा कष्टसाध्य कार्य होता है । यह तो हमारे लेखकों और कवियों का सौजन्य है कि वे हमारा एक पत्र पाने पर ही हमें अपनी रचनाएं भिजवा देते हैं । हमें उन्हें बार बार स्मृति पत्र नहीं भेजना पड़ता । यदि यह सहयोग लेखकों और कवियों की ओर से हमें नहीं मिले तो निश्चय ही स्मारिका समय पर प्रकाशित होकर पाठकों के हाथों न पहुँचे । एतदर्थ हम हमारे लेखकों और कवियों के हृदय के अन्तर्तम से आभारी हैं । यदि प्रकाशन एवं सम्पादन के सम्बन्ध में स्थायी रूप से न सही जयन्ती से कम से कम 6 मास पूर्व भी निर्णय ले लिया जाय तो इससे भी अच्छे रूप में स्मारिका का प्रकाशन हो सकता है । प्राशा है भविष्य में सभा इस सम्बन्ध में कुछ भी निश्चय करेगी । इस वर्ष प्रसिद्ध गांधीवादी विचारक प्रौर लेखक श्री यशपालजी जैन का स्वर्गवास समाज के लिए बड़ी दुःखद घटना है । वे प्रन्तर्राष्ट्रीय ख्याति के व्यक्ति थे और देश तथा विदेशों में अपनी रचनाओं पर कई सम्मान तथा पुरस्कार उन्होंने प्राप्त किये थे । स्मारिका के भी वे नियमित लेखक थे । रचना के साथ साथ उनके उत्साहप्रद पत्र भी प्रतिवर्ष हमें प्राप्त होते थे । जैन समाज में एकता स्थापित करने हेतु वे मन वच कर्म से रत थे । ऐसी महान् प्रात्मा का प्रयोग समाज की ही नहीं राष्ट्र की क्षति है । दूसरे वयोवृद्ध लेखक श्री दौलतराम 'मित्र' भानपुरा थे जो हम से बिछुड़ गये । हम दोनों श्रात्मानों के शांति एवं सद्गतिलाभ हेतु कामना करते हैं । स्मारिका का यह 14 वां अंक जैसा भी हम से बन संवर सका आपके हाथों में है । इस पर आपकी निष्पक्ष सम्मति का सर्वदा स्वागत है । जैसा कि प्रतिवर्ष होता है इस वर्ष भी बहुत सी रचनाएं इस या उस कारण से स्मारिका में अपना स्थान ग्रहण नहीं कर पाई हैं। वे खेदपूर्वक उनके लेखकों को लौटाई जा रही है। प्रसिद्ध इतिहास वेत्ता श्री दिगम्बरदासजी एडवोकेट की एक वृहत्काय रचना भी इनमें है जिसमें उन्होंने 24 तीर्थंकरों की ऐतिहासिकता को सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। रचना इतनी अधिक लम्बी थी ( xi ) Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कि स्मारिका के कम से कम 60 पृष्ठों में प्राती । हम उसके कुछ अंशों का प्रकाशन करना चाहते थे मगर आदरणीय लेखक को यह स्वीकार नहीं था। वे इस सम्बन्ध में सभा को अपनी ओर से कुछ प्रार्थिक सहयोग देने को भी प्रस्तुत थे । किन्तु हमारी और सभा की कुछ मजबूरियां, कुछ कठिनाइयां थीं। हमें वास्तव में खेद है कि उनका श्राग्रह स्वीकार करने में असमर्थ रहे । विनम्रता पूर्वक हम उनसे क्षमायाचना करते हैं। स्मारिका का कलेवर भी परिस्थितियों वश छोटा करना पड़ा है। स्मारिका सम्पादन में मेरे सहयोगी श्री पदमचंद साहू का जो सहयोग और परामर्श समयसमय पर मुझे मिला उसके लिए मैं उनका धन्यवाद करता हूँ । पत्रकारिता पर उन्होंने उपाधि प्राप्त की है तथा इस क्षेत्र में उनका सक्रिय प्रनुभव भी है। मेरे अन्य सम्पादन सहयोगियों का भी मुझे पूरा-पूरा सहयोग प्राप्त हुवा है उन सबका भी मैं ग्राभारी हूँ । राजस्थान जैन सभा प्रतिवर्ष मुझे स्मारिका के सम्पादन का भार प्रदान कर जनता के सम्मुख आने का जो अवसर प्रदान करती है एतदर्थ मैं कार्यकारिणी का प्राभार मानता हूं । विशेष रूप से श्री राजकुमारजी काला अध्यक्ष, श्री बाबूलालजी सेठी मंत्री एवं अन्य बन्धुनों ने जो सहयोग मुझे इस वर्ष प्रदान किया उसका धन्यवाद करने हेतु मैं अपने पास शब्दों का प्रभाव पाता हूँ । मं० मून लाइट प्रिंटर्स के मालिक तथा व्यवस्थापक श्री महावीरप्रसादजी जैन तथा वहां के कर्मचारियों ने भी स्मारिका समय पर निकालने हेतु जो श्रम किया उससे मैं परिचित हूँ । उसे अनदेखा नहीं किया जा सकता । से सव ही धन्यवाद के पात्र हैं । स्मारिका के संबंध में एक बात और हमारे कुछ समीक्षक इसे शोध ग्रंथ के रूप में ही देखना चाहते हैं अतः उससे नीचे स्तर की रचनाएं उन्हें पसन्द नहीं प्रातों । स्मारिका प्रकाशन का उद्देश्य जैनधर्म, दर्शन, साहित्य, इतिहास, पुरातत्व श्रादि का प्रचार प्रसार करना है केवल शोध खोज तक अपने को सीमित रखना नहीं । समीक्षक हमारे इस उद्देश्य को अवश्य ही ध्यान में रखें क्योंकि उन्हें ऐसी रचनाएं भी इसमें मिल सकती हैं जो उस स्तर की न होकर भी स्मारिका के उद्देश्य की पूर्ति में सक्षम हैं । सम्पादन में बन पड़ी, त्रुटियों, भूलों तथा श्रसावधानियों के लिए सभी सम्बन्धित सज्जनों से क्षमायाचना पूर्वक - (xii) भंवरलाल पोल्याका प्रधान सम्पादक Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्मारिका के प्रधान सम्पादक पं. भंवरलाल पोल्याका समारोह के अध्यक्ष श्री गुलाबचन्द कासलीवाल को स्मारिका की प्रति भेंट करते हुए महावीर जयन्ती समारोह 1976 मुनीश्री अजीत सागरजी महाराज के करकमलों में सभा द्वारा प्रकाशित महावीर जयन्ती स्मारिका की प्रति भेंट करते हुए सभा के श्रध्यक्ष श्री राजकुमार काला Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NEEDEDEDDED - प्रकाशकीय KEDDEDEEDED यदि जयपुर की सक्रिय सामाजिक संस्थाओं की गणना की जाय तो उसमें सर्वप्रथम जो नाम आवेगा वह है-राजस्थान जैन सभा । यह अपने जीवन के 25 वर्ष पूर्ण कर रही है । इस सुदीर्घ काल में उसने समाज हित के जो कार्य अब तक किये हैं उनका लेखा-जोखा आपको स्मारिका के इन ही पृष्ठों में अन्यत्र पढ़ने को मिलेगा। जैन साहित्य का प्रचार-प्रसार भी सभा की प्रमुख गतिविधियों में से एक है । अन्य ट्रेक्टों और पुस्तिकाओं के प्रकाशन के अतिरिक्त भ० महावीर के उपदेशों के प्रचार-प्रसार तथा जैन दर्शन, साहित्य, इतिहास, संस्कृति, कला मादि से सम्बन्धित महत्वपूर्ण जानकारी जैनाजैन जनता को उपलब्ध कराने हेतु सन् 1962 में स्व. पं. चैनसुखदासजी की सत्प्रेरणा और परामर्श से भ० महावीर की जयन्ती के पुण्यावसर पर एक स्मारिका के प्रकाशन का निर्णय लिया था जिसने नियमित प्रकाशन का रूप ले लिया है। अब तक स्मारिका के 13 अंक प्रकाशित हो चुके हैं। 14 वां अक पाठकों के हाथ में है । पं० चैनसुखदासजी के स्वर्ग प्रयाण के पश्चात् इसका सम्पादन पं भंवरलालजी पोल्याका जैन दर्शनाचार्य करते प्रारहे हैं । आप इन दिनों गत कुछ वर्षों से अस्वस्थ रहते हैं फिर भी बिना किसी व्यवधान के गत वर्ष तक पाठ अंक प्रापने पाठकों तक पहुंचाए हैं और उनके सम्पादन काल का यह 9 वां प्रक पाठकों के हाथ में है। प्रतिवर्ष जो सैंकड़ों पत्र विद्वान् पाठकों के हमें प्राप्त होते है उनसे स्पष्ट है कि उनके सम्पादन काल में स्मारिका का पूर्व स्तर न केवल कायम रहा है अपितु उसमें कुछ वृद्धि ही हुई है। एतदर्थ मैं सभा की पोर से श्री पोल्याकाजी का अत्यन्त प्राभार प्रकट करता हूं। इसके अतिरिक्त वे लेखकगण भी हमारे प्रत्यधिक साधुवाद के पात्र हैं जिन्होंने अपनी रचनाएं स्मारिका में प्रकाशनार्थ भेजीं। स्थानाभाव से कुछ रचनाएं स्मारिका में स्थान नहीं पा सकीं इसका खेद है। बिना अर्थ के किसी भी प्रकार का प्रकाशन कार्य सम्भव नहीं है। स्मारिका की अर्थ व्यवस्था सभा द्वारा विज्ञापनों के माध्यम से की जाती है। एतदर्थ एक समिति का निर्माण किया जाता है । इस समिति के सदस्य समाज के अन्य प्रमुख कर्मठ कार्यकर्ताओं के सहयोग से स्थान स्थान पर सम्पर्क कर विज्ञापन प्राप्त करते है । इस वर्ष इस कार्य का संयोजन श्री रमेशचन्दजी गंगवाल एवं ( xiii ) Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सुदेशभूषणजी सौगाणी, मुन्नीलालजी जैन, कैलाशचन्दजी वैद, कपूरचंदजी पाटनी, महेशजी काला, प्रकाशजी ठोलिया, सुमेरकुमारजी सोनी ने किया है । अर्थ संग्रह हेतु सर्वश्री सुरज्ञानीचंदजी न्यायतीर्थ, ताराचन्दजी शाह, प्रकाशचंदजी ठोलिया, ज्ञानचंदजी झांझरी, बलभद्रजी जैन, महेशजी काला, सुभाषजी चौधरी, प्रवीणचन्दजी जैन, देवकुमारजी साह कैलाशचंदजी सौगानी, चिरंजीलालजी लुहाड़िया, सुमेरचन्दजी जैन, सूरजमलजी दलाल आदि ने अथक परिश्रम करके जो सहयोग दिया उनके प्रति भी प्राभार प्रकट किये बिना नहीं रह सकता। विज्ञापनदाताओं के सहयोग का ही यह फल है कि लागत से भी बहुत कम मूल्य पर स्मारिका पाठकों के हाथों में पहुंचती है । यह पुण्य कार्य विज्ञापनदाताओं के सहयोग के बिना संभव नहीं है.। इस वर्ष जिन-जिन संस्थानों ने अपने विज्ञापन प्रदान कर हमें सहयोग प्रदान किया है उनका हम हृदय से आभार मानते हैं तथा भविष्य में भी उनसे इसी प्रकार के सहयोग की प्राशा करते हैं। __ स्मारिका का प्रस्तुत अंक कैसा है यह निर्णय करना हमारा काम नहीं है। पाठकों से हमारा अनुरोध है कि इसमें रहने वाली श्रुटियों की ओर हमारा ध्यान प्राकर्षित करते रहें जिससे कि तद्नुरूप उनमें सुधार होता रहे । इस वर्ष की स्मारिका पर आपका अभिमत साग्रह आमंत्रित है। स्मारिका का मुद्रण कार्य मूनलाइट प्रिंटर्स जयपुर ने किया है। स्मारिका समय पर उनके सहयोग के बिना पहुंचना संभव नहीं था । एतदर्थ संस्थान के मालिक श्री महावीर प्रसाद जैन तथा उनके सभी सहयोगी धन्यवाद के पात्र हैं। बाबूलाल सेठी __ मंत्री राजस्थान जैन सभा, जयपुर , बलभद्र जैन Nm महावीर जयंती समारोह १६७७ संयोजक सह संयोजक 1. निबन्ध प्रतियोगिता श्री प्रकाशचन्द जैन श्री बुद्धिप्रकाश भास्कर 2. संगीत संध्या ,, जवाहरलाल जैन 3. भाषण प्रतियोगिता , प्रकाशचन्द जैन ,, कैलाशचन्द गोधा प्रभात फेरी , प्रकाशचन्द ठोलिया ,, कैलाशचन्द सोगानी 5. महिला सम्मेलन कुमारी प्रीति जैन श्रीमती मोहना देवी जैन 6. जुलूस श्री हीराचन्द वैद श्री प्रकाशचन्द ठोलिया 7. सांस्कृतिक समारोह ,, तिलकराज जैन ,, कैलाशचन्द गोधा 8. अर्थ संग्रह , सुरज्ञानीचंद जैन ताराचन्द साह 9. प्रचार ,, महेश काला ज्ञान प्रकाश बक्षी 10. पंडाल व्यवस्था ,, रामचरण जैन , लल्लूलाल जैन ( xiv ) Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रा भा र प्र द 석, 이 र्श न भगवान महावीर के पावन संदेश तथा जैन संस्कृति, साहित्य, कला आदि से सम्बन्धित महत्वपूर्ण जानकारी जैन तथा जैनेतर जनता तक पहुंचाने में राजस्थान जैन सभा, जयपुर द्वारा महावीर जयन्ती के पावन पर्व पर प्रतिवर्ष प्रकाशित होने वाली इस स्मारिका का स्थानीय ही नहीं अपितु सारे भारत में अपना विशिष्ट स्थान है । स्मारिका की जो गरिमा प्राज हमारे सामने हैं, इसका वर्तमान में श्र ेय पं० भंवरलालजी पोल्याका जैनदर्शनाचार्य को है । यद्यपि अस्वस्थ है और कड़ी महनत ग्रापके स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव डालती है फिर भी जिनवाणी की सेवा की लग्न होने के नाते आप इस स्मारिका के लिए अथक बौद्धिक एवं शारीरिक श्रम कर रहे हैं । इस कार्य के लिए समाज आपका सदैव ऋणी रहेगा । किसी भी प्रकार के प्रकाशन कार्य के लिए वित्त' एक अनिवार्य सभा यह कार्य विज्ञासंग्रह का कार्य इस वर्ष भी निभाने का शक्तिभर प्रयत्न साधन है । इसके बिना यह कार्य सम्भव नहीं लगता पनों के माध्यम से करती है । सभा ने विज्ञापन मेरे कंधों पर डाला । मैने इस उत्तरदायित्व को किया है और उसका फल आपके सामने है । विज्ञापन समिति के सदस्यों के अतिरिक्त उन सभी विज्ञापनदाताओं का व्यक्तिशः आभारी हूं जिन्होंने मुझे उत्साहित कर इस प्रकाशन को सफल बनाने में सहयोग दिया है। इसके साथ ही मैं सभा के अध्यक्ष श्री राजकुमारजी काला एवं सभा के मंत्री श्री बाबूलालजी सेठी व मेरे अन्य साथियों जिनके नाम का यहाँ उल्लेख नहीं है -का भी अत्यन्त श्राभारी हूं जिनके अथक प्रयास और सहयोग से मैं यह कार्य कर सका। मेरे इस कार्य में मुझ से यदि कोई भूल हो गई हो तो आप उदार हृदय से मुझे क्षमाकर श्रनुगृहीत करेंगे । अन्त में सभा के इस कार्य को भविष्य में भी आपके उत्तम सहयोग की कामना रखते हुए सभी का हृदय से धन्यवाद अर्पित करता हूँ । अभिवादन सहित, रमेश गंगवाल संयोजक विज्ञापन समिति Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान जैन सभा, जयपुर एक संक्षिप्त परिचय समाज को कुरीतियों व कुरूढियों से मुक्त कराने, समाज को एक सूत्र में बांधने, समाज की साहित्यिक, सांस्कृतिक व आर्थिक उन्नति करने एवं स्वस्थ धार्मिक वातावरण बनाने के लक्ष्य से 25 वर्ष पूर्व विभिन्न संस्थाओं के एकीकरण द्वारा राजस्थान जैन सभा की स्थापना की गई। सभा का स्वयं का एक संविधान है एवं यह "राजस्थान सोसायटीज एक्ट" के अन्तर्गत पंजीकृत है। विशुद्ध धार्मिक एवं सैद्धान्तिक मान्यताओं को प्रधानता देकर वास्तविक धर्म का मर्म समझाते हुए जैन समाज की साहित्यिक, सांस्कृतिक, चारित्रिक, सामाजिक एवं आर्थिक उन्नति हेतु मावश्यक कार्य करना ही सभा का एक मात्र लक्ष्य है । जनमानस को धर्म एवं कर्तव्य की ओर आकृष्ट करने की दृष्टि से दशलक्षण पर्व, क्षमापनसमारोह, महावीर जयन्ती समारोह तथा निर्वाणोत्सव पर विशेष समारोह एवं समय-समय पर व्याख्यानों-प्रवचनों के प्रायोजन एवं साहित्य प्रकाशन सभा की मुख्य गतिविधियां रही हैं । स्मारिका का नियमित प्रकाशन- साहित्य प्रकाशन का एक मुख्य अंग रहा है । गत वर्ष में किये गये कार्यों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है। महावीर जयन्ती समारोह : समस्त जैन समाज के सहयोग से यह समारोह 9 अप्रैल 1976 से 12 अप्रैल 1976 तक चतुर्दिवसीय कार्यक्रम के रूप में मनाया गया। 9 अप्रेल 76 को प्रात: महावीर स्कूल के प्रांगण में एक निबन्ध प्रतियोगिता "जनहित में भगवान् महावीर" विषय पर आयोजित की गई। रात्रि के 730 बजे श्री दिगम्बर जैन मन्दिर बडा दीवान जी में जैन दर्शन का कर्मसिद्धान्त मनुष्य को पुरुषार्थी बनाता है" विषय पर वादविवाद प्रतियोगिता का आयोजन किया गया जिसकी अध्यक्षता श्री श्रीरामजी गोटेवाला, सदस्य राजस्थान विधान सभा ने की। 10 अप्रेल 76 को प्रात्मानन्द सभा भवन में प्रो० प्रवीणचन्दजी जैन की अध्यक्षता में एक विचारगोष्ठी "प्रादर्श समाज रचना में जैन (xvi ) Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्त की उपयुक्तता" विषय पर मायोजित की गई जिसमें सर्वश्री नवीनकुमारजी बज, पं० मिलाप चन्दजी शास्त्री, पं० भंवरलालजी न्यायतीर्थ, श्रीमती स्नेहलता बज, पं० भंवरलालजी पोल्याका जैनदर्शनाचार्य, श्री अनूपचन्दजी म्यायतीर्थ, पं० बंशीधरजी शास्त्री ने अपने-अपने सारगर्मित विचार प्रकट किये।।1 अप्रेल 1976 को प्रातः प्रभात फेरी निकाली गई जिसमें विभिन्न भजन मंडलिगों ने पूर्ण सहयोग दिया। रात्रि के 8 बजे लाल भवन में रानी लक्ष्मीकुमारी चूडावत सांसदा की अध्यक्षता में एक महिला सम्मेलन का प्रायोजन किया जिसमें साध्वीश्री सिरहकुंवरजी व साध्वीश्री कानकंवरजी का भी सान्निध्य प्राप्त हना । श्रीमती कमला बेनीवाल जनसम्पर्क मन्त्री ने विशिष्ट अतिथि के रूप में सम्मेलन को सम्बोधित किया। दिनांक 12 अप्रेल 1976 को प्रातः 6.30 बजे महावीर पार्क से एक विशाल जुलूस प्रारम्भ होकर नगर के प्रमुख बाजारों में होता हुआ रामलीला मैदान में पहुंच कर एक सार्वजनिक सभा में परिवर्तित हो गया। महावीर स्कूल द्वारा प्रस्तुत “सोलह स्वप्नों की झांकी" एवं प्रादर्श जैन मिशन द्वारा प्रस्तुत "जन्म कल्याण-महोत्सव की झांकी' जुलूस के विशेष प्राकर्षण रहे । एक ही पोशाक में महिलामों के मण्डल भी विशेष प्राकर्षक थे। जुलूस में लगभग पच्चीस हजार से अधिक नर-नारियों ने भाग लिया। जौहरी बाजार में श्री बुद्धिप्रकाशजी भास्कर ने बड़े रोचक ढंग से जलूस के दृश्य का प्रांखों देखा हाल प्रसारित किया। राजस्थान के वित्तमन्त्री श्री जी वैद ने समस्त जैन समाज द्वारा मान्य पचरंगा झण्डा फहरा कर झण्डारोहण किया। विशाल जनसमुदाय को सम्बोधित करते हुये श्री वैद ने कहा कि निर्वाण वर्ष एवं जयन्ती के अवसर पर किये गये कार्यों का सिंहावलोकन किया जाना चाहिये। श्री भंवरलालजी पोल्याका ने सभी अतिथियों को स्मारिका की प्रति भेंट की। इसी अवसर पर भारत जैन महामण्डल एवं वीर निर्वाण भारती द्वारा सम्मानित महानुभावों का भी अभिनन्दन किया गया। सर्वश्री मुनि जयानन्दजी व सोहनलालजी के प्रवचन हुए । मुनिश्री अजीतसागरजी ने अपने प्रवचन में कहा कि रागद्वेष को त्याग कर वीतरागता की ओर अग्रसर होवे यही भगवान् महावीर का प्रमुख उपदेश है और तभी हमारा जयन्ती मनाना सार्थक होगा । सांसद श्री नवलकिशोर शर्मा, प्रसिद्ध सर्वोदयी साहित्यकार श्री यशपाल जैन एव समारोह के अध्यक्ष श्री गुलाबचन्दजी कासलीवाल ने भगवान् महावीर के सिद्धान्तों पर प्रकाश डाला। रात्रि के 8 बजे श्री निहालचन्दजी जैन प्रशासक, नगर परिषद की अध्यक्षता में एक सांस्कृतिक कार्यक्रम रामलीला मैदान में प्रायोजित किया गया जिसमें विभिन्न शिक्षण संस्थान व भजन मण्डलियों ने बड़े आकर्षक कार्यक्रम प्रस्तुत किये । श्री हीराभाई एम० चौधरी, मुख्य अतिथि ने इस अवसर पर विजेताओं को पुरस्कार वितरित किये । दश लक्षण पर्व समारोह : भौतिकता में लिप्त मानत्र को प्राध्यात्मिकता का रसास्वादन कराने हेतु इस वर्ष भी 29 अगस्त 76 से 7 सितम्बर 76 तक दशलक्षण पर्व समारोह श्री दिगम्बर जैन मन्दिर बडा दीवानजी में मनाया गया जिसमें पं० जवाहरलालजी जैन विदिशा का दशधर्मों पर मार्मिक प्रवचन तथा सर्वश्री पं० राजकिशोरजी जैन, चिरंजीलालजी जैन, डा० कस्तूरचन्दजी कासलीवाल, जसवन्त सिंहजी सांघी, डा० एन० के० सिंधी तेजकरणजी डंडिया, प्रवीणचन्दजी छाबडा, निहालचन्दजी जैन, ताराचन्दजी साह, कपूर चन्द जी पाटनी, रामचन्द्र जी कासलीवाल, श्रीमती चन्द्रकान्ता डंडिया तथा कुमारी प्रीति जैन ने विभिन्न विषयों पर अपने विचार प्रकट किये। जैन दर्शन विद्यालय, महिला ( xvii ) Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जागृति संघ एवं महावीर दिगम्बर जैन उच्च माध्यमिक विद्यालय ने इस समारोह के अवसर पर संवाद व भजन प्रस्तुत किये। श्री हरिराम प्राचार्य द्वारा प्रस्तुत काव्य पाठ विशेष पाकर्षक रहा । क्षमापन पर्व समारोह : सदा की भांति इस वर्ष भी दशलक्षण पर्व समारोह की समाप्ति पर आसोज बुदि 2 दिनांक 10 सितम्बर 1976 को प्रातः काल की बेला में प्रापसी मतभेद भुलाने एवं विश्व प्रेम की भावना को जागृत करने के लिए सामूहिक क्षमापन पर्व समारोह रामलीला मैदान में मनाया गया जिसमें मुनिश्री सुव्रतसागरजी महाराज, श्री मोहन छंगाणी, शिक्षा एवं कृषि मन्त्री, राजस्थान सरकार ने विशिष्ट अतिथि के रूप में पं० मिलापचन्दजी शास्त्री, विधायक श्री फूलचन्दजी जैन एवं श्री श्रीरामजी गोटेवाला, श्रीमती चन्द्रकान्ता डंडिया, ने क्षमा के वास्तविक स्वरूप व महत्ता पर अपने विचार प्रकट किये। महावीर निर्वाणोत्सव : भगवान् महावीर के उपदेशों के प्रचार व प्रसार के उद्देश्य से इस समारोह का आयोजन निर्वाण दिवस की सांध्य बेला में 23-10- 6 को बड़े दीवान जी के मन्दिर में श्री सुभद्र कुमारजी पाटनी की अध्यक्षता में सम्पन्न हुप्रा । सर्वश्री डा० कस्तूरचन्दजी कासलीवाल, अनूपचन्दजी न्यायतीर्थ, मोहनलालजी रावका, कपूरचन्दजी पाटनी, ज्ञानचन्दजी बिल्टी वाले, पं० हुकमचन्दजी भारिल्ल प्रादि ने महावीर भगवान् के उपदेशों व सिद्धान्तों पर अपने विचार प्रकट किये। श्री राजमलजी बैगस्या द्वारा काव्यपाठ व महिला जागृति संघ द्वारा संवाद प्रस्तुत किये गये । 2500वां निर्वाण महोत्सव समापन समारोह : आल इण्डिया दिगम्बर जैन भगवान महावीर 2500वां निर्वाण महोत्सव सोसाइटी द्वारा आयोजित समापन समारोह में सम्मेलन के अतिथियों के सम्मान में स्वल्पाहार का आयोजन किया गया एवं सभी कार्यों में कंधे से कंधा मिलाकर सहयोग दिया गया। जैन मेला : गत वर्ष के सामूहिक स्नेह मिलन समारोह की सफलता से प्रभावित होकर इस वर्ष इसे और वृहद् "जैन मेले' के रूप में 14 नवम्बर 1976 को श्री महावीर दिगम्बर जैन उच्च माध्यमिक विद्यालय, सी-स्कीम के प्रांगण में मनाया गया । इस अवसर पर कला प्रदर्शिनी प्रायोजित की गई जिसका उद्घाटन श्री सूरजमलजी वैद द्वारा किया गया। समाज के सभी प्रायु के सदस्यों के लिए विभिन्न खेलकूद प्रतियोगिताओं का आयोजन किया गया जिसमें प्रौढ. महिलाएं व पुरुषों की संगीत कुर्सी दौड़, एवं बच्चों की फेन्सी ड्रेस शो का कार्यक्रम विशेष आकर्षक रहे । सभी विजेताओं को श्री माणकचन्दजी सौगाणी, विधायक द्वारा पारितोषिक प्रदान किये गये। इस अवसर पर समाज की विभिन्न सहयोगी संस्थानों ने भी अपनी-अपनी स्टालों द्वारा लागत मूल्य पर पेय व भोज्य सामग्री उपलब्ध कराई । हाथी, घोड़े एवं झूले प्रादि मनोरंजन के साधन भी लागत मूल्य पर उपलब्ध कराये गये। शाम को सभी ने अपने-अपने मिठाई रहित भोजन से सहभोज किया । ( xviii ) Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरावशेष तथा बहमूल्य कलाकृति अधिनियम : भारत सरकार द्वारा 5 अप्रेल 76 से पुरावशेष तथा बहुमूल्य कलाकृति अधिनियम को लागू करने के फलस्वरूप यह प्रावश्यक हो गया कि जिन व्यक्तियों के अधिकार व कब्जे में मूर्तियाँ, पेन्टिग्स, एन्नविग्स अधिनियम में उल्लेखित सामग्री हो वे उनका पंजीयन करावें । राजस्थान के विभिन्न ग्रामों व कस्बों के मन्दिरों के सम्बन्धित महानुभावों को इसकी जानकारी हेतु सभा द्वारा पत्र भिजवाये गये तथा उनसे निवेदन किया गया कि वे सम्बन्धित अधिकारियों को उक्त नियमों के प्राव. धानों को मन्दिर पर लागू न करने के लिये तार भेजें । सभा ने इस सम्बन्ध में भारत सरकार से प्रावश्यक पत्र व्यवहार किया। आवेदन पत्रों के फार्म भी मुद्रित करा कर उपलब्ध कराये गये व वांछित जानकारी समाज को समय-समय पर दी गई। अमेरिकी जैन अतिथियों का अभिनन्दन : अमेरिकी जैन अतिथियों के 14 दिसम्बर 76 को जयपुर आगमन पर उनका अभिनन्दन किया गया तथा उन्हें स्मृति के रूप में एक 'विजय स्तम्भ' तथा स्मारिका की प्रतियाँ भेंट की गई। साहित्य प्रसार : स्व. पं० चैनसुखदासजी न्यायतीर्थ की प्रेरणा से सभा ने सन् 1962 से भगवान महावीर की पावन जयन्ती के अवसर पर एक स्मारिका का प्रकाशन प्रारम्भ किया और वह सभा का एक नियमित प्रकाशन बन गया। इसमें जैन दर्शन, इतिहास, संस्कृति और साहित्य पर अधिकृत विद्वानों के गवेषणापूर्ण लेख व कविताएं रहती है । प्रारम्भ में स्मारिका का सम्पादन स्व. पंडित साहब ने स्वयं किया और पं० श्री के स्वर्गवास के पश्चात् इस गुरुतर कार्य का दायित्व श्री भंवरलालजी पोल्याका द्वारा उठाया जा रहा है । इसके अतिरिक्त समय समय पर लघु पुस्तकों के प्रकाशन का कार्य भी सभा ने किया जिसमें 108 मुनि श्री विद्यानन्दजी एवं डा० हुक्मचन्दजी भारिल्ल द्वारा लिखित पुस्तकों का एवं भजनावाली प्रादि का प्रकाशन विशेष उल्लेखनीय हैं। सामाजिक गतिविधियां : जैन सभा की गतिविधियाँ केवल समारोह प्रायोजन एवं साहित्य प्रचार तक ही सीमित नहीं है अपितु जब भी सामाजिक क्षेत्र में कोई समस्या उत्पन्न हुई सभा ने आगे प्राकर यथासम्भव समाधान करने का प्रयत्न किया है। राजस्थान विधानसभा में प्रस्तत नग्न विरोधी बिल को वापिस कराने तथा राजस्थान ट्रस्ट एक्ट में प्रावश्यक सशोधन कराने राज्य सरकार से अनन्त संवत्सरी का ऐच्छिक अवकाश स्वीकृत कराने सांगानेर में जमीन से प्राप्त जैन मूर्तियों को समाज के सुपुर्द कराने तथा प्रायकर में हुये संशोधन से समाज को अवगत कराने जैसे महत्वपूर्ण कार्य किये है। एवं समाज में व्याप्त कुरुढ़ियों और कुरीतियों के विरुद्ध भी यह सभा सदैव जागरूक रही है । ( xix ) Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज में सगाई एवं विवाह प्रादि के अवसर पर दहेज की मांग, ठहराव प्रादि को सदैव बुरी राष्टि से देखती रही हैं और इन बुराइधों को दूर करने में सदैव प्रयत्नशील है। सभा की प्रार्थिक स्थिति सुदृढ़ नहीं है इस कारण चाहते हुये भी सभा अपने लक्ष्यों को पूर्ण करने में असमर्थ रही है। सभा द्वारा सम्पन्न किये जाने वाले विभिन्न प्रायोजनों व कार्यक्रमों में जहां कार्यकारिणी समिति के सभी सदस्यों का सक्रिय सहयोग रहा है वहां सर्वश्री हीराचन्द वैद, तिलकराज जैन, निहालचंद जैन, राजरूप टांक, हीराभाई एम० चौधरी, पं० मिलापचन्दजी शास्त्री, केवलचन्दजी ठोलिया, जसवन्तसिंह सांघी, डा० हुकमचन्द भारिल्ल, पन्नालाल बांठिया, मूलचन्द पाटनी, रमेशचन्द पापडीवाल, प्रकाशचन्द जैन, तेजकरण डंडिया, माणिक्यचन्द जैन, सूरजमल वैद, नवीनकुमार बज, सौभाग्यमल रांवका, डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल, विनयकुमार पापडीवाल, देशभूषण सौगाणी, रामचरण जैन, अशोक लुहाडिया, देवकुमार साह, कैलाशचन्द सौगानी, बलभद्र जैन आदि के सहयोग को भी भुलाया नहीं जा सकता । श्री वीर सेवक मण्डल और अन्य सभी शिक्षण संस्थानों, भजन मण्डलियों आदि का भी सभी कार्यक्रमों में पूर्ण रचनात्मक सहयोग रहा है । सभा सभी व्यक्तियों एवं संस्थानों के प्रति अाभार प्रकट करती है । समाज के प्रत्येक सदस्य से सभा को तन, मन एवं धन द्वारा सहयोग एवं सुझाव की अपेक्षा के नम्र निवेदन के साथ बाबूलाल सेठी मन्त्री राजस्थान जैन सभा जयपुर न श्वेताम्बरत्वे न दिगम्बरत्वे न तर्कवादे न च तत्त्ववादे । न पक्षसेवाऽऽश्रयणेग मुक्तिः कषायमुक्तिः किल मुक्तिरेव ।। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम DANCE WECTED खण्ड R DEDEDIA भगवान महावीर : जीवन, जैन तथा जैनेतर वर्शन, उपवेश Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर स्तवनम् * डा. पन्नालाल साहित्याचार्य, सागर अगाधे भवाब्धौ पतन्तं जनं यः समुद्दिश्य तत्त्वं सुखाढ्यं चकार । दयान्धिः सुखाब्धिः सदा सौम्यरूपः स वीरः प्रवीरः प्रमोदं प्रदद्यात् ।। 1।। विदग्धोऽपि लोकः कृतो येन मुग्धः स कामः प्रकामं रतज्चात्मरूपे । न शक्तो बभूव प्रजेत् मनाङ यं स वीरः प्रवीरः प्रमोद प्रदद्यात् ।।2।। यदीयं प्रवीर्य हि बाल्येऽपि देवो धृताहीन्द्र रूपो न किञ्चिद् विवेद । प्रमोदस्वरूपस्त्रिलोकीप्रभूपः स वीरः प्रवीर प्रमोदं प्रदद्यात् ॥3॥ जगज्जीवघातीनि घातीनि हत्वा हतान्येव लेभे परं ज्ञानतत्त्वम् । अलोकं च लोकं व्यलोकीदथो यः स वीरः प्रवीरः प्रमोदं प्रदद्यात् ।।4।। स शिष्यः स विप्रो गुरुर्गोतमो यं समासीनभाराद् विलोक्यैव नूनम् । मदं भूरिमानं मुमोच स्वकीयं स वीरः प्रवीरः प्रमोदं प्रदद्यात् ।।5।। महावीर जयन्ती स्मारिका 77. 11 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुरेन्द्रानुगेना लकानायकेन कृतास्थानभूमि समास्थाय दिव्य।। वचोभिर्य ईशो दिदेशार्थसार्थ स वीरः प्रवीरः प्रमोदं प्रदद्यात् ।।6।। विहृत्यार्यखण्डे सुधर्मामृतस्य प्रवृष्ट्या समस्तान् जगज्जीवसस्यान् । प्रवृद्धान् चकाराभ्ररूपोऽधिपो य! स वीरः प्रवीरः प्रमोदं प्रदद्यात ॥7॥ अनेकान्तदण्डैः प्रचण्डरखण्ड; समुद्दण्ड वादिप्रवेतण्डगण्डान् । विभेदाशु यश्च प्रकष्टप्रमाणः स बोर: प्रवीरः प्रमोदं प्रदद्यात् ।।8।। ततो ध्यानरूपं निशातं विसातं कृपाणं स्वपाणी य मादाय सद्यः । अधातीनि हत्वा बभूव प्रमुक्तः स वीरः प्रवीरः प्रमोदं प्रदद्यात् ।।१।। अथामन्दमानन्दमाद्यन्तहीनं निजात्मप्रजातं ह्यनक्षं समक्षम् । चिरं यश्च भेजे निजे नजरूपं स वीरः प्रवीरः प्रमोदं प्रदद्यात् ।।100 1-2 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर : जीवन-झलक * श्री नन्दकिशोर जैन एम० ए० , लखनऊ वीर गर्भावतरण तथा जन्मोत्सव हुए लगभग छब्बिस सो साल, बीतने को था चौथा काल, हमारी भारत भूमि रसाल, दुखों से पीड़ित थी बेहाल ।। सजाए मोहक सुन्दर साज, सप्त सण्डों से युत गजराज, इन्द्र धनुषी नभ पथ से प्राय, श्वेत ऐरावत प्रति मन भाय । ( 7 ) दिखा फिर पति सुन्दर वृषमेष । सिंह-थे जिसके स्वर्णिम केश ॥ कमल राजित लक्ष्मी मनुहार । ढोरते थे गज द्वय जलधार ॥ स्वार्थपरता छल-छिद्र अपार, झूठ, हिंसा अरु मायाचार, प्राप्ति भोगों की किसी प्रकार, बने थे जीवन के प्राधार ॥ ( 3 ) पाप से पूरित थे सब कर्म । यज्ञ में पशु-बलि ही था धर्म । किसी विधि ढोते जीवन भार, दास बिकते थे बीच बजार ॥ दिखीं दो प्रतिसुन्दर बनमाल । चन्द्र-ज्योतिर्मय पूर्ण विशाल ॥ मिटाता पन्धकार का जाल, सूर्य प्राभामय निकला लाल ॥ समझ कर निज को केवल काय, तनिक से दुख में प्रति प्रकुलाय, कुदेवादिक को भजते जाय, भ्रमित जन करते व्यर्थ उपाय ।। ( 5 ) दुखों से विकल हुई प्रति सृष्टि, हुई तर जग पर मंगल वृष्टि । स्वप्न सोलह सुन्दर मनुहार, हुए त्रिशला मां को सुखकार ।। कलश दो स्वर्णिम शोभायुक्त । तैरता मीन-युगल हो मुक्त ॥ सरोवर पंकज युक्त ललाम । तरंगायित सागर पभिराम ॥ ( 10 ) स्वप्न-पंखों पर क्रमशः चित्र । बदल कर पाते रहे विचित्र ॥ स्वर्ण सिंहसन शोभावान । पौर फिर अनुपम देव विमान ।। महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवन नागेन्द्र दिव्य मनुहार । चमकती रत्न राशि सुखकार ।। सोलहवां स्वप्न अग्नि-निर्धूम । भातु की मया चेतना चूम ।। ( 12 ) अन्त इक उतरा स्वप्न विशेष । दिखा निज मुख में हस्ति प्रवेश ।। प्रातः उठ अति उंछाह मन लाय। स्वप्न फल पूछा प्रभु ढिग जाय ।। ( 13 ) स्वप्न सुन मुदित हुए सिद्धार्थ । प्राप्त ज्यों हुआ सकल परमार्थ ।। स्वप्न फल अलग अलग बतलाय । कहा प्रिय त्रिशला से समझाय । श्वेत हस्ती से बल युक्त काय । पुष्प माला से--धर्म चलाय ॥ स्वप्न फल लक्ष्मी सुनिए नेकमेरु पर करें देव अभिषेक ।। ( 15 ) चन्द्र फल - सबको हो सुखदाय । सूयं से-तत्सम भाभा पाय । कलश द्वय से-निधियों की खान । मछलियों से - अनेक सुख जान । ( 16 ) स्वप्न फल सागर-केवल ज्ञान । 'स्वर्ग से चय'-फल देव विमान । 'जन्म से प्रवधिज्ञान युत सोय' भवन नामेन्द्र स्वप्न फल होय॥ ( 17 ) रत्न की राशि कहे - गुरणखान । अग्नि-निर्धूम सुफल यह जान'कम ईंधन तप-अग्नि जलाए, जीव अति भव्य मोक्ष सुख पाए ।' ( 18 ) अन्त मुख हस्ती किया प्रवेश स्वप्न फल इसका पुण्य विशेष'वीर प्रभु गर्भ आपके प्राय जगत को सब प्रकार सुखदाय ॥' ( 19 ) सुदी षष्टी असाढ़ शुचि मास, गर्भ में पाया पुण्य प्रकाश । हुए अतिशय प्रति दिन बेजोड़, रत्न भी बरसे लाख करोड़ ।। ( 20 ) प्रफुल्लित हुई बहुत तब मात । देर लगती नहिं दिन के जात ।। चैत्र शुक्ला तेरस सुखदाय । वीर प्रभु जगती तल पर प्राय ॥ ( 21 ) बजाए बिना बज उठे साज । सिंहासन कंप हुप्रा सुरराज ॥ जान कर जन्म वीर भगवान, इन्द्र ने किया नृत्य अरु गान ॥ ( 22 ) भक्तिवश प्रति उछाह उमगाए । मेरु पर ले जा प्रति हर्षाय ।। किया क्षीरोदधि जल अभिषेक । दर्श हित नयना किए अनेक ।। ( 23 ) बुद्धि, बल युक्त धीर, गम्भीर । बालपन से ही थे अतिवीर ।। देव संगम बन पाया सर्प । वीर ने तोडा उसका दर्प ॥ ( 24 ) विजय, संजय मुनि शंका दूर । हुई तो हुए भक्ति भरपूर ॥ दिया तब प्रभु को 'सन्मति' नाम । जयतु जय वर्धमान सुखधाम ।। 1 - 4 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (1) हुए जब पूर्ण युवा श्री वीर, कांति से जगमग हुआ शरीर । हृदय प्रति कोमल, वत्सल, धीर मिष्ट बोली मृदु, गुरु, गम्भीर ॥ (2) यशोदा राजकुवरि सुकुमार, कलिंगाधिप बेटी मनुहार । राव जितशत्रुहिं किया विचार"योग्य हैं इसके वीर कुमार " वीर प्रभु की दीक्षा ( 3 ) वीर के मात-पिता के पास | संदेशा दे कर भेजा दास ॥ मातु त्रिशला को हुआ हुलास । पिता सिद्धार्थ मुदित मन-हास || (4 ) वीर थे इन भावों से दूर | विनय भर वाणी में भरपूर कहा - "धन- कंचन - कामिनि धूर | चित की चाह करू चकचूर ॥ ( 5 ) बहुत दुर्लभ है मानव देह छोड़कर सकल जगत से नेह सहूं सर्दी गर्मी, मेह खोज पथ जाऊं शाश्वत गेह ॥" ( 6) सब नहीं था यद्यपि प्रकट निमित्त, खिला वैराग्य वीर के चित्त, विषमयी ज्वाला के सम भोग, जगत के लगे भयानक रोग | ( 7 ) प्रभु ने मन में किया विचार, नहीं है जग में कोई सार, महावीर जयन्ती स्मारिका 77 चांदनी दिखती दिन दो चार, सभी नश्वर है घर परिवार ॥ 8 ) ( राव- राजा, हय - गज - श्रसवार मरें सब अपनी-अपनी बार सहोदर, मात-पिता, परिवार नहीं है कोई बचावनहार ॥ (9 > द्रव्य बिन निर्धन मन को मार, धनी - तृष्णा में विविध प्रकार, विकल सब फिरें बीच संसार, करें मानव जीवन बेकार || ( 10 ) अकेला जीव जगत में पाए । मरण पर पुनः प्रकेला जाए || न साथी सगा बंधु या भाए । कर्म-फल जीव अकेला पाए । ( 11 > देह छुटने नहिं अपना कोय, द्रव्य, घर, बंधु चार दिन चर्चा पराया होय, करते रोय, भूलते फिर भोगों में खोय || ( 12 > चमकती चाम चढ़ी यह देह ऊपरी सज्जा वश सब नेह महा दुर्गंध भरी घिन गेह राग तज तन से रहें विदेह | ( 13 > मोह वश रुले जीव संसार, लिए कर्मों का गुरुतर भार, सरल शुचि निर्मल हो व्यवहार, बंद हो तब कर्मों का द्वार ॥ 1-5 Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 14 ) ( 18 ) पूर्व-कृत-कर्म अनेक प्रकार, "दुखों से पीड़ित है संसार जीव को कसे कुडली मार, मापको करना जीवोद्धार बद्ध-कर्मों का तप से क्षार, करें तप निज-पर हित सूखकार सिद्ध बन करें भवोदधि पार ॥" करे जब, तब हो जीवोद्धार । ( 19 ) ( 15 ) सकल इच्छानों को तब मार, प्रभू ने त्याग दिया घरबार, लोक है चौदह राजु प्रमान, तजा परिजन, पुरजन का प्यार, उसी में जीव फिरे बिन ज्ञान, मात त्रिशला का लाड़-दुलार ॥ सुलभ हैं यद्यपि जन-धन-मान, ( 20 ) बहुत दुर्लभ है सम्यक्ज्ञान ॥ पालकी चन्द्रप्रभा मनुहार, तभी ले आये असुर कुमार, ( 16 ) ध्यान, तप करके विविध प्रकार, निकलने का नहिं दूजा द्वार, ज्ञातृवन-खण्ड गये सुकुमार ।। धर्म ही करे भवोदधि पार, ( 21 ) भावना बारह उक्त प्रकार, महामानी-मन्मथ को मार, करों से काले केश उपार, प्रभू मन उपजी बारम्बार ॥ कृष्ण दसमी मगसिर शशिवार, ( 17 ) दिगम्बर मुनि दीक्षा ली धार ।। ( 22 ) एक दिन बैठे वीर कुमार अधिकतर कर एकांत विहार, करहिं जब मन में सोच विचार परीषह सहकर विविध प्रकार, देव लोकांतिक प्रभु के द्वार तिरे भव-सिंधु अनेकों तार पाए तब बोध दिया सुखकार जयतु-जय-जय वीर कुमार वीर कैवल्य ( 3 ) जग की पीड़ा से हुए विकल, पथ की बाधाएं सकीं न छल तो छोड़ सभी कुछ पड़े निकल, तप किया घोर अरु रहे अचल जिस भांति मिले जग-दुख का हल, सर्दी, गर्मी, वर्षा का जल खोजूगा, निश्चय किया अटल ।। सब झेला, तदपि रहे निश्चल ( 2 ) ( 4 ) वय तीस वर्ष ही थी केवल, था प्रात्म-तेज का अतुलित बल जब होती है कामना प्रबल, बिन मार्ग मिले थी तनिक न कल प्रति करता है मन्मथ विह्वल, लगता था जिन जीवन निष्फल ऐसे में छोड़े भोग सकल ।। परु प्रायु घट रही थी प्रतिपल 1-6 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋतुओं ने चक्कर बारह चल जब पूर्ण किए, तप हुआ सफल सब संचित कर्म गये खिर-गल अरु ज्ञान प्रकाशित हुआ सकल ( 11 ) सरवर में प्रमुदित हुए कमल गुन-गुन गूजे भोरे चंचल मधुबन में कुहुक उठी कोयल अरु शांत हुआ जगती का तल ( 12 ) जनता तब उमडी दल की दल नर-नारी, बच्चे, सबल-निबल करने को अपना जन्म सफल प्रभु दर्शन के हित पड़े निकल सारी बाधाएं जातीं टल, निश्चय जब अपना ही अविचल प्रभु का निश्चय था अडिग अटल कैवल्य ज्ञान का खिला कमल थिर हुई दमक दामिनी चपल जुगनू चमके झलमल-झलमल तारे झांके टलमल-टलमल अरु हुप्रा पूर्व का अरुणाचल ( 13 ) सब दिग्पालादिक गए संभल निज-निज यानों पर देव सकल दौड़े, लखने प्रभु सुछवि विमल रह गये अगर-जीवन निष्फल ( 14 ) दुष्टों ने हाथ घिसे मल-मल नहिं शोषण पीड़न सकता चल आश्चर्य ! कई खल गए बदल उनके भी भाव हुए निर्मल उड चली खबर यों शीघ्र मचल बन में ज्यों फैले दावानल रवि उदय हुए ज्यों खिलें कमल त्यों प्राणी हुए मुदित, विह्वल (१ ) पालोकित हुए सभी जल-थल सब कूप-बावड़ी हुए सजल सुरभित मलयानिल चली मचल वन-उपवन भी हो गए सफल . ( 15 ) जय-जय कहते गिरि विपुलाचल सब पहुंच गए तब पायी कल उद्ग्रीव, उझक पंजों के बल कुल निरख रहे प्रभु सुछवि विमल ( 10 ) सरिताएं उमंग बहीं कल-काल खग-कुल ने गाए गान विमल जल-थल-चर नाचे उछल-उछल प्राणी निर्भय हो गए सकल ।। ( 16 ) नयनों में डब-डब भक्ति तरल था धन-धन्य का कोलाहल वचनामृत प्राशा डोरी से बस बंधे थे हृदय सकल 1-7 महावीर जयन्ती स्मारिका 17 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 17 ) वाणी प्रभु खिरी मची हलचल मिथ्यामत-वादी गये दहल गिर गये सभी बालुका महल पशु-बलि प्रादिक नहिं सकती चल ( 18 ) दुष्टों को लगते सुजन गरल विहँसे जिनके थे हृदय सरल भविजन को प्राप्त हुना संबल प्रभु वाणी सुन भव किया सफल ( 19 ) जग में नहिं कोई वस्तु प्रटल पर्यायें क्षण-क्षण रहीं बदल फिर कैसा मद, काहे का बल भव-बन में फिरता जीव विकल ( 20 ) जग-भोग भयानक है दलदल जितना खींचो, धसता पग तल तप, ज्ञान-ध्यान से जाते जल जब कर्म, मिले तब मोक्ष महल ( 21 ) दश धर्म, विनय, सत, संयम से व्यवहार लोक का सकता चल यों मिले बहुत प्रश्नों के हल जिनमत की फैली कीर्ति धवल ( 22 ) प्रभु तीन दशान्दी पैदल चल जन-जन को बोध दिया निर्मल संसृति अशोक जब हुई सकल प्रभु भी जा तिष्ठे मोक्ष महल एक पद कजरी बनारसी-ताल त्रिताल हमारी अर्ज सुनो महावीर । निशि वासर प्रभु ध्यान तुम्हारो, चरणन में चित लाग्यो हमारो। जब ते मरत नेना निरखी, दूर भई सब पीर हमारी०॥ हाथ जोड़ मैं शीस नमाऊ, पुनि पुनि प्रभु ये अवसर पाऊ। अरज प्रभु इस व्यथित हृदय की कटे करम जंजीर हमारी॥ 1-8 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभात फेरी महावीर जयन्ती समारोह 1976 विशाल जुलूस की एक झांकी Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 爱 भगवान् महावीर ने केवल एक पाप बताया था और वह था हिंसा । शेष 4 पाप तो हिंसा के ही भेद हैं। वे तब तक पाप नहीं जब तक कि उनमें हिंसा सम्मिलित नहीं हो । इसलिए प्रात्मोत्थान के लिए हिंसा से बचना प्रौर कषायों को क्षय करना श्रावश्यक है । यह ही भगवान् महावीर के उपदेशों का, जिनागम का संक्षेप है । अहिंसा के प्रतीक महावीर वर्तमान जैन संस्कृति के संस्थापक तीर्थंङ्कर ऋषभदेव की परम्परा में तीर्थङ्कर भ० महावीर प्रतिम कड़ी हैं । प्राचीन लिच्छवि गणतंत्र की राजधानी वैशाली में राजा सिद्धार्थ और राजमहिषी त्रिशला देवी के यहां उनका जन्म हुआ । राजघराने की विपुल वैभव सामग्रियों से सम्पन्न होने पर भी उन्होंने 30 वर्ष की पूर्ण यौवनावस्था में संसार और शरीर भोगों से विरक्त हो दिगम्बरी दीक्षा धारण की। 28 मूलगुणों का पालन करते हुए कठोर - जिन श्रमरण मार्ग का अनुसरण किया । एकान्त दुर्गम और बीहड़ वनों में जाकर उन्होंने श्रात्मसाधना की । अनार्य और श्रातताइयों द्वारा किये गये विभिन्न प्रकार के उपसर्गों को समभाव पूर्वक सहन किया । द्वादश वर्ष की अनवरत महासाधना के पश्चात् उन्होंने कैवल्य की प्राप्ति की । * पं० सुभाषचन्द्र दर्शनाचार्य, श्रीमहावीरजी दूसरों पर करना है उसे पहले स्वयं पर ही करके दिखाया जाय दूसरों को कल्याण का उपदेश देने से पूर्व अपना ही कल्याण किया जाय । उन्होंने किया भी ऐसा ही । श्रात्म-कल्याण के सारे प्रयोग पहले उन्होंने स्वयं पर किये बाद में जाकर दूसरों को उनका उपदेश दिया । केवलज्ञान प्राप्त हो जाने के अनन्तर भगवान् महावीर 30 वर्ष तक भारतवर्ष के विभिन्न प्रदेशों में विशेषकर बिहार प्रदेश में विहार करते हुए जीवों को उपदेश देते रहे। उन्होंने दूसरों को उपदेश देने से पूर्व स्वयं को ही ज्ञानपुञ्जों से आलोकित करना ठीक समझा । उन्होंने सोचा कि जो प्रयोग मुझे महावीर जयन्ती स्मारिका 77 प्र० सम्पादक त्रिशतृवर्षीय सुदीर्घ देशनावधि में तीर्थङ्कर भगवान् महावीर ने लोकोदय की भावना से अनुप्राणित वही उपदेश दिये जिनकों उन्होंने अपने आप में पूर्णरूप से आत्मसात् किया था। उनके उपदेश लोकोदय से कल्याणोदय पर्यन्त सामञ्जस्यपूर्ण थे । मोटे तौर पर अहिंसा, समानता, श्रनेकान्त, श्रात्मस्वातंत्र्य, कषायमुक्ति आदि महावीर के मुख्योपदेश कहे जा सकते हैं । विशाल भारत के विस्तृत वसुधा खण्ड पर तीर्थङ्कर महावीर द्वारा पुर्नस्थापित श्रहिंसा ही एक ऐसा तत्व है जिसकी सुदृढ़ नींब पर महावीर के महावीरत्व या जैनत्व का प्रचल महाप्रासाद लड़ा हुआ है । यदि महावीर के जीवन में से श्रहिंसातत्व को निकाल दिया जाये तो उसमें कुछ भी अवशेष नहीं बचेगा । महावीर के उपदेशों में सर्वाधिक 1-9 Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठा श्रहिंसोपदेश की ही है । महावीर श्रीर अहिंसा एक दूसरे के प्रतीक हैं- एक दूसरे के पर्यायवाची हैं । विश्ववंद्य बापू ने एक बार कहा था-'यदि प्राज कोई महावीर को जानता है तो बस उनकी हिंसा के ही कारण ।" श्रहिंसा तत्व की यद्यपि सभी धर्मों में प्रतिष्ठा के साथ व्याख्या की गई है तो भी इसकी अतुल गहराइयों में महावीर ही जा पाये, तलस्पर्श तो महावीर ने ही किया, बाकी सभी उथले (कम गहरे ) से ही लौट आये। तभी तो जैन दर्शन में इसके रूपों की विवेचना प्राप्य है । महावीर ने कहा था कि सभी जीवों की प्रात्मा समान है । सभी जीव जीना पसन्द करते हैं मरने की कोई भी इच्छा नहीं करता, साथ ही सभी जीवों को जीने का अधिकार है। यदि कोई जीव किसी श्रन्य जीव की हिंसा करता है तो सबसे पहले वह उसकी अपनी ही हिंसा करता है अतः किसी भी जीव की हिंसा मत करो, वध मत करो, पीड़ा मत पहुंचाश्रो सभी जीवों के साथ मैत्री भाव रखो इसी में कल्याण है । असमानता के विरोध में महावीर ने समानता की आवाज उठाई । मानववाद का अभियान चलाया। उन्होंने कहा सभी मनुष्य समान हैं । कोई भी मानव किसी वर्ग जाति-पांति या रूप-रंग के आधार पर ऊंचा नीचा नहीं है ये सारे भेद मानव के स्वयं निर्मित हैं अतः किसी को भी अपने से हीन मत समझो | सभी बराबर हैं । सत्य अनेकान्तात्मक है । कोई एक कथन किसी एक दृष्टि से सत्य है तो उससे विपरीत कथन भी किसी दूसरी दृष्टि से सत्य होता है । इसीलिये परस्पर विरोधी दो दृष्टिकोणों के बीच भी सामञ्जस्य का द्वार खुला रहता है । एतदर्थं उन्होंने ऐकान्तिक दृष्टि का परित्याग कर सभी के साथ शांतिपूर्ण सह अस्तित्व की भावना बनाये रखने पर जोर दिया । भगवान् महावीर जिस समय हुए उस समय 1-10 हुए देश में विभिन्न प्रकार के मत-मतान्तरों का प्रचार प्रसार चल रहा था । श्रात्मा के सम्बन्ध में भी लोगों में कई तरह की भ्रान्त दृष्टियां व्याप्त थीं । श्रतः इस सम्बन्ध में भी उन्होंने श्रपना स्पष्ट श्रौर सुलझा हुआ विचार- वास्तविक मान्यता तत्कालीन समाज के सामने पेश की । उन्होंने कहा श्रात्मा की स्वतन्त्र सत्ता है - प्रात्मा एक वास्तविकता है । उसका निर्माण किसी अन्य द्रव्य से नहीं हुआ है और न ही वह किसी अन्य द्रव्य के उत्पादन में सक्षम है । शरीर के साथ प्रात्मा का संयोग होते भी वह शरीर से एकदम भिन्न है जो अनादिकाल से जन्ममृत्यु के प्रावर्त में चक्कर लगा रही है और उनसे क्लेशित होती रहती है । संसार का चक्र प्रात्मा के लिये बड़ा दुःखदायी है । जो श्रात्मा संसार के चक्र से निकल जाती है वह पूर्ण रूपेण स्वतन्त्र हो जाती है और उसका दुःखों का अनादि अनवरत सिलसिला सदा के लिये समाप्त हो जाता है । श्रतः हे प्राणी ! तुम स्वयं अपने भाग्य के विधाता और अनन्त शक्ति के पुञ्ज हो अपने शुभाशुभ कर्मों के द्वारा ही तुम अपना अच्छा और बुरा कर सकते हो । अपने कर्मों के भोक्ता स्वयं तुम ही हो । अतः प्रपने पुरुषार्थ के द्वारा अपनी श्रात्मा को स्वतन्त्र करो - अनन्तकाल से संसारावर्तन में चक्कर लगा रही श्रात्मा का उद्धार करो। उसे बन्धन से निकालो और स्वतन्त्र करो - प्रात्मानन्द की अनुभूति को प्राप्त करो । कषाय मुक्ति के बारे में लोगों की श्रन्तश्चेतना को उबुद्ध करते हुए उन्होंने कहाराग और द्वेष श्रात्मा के ये दोनों ऐसे शत्रु हैं जो उसे सदा संसार में बांधे हैं कभी भी छूटने नहीं देते । इन दोनों का बन्ध ही संसार का बड़ा कारण है । अतः उससे छूटने के लिये क्रोध, मान, मायादि रूप कषायों को छोडो और सुखी होप्रो क्योंकि कषायों को छोड़ने वाला ही संसार छेदकर परमसुख और अनन्त शांति की प्राप्ति करता है । महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस विश्व में परस्पर विरोधी गुणों वाले दो पदार्थ मिलते हैं1. चेतन, 2. जड़। जैनदर्शन में चेतना गुण वाले द्रव्य को जीव नाम से अभिहित किया जाता है । पुद्गल, धर्म, अधर्म, प्राकाश और काल ये पांच द्रव्य चेतना विहीन हैं। इनमें से केवल पुद्गल ही क्रियाशील है । सांसारिक अवस्था में जीव का पुद्गल के साथ सयोग रहता है। जीव का और पुद्गल का संबंध विच्छेद होने पर जोब को जो शूद्ध अवस्था होती है वह ही मोक्ष है । विदरी लेखिका ने जीव की दोनों प्रवस्थानों का किञ्चित् वर्णन इन पंक्तियों में किया है। प्र० सम्पादक भौतिक जगत् और मोक्ष (जैन-दर्शन में मान्य 'प्रात्मा' के सन्दर्भ में) * कुमारी प्रीति जैन, शोध छात्रा, जयपुर इस विशाल विश्व के किसी भी प्रश पर जैन-दर्शन के अनुसार संक्षेप में जीव-द्रव्य का दृष्टिपात करने पर हमें केवल दो ही प्रकार की स्वरूप हैं। सत्तायें दृष्टिगोचर होती हैं-1. चेतन और दूसरी __“जीव: उपयोगमयः प्रमूर्ति कर्ता स्वदेहपरिमाणः 2. जड़ । साधारण भाषा में चेतन सत्ता' का तात्पर्य प्रात्मा प्रथवा जीव से और 'जड़' का अचेतन से, भोक्ता संसारस्थः सिद्धः सः विस्रसा ऊर्ध्वगतिः ।" प्रजीव से; और दार्शनिक सन्दर्भ में 'चेतन' का (द्रव्य संग्रह गा. 2) तात्पर्य प्राध्यात्मिकता से व 'जड़' का तात्पर्य अर्थात् जो (चार प्राणों से) जीता है, उपयोगभौतिकता से है। मय है, प्रमूर्तिक है, कर्ता-भोक्ता है, स्वदेह परिणाम वाला है, संसारस्थ है (संसार में स्थिति रखने वाला जैन-दर्शन के अनुसार 'चेतनसत्ता' केवल है), सिद्ध होने की शक्ति युक्त है, स्वभाव से उर्ध्वप्रात्मा या जीव है, इसके कोई भेद नहीं हैं, किन्तु गति को जानेवाला है, साथ ही जिसमें ज्ञान, दर्शन, अचेतन (जड़) सत्ता के पांच भेद हैं-पुद्गल, धर्म, वीर्य सुख प्रादि गुण हैं वहीं जीव है, चेतन है प्रधर्म, अाकाश और काल। जैनागम में इन्हें द्रव्य और जिसमें रूप, रस, गन्ध तथा स्पर्श गुण कहा जाता है, इस प्रकार कुल छः द्रव्य हैं । इन हों वह पुद्गल है; रूप, रस, गंध तथा स्पर्श गुण छहों द्रव्यों में क्रियाशील द्रव्य जीव व पुद्गल ही हैं, युक्त होने के कारण पुद्गल मूर्तिक (जो प्रांखों द्वारा शेष चारों द्रव्य निष्क्रिय हैं, गतिहीन हैं । अतः देखा जा सके) द्रव्य है। मूल रूप से पुद्गल परमाणु चेतना का प्रसार जीव द्रव्य से और जड़ता का रूप है, किन्तु अनेक पुद्गल परमाणुनों का संघात प्रसार पुद्गल द्रव्य से ही है। भी होता है, परमाणुओं का संघात स्कन्ध कहलाता महावीर जयन्ती स्मारिका 77 1-11 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। शब्द, बन्ध, सूक्ष्मता, स्थूलता, संस्थान, भेद, बन्धनों से मुक्त होना । प्रात्मा का अपने शुद्धरूप अंधकार, छाया, प्रकाश, पातप (गर्मी) आदि में निज रूप में, स्वभाव में अपनी स्वतन्त्र सत्ता पुद्गल द्रव्य की पर्यायें हैं, (त. सू-5/24; द्रव्य लिए हुए स्थित रहना ही मोक्ष है, मुक्ति है। यह संग्रह-16 । प्रात्मा की पूर्णता की स्थिति है। मुक्तावस्था में जब इस विश्व में फैली हुइ वस्तुओं पर दृष्टि प्रात्मा के ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य प्रादि स्वाभाविक पात करते हैं तब प्रत्येक वस्तू रूप, रस, गंध तथा गुण विकसित हो जाते हैं। मुक्त हो जाने के बाद स्पर्श से युक्त और शब्द, बंध, सूक्ष्मता, स्थूलता, जम्म-मरण, रोग शोक, दु.ख भय आदि बाधायें समाप्त हो जाती हैं। क्योंकि ये सब बाधायें कर्मसंस्थान, भेद, अन्धकार, छाया, प्रकाश, पातप स्थितियों में ही प्राप्त होती है। अतः यह ज्ञात जनित बाधायें हैं, देह के साथ उत्पन्न होने वाली होता है कि यह समस्त दृश्य-जगत पुद्गल का ही बाधायें हैं, मुक्तावस्था में जब कर्म ही नष्ट हो जायेंगे तब कर्म जनित अवस्थायें कैसे रह विस्तार है। सकती हैं ? आधुनिक विज्ञान की पुस्तकों के अनुसार ध्वनि, ऊष्मा, प्रकाश आदि ऊर्जायें भौतिकता की प्रतीक ___इस प्रकार भौतिक जगत् और मोक्ष मात्मा हैं, इन ऊर्जाओं के कारण ही यह जगत् भौतिक की दो अवस्थायें हुई', किन्तु दोनों एक दूसरे से जगत् कहलाता है । शब्द, प्रातप, प्रकाश प्रादि ये नितान्त विरोधी हैं । भौतिक जगत् नश्वरता अर्थात् भौतिक ऊर्जायें पुद्गल की पर्यायें प्रथवा स्थितियां जन्म और मृत्यु का प्रतिनिधि है तो मोक्ष इसके हो तो PHAT faarg मरा मत विपरीत शाश्वतता का प्रतीक है। भौतिक जगत् पौद्गलिक है; अर्थात् यह दृश्य जगत् भौतिक जगत् दृष्ट है और मोक्ष अदृष्ट, अतः अनन्त पुद्गल परमाणुषों के स्कन्धों का बनाव है। इनके अस्तित्व व सत्यता के बारे में जिज्ञासा होती मोतिकता का क्षेत्र समस्त भौतिक-जगत् है किन्तु है। इस सम्बन्ध में भारतीय दार्शनिकों में मतप्राध्यात्मिकता केवल प्रात्मा तक ही सीमित है, वैभिन्य है । एक मोर चार्वाक दार्शनिक दृष्ट-भौतिक क्योंकि प्राध्यत्मिकता की प्राधारभित्ति प्रात्मा ही जगत को ही सत्य अथवा अस्तित्वशील मानते हैं, है, जिसकी चरम परिणति मोक्ष है। उनके अनुसार मोक्षावस्था कोरी कल्पना है। इसके ___ 'मोक्ष' प्रात्मा की स्वाभाविक और सांसारिक विपरीत अद्वैतवेदान्त दार्शनिकों का कहना है कि अवस्था उसकी वैभाविक स्थिति है। स्वाभाविक 'ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या' अर्थात् मोक्ष ही सत्य है, स्थिति में प्रात्मा शुद्ध रूप में होती है, उसका गट प में होती है, उसका अस्तित्वशील है, यह भौतिक जगत् मिथ्या है, भ्रम किसी अन्य द्रव्य अर्थात पूगल के साथ संयोग है सत्यता का प्राभास है। नहीं रहता जबकि वैभाविक स्थिति में प्रात्मा का उपरोक्त दोनों स्थितियां एक दूसरे से नितान्त पुद्गल के साथ संयोग रहता है। जब तक आत्मा का विरुद्ध स्थितियां हैं. दो छोर है, रुतियां पुदगल के साथ संयोग रहता है तब तक वह भौतिक (extremes) हैं। किन्तु जैन-दर्शन इन दोनों प्रतियों जगत की सीमा में रहती है, किन्तु जब आत्मा का (extremes) को अपने अन्दर समेटे हुए है। पुद्गल से वियोग हो जाता है तब ही वह शुद्ध उसके अनुसार यह भौतिक जगत् और मोक्ष दोनों अवस्था में स्थित होती है और प्रात्मा की यह शुद्ध ही सत्य हैं, अस्तित्वशील हैं। क्योंकि यह जगत अवस्था ही तो मोक्ष है; क्योंकि मोक्ष का अर्थ है पोद्गलिक है, पुद्गल का विस्तार है। पुद्गल छूटना, मुक्त होना अर्थात् प्रात्मा का समस्त कर्म द्रव्य है, जैन-दर्शन के अनुसार द्रव्य सत् है, अस्ति 1-12 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्वशील है (सत् द्रव्यलक्षणम्, त० सू० 5/29) अनन्त, सुख चाहें दुख ते भयवन्त" । प्रत्येक प्राणा अतः यह पौद्गलिक जगत् भी सत्य है अस्तित्वशील इष्ट वियोग, अनिष्ट-संयोग, राग द्वेष से पीड़ित है, है; और मोक्ष जो प्रात्मा की शुद्धावस्था है, चरम- दुखी है, अतः वह सुख प्राप्ति व दुःख निवृति की परिणति है, वह भी सत्य है, अस्तित्वशील है, चेष्टा करता है । इसके लिये वह नये-नये साधनों क्योंकि प्रात्मा भी द्रव्य है, जब द्रव्य अस्तित्वशील की खोज करता है उनकी प्राप्ति के लिये एड़ी-चोटी है तो आत्मा भी अस्तित्वशील है व प्रात्मा की का पसीना बहा देता है, अधिक से अधिक साधन शुद्धावस्था मोक्ष भी सत् है । जुटाना चाहता है, उसके सारे प्रयत्न येन-केनजब दोनों स्थितियां मन तो प्रश्न उठता प्रकारेण सुख प्राप्ति के लिये ही होते हैं । इसी कि प्रात्मा के लिए श्रेयस क्या है. श्रेष्ठ क्या है ? भावना से वशीभूत प्राज प्राणी ने एक से एक क्योंकि केवल प्रात्मद्रव्य ही चेतनद्रव्य है, कर्ता- प्राश्चर्य जनक वस्तुओं का निर्माण कर जीवन के भोक्ता है प्रतः समस्त भौतिकता व प्राध्यात्मिकता प्रत्येक क्षेत्र में सुख-सुविधाओं का सम्बार लगा दिया की उपादेयता केवल प्रात्मद्रव्य के सन्दर्भ में ही है। है, ऐसा प्रतीत होता है कि शायद उसने अपने अतः यहाँ मूल्यात्मक दृष्टिकोण से विचार करना लक्ष्य, सुख-प्राप्ति में पूर्णता करली हो। किन्तु होगा कि प्रात्मा के लिए मूल्यवान् क्या है ? सुख-शान्ति के भौतिक साधनों की बढ़ोतरी के बावजूद भी वह सुखी नहीं है । सुख प्राप्ति की __ मूल्य के प्रत्येक निर्णय में प्रात्मा की सन्तुष्टि- दिशा में प्राज भी वह वहीं है जहां से वह चला असन्तुष्टि अन्तनिहित होती है । मूल्य-निर्णय में हेय था, अथवा शायद आज वह पूर्वापेक्षा अधिक दुःखी पोर उपादेय का निर्णय प्रावश्यक है। मूल्य, लक्ष्य है, संत्रस्त है, भयभीत है, क्योंकि उसकी खोजें, प्राप्ति में सहायक है, क्योंकि जीव उसी को मूल्य उसके प्रयास और उसके द्वारा प्राप्त साधन, सभी प्रदान करता है जिसे वह प्राप्त करना चाहता है, भौतिकता की पोर झुके हुये हैं, सभी साधन भौतिक जो उसका प्राप्तव्य है। प्रात्मा के लिए वही है। भौतिक समृद्धि नश्वर हैं, सीमित हैं, अस्थायी मूल्यवान् है, श्रेयस् है जो उसके लक्ष्य मे साधक हैं। हम देखते हैं कि जो वस्तु प्राज सुख प्रदान हो, उसके अभीष्ट की पूर्ति करे और परमश्रे यस् करती है, वही कल दुःख उत्पन्न करने लगती है । वह है जो सर्व प्रकार उपादेय है । सामान्यतः जबकि वह चाहता है कि उसका सुख अपरिमित प्रत्येक जीवका लक्ष्य पृथक्-पृथक् है, हो, कभी न समाप्त होने वाला हो; और सुख की में भी देखा जाता है कि कोई शिक्षा-प्राप्ति को परिभाषा भी तो यही है कि जो प्राकुलता रहित अपना लक्ष्य मान उसे मूल्यवान् समझता है तो हो. स्थायी हो. जिसके बाद फिर किसी प्रकार का कोई धन-प्राप्ति मूल्यवान् समझता है और कोई दु ख शेष न रहे (पंचाध्यायी उत्तरार्ध-224), मान-प्रतिष्ठा को ही मूल्यवान् समझता है, किन्तु सब प्रकार की बाधायें दूर हो जायें किन्तु भौतिकता इन सभी मूल्यों में एक बात समान रूप से अन्त _इतनी समर्थ नहीं है। प्राज पाश्चात्य देशवासी निहित है सुख प्राप्ति की इच्छा, सुख प्राप्ति का भौतिक-साधनों से सम्पन्न होते हये भी विकलता लक्ष्य; क्योंकि शिक्षा प्राप्ति, धन-प्राप्ति, पद का अनुभव कर रहे हैं, जीवन की बढ़ती असुरक्षा प्रतिष्ठा पाने की इच्छा अन्ततोगत्वा सुख प्राप्ति की के कारण भयभीत हैं, पलायन की ओर उन्मुख हैं। इच्छा पर ही प्राधारित है, अर्थात प्रत्येक जीव सुख इससे ज्ञात होता है कि प्राणी को जिस सन्तोष, का अभिलाषी है. दुख से भयभीत है । पं० सुख व शान्ति की कामना है, खोज है वह भौतिकता दौलतरामजी ने कहा भी है-"जे त्रिभुवन में जीव से प्राप्त नहीं है । वस्तुतः भौतिकता निराकुल सुख महावीर जयन्ती स्मारिका " 1-13 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रदान करने में सर्वथा असमर्थ है, बल्कि वह तो दुःख के जनक राग और द्वेष को और बढ़ावा देती है । इसका तात्पर्य यह नहीं है कि भौतिक जगत् मूल्य रहित है या भौतिकता मूल्य प्राप्ति में साधक नहीं है; कितने ही मूल्य भौतिकता के माध्यम से ही प्राप्त होते हैं किन्तु फिर भी वह (भौतिकता) परम श्रेयस् (ult mate good ) की प्राप्ति में बाधक है अतः हेय है । प्रश्न उठता है कि तब श्रात्मा के लिये, प्राणी के लिये उपादेय क्या है ? उसे सुख की प्राप्ति, परमश्रेयस की प्राप्ति वहां से हो सकती है ? कैसे हो सकती है ? आत्मा एक स्वतन्त्र द्रव्य है किन्तु सांसारिक प्रारणी पुद्गल कर्मों से जकड़ा हुआ है, पुद्गल द्रव्य श्रात्मद्रव्य से सर्वथा भिन्न एक पृथक् द्रव्य है; श्रीर दो नितान्त विरोधी द्रव्यों का संयोग कदापि सुखकारी नहीं हो सकता । इस संयोग से श्रात्मा स्वभाव भूल गई है, उसके ज्ञान, दर्शन आदि गुण मलिन पड़ गये है, वह अशुद्धावस्था में है । प्रत्येक वस्तु जब अपने शुद्ध रूप में होती है तभी वह मूल्यवान होती है, उपादेय होती है और अपने लक्ष्य को भी तभी प्राप्त कर सकती है। दूध को ही लें जब वह युद्ध होता है, जलमिश्रित नहीं होता तभी वह उपादेय गुणकारी व मूल्यवान होता है और तभी वह अपने लक्ष्य में भी सफल होता है | अतः श्रात्मा भी जब अपने शुद्ध रूप में स्थित होगी तभी परम आनन्द का अनुभव कर सकेगी, इसके लिये उसे स्वरूप जानना होगा, अपनी आत्मा में ही लीन हो 'पर' से ममत्व त्यागना होगा 'स्व-पर' भेद विज्ञान को जानना होगा तभी वह नैसर्गिक सुख को प्राप्त कर सकती है । वस्तुतः भौतिकता निराकुल सुख की प्राप्ति में बाधक है, क्योंकि सुख तो आत्मा का अपना गुरण है, किन्तु वह पौद्गलिक कर्मों से प्रावृत होने के कारण मलिन हो रहा है, श्रतः जब तक श्रात्मा के साथ भौतिकता अथवा पौगलिक कर्मों का किंचित् श्रंश भी रहेगा तब तक मात्मा सुख प्राप्त नहीं कर सकती । जिस क्षण 1-14 श्रात्मा का भौतिकता से साथ छूट जायेगा उसी क्षण सुख का अजस्र स्रोत फूट पड़ेगा श्रीर शान्ति की अविरल धारा बह निकलेगी । श्रात्मा अपने सहज रूप में, निज रूप में, स्वभाव में स्थित हो जायेगी; वही स्थिति तो मोक्ष है, मुक्ति है। वहां आकुलता का, राग-द्वेष का प्रवेश नहीं है । वहां श्रात्मा के सब बंधन निबंन्ध हो जाते हैं, वहां न तर्क की गति है, न उसे हमारी भौतिकता से पगी हुई बुद्धि ही ग्रहण कर सकती | अर्थात् परमश्र ेयस् की प्राप्ति 'प्राध्यात्मिकता' से ही हो सकती है, भौतिकता से नहीं । इसीलिये भारतीय मनीषा हजारों वर्षों से भौतिकता के प्रति असन्तोष प्रकट करती प्रा रही है. इसी कारणवश उसे (भारतीय मनीषा को) घोर निराशावादी कहा जाता रहा है; किन्तु ऐसा कहना नितान्त एकांगी दृष्टिकोण का परिचायक है क्योंकि दूसरी ओर वे शाश्वत सत्य व पूर्ण सुख के राज्य में जाने का मार्ग भी तो प्रशस्त करते हैं, जो परम श्राशा का प्रतीक है । साधारणतः प्रत्येक प्राणी के प्रन्तस् में ऐसे अपरिमित सुख की प्राप्ति के प्रति सन्देह उत्पन्न होता है किन्तु जैन दार्शनिक तो आत्मा की नैसर्गिक अनन्त सामर्थ्य में गम्भीर विश्वास रखते हैं, अतः वे प्राणी मात्र को श्राशा का सन्देश व स्वावलम्बन की प्रशसनीय शिक्षा देते हैं और सुख प्राप्ति का पथ भी उद्घाटित करते हैं। श्रावश्यकता है उस पथ के पथिक बनने की, एक बार पथ पर बढ़ कर देखें तो, सन्देश स्वमेव विश्वास में, अनुभव में परिणत हो जायेगा । केवल प्रयत्न की आवश्यकता है, प्राध्यात्मिकता की शरण जाने के बाद सुख की प्राप्ति निश्चित है । अतः यदि हम वास्तव सुख चाहते हैं तो हमें श्राध्यात्मिकता ही की शरण में जाना होगा, इसी से हमारे गन्तव्य, हमारी मंजिल 'मोक्ष' की प्राप्ति हो सकेगी अन्यथा यह विशाल भौतिक जगत् ही हमारी नियति बन कर रह जायेगा, जहां हम बहुरुपिये की भाँति एक के बाद एक भेष धारण करते रहेंगे, जन्म-धारण करते रहेंगे और मृत्यु की गोद में जाते रहेंगे। 2 में महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जितने भी प्रास्तिक दर्शन हैं वे मानव का लक्ष्य निर्वाण प्राप्ति स्वीकार करते हैं। मानव के चार पुरुषार्थों में वह अन्तिम है। पुरुषार्थ धर्म से प्रारंभ होते हैं। निर्वाण प्राप्ति के लिए धर्म की साधना अनिवार्य है। जैन और बौद्ध दर्शन इस दृष्टि से समान हैं कि दोनों ही ईश्वर को कर्ता धर्ता नहीं मानते । फलतः दोनों को ही मान्यता है कि मानव अपने प्रयत्नों, अपनी साधना से निर्वाण की प्राप्ति कर सकता है। दोनों दर्शनों की वह साधनापद्धति क्या है ? इसकी जानकारी संक्षेप में विद्वान् लेखक को इन पंक्तियों से प्राप्त कीजिए। प्र० सम्पादक जैन-बौद्ध साधना पद्धति : • श्री उदयचन्द्र 'प्रभाकर' शास्त्री, इन्दौर भारतीय दर्शन की विचारधारा आध्यात्मिकता ज्ञानरूप है। जीव एक ही तत्व है। जो ज्ञान है से मोतप्रोत है, जिसके पथ का अनुसरण कर वही जीव है, जो जीव है, वही ज्ञान है। जीव से मानव ने अपने कालुष्य को धोकर निर्वाण या मोक्ष पृथक् ज्ञान नहीं है। ज्ञान जीव का विशेषण नहीं, या कंवल्य को प्राप्त कर लिया। कैवल्य या मोक्ष अपितु स्वरूप है। की दशा में मानव को प्रात्म-स्वरूप का बोध हो आचार मीमांसा :-भारतीय दर्शन का मूल जाता है और प्रात्मा ही परमात्मा का रूप धारण __ लक्ष्य है मुक्ति या मोक्ष । सभी ने कर्मबंधनों से कर लेता है। उसका जन्म-जन्मातर का भव-भ्रमण मुक्ति या दुःख से विमुक्ति होने को मोक्ष कहा है। मिट जाता है। यहां इस बात का निर्देश करना है जैन दर्शन में रत्नत्रय -सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान कि जैन-बौद्ध धर्म ने कौन से साधन मुक्ति के लिए मोर सम्यक चारित्र की योग्यता प्राप्त होने पर प्रयोग किये, जिससे संसार चक्र की अवस्था समाप्त मोक्ष प्राप्त हो जाता है। अत: मोक्ष के साधन हैं हो जाय । दोनों ही दर्शन अपने-अपने क्षेत्र में प्रसिद्ध कर्मों की निर्जरा के लिए 1. पञ्चमहाव्रत, हैं। जहां जैनों ने रत्नत्रय को प्रधान कहा, वहां 2. समिति, 3. गुप्ति, 4. धर्म, 5. अनुप्रेक्षा, बौद्धों ने निर्वाण प्राप्ति के लिए अष्टांगमार्ग का 6. परिषहजय और 7. चारित्र । ये उपाय हैं। निर्देश किया। दोनों ने अहिंसा को महत्व दिया या महावीर की आधार मीमांसा इसी आधार पर और ब्रह्मचयं पर विशेष जोर दिया है। टिकी हुई है। हिंसादि कार्यों को दोनों ने हेय माना। कर्म- आधुनिक संदर्भ में अहिंसा कहां तक सफल वाद और पुनर्जन्म का सिद्धान्त भी स्वीकार किया। है, यह तो इसी बात से प्रत्यक्ष हो जाता है कि परन्तु कुछ मान्यताओं को जो जनों ने स्वीकार सभी प्राणी अभय चाहते हैं, चाहे चोरी करने की उसे बौद्धों ने नहीं। जैनदर्शन की प्राधारभूत वाला हो या अन्य अवैधानिक कार्य को करने शिला प्रात्म-तत्व या जीवतत्व है। यह जीव वाला। जहां हिंसक प्रवृत्ति मानव को पतन की महावीर जयन्ती स्मारिका 77 1-15 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओर ले जाती है वहां ग्रहिसक ऐसा साधन प्रस्तुत करता है कि जिससे मानव में करुणा का प्रवाह बह निकले क्या हम ऐसा व्यवहार कर रहे हैं ? इसका उत्तर दूसरे के पास खोजने की बजाय स्वयं के पास खोजना होंगे । "जणेण सद्धि होक्खामि " 'जो दूसरों का हाल होगा वह मेरा भी होगा ।' वह प्रज्ञानी ऐसा सोचने वाला हिंसा, झूठ, कपट, चुगली, धूर्तता आदि के स्वभाव को छोड़ सकेगा । परन्तु जो : समुद्दगंभीरसमा दुरासया, श्रचक्किया केरणइ दुप्पहंसया । सुयस्स पुण्णा विउलस्स ताइणो, वित्त कम्मं गइमुक्तमं गया ॥ श्रर्थात् समुद्र के समान गंभीर विचार वाला, दुर्जय, निर्भय किसी से नहीं दबने वाले विपुल श्रुतज्ञान से पूर्ण छ: काय के रक्षक होकर कर्मों को क्षय करके मोक्ष को प्राप्त होते हैं । अहिंसा वह है, जो सत्यान्वेषण के मार्ग की ओर ले जा सके । वह आत्म-तत्व ही सत्य है, जो हिंसक वातावरण से रहित है। उत्तरा० में आत्मा के विषय में लिखा है 'अप्पा नई वेयरणी, अप्पा मे कूडसामली । अप्पा कामदुहा घेणू, अप्पा मे नंदरांवरणं ॥ अर्थात् प्रात्मा ही संसार सागर से पार कराने वाली वैतरणी नदी के समान है, आत्मा ही कूट शाल्मली वृक्ष है, श्रात्मा ही कामधेनु है और यही नन्दन बन हैं। 'तुमेव मित्त' तुमेव सत्त' श्रेष्ठ प्राचार वाली श्रात्मा मित्र रूप है और दुराचार वाली प्रात्मा शत्रु है । इस गहराई का स्पर्श करने वाला श्रहिंसक विचार श्रीर क्या हो सकता । ऐसी बात महावीर ने कही ऐसा सोचकर उसको जीवन में भी तो उतारकर देखें । श्रौर जीवन को इस दिशा की प्रोर मोड़ दें । प्रतानं उपमं करवा न 1-16 हनेय्य न घातये । श्रर्थात् प्रपने समान सब जीवों को जानकर मनुष्य न किसी को मारे और न मारने की ओर प्रेरित करे। और गीता का यह कथन जीवन में चरितार्थ करे तो निश्चय ही सुखशांति की प्राप्ति संभव हो सकती : "नियतं कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः । कुरु शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मणः ॥ अर्थात् नियत किये हुए स्वधर्मं कर, क्योंकि न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर- निर्वाह भी नहीं हो सकता । स्याद्वाद अनेकांत की दृष्टि प्राचार-विचार से प्रतप्रोत है, हिंसक भाव का किंचित् भी स्थान नहीं । अत्याचार अनाचार की भावना मानव को मरुस्थली टीले पर खड़ा कर देती है, जो हवा के वेग से ढह जाने वाली हैं । प्रतः ऐसी वैचारिक दृष्टि को क्यों न अपनाया जाय, जिससे हमारी भाधार शिला मजबूत रहे । जीवन निराशा से पूर्ण है इसमें हर्ष, आनन्द और उल्लास किञ्चित् भी नहीं है । निराशा एवं दुःख की शान्ति के लिए बुद्ध ने चार आर्य सत्यों की प्रतिष्ठा की । जन्म, जरा, व्याधि एवं मृत्यु दुःख के कारण हैं । इन दुःखों की समाप्ति से परम सुख की प्राप्ति हो सकती । दुःख और दुःखों के कारणों से छुटकारा पाने के लिए बुद्ध ने ग्राष्टांगिक मार्ग का अनुसरण करने को कहा । 1. सम्यक् दृष्टि, 2. सम्यक् संकल्प, 3. सम्यक् वचन, 4. सम्यक् कर्मान्त, 5. सम्यक् प्रजीव, 6. सम्यक् व्यायाम, 7. सम्यक् सस्मृति श्रीर 8. सम्यक् समाधि इन प्राष्टांग मार्ग का अनुसरण कर मनुष्य स्वावलम्बी बन सकता है और ये ही साधना पद्धति के साधन हैं । परन्तु मनुष्य अपने किये गये पापों से अपने महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मापको मलिन करता रहता है। पर यह नहीं प्रतना संकिलिस्सति । अत्तना प्रकतं पापं अत्तना मालूम : हि विसुज्झति ।' अर्थात् अपने स्वयं के किये हए अत्ता हि भत्तनो नाथो को हि नाथो परो सिया। दुःखरूप पाप से स्वयं ही शुद्ध हो सकता है। प्रत्तना हि सुदन्तेन नाथं लभति दुल्लभं ॥ दोनों ही साधना पद्धति दुःखरूपी संसार के धम्मपद-160 कारणों से छुटकारा प्राप्त करने को कहती हैं । (प्रात्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ।) और इस बात पर विशेष जोर देती हैं कि जो गीता-6-5 संसार के भव भ्रमण से छूटना चाहता है, उसे बाह्य से हटकर अपनी प्रान्तरिक गहराई तक पर्थात् पाप ही अपने स्वामी हैं, दूसरा कौन पहुंचना अवश्य है। स्वयं के द्वारा खोजे हुए मार्ग स्वामी हो सकता है। अपने स्वयं को भली प्रकार का निर्देश दूसरों को सहज ही दिखला सकते हैं । से दमन कर लेने पर मनुष्य दुर्लभ स्वामी को महावीर-बुद्ध ने अपने मार्ग को पहले खोजा, बाद प्राप्त कर लेता है। 'सच तो यह है कि जितने में दूसरों को बतलाया, तभी तो ढाई हजार वर्ष भी दुःख के कारण हैं वे सभी स्वयं के द्वारा बाद भी उनकी साधना पद्धति का मार्ग माज भी उत्पन्न किये गये हैं । इसलिए 'प्रत्तना हि कतं पापं स्मरण किया जाता है । अपनी प्रात्मा के साथ ही युद्ध करना चाहिये। बाहरी शत्रुओं के साथ युद्ध करने से क्या लाभ ? स्वयं के द्वारा स्वयं को जीतने वाला ही यथार्थ में पूर्ण सुखी होता है। -भ. महाबीर प्रत्येक साधक नित्य प्रति यह चिन्तधन करे--मैंने क्या कर लिया है और अब क्या करना बाकी है । कोन सा ऐसा कार्य है जिसे मैं कर सकता हूँ किन्तु कर नहीं पा रहा हूँ। -भ० महावीर महावीर जयन्ती स्मारिका 77 1-17 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पित करनें अक्षत-चंवन * भी घासीराम जैन 'चन्द्र', शिवपुरी युग युग बीत गए तुम आये धरती पर पादप लहराये डार डार ने फूल चढ़ाये बजी दुदुभी स्वर्ग लोक में त्यु लोक ने हर्ष मनाये। कंचन बरसे, जन-मन हरर्षे किसी भूप के राजकुवर का जन्म हुआ था। प्रजा खुशी में नाच रही थी किसे ज्ञात था तब त्रिलोक से पूज्य बभेगा यह पालक प्रज्ञान-तिमिर को हरण करेगा वरण करेगा मुक्ति-रमा को। बड़े प्रेम से बड़े भाव से बुला रहे हम भगवन् प्रावो ! हमें ज्ञान के पाठ पढ़ावो किन्तु विराजित है घट-घट में वर्धमान उसको हमने कब पहिचाना है ? जो चिर-निद्रित मोह निशा के अंधकार में भटक रहा है अटक रहा भव भ्रमण जाल में उसे न मिलती त्रिशला माता सिद्धारथ-सा तात न पाया जम भरमाया उसे जगायो। बही वीर है. वर्धमान है, सन्मति है मतिधीर वही है महावीर यदि हम उसको पहिचानेंगे वर्धमान मिल जायं मिटेंगे भव-भव के अनादि के बंधन कर्म निकंदन तिहु'जग वन्दन त्रिशलानन्दन घट-घट व्यापक घट में बैठा प्रावो उसे समर्पित करदें अक्षत-चन्दन । 1-18 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 जैनधर्म में अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु ये पांच परमेष्ठी माने गये हैं । वे जैनों के उपासनीय देव हैं। श्रात्मसाधना द्वारा जो ज्ञानावररणी, दर्शनावरणी, मोहनीय और अन्तराय इन घातिया कर्मों का क्षय कर देते हैं वे प्ररिहन्त कहलाते हैं। इन प्ररिहन्तों में जो संसार के कल्याण को उत्कट भावना के कारण सोलहकाररण भावनाओं का चिन्तवन कर पूर्व जन्म में सातिशय पुण्य प्रकृति तीर्थंकर प्रकृति का बंध करते हैं वे तीर्थंकर बनते हैं। ऐसे तीर्थंकर प्रत्येक कालचक्र में केवल 24 हो हो सकते हैं । इनके ही पंच कल्याणक होते हैं । शेष के किसी के तीन, किसी के दो कल्याणक होते हैं । धर्म तीर्थ की प्रवृत्ति इन 24 तीर्थंकरों द्वारा ही होती है। इन कल्याणकों के स्वरूप और भगवान महावीर के पंच कल्याणकों के सम्बन्ध में इस रचना में जानकारी दी गई है । प्र० सम्पादक पंच कल्याणकों का स्वरूप और भगवान महावीर * श्री प्रादित्य प्रचण्डिया 'दीति' एम. ए., रिसर्च स्कॉलर, अलीगढ़ जैन वाङ्मय में प्रत्येक तीर्थङ्कर के जीवनकाल की पांच प्रसिद्ध एवं महत्वपूर्ण घटनायें परिलक्षित होती हैं। इन्हें 'पंच कल्याणक' नाम से सम्बोधित किया जाता है । ये कल्याणक जगत के लिए प्रत्यन्त कल्याणप्रद एवं मंगलकारी होते हैं । जो जन्म से ही तीर्थङ्कर प्रकृति के साथ अनुस्यूत हुये हैं उनके तो पांच ही कल्याणक होते हैं, परन्तु जिसने अन्तिम भव ही तीर्थङ्कर प्रकृति का बन्ध किया है उसके यथा संभव चार, तीन या दो कल्याणक ही होते हैं। इसका कारण यह है कि तीर्थङ्कर स्वभाव के प्रभाव में साधारण साधकों को ये कल्याणक नहीं होते हैं । जैन संस्कृति में अवतारवाद के लिए कोई अवसर नहीं है । जीव का स्व कर्मानुसार उत्तरोत्तर विकास हुआ करता है । कल्याणक जीव की श्रेष्ठ परिणति का द्योतक है। नव निर्मित जिन बिम्ब की शुद्धि हेतु जो पंचकल्याणक प्रतिष्ठा पाठ किये जाते हैं वह उसी महावीर जयन्ती स्मारिका 77 प्रधान पंच कल्याणक की कल्पना मात्र है । जिसके प्रतिष्ठापन से प्रभु प्रतिमा में वास्तविक तीथं की स्थापना होती है । अब यहाँ इन कल्याणकों का संक्षेप में विवेचन करेंगे । गर्भ कल्याणक : प्रभु के गर्भ में आने से छः माह पूर्व से लेकर जन्म पर्यन्त पन्द्रह माह तक उसके जन्म स्थान पर इन्द्र के कोषाध्यक्ष कुबेर द्वारा प्रतिदिन तीन बार साढ़े तीन करोड़ रत्नों का वर्षरण होता है। देवांगनायें माता की परिचर्या एवं गर्भशोधन करती हैं । गर्भवाले दिवस से पूर्व रात्रि को माता को सोलह उत्कृष्ट स्वप्नों के प्रभिदर्शन होते हैं । इन स्वप्नों पर प्रभु का अवतरण निश्चय कर माता-पिता मुदित होते हैं । जन्म कल्याणक : प्रभु का जन्म होता है । देवभवनों व स्वर्गों में अपने श्रा घण्टे बजने लगते हैं । इन्द्रों के प्रासन 1-19 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम्पायमान हो जाते हैं जिससे प्रभु के जन्म का निश्चय हो जाता है । इन्द्र व देव सभी का प्रभु जन्ग- महोत्सव मनाने हेतु बड़ी धूमधाम से इस भूलोक पर श्रागमन होता है । देवगण अपने-अपने स्थान पर ही सात पग आगे जाकर प्रभु को परोक्ष नमस्कार करते हैं । देवांगनायें प्रभु के जातकर्म करती हैं । कुबेर नगर की अद्भुत साजसज्जा व शोभा में निमग्न होता है । इन्द्राणी प्रसूतिगृह में प्रवेश करती है। माता को माया निद्रा में सुलाकर उनके निकट एक मायामयी पुतला लिटा देती है । शिशु प्रभु को इन्द्र की गोद में दे देती है । प्रभु के सौंदर्य का अवलोकन करने हेतु इन्द्र एक सहस्र नेत्र बनाकर भी सन्तुष्ट नहीं होता अपितु ऐरावत हाथी पर प्रभु को लेकर सुमेरु पर्वत की ओर चलता है । वहाँ पहुंच कर पाण्डुक शिला पर शिशु प्रभु का क्षीरसागर से देवों द्वारा लाये गये जल के एक हजार आठ कलशों द्वारा अभिषेक करता है । तदनन्तर इन्द्र शिशु प्रभु को वस्त्राभूषण से अलंकृत कर नगर में देवों सहित महान उत्सव के साथ प्रवेश करता है। शिशु के प्रांगूठे में अमृत भरता है और ताण्डव नृत्यादि अनेक मायामयी अद्भुत लीलायें प्रगट कर देवलोक को प्रस्थान कर जाता है । तप कल्याणक : राज्य के वैभव को भोगने के उपरान्त एक दिवस किसी कारणवश प्रभु को वैराग्य उदय होता | ब्रह्म स्वर्ग से लौकान्तिक देव ग्राकर प्रभु को वैराग्यवर्द्धक उपदेश देते हैं । इन्द्र वस्त्राभूषरण से अलंकृत करता है । कुबेर द्वारा निर्मित शिविका में प्रभु स्वयं विराजते हैं। शिविका पहले कुछ दूर तक भूलोक पर मनुष्यों द्वारा संचालित होती है फिर देवगण प्रकाश मार्ग से प्रभु-पालकी ले चलते हैं । तपोवन में पहुंचकर प्रभु वस्त्रालंकार का परिहार्य कर केशों का लुंचन करते हैं और दिगम्बर मुद्रा धारण करते हैं । प्रभु के साथ अनेक राजा दीक्षा लेते हैं । इन्द्र प्रभु केशों को एक मणि 1-20 युक्त पिटारे में रखकर क्षीरसागर में क्षेपण करता है । दीक्षास्थली तीथं स्थली में परिणत हो जाती है । प्रभु बेला, तेला आदि के नियमपूर्वक 'ऊ' नमः सिद्ध ेभ्यः' का उच्चारण कर स्वयं दीक्षा लेते हैं । नियम पूर्ण होने पर आहारार्थ नगर में प्रविष्ट होते हैं और यथाविधि श्राहार ग्रहण करते हैं । दातार के निवास में पंचाश्चर्यं श्रनुस्यूत होते हैं । ज्ञान कल्याणक : यथाक्रम में ध्यान की सीढ़ियों पर श्रारूढ़ होते हुए चार घातिया कर्मों का नाश हो जाने पर प्रभु को केवल ज्ञान आदि अनन्त चतुष्टय लक्ष्मी प्राप्त होती है । तब पुष्पवृष्टि, दुन्दुभी शब्द, अशोक वृक्ष, चमर, भामण्डल, छत्रत्रय, स्वर्गसिंहासन और दिव्य ध्वनि ये आठ प्रतिहार्य उदित होते हैं । इन्द्र की प्राज्ञा से कुबेर समवशरण की सर्जना करता है । इस विचित्र सर्जना से जगत अचम्भित होता है । । बारह सभात्रों में यथास्थान देव, मनुष्य, मुनि, आर्यिका श्रावक-श्राविका आदि सभी प्रभु के उपदेशामृत का पानकर जीवन सफलीभूत करते हैं । प्रभु का विहार बड़ी धूमधाम से होता है । याचकों को किमिच्छक दान दिया जाता है । प्रभु के चरण कमल में देवगरण सहस्रदल स्वर्ण कमलों की रचना करते हैं और प्रभु इनको स्पर्श न करके अधर प्रकाश में ही गमन करते हैं। आगे-आगे धर्मचक्र चलता | बाजे -नगाड़े बजते हैं । पृथ्वी इति-भीति उन्मुक्त हो जाती है । इन्द्र राजाओं के साथ आगे मागे जय-जयकार करते चलते हैं । मार्ग में मनोहारी क्रीड़ास्थल निर्मित किये जाते हैं । मार्ग अष्टमंगल द्रव्यों से सुशोभित होता है । भामण्डल, छत्र, चमर स्वतः साथ-साथ चलते हैं। ऋषिगण अनुगमन करते हैं । इन्द्र प्रतिहारी बनता है । अनेक निधियाँ साथ हो लेती हैं । विरोधी अनुरोधी हो जाते हैं । अन्धे, बहरों को दिखने, सुनने लग जाता है । महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्धारण कल्याणक : अन्तिम समय प्रभु योग-निरोध द्वारा ध्यान में निश्चलता कर चार श्रघातिया कर्मों का भी नाश कर देते हैं और निर्वाण को प्राप्त होते हैं । देवगण निर्वाण कल्याणक की पूजा अर्चना करते हैं । प्रभु का शरीर कपूर की नाईं उड़ जाता है । इन्द्र उस स्थान पर प्रभु के लक्षणों से युक्त सिद्धशिला का निर्माण करता है | उन जैनधर्म के चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर के भी पच कल्याणक प्रसिद्ध हैं । सभी कल्याणकों में उपर्यङ्कित विशेषतायें परिलक्षित हैं। जैन भक्त्यात्मक लोक में महावीर पूजन में इन कल्याणकों को नित्य गाया दुहराया जाता है | हिन्दी कवि वृन्दावनदास विरचित महावीर पूजन के आधार पर उनके कल्याणकों का संक्षेप में उल्लेख करेंगे । टप्पाराग में कवि ने गर्भकल्याणक में स्पष्ट लिखा है कि भषाढ़ शुक्ला षष्ठी को महारानी त्रिशला के उर में प्रभु ने गर्भ धारण किया जिसकी सुरपतियों द्वारा सर्व प्रकार से सेवा सुश्रूषा सम्पन्न हुई । यथा : "गरम साढ सित छट्ट लियो तिथि, त्रिशला उर मघ हरना । सुर-सुरपति तितसेव करी नित, मैं पूजों भव तरना ।। " चैत्र शुक्ला त्रयोदशी को प्रभु वर्द्धमान ने कुण्डलपुर नगर में जन्म लिया । जन्मोत्सव को देवी-देवताओं के अतिरिक्त मनीषी मुनिजनों द्वारा पूजा-अर्चना की गयी । यथा : महावीर जयन्ती स्मारिका 17 "जनम चैत सित तेरस के दिन, कुण्डलपुर कन वरना । सुरगिर सुरगुरु पूज रचायो, मैं पूजों भय हरना ॥" मार्गशीर्ष कृष्णादशमी को प्रभु ने तपश्चरण सम्पन्न किया मौर राजा के यहां पारणा प्राप्त की । इस घटना को लोक में पूजा जाने लगा । यथा : "मँसिर प्रसित मनोहर दशमी, ता दिन तप श्राचरना । नृप कुमार घर पारण कीनों, मैं पूजों तुम चरना ||" वैशाख शुक्ला दशमी को प्रभु द्वारा चार घातिया कर्मों का क्षय करके ज्ञान कल्याणक प्राप्त करना उल्लेखित है । केवल ज्ञान के बलबूते पर भव-भव के संकटों का समापन हो जाता है । यथा : " शुकल दर्श वैशाख दिवस प्ररि, घात चसुक छ्य करना । केवल लहि भवि भवसर तारे, जजों चरन सुख भरना ॥ " पंचम कल्याणक कार्तिक कृष्णा श्रमावस्या को सम्पन्न हुआ जिसमें प्रभु महावीर ने अपने पूर्ण कर्मों का क्षय करके आवागमन से मुक्ति पावापुर में प्राप्त की है । यथा : "कातिक श्याम श्रमावस शिवतिय पावापुरतें वरना | -8×8 गनफनि वृद मैं पूजो भय हरना ।" जजेतित बहुविध ये पंच कल्याणक हमारी जीवन चर्या को प्रक्षालन करने के लिए महनीय काम करते हैं । इसीलिए इनका नित्य चिन्तवन भक्तजनों द्वारा जिन मंदिरों में सम्पन्न किया जाता है। 1-21 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SOUDAHHAHHAAGABOO BAAHHAHAAAAA परम पूज्य श्री वर्धमान को * हास्य कवि श्री हजारीलाल जैन "काका", पो. सकरार स्वयं प्रतीक बन महावीर ने जग को सद् उपदेश दिया था, केवल परिग्रह त्याग कराने नग्न दिगम्बर वेष किया था, भरता नहीं घाव वाणी का वाणी पर अनुशासन रक्खो, बारह वर्ष मौन व्रत रख कर यही मूक संदेश दिया था, UMYVAVUSWWWWWYCHVUCHOMWMXQOWMANUM खुद ही दुःख सह कर जीवों को जीने का विश्वास दिया था, या यों समझो पतझर बनकर इस जग मधुमास दिया था, जो हिंसा को धर्म मान कर अधिकार में भटक रहे थेउसको सत्य अहिंसा वाला प्रबल, प्रखर, प्रकाश दिया था, SUSAHHHAHAHAHAHAHAHAHAHHHHHHHHHHHHHHHAA जिन्हें अछूत कहा करते थे माने जाते अशुचि अपावन, जिनकी आँखों में रहता था अत्याचारों से नित सावन, धर्म नाम पर जिन्हें यज्ञ में पशुओं के संग होमा जाताअभयदान देकर खुशियों का भोर उतारा उनके प्रांगन, जिनके चरणों में ऋषि मुनिगण सदा लगाते रहे ध्यान को,' जिनके पद चिन्हों पर चल कर पाते रहते पूर्ण ज्ञान को, जिनकी सद्वाणी के द्वारा ज्ञानामृत की धार बही थी'काका' कवि का कोटि नमन है परम पूज्य श्री वर्धमान को, 2290CMWMMMMMMMMMMMMMMMM महावीर जयन्ती स्मारिका 77 1-22 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुरुष किसी काल विशेष प्रथवा व्यक्ति या सम्प्रदाय विशेष के नहीं होते। वो सबको समान भाव से देखते हैं। उनके लिए कोई छोटा बड़ा नहीं होता । को किसी को कष्ट देना नहीं चाहते । भगवान् महावीर भी ऐसे महापुरुषों में से एक थे । यह स्मारिका उन ही भगवान् महावीर की जन्म जयन्ती पर प्रकाशित हो रही है । बड़े बड़े उत्सव भी इस समय हो रहे होंगे । लेखिका की दृष्टि में, जो कि सच है जयन्ती मनाना तब ही सार्थक हो सकता है जब कि हम उनके बताये मार्ग पर चलें, धर्म को जीवन में उतारें। प्र० सम्पादक भगवान् महावीर भगवान् महावीर हमारे 24वें एवं अन्तिम तीर्थङ्कर थे । वे तप प्रधान संस्कृति के उज्ज्वल प्रतीक हैं । भोगों से भरे हुये इस संसार में एक ऐसी स्थिति भी सम्भव है जिसमें मनुष्य का मन निरन्तर संयम और प्रकाश के सान्निध्य में रहता हो । इस सत्य की विश्वसनीय प्रयोगशाला भगवान् महावीर का जीवन है । * श्रीमती सुशीला बाकलीवाल, एम. ए., जयपुर है और जनता को सत्पथ दिखाता है । ऐसे ही थे हमारे भगवान् महावीर । भगवान् महावीर का युग विश्व के धार्मिक जगत् में एक प्रद्भुत क्रान्ति, तत्व-चिंतन एवं दार्शनिक विचार बाहुल्य का युग था । जब स्वार्थ की ग्राड में दुराचार, प्रत्याचार संसार में फैल जाता है, दीन-हीन निशक्त प्राणी निर्दयता की चक्की में पिसने लगते हैं रक्षक जन ही उसके भक्षक बन जाते हैं | स्वार्थी दयाहीन मानव धर्म की धारा धर्म की प्रोर मोड देता है । दीनअसहाय प्राणियों की करुण पुकार जब कोई नहीं सुनता, तब प्रकृति का करुण स्रोत बहने लगता है । वह ऐसा पराक्रमी साहसी वीर ला खड़ा करती है जो प्रत्याचारियों के अत्याचार को मिटा देता है, दीन दुःखी प्राणियों का संकट दूर करता महावीर जयन्ती स्मारिका 77 1 में भगवान् महावीर क्षत्रिय राजा सिद्धार्थ के पुत्र थे । वैशाली जनपद के मुख्य नगर कुण्डग्राम उनका जन्म हुआ था । प्रापकी माता का नाम त्रिशला देवी था । एक सर्वसाधन सम्पन्न राजकुल में सांसारिक वैभव के मध्य जन्म ग्रहण करने के उपरान्त भी बालक महावीर का मन भौतिकता के प्रति नितान्त विरक्त रहा । श्राप बाल ब्रह्मचारी थे और तीस वर्ष की अवस्था में ही श्रापने संन्यास धारण कर बारह वर्ष तक कठोर तपस्या कर जंगलों में भटकते हुए अपने कर्मों का क्षय किया, इन्द्रियों को वश में किया और 42 वर्ष की श्रवस्था में केवलज्ञान प्राप्त कर सच्चे सुख की प्राप्ति की। तत्पश्चात् जनता को अपने उपदेश | मृत से प्लावित करते हुये लोगों को सही राह दिखाते हुये तत्कालीन कुरीतियों का एवं ब्राह्मणवाद का घोर विरोध करते हुए विहार करते रहे। महावीर के हिंसावादी उपदेशों ने प्राणिमात्र को अमानुषिक अत्याचारों से सान्त्वना ही नहीं दी, बरन उनके 1-23 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिये विकास का नवमार्ग भी प्रशस्त किया। का द्योतक है । समवशरण में पुरुष के बराबर उन्होंने प्राणी मात्र को करुणा व समानता का मूल नारी को भी भगवान् की वाणी सुनने का समान मन्त्र दिया । उनका जीवो और जीने दो" का स्थान था। पुरुष की भांति स्त्री भी महावन अंगीमहान् सन्देश इसी दृष्टि का परिचायक है । उनकी कार कर अपने कर्मों का प्राव रोकने की अधिअहिंसा का अर्थ कायरता नहीं है । अत्याचारी को कारी है । भगवान् महावीर ने अपने उपदेशों के दण्ड देना हिंसा नहीं है उनकी अहिंसा क्षमा में द्वारा “नारी समानता' पर बल दिया है। निहित है । इसी अहिंसा के सिद्धान्त ने तत्कालीन भगवान महावीर का व्यक्तित्व केवल जैनियों मानव समुदाय का सफलतापूर्वक मार्ग प्रशस्त किया था और इसी सिद्धान्त की आज के मानव के लिये ही नहीं, अपितु समूचे विश्व के लिये एक को भी प्रत्यधिक आवश्यकता है क्योंकि आज एक प्रादर्श है । प्रापके व्यक्तित्व में चन्द्र की शीतलता, वन की उदासीनता, सागर की गम्भीरता, हिमालय राष्ट्र दूसरे राष्ट्र को हडपना चाहता है । एक मानव दूसरे मानव को अविश्वास की दृष्टि से देखता की उच्चता तथा प्राध्यात्मिकता को वीरता है । क्षण मात्र में मानव सभ्यता को ही नष्ट कर विराजमान है । प्रेम उनके चरणों में अठखेलियां सकने में समर्थ अनेकानेक हथियारों का प्राविष्कार करता है । दया मुस्कराती है, करुणा द्रवीभूत हो चुका है । युद्ध तथा हिंसा द्वारा शक्ति प्राप्ति होती है एवं श्रद्धा स्वयं नतमस्तक होती है। आपके व्यक्तित्व पर छाये हुये प्रखण्ड तेज को देख का परीक्षण असफल हो चुका है। संसार के बद्धि कर प्रांखें स्वतः चकाचौंध हो जाती हैं । मस्तक जीवी स्थायी शान्ति की खोज में प्रयत्नशील हैं। भुक जाता है. श्रद्धा उमड़ पड़ती है । आँख बन्द ऐसे समय में भगवान महावीर का 'अहिंसा परमो कर प्रापका ध्यान करने पर असीमित मानन्द की धर्मः" का सिद्धान्त ही विश्व में शान्ति स्थापित कर प्राप्ति होती है । ऐसा लगता है मानो अहिंसा का सकता है। अस्त्र लिये हुये सत्य का तप करते हुये अड़िग भगवान् महावीर का दूसरा सिद्धान्त "अपरि - मौन तपस्वी सम्मोहन की वंशी का स्वर गुजारित ग्रहवाद" हमारी समाजवाद की भावना को बल करने के लिये समस्त संसार की हृदयतन्त्री की देता है। प्रावश्यकता से अधिक वस्त का परि वीणा के तार झंकारने के लिये सन्नद्ध एकाग्रचित त्याग ही अपरिग्रह है। "अनेकान्त' भी भगवान् एवं प्रतिज्ञाबद्ध प्रासीन हैं। महावीर के मुख्य सिद्धान्तों में एक है । "नारी पुरुष समानता" के सिद्धान्त के भी प्राप हामी थे। हमारा जयन्ती मनाना तभी सार्थक होगा एक बार भगवान महावीर भ्रमण करते-करते जब हम भगवान् महावीर की अहिंसा को अपने कौशाम्बी नगरी में प्राहार के लिये निकले । चन्दना अन्तरंग में ढालें, तथा "जीवो और जीने दो" के उसी नगर में एक सेठ के यहाँ बन्दी थी। उसको सन्देश को यथार्थ रूप प्रदान करें, महिंसा के मार्ग भावना भगवान् को माहार देने के लिये हुई और पर चलें, जिससे विश्व को एक नया रूप मिले एवं उस भावना के फलस्वरूप उसकी बेड़ियां टूट पड़ी महावीर के सन्देशों को जन-जन तक पहुंचावें। पौर उसने भगवान को प्राहार देकर पुण्य बंध तभी हमारा जीवन सार्थक होगा तथा समाज एवं किया । भगवान् का समवशरण भी नारी समानता राष्ट्र उन्नत होगा। 1-24 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशाल जनसमूह श्री चन्दनमल बंद, वित्त मंत्री, राजस्थान झण्डारोहण करते हुए महावीर जयन्ती समारोह 1976 जनसमूह सांस्कृतिक समारोह देखते हुए Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीर नाम निक्षेप से ही नहीं भाव निक्षेप से भी महावीर थे । निर्माण प्राप्ति का परम पुरुषार्थ उन्होंने किया था। इसीलिए मे वीर ही नहीं महावीर थे क्योंकि ऐसा पुरुषार्थ वह ही कर सकता है जिसमें अद्भुत अतुल्य शक्ति हो । मानव जीवन का चरम लक्ष्य निर्वाण अर्थात प्रात्मा की परमानन्दमयी स्थिति को उन्होंने राग द्वेष से रहित हो, वीतराग बन प्राप्त किया था। बिना राग के नष्ट हुए कोई भी मुक्त नहीं हो सकता । इसीलिए जैनधर्म में सरागता तथा बाहय मेश, प्रारम्बर प्रादि की पूजा नहीं है। प्र. सम्पादक भगवान् महावीर, वीतरागता और निर्वाण डा० देवेन्द्रकुमार शास्त्री, नीमच यह सच है कि माज से लगभग 2600 वर्ष वणित किया जाता है । उन में तथ्य की अपेक्षा पूर्ण चैत्र शुक्ला प्रयोदशी के दिन महावीर या वर्द्ध- भक्ति का अधिक योग होता है । फिर घटनाए तो मान का जन्म हुआ था, किन्तु इससे अधिक सत्य सबके जीवन में भिन्न भिन्न होती हैं। किन्हीं घटयह है कि हम जिस महावीर की उपासना, पर्चना नामों के घटने के कारण कोई महान् बनता हो, करते हैं, वह क्षत्रियकुमार न होकर वीतरागता का तो केवल घटनाएं ही रह जायेंगी, व्यक्तित्व निःशेष प्रादर्श था। इस लिये. उनके जीवन और व्यक्ति हो जायगा। चमत्कार-प्रदर्शन करना तो बहुत त्व को हम किन्हीं घटनामों में बांध कर वास्तविक प्रासान है, युक्ति मात्र से चमत्कार दिखलाया जा रूप में प्रस्तुत नहीं कर सकते। घटनामों में भी सकता है । किन्तु प्रादर्श प्राप्त करना सचमुच कठिन कहा जायगा, वह बाहर से समझा हुआ स्थूल होता है। इससे यह स्पष्ट है कि हजारों वर्षों के होगा। उस बाह्य जीवन की नकल कर हम प्रसल पश्चात् भी हम महावीर को इसलिए नहीं मानते महावीर को नहीं खोज सकते । यही कारण प्रतीत कि वे चमत्कारी थे, उन में कोई अलौकिक सिद्धि होता है कि जैन पुराण-साहित्य में महावीर के थी, देवता लोग पाकर उनकी स्तुति-वन्दना करते जीवन से सम्बन्धित सम्पूर्ण घटनाएं नहीं मिलती। थे या वे स्वयं आकाश में गमन करते थे। ये बातें घटनाओं से हम केवल इतना ही जान पाते हैं तो एन्द्रजालिक में भी देखी जा सकती हैं। इसीकि 'क्या हुमा', क्यों और कैसे हुमा--यह उन लिये इन चमत्कारों, अतिशर्यो, पाश्चर्यो या गैभव रेखाओं के चित्रण से परे की बात है। प्रतएव पूर्ण ऋद्धियों के कारण वे महान् नहीं हैं। उनकी महापुरुषों के जीवन की जो भी घटनाएं बताई महत्ता के दो ही प्रमुख लक्षण हैं-वीतरागता और जाती हैं, वे केवल उनके महत्त्व प्रदर्शन के लिए सज्ञता। वीतरागता ही उनका परम प्रादर्श था, होती हैं अथवा उनको ही प्रतिशयोक्ति पूर्वक जिसे वे उपलब्ध होकर स्वयं वीतराग बने और महावीर जयन्ती स्मारिका 77 1-25 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसीलिये हमारे पूज्य हैं। वास्तव में घटनामों के प्रकाशन में कथ्य तिरोहित हो जाता है । सूर्य जैसे महान् व्यक्तित्व के सत्य को जैनधर्म में सरागता की पूजा नहीं है, बाहरी क्या हम किसी घटना से अधिक प्रकाशित कर वेश प्रोर आडम्बर की पूजा नहीं है, पूजा है सच्चे सकते है ? जैसे सूर्य अपने आप में सत्य है, उसी निर्ग्रन्थ दिगम्बर गुरु-देव की जो वीतरागता के प्रकाश को बताने के लिए कोई रोशनी नहीं फेंकनी परम शिखर थे, त्याग और तपस्या के हिमालय थे पडती हैं. उसी प्रकार महावीर अर्हन्त केवलज्ञान और जिन्होंने सब प्रकार से अकिंचन हो अपने दिवाकर स्वयं ज्ञान-सूर्य थे, स्वयं सत्य थे, उस चैतन्य भास्कर का अलौकिक प्रकाश प्रकट कर अप्रतिम प्रकाश को हम प्राने तुच्छ ज्ञान से क्या झान-चेतना का उद्योतन किया था। जो स्वय प्रकाशित कर सकते हैं। समयसार थे और जिन्होंने पात्मज्ञान की पूर्ण उपलब्धि कर बिना किसी अपेक्षा के संसार को सुख वीतरागता नितान्त नैयक्तिक है। अध्यात्म व कल्याण का मार्ग बताया था। जिस बीमारी के की शुद्ध दृष्टि के बिना आत्म तत्त्व व वीतरागता कारण संसार के सब लोग दुखी है, उसे उन्होंने समझ में माती नहीं है। आज के भौतिक जगत में समझा था, उसका स्वयं निदान किया था और जन्म जयन्तियां या निर्वाण तिथियां मनाना एक अपने पुरुषार्थ से महामोह नाम की बीमारी को फैशन-सा हो गया है । इस प्रदर्शन मात्र से हमारा मिटा कर वीतरागता के महान् वैद्य बने थे। वे भला नहीं हो सकता है । सम्भव है कि आप व्याअाजकल के डाक्टर और नैद्य के समान नहीं थे, जो पारी हों, और इसमें भी व्यापार का कोई उपाय स्वयं बीमार रहते हैं और पैसे के खातिर दूसरों निकाल कर यह कहें कि लाभ कैसे नहीं है ? ठीक का इलाज करते हैं। वास्तव में स्वस्थता प्राप्त है, लाभ लेने वाला चाहिये, हरेक काम से लाभ कराना ही धर्म व आरोग्यशास्त्र का उद्देश्य है। मिल सकता है। किन्तु प्रदर्शन मात्र से प्रात्मा का मात्मा स्वयं धर्मस्वरूप है । धर्म किसी प्रक्रिया में, कोई भला नहीं होने वाला है। पूजा-पाठ में, पालोचना-स्तुति में, जाति-कुल में, प्रशंसा-प्रदर्शन में न होकर मात्म-स्वभाव की उज्ज्व- भगवान् महावीर के दो ही उपदेश मुख्य हैं, लता को व्यक्त करने में है। जिनकी विलक्षणता को देखकर हम अन्य भारतीय धर्म व दर्शनों से जैनधर्म को भिन्न निरूपित कर यदि एक शब्द में कहना हो तो इसमें कोई सकते हैं । ये विशेषताए हैं -स्वतन्त्रता और वीतसन्देह नहीं कि महावीर व्यक्ति थे । हम और पाप रागता । जैनधर्म की स्वतन्त्रता अद्भुत है। नाम के ही व्यक्ति हैं, किन्तु महावीर सचमुच व्यक्ति प्रणु मात्र से लेकर पेड़-पौधे, कीड़े-मकोड़े, खानथे, पूर्ण व्यक्ति थे । शक्ति रूप से तो हम और प्राप चट्टानें-पर्वत आदि प्रत्येक वस्तु की स्वतंत्रता का सभी महावीर हैं । क्योंकि सभी प्राणियों की प्रात्मा दिव्य गान जैन आगम-ग्रंथों में भरा पड़ा है । स्वमें अनन्त शक्तियां हैं, अनन्त गुण हैं, अनन्त सुख है, तंत्रता भी ऐसी कि अणु मात्र भी कोई पदार्थ किन्तु वे सभी सुप्त हैं । महावीर ने उनको अपने किसी अन्य पदार्थ को परिणमा नहीं सकता है। ज्ञान-पुरुषार्थ से व्यक्त कर लिया था। पूर्ण रूप सभी वस्तु प्रों का परिणमन स्वाधीन है। कोई से प्रकट कर उस परम ज्योति को प्रकाशित कर किसी के प्राधीन नहीं हैं यह ऐसा क्रांतिमूलक दिया था। इसलिये उनका व्यक्तित्व पूर्ण कहा जा विचार है कि कोई सत्यार्थद्रष्टा ही इसे निरूपित सकता है, वह किन्हीं घटनामों की वस्तु नहीं है। कर सकता है। अनन्त वर्षों की काल-कसौटी पर 1-26 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह अच्छी तरह से कसा जा चुका है, परखा जा चुका है। और आज भी विज्ञान जगत् के लिए यह चुनौती है । इस विचार - दर्शन को भलीभांति समझ लेने पर लोक - रचना, विश्व का निर्माण श्रीर वस्तु के स्वरूप को समझाने में बड़ी सरलता हो जाती है और अन्धविश्वास तथा रूढ़िवादिता के स्थान पर तर्कपूर्ण एक वैज्ञानिक विज्ञान सामने ग्रा जाता है । इसलिये यह कहने में कोई संकोच नहीं होता कि भगवान महावीर का अध्यात्म विज्ञानों का भी विज्ञान था । तीर्थंकरों का यह उपदेश सचमुच विशुद्ध सत्य है | जब तक हमें पूजते रहोगे, तब तक हम जैसे नहीं बन सकते । भगवान महावीर ने भी यही देशना दी थी कि सच्चे देवों की पूजा करने से स्वर्ग मिल सकता है, किन्तु साक्षात् निर्वाण की प्राप्ति तो श्रात्मा की अनुभूति से होगी। जहां ज्ञानानन्द की अनुभूति है, वहां संसार के सब प्रकार के सुख समय मात्र में निःसार प्रतीत होने लगते हैं । श्रात्मा का अनुभव सच में विलक्षण है । श्रात्मानुभूति के द्वारा ही वीतरागता की प्राप्ति होती है, शुद्धोपयोग की दशा बनती है श्रोर चैतन्य श्रात्मा अपनी ज्ञानचेतना में निश्चल हो जाती है । यह अनुभूति पर के प्राश्रय से प्राप्त नहीं हो सकती, स्वाश्रयी प्रवृत्ति से ही उपलब्ध होती है । इसलिये श्रध्यात्म मार्ग में स्वाधीनता को प्रवाश्यक ही नहीं, अनिवार्य माना जाता है । प्राचार्यदेव समझाते हुए कहते हैं इस श्रात्मा में राग-द्वेष रूप दोषों की जो उत्पत्ति होती है, उसमें अन्य किसी का कोई दोष नहीं है । यह अपराध तो स्वयं इस जीव के प्रज्ञान का है, श्रात्मा स्वयं अपराधी है । किन्तु यह ज्ञान होते ही कि मैं तो ज्ञान हैं, प्रज्ञान अस्त हो जाता है । जो अज्ञानी जीव राग की उत्पत्ति में पर द्रव्य को ही कारण मानते हैं, अपना कारणपना स्वीकार नहीं करते, उनकी बुद्धि शुद्ध ज्ञान से रहित महावीर जयन्ती स्मारिका 77 अन्ध है और वे मोह-नदी को पार नहीं कर सकते । इस प्रकार वीतरागता की उपलब्धि में शुद्धज्ञान बहुत बड़ा कारण है । किन्तु यह शुद्ध ज्ञान शुद्धदृष्टि से मिल सकता है। शुद्ध दृष्टि को ही शास्त्र की भाषा में निश्चय नय कहा गया है। भगवान महावीर के इस तत्व-उपदेश में ही उनकी वीतरागता और सर्वज्ञता की झलक मिल जाती है । क्योंकि उन्होंने सब एजेन्सियों को नकार कर एक मानव को ही नहीं, प्राणी मात्र को अपने श्राप की एजेन्सी बताया और कहा कि "जो श्रप्पा सो परमप्पा" जो श्रात्मा है, वही परमात्मा है । वस्तु से दोनों में कोई भेद नहीं है । भगवान महावीर का दर्शन कोई उलझन में डालने वाली शाब्दिक लकीर या प्रश्न नहीं है । यह तो सहज अनुभव का स्वारस्य है जो अखण्ड चिदानन्द चैतन्य तत्व का दर्शन कराता है और जिसके उपलब्ध हो जाने पर अन्य कोई उपलब्धि अवशिष्ट नहीं रहती । यद्यपि वस्तु को खरीदते समय मन में अनेक विकल्प उठते हैं, किन्तु खरीद कर उपयोग करते समय कोई विकल्प नहीं रह जाता। इसी प्रकार तत्व के अन्वेषण के समय में अनेकानेक विकल्प उत्पन्न होते हैं, किन्तु तत्त्र- निर्णयपूर्वक प्रात्मा में तन्मय हो जाने पर कोई विकल्प नहीं रह जाता, इसलिये प्रत्मानुभव-काल में वह अनुभव परोक्ष न होकर प्रत्यक्ष ही होता है । इस प्रकार निश्चय और व्यवहार दोनों दृष्टियों को लेकर प्रनेकान्त सिद्धान्त को प्रस्तुत किया और बताया कि जैनधर्म श्रनेकान्तमयी है । वस्तु में अनेक धर्म होते हैं उन धर्मों का उद्योतन करने वाला श्रनेकान्त सिद्धांत है | किन्तु यह सिद्धांत वस्तु के सत्य को प्रकट करने वाला है, जो वस्तु नहीं है, उसे श्रनेकान्त सिद्धांत से वरिंगत नहीं किया जा सकता । संक्षेप में अनेक युक्तियों, तर्क और प्रमाण के प्राधार पर जैनधर्म का जो विवेचन 1-27 Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया गया है, सचमुच अद्भुत है, आश्चर्य है । ऐसा विभाव पर्यायों का बोध हुए बिना हमारी रष्टि बाहरी कथन केवल सर्वज्ञ ही कर सकते हैं, यह विश्वास धरातल पर ही अटकी रहती है। किन्तु पर्याय की अपने आप ही पैदा हो जाता है और यही इस धर्म निर्मलता को जानकर द्रव्य की शुद्ध दशा से एकत्व की सब से बड़ी महत्ता है। करने के लिए उसे त्याग देना पड़ता है । क्योंकि जिनकी दृष्टि व्यवहार में ही मोहित हो रही है, स्वाधीनता का उपाय वे पुरुष सच में परमार्थ को नहीं जानते हैं । जो धान के छिलकों पर ही मोहित हो जाते हैं. वे जैनदर्शन व अध्यात्म का उद्देश्य है-सर्वतन्त्र-स्व. बास्तविक चावलों को नहीं जान पाते हैं। किन्तु तन्त्र स्वाधीन होना । स्वाधीनता कहीं से लाने की जो पुरुष किसी भी प्रकार से मोह के दूर होने पर आवश्यकता नहीं है। स्वतन्त्रता कहीं बाहर से नहीं शुद्ध चैतन्य मात्र ज्ञान-चेतना का माश्रय ले कर मिल सकती है। पर पदार्थों के संयोग से मिलने साधकपने को प्राप्त होते हैं, वे निर्वाण को प्राप्त वाली स्वतन्त्रता प्रस्थायी होती है। क्योंकि उस कर सिद्ध हो जाते हैं । परन्तु जो मोही, अज्ञानी, स्वतन्त्रता का सम्बन्ध पर-पदार्थों के टिकने तक विपरीत श्रद्धानी मिथ्यादृष्टि हैं, वे इस भमिका को रहता है और पर-पदार्थों का संयोग सम्बन्ध कभी प्राप्त न कर संसार में ही परिभ्रमण करते रहते शाश्वत नहीं होता। इसलिये उन से मिलने वाली स्वतन्त्रता भी नित्य नहीं होती है । हां आध्यात्मिक स्वतन्त्रता ही वास्तविक है । इस प्रकार की निश्चय ही भगवान महावीर ने ज्ञाननय के सम्पूर्ण स्वाधीनता निर्वाण की स्थिति में उपलब्ध द्वारा परमतत्व को पहचान कर स्वसंवेदनमयी परम होती है । निर्वाण किसी स्थान या भाव विशेष का स्थिति को प्राप्त किया था, जिसे योगी जन "निर्विनाम नहीं है। यह तो वस्तु की वह स्वाभाविक कल्प समाधि" कहते हैं, जो परमानन्दमयी स्थिति स्थिति है, जिसकी शुद्धता व स्वतन्त्रता के कारण है, जिसे एक बार उपलब्ध हो जाने पर फिर से उसका अपना अस्तित्व है और अन्य वस्तुओं से उसे सांसारिक सुख-दुःख की बाधा नहीं पड़ती है, अपने पृथक कर देखा जा सकता है । इस स्वाधीनता को ही प्रक्षय, अविनाशी, परम सुख में सदा प्रात्मा लीन पाने के लिए वस्तु स्वभाव तक पहुंचना होता है। रहती है और उस परमानन्द का ही सतत भोग वस्तु-स्वभाव तक पहुंचने के लिए वस्तु की द्रव्य- करती रहती है। यही निर्वाण की स्थिति कही दृष्टि अपनानी होती है। द्रव्य की शुद्ध दृष्टि के जाती है, जिसमें प्रात्मा सब प्रकार के कर्म-मलों बिना द्रव्य को नहीं समझा जा सकता है । हालांकि से मुक्त हो अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख द्रव्य को समझना जितना प्रावश्यक है, उससे कहीं और अनन्त शक्ति के प्रकट हो जाने पर सच्चे सुख अधिक आवश्यक पर्याय को समझना है । स्वभाव- को उपलब्ध हो जाती है । मुक्तक तेता प्रारम्भ ठानिए, जेता तन में जोर । तेता पांव पसारिये, जेती लांबी सोर ॥ 1-28 महावीर जयन्ती स्मारिका 71 Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मानुसार कोई भी मानव तदनुरूप प्राचार द्वारा कर्म बन्धन से मुक्त हो सिद्ध बन सकता है। वह आत्मा की सर्वोच्च शुद्ध अवस्था है । किन्तु प्रत्येक मोक्षगामी तीर्थङ्कर नहीं हो सकता 148 कर्मप्रकृतियों में तीर्थङ्कर प्रकृति का बंध कर्मभूमि के मनुष्य के केवली या श्रुतकेवली के पाबमूल में होता है । संसार के उद्धार तथा दु.खी जीवों को सन्मार्ग बता कर उनके कल्याण करने की उस्कट भावना ही अतिशय पुण्यशाली तीर्थङ्कर प्रकृति के बंध का कारण है। सेवक ही स्वामी बन सकता है। दर्शन विशुद्ध आदि सोलह भावनाओं के चिन्तवन करने तथा अपायविचय नामक धर्मध्यान होने पर महान् पुण्यशाली तीर्थङ्कर प्रकृति का मानव होकर बंध होता है । प्रतः अपना कल्याण चाहने वाले में पर कल्याण की तीव भावना होना आवश्यक है। प्र० सम्पावक जैन धर्म और कर्म सिद्धांत : तीर्थंकर की प्रकृति का महत्व * परमपूज्य प्रायिकारत्नश्री ज्ञानमती माताजी शरीरी प्रत्येकं भवति भुवि वेधाः स्वकृतितः। उपार्जित करता है तब यह सम्यक्त्व रूपी विधि को विधत्ते नानाभूपवनजलबन्हिद्र मतनुम् । भेदाभेद रूप रत्नत्रय को प्राप्त करके स्वयं ही स्वयं में स्थित हो जाता है तभी कृतकृत्यपूर्ण स्वस्थ त्रसो भूत्वा भूत्वा कथमपि विधायात्र कुशलम् । होता हुआ शिवमय हो जाता है । स्वयं स्वस्मिन्नास्ते भवति कृतकृत्य: शिवमयः ।। जैन सिद्धांत के अनुसार विश्व के नेता परम. इस संसार में प्रत्येक शरीरधारी प्राणी स्वयं तीर्थंकर बनने के उपायों को समझने वाला और ही ब्रह्मा है क्योंकि प्रत्येक जीव अपने-अपने शुभ- तदनुरूप प्रवृत्ति करने वाला कोई भी व्यक्ति अपने अशुभ कार्यों के द्वारा स्वयं अपनी-अपनी सृष्टि का पाप को उस महान् पद का अधिकारी बना सकता निर्माण करता रहता है। कभी यह जीव अनेक है। जो भव्यजीव सच्ची करुणामयी भावना से प्रकार की पृथ्वी के शरीर-माणिक्य, हीरा, मरकत जगत के उद्धार की चिंता करते हैं सचमुच में वे ही वैडूर्य प्रादि रत्नरूप को धारण कर लेता है. कभी महापुरुष प्रनंत प्राणियों के उदार में समर्थ ऐसे यह जीव पवन के शरीर को, कभी जल के शरीर तीकर बन जाते हैं। को, कभी अग्नि के शरीर को और कभी नाना श्रेयोमार्गानभिज्ञानिह भवगहने जाज्वलदुःखदावप्रकार के फल पुष्प, लता, वृक्षादि रूप वनस्पति । के शरीर को धारण करता रहता है। यही जीव स्कंधे चंक्रम्यमाणानति चकितमिमानुद्धरेयं वराकान् । कभी त्रस होकर द्वीन्द्रिय, त्रींद्रिय चतुरिंद्रिय अथवा इत्यारोहत्परानुग्रहरसविलसद्भावनोपात्तपुण्यपंचेंद्रिय पर्याय को धारण करता है। कदाचित् प्रक्रांतरेव वाक्यः शिवपथमूचितान शास्ति योऽहन बड़ी मुश्किल ये कभी यह कुशल-पुण्य कर्म को स नोऽव्यात् ॥ महावीर जयन्ती स्मारिका 77 1-29 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहां पर दुःख रूपी दावानल अग्नि अतिशय गुणों सहित विशुद्ध सम्यग्दर्शन को धारण करना रूप प्रज्ज्वलित हो रही है-धधक रही है ऐसे इस ही दर्शन विशुद्धि भावना है । संसाररूपी गहन वन में बेचारे संसारी प्राणी जो 2. विनयसम्पन्नता-ज्ञान, दर्शन चारित्र और कि मोक्षमार्ग से अनभिज्ञ हैं वे अतिशय रूप से तप तथा इनके धारकों में सतत् विनय करना घबराये हुये है और इस दु खरूपी पग्नि में झुलस विनय सम्पन्नता भावना है। रहे हैं, मैं 'इन बेचारों का उद्धार करू" इस प्रकार 3. शीलवतेष्वनतिचार-पांच महाव्रत या से पर के ऊपर अनुग्रह करने की उत्कट भावना से उत्पन्न हुना जो पुण्य है उस पुण्य के महात्म्य अणुव्रतों में तथा इनके रक्षक गुणवत प्रादि शीलों से ही कालांतर में अपने वचनों के द्वारा जो भव्य में अतीचार नहीं लगता। जीवों को मोक्षमार्ग का उपदेश देते हैं वे प्रहंत 4. प्रभीक्ष्णज्ञानोपयोग-हमेशा जिनेंद्र भगवान. भगवान् हमारी रक्षा करें। के वचन रूप परम रसायन का पान करते रहना । यहां तीर्थंकर प्रकृति के लिये कारणभूत 5. संवेग संसार, शरीर और भोगों को अपायविचय धय॑ध्यान का बड़ा ही सुन्दर विवेचन दुःखदायी जानकर इनसे विरक्त होना । किया है । वास्तव में जिनके हृदय में सच्ची करुणा 6. शक्तितस्त्याग- अपकी शक्ति के अनुसार उमड़ती है वे ही भव्य जीवों के अपाय अर्थात् कष्ट आहार, औषधि अभय और ज्ञान का दान देना । को दूर करने की भावना कर सकते हैं अन्य नहीं। 7. शक्तितस्तप - शक्ति के अनुसार बारह विश्व में ऐसे भी प्राणी हैं जो सतत् परोपकार ही , प्रकार के तपों का अनुष्ठान करना । करना चाहते हैं किंतु सत्यमार्ग की या अपने हित की जिन्हें कुछ जानकारी ही नहीं हैं। ऐसे लोग 8. साधु समाधि--रोग या श्रम प्रादि के इस अपायविचय धर्मध्यान के अधिकारी नहीं हो निमित्त से असमाधि को प्राप्त हुये साधुनों के सकते हैं। अनुकूल प्रवृत्ति, सेवा उपदेश प्रादि के द्वारा उनके चारित्र की रक्षा करना। धर्म के सच्चे नेता बनने के लिये सोलह 9. वैयावृत्यकरण-प्राचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, कारण भावनायें बतलाई गई हैं। उनके नाम और रुग्ण आदि साधुओं की प्रासुक औषधि प्रादि से लक्षण संक्षेप में इस प्रकार हैं सेवा शुश्रूषा करना। 1. दर्शनविशुद्धि-शंका, कांक्षा विचिकित्सा, 10. अर्हत भक्ति--छयालीस गुण विशिष्ट मूढ़ष्टित्व, अनुपगृहन, प्रस्थितीकरण. अवात्सल्य, अहंत देव की स्तुति, वंदना आदि के द्वारा भक्ति अप्रभावना ये पाठदोष, ज्ञान, पूजा, कुल, जाति, करना। ऐश्वर्य, रूप, बल और तपश्चर्या इन पाठों के 11. प्राचार्य भक्ति--संघ के अधिपति प्राश्रय से आठ प्रकार का मद, कुदेव, कृशास्त्र दिगम्बर प्राचार्यों की भक्ति करना। पौर कुगुरु तथा इनके सेवक ऐसे छह अनायतन। और देवमूढ़ता गुरुमूढ़ता तथा लोकमूढ़ता ये तीन 12. बहुश्रुतभक्ति--बहुश्र तवंत मुनियों की मूढ़तायें ऐसे 8 + 8+6+3=25 दोष सम्यक्त्व भक्ति करना । के माने गये हैं। इन मलदोषों से रहित निशंकित 13. प्रवचन भक्ति--जिनवाणी की भक्ति, प्रादि माठ अंगसहित मोर प्रशम, संवेग आदि पाठ पूजा प्रादि करना । 1-30 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. श्रावश्यक अपरिहारिण - सामयिक, स्तुति, बंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग इन छह आवश्यक क्रियाओं को यथासमय और यथाविधि करना । 15. मार्ग प्रभावना - ज्ञान, पूजा, तप प्रादि के महात्म्य से सदैव जैन शासन की प्रभावना करते रहना । 16. प्रवचनवत्सलत्व -- जिनेंद्र देव के प्रवचन के प्राधारभूत चतुविध संघ में गोवत्स के समान प्रकृत्रिम स्नेह रखना । इन भावनाओं में प्रथम दर्शन विशुद्धि भावना प्रधान है उसके बिना अन्य भावनायें तीर्थंकर प्रकृति के लिये कारण नहीं हो सकती हैं और उस एक भावना के होने पर प्रन्य भावनायें स्वयं ही प्रा जाती हैं। प्रथवा दर्शन विशुद्धि सहित कतिपय भावनायें भी तीर्थंकर प्रकृति के बंध कराने में समर्थ हैं । तीर्थंकर प्रकृति ऐसी प्रतिशयशाली प्रकृति है जिसके सत्ता में ही रहने पर तीनों लोकों में क्षोभ करने वाला महान् चमत्कार प्रकट होने लगता है। गर्भ में आने के छह महीने पहले से ही माता के प्रांगन में रत्नों की वर्षा, देवों द्वारा गर्भ महोत्सव और जन्म महोत्सव तथा दीक्षा महोत्सव का किया जाना प्रादि कार्य होते हैं । तीर्थंकर प्रकृति का उदय तो तेरहवें गुरणास्थान में महंत श्रवस्था होने पर होता है । पुनः ही तीर्थंकर प्रकृति के उदय आने पर वे भगवान् प्रपनी दिव्यध्वनि के द्वारा सात सौ अठारह भाषाओं में प्रथवा संख्यातों भाषात्रों में भव्यजीवों को हित का उपदेश देते महावीर जयन्ती स्मारिका 17 हैं । ये भगवान् ही मोक्षमार्ग के सच्चे नेता कहलाते हैं । ये अखिल तत्व के ज्ञाता होते हैं प्रोर कर्मरूपी पर्वत को चूर्ण करने वाले होते हुए भी परम वीतरागी होते हैं । इसीलिये ये तीन विशेषरणों के द्वारा नमस्कार किये जाते हैं - मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूभृताम् । ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वंदे तद्गुणलब्धये || जो मोक्षमार्ग के नेता हैं, कर्मरूपी पर्वत के भेदन करने वाले हैं भोर विश्वतत्त्व के ज्ञाता है मैं उनके गुणों की प्राप्ति के लिये उनकी वंदना करता हूं । छत्रपुर के महाराजा नंद एक समय प्रोष्ठिल मुनिराज की वंदना के लिये गये । उनके धर्मोपदेश श्रवण कर जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण करली पुनः घोराघोर तपश्चरण करते हुये इन सोलह कारण भावनाओं को भाके तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर लिया। ये ग्यारह अंग ज्ञान के धारक थे अंत में प्रायोपगमन संन्यास से मरण करके सोलहवें अच्युतस्वर्ग में देवों से पूजित प्रच्युतेन्द्र हो गये। वहां की बाईससागर प्रमाण प्रायु को पूर्ण कर इस भरत क्षेत्र के विदेह नामक देश के अंतर्गत कुडपुर ग्राम के अधिपति महाराजा सिद्धार्थ की महारानी प्रियकारिणी के गर्भ से तीर्थंकर के अवतार में अवतरित हुये श्रीर अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर कहलाये । इस प्रकार से इस कर्म सिद्धांत पर विश्वास करने वाला कोई भी व्यक्ति प्रपने को उत्तम से भी उत्तम ऐसे सर्वोत्तम तीर्थंकर के रूप में बना सकता है । mmmm 1-31 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युगों युगों तक अमर रहेगा महावीर संदेश तुम्हारा * पं० अनूपचन्द न्यायतीर्थ, जयपुर तुमने जग की अस्थिरता को देखा, उस पर ध्यान दिया। झाँक झांक अपने अन्तर में उसका गहरा मनन किया है । फिर वाणी में हुई प्रस्फुटित वह चिंतन की अनुपम धारा॥ कौन किसी का करने वाला हरने वाला कभी बना है कर्ता हर्ता स्वयं पाप ही स्वामी स्वयं आप अपना है ।। पूर्ण स्वतन्त्रता, पराश्रित होकर क्यों फिरता है मारा मारा। माता पिता और जन परिजन बांधव मित्र सुता सुत नारी इनके लिये पाप क्या करता नहीं किसी के सगै अनारी कर्मों का फल तुम्हें अकेले अरे ! भोगना होगा सारा ।। हिंसादिक पापों से बचकर सत्य अहिंसा को अपनायो स्याद्वाद और अनेकांत का कितना बड़ा महत्व, समझाओ। सर्वधर्म समभाव समन्वय, सीखो यह उन्नति का नारा॥ प्राग्रह और परिग्रह दोनों जीवन को अति दुखी बनाते घृणा ईर्षा द्वेष कलुषता मानवता का पतन कराते इनसे बचो बचाओ सबको, इस ही में ही उत्थान तुम्हारा युगों युगों तक अमर रहेगा महावीर संदेश तुम्हारा । 1-32 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर जयन्ती समारोह 1976 (महिला सम्मेलन) मुख्य अतिथि श्रीमती कमला राज्य मन्त्री, जन-सम्पर्क राजस्थान, सभा के अध्यक्ष श्री राजकुमार काला के साथ समारोह स्थल की ओर जाते हुए राणी लक्ष्मीकुमारी चूड़ावत सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो स्वयं इस संसार सागर के दु.खों से छुटकारा पा परमानन्द अवस्था को प्राप्त कर चुके हैं जो अन्यों को भी उस मार्ग का पथिक बनाने में समर्थ हैं अर्थात् जो स्वय तर गए हैं और दूसरों को तारने में सक्षम हैं वे तीर्थ कर कहलाते हैं । भगवान् महावीर इस शृंखला में अन्तिम थे अत: प्राज का समय उनका तीर्थकाल कहलाता है। अनगिनत मानव उनके उपदेश को जीवन में उतार सफल हुए हैं और आज भी मानव उन उपदेशों पर प्राचरण कर अपना जीवन सफल का सकता है और भविष्य में भी कर सकेगा। कालिक सत्य धर्म की यही विशेषता है जो जैनधर्म में है। प्र० सम्पादक मानव जीवन और भगवान महावीर * महंत पर्वतपुरी गोस्वामी, उज्जैन मानव जीवन में तीर्थ के अर्थ का अत्यन्त ही को संचरित कर अग्रसर करता है, उसे तीर्थकर महत्व माना गया है। प्रनादि काल से ही भारत माना जाता है । की धार्मिक प्रवृति एवम् प्रास्था का समावेश भारतीय संस्कृति में प्रवलोकित है। महावीर स्वामी ने भी अपने सम्पूर्ण राज-पाट तीर्थ के अर्थ का अगर विश्लेषण कर एक सत्य के भव्य विपुल प्रानन्द, ऐश्वर्य, सम्पदा को धूलिकरण समझकर तथा संसार को एक मुसाफिरखोजें तो मूलतः यही स्पष्ट होता है कि मानव खाना, क्षणभंगुर समझा। उनके चित्त में विषयअपना उद्धार इस क्षणभंगुर संसार से, जो कि एक वासना का रस सूख गया था। शनैः शनैः ज्ञान पानी के बुलबुले के समान है, एक द्वन्द्व है, संघर्ष और वैराग्य शक्ति का उदय होने लगा था। उनके और तनाव है, से पार उतर कर अपने मोक्ष के लिए संसार में केवल संयम और तप ही सारवान लिए ईश्वर की भक्ति की ओर मुड़ता है और इस रह गये थे। धन, कन, कंचन, राज-सख और यहां भक्ति के लिए वह अपने जीबन में सम्यक्ज्ञान, तक कि अप्सरामों को भी लज्जित करने वाली सम्यक्दर्शन, सम्यक्चरित्र, सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य अनिंद्य सुन्दर कुमारियां भी उनसे पाणि-ग्रहण आदि को उतारने का प्रयास कर भक्ति की सार्थ करने को लालायित थीं, पर महावीर स्वामी अपने कता प्राप्त करता है। व्रत में स्थिर चित्त थे। ___ जो मनुष्य उपरोक्त तथ्यों को अपने जीवन में पूर्णत: उतार कर तीर्थ सार्थकता की प्रवृति को महावीर स्वामी ने वैराग्य धारण कर परमार्थ मानव कल्याण हेतु मानव जीवन में उस प्रवृति जीवन की स्थापना की और तात्कालीन राजा महावीर जयन्ती स्मारिका 77 1-33 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यथा-- महाराजा जो मनमाना अत्याचार, अन्याय, हिसा परमो धर्मः" को श्रेष्ठ माना है और जैन धर्म में पोर बलियां आदि किया करते थे उनके असामा- अहिंसा की अत्यन्त ही बारीकी से व्याख्या की जिक आचरण में परिवर्तन लाकर उनकी प्रजा के गई हैकल्याण के लिए प्रेरित किया। भगवान महावीर स्वामी ने समस्त प्राणियों को अपने उपदेश दिये और उन उपदेशों पर कत्तव्यपरायणता के साथ "मरदु व जियदु व जीवो प्रयदाचारस्स चलने व पालन करने को उत्प्रेरित किया। भगवान गिच्छिदा हिंसा"-प्रवचन, 3.18 महावीर स्वामी मनीषी होकर भी तीर्थ कर बन किसी जीव का मरना या जीना हिंसा, अहिंसा गये। उन्होंने अपने सम्पूर्ण जीवन में अच्छा खाना, नहीं है, किन्तु प्रयत्नाचार का नाम हिंसा और अच्छा पहनना, अच्छा निवास सभी कुछ हमेशा. यत्नाचार का नाम अहिंसा है। हमेशा के लिए त्याग दिया और राज के मोह को "रागादीण मणुप्पा अहिंसकत्तत्ति देसियं छोड़कर सारी धन दौलत का तिरस्कार कर दिया। समए। उन्होंने सुख नाम की चीज को भुला दिया तब कहीं तेसि च उप्पत्ति हिसेति जिणेहि सिद्दिठ्ठा 1421 प्राज विश्व के समक्ष वे तीर्थ कर के रूप में प्रतिष्ठित ___-जयधवला टीका हुए। तीर्थ कर बनना कोई सरल काम नहीं है। राग-द्वेष प्रादि का उत्पन्न नहीं होना अहिंसा महावीर स्वामी अपने राज भवन के संकुल और · अलक्ष्य रास्ते से निकल कर धरती की पगडंडियों की। कहा गया है। रागादिक की उत्पत्ति होना हिंसा है, __ऐसा जिनदेव ने निर्देश किया है। प्रोर बढ़े और धरती की पगडंडी पर जनसाधारण के पादोसिय अधिकरणिय कायिय परिदावणाबीच मानव-मात्र के जीवन को मोक्ष गति प्राप्ति के लिए मनुष्यों के हृदय में प्रेम जल बिन्दु गिराई, दिवादाए। स्नेहसिक्त वाणी का रस बरसाया। महावीर एदें पंचपोगा किरियानों होंति हिंसायो । स्वामी परमार्थ साधन के लिए प्राकुल नहीं थे, वे -भगवती पाराधना, 807 प्राणी और उनके मोक्ष; कल्याण के लिए तड़फड़ा द्वेष करना हिंसा के उपकरणों को ग्रहण रहे थे उनके हृदय में एक टीस थी, वेदना थी, करना, दुष्ट भाव से शरीर की क्रिया करना, दुःख , उत्पीड़न था और इन सबका हल खोज निकालने देने के लिए क्रिया करना, प्राणों (पायु, इन्द्रिय, के लिए उन्होंने अपना एकान्त जीवन अपनाया, बल, श्वास) का घात करना, इन पांच प्रकार के कठिन तपस्या की । कई दिनों तक कठिन तपस्या प्रयोगों को हिंसा की क्रिया कहते हैं । करने के पश्चात भी उनके दिव्य ललाट, विशाल , नेत्र, मुख की कांति और प्राभा मण्डल में मलीनता हिंसा मानव जीवन के कल्याण में एक समस्या .. दृष्टिगोचर नहीं हुई । उनके शरीर के अवयवों में है। जब तक शांति प्राप्त नहीं होती तब तक थकान का प्राभास तक नहीं हुआ। उनके दैनिक कल्याण होना असम्भव है और शांति तब तक ही जीवन में किसी प्रकार का व्यवधान भी उपस्थित मिलती है जब तक कि हिंसा रूपी द्वन्द्व प्रात्मा नहीं मा। उपरोक्त विशेषताओं के कारण उनकी सन निकल जाय। ध्यान और समत्व योग की साधना निरन्तर निर्मल महावीर स्वामी ने समस्त प्राणियों को अभय और पवित्र होती चली गई। वरदान दिया व कहा कि पृथ्वी के समस्त प्राणियों महावीर स्वामी ने अपने उपदेशों में "अहिंसा को अपना जीवन यापन करने का अधिकार है, 1-34 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TTE - स उस जागा कामा मनभव.हाताह.ज किंतु वे सही प्राचरण, सम्यग्दर्शन और अहिंसा का मैं आप लोगों से विश्वासपूर्वक कहता है कि पालन करते हुए जीवन व्यतीत करे। महावीर स्वामी का नाम इस समय यदि किसी सिद्धान्त के लिये पूजा जाता है तो वह अहिंसा ही अहिंसा के अन्तर्गत महावीर स्वामी ने स्पष्ट है। प्रत्येक धर्म को उच्चता इसी बात में है कि उस किया है कि अगर कोई व्यक्ति किसी प्राणी को भी धर्म में अहिंसा तत्व की प्रधानता हो । अहिंसा तत्व सताता है तो वह हिंसा का कार्य करता है, क्योंकि को यदि किसी ने अधिक विकसित किया है, तो वे जिस प्रकार हमारे जीव को घातक प्रहार से या महावीर स्वामी थे। किसी चोट से तो दुःख का अनुभव होता है वही दुख उस प्राणी को भी प्र --महात्मागांधी (तीर्थकर महावीर) प्रकार हमें होता है। अहिंसा जैन धर्म का मुख्य सिद्धान्त है। भगवान श्री महावीर के अमर सन्देश को प्रचारित यथा-- करने की अावश्यकता है-विशेष रूप से ऐसे समय "सव्वेसि जीवियं प्रियं" में जब समस्याओं का समाधान हिंसा से किया --पाचारांग सूत्र, 2,2,3 जाता हो। सभी को अपना जीवन प्रिय लगता है। "प्राय तुले प्रयासु" -के०के० शाह, राज्यपाल तमिलनाडू -सूत्रकृतांग सूत्र 1,11,3 (तीर्थङ्कर महावीर) सभी प्राणियों को अपने समान समझों। भगवान महावीर महाविजेता थे। उन्होंने "तथिमं पढमं ठाणं, महावीरेण देसियं ॥ सिखाया कि अपने से लड़ो, दूसरों से नहीं, अपने अहिंसा निउणं दिठ्ठा, सव्वभूएसु संजमो॥ अन्तस् को टटोलों, दूसरों का नहीं. अात्मविजय दशवै कालिक सूत्र 6,8 प्राप्त करो, द्वेष से नहीं दोस्ती से, हिंसा से नहीं, तीर्थकर महावीर ने सभी धर्मस्थानों में प्रथम अहिंसा से, दूसरे भी उतने ही सत्य है, जितना कि अहिंसा का उपदेश दिया। सब जीवों पर संयम अपना । भगवान महावीर ने हमें यह सिखाया है. रखना अहिंसा है। और भारतीय सभ्यता की हमेशा से यही सबसे बड़ी उपनिषद्कालीन लोगों की यह मान्यता थी देन रही है--सहना यानि सहिष्णुता । । कि धर्म का वास्तविक सूक्ष्म तत्व, यज्ञवाद अथवा - श्रीमती इन्दिरा गांधी पशु हिंसा से प्राप्त नहीं हो सकता। सम्पूर्ण सृष्टि (तीर्थङ्कर महावीर) ब्रह्म से व्याप्त है और "जड़" तथा "चेतन" सभी इस प्रकार तीर्थङ्कर बनना मामूली बात नहीं के भीतर एक ही सत्ता निवास करती है । इस हैं। भगवान महावीर ने अपने जीवन में अहिंसा धारणा के प्रचार प्रसार से सामान्य लोगों में को उतारा था इसलिए जगत् के लोग उनसे प्रत्यन्त हिंसा की भावना कम होने लगी और वे यह प्रभावित हए-और उनके उपदेशों के प्रभाव से स्वीकार करने लगे कि मनुष्य की भांति ही उनके प्राह्वान पर एकत्रित हुए। पशु-पक्षी प्रौर पेड़-पौधे भी हिंसा नहीं "अहिंसा" यदि मानव अपना मोक्ष व कल्याण चाहता प्रेम और प्रादर के अधिकारी है । है और इस लोक व परलोक में सुख से जीवन अहिंसा के सम्बन्ध में कुछ विद्वानों की मान्यता यापन करना है तो प्राणी मात्र को अपने समान इस प्रकार है :-- समझें, अपने स्वार्थलोलुपता में किसी अन्य प्राणी के महावीर जयन्ती स्मारिका 77 1-35 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिए घातक बनना एक पाप व अधर्म माना अच्छा होगा। इस प्रकार जन्म-जन्मातर तक गया है। साधना करते-करते उसको मोक्ष प्राप्त हो जायगा। मनुष्य का सर्वोच्च लक्ष्य मोक्ष प्राप्त करना इस सम्बन्ध में यहां यह उल्लेखनीय है :-- है क्योंकि मोक्ष मिलने पर ही मनुष्य जन्म और जइ मज्झ काररणा एए, हम्मंति सुबहू जिया । मृत्यु के बन्धन से मुक्त हो सकता है। मनुष्य का न मे एयं तु निस्सेसं परलोगे भविस्सई ॥ प्रयत्न यह होना चाहिये कि उसे पुनः जन्म धारण --उत्तराध्ययन सूत्र 22, 19 नहीं करना पड़े क्योंकि बार-बार जन्म धारण करने से मनुष्य अनेकानेक कष्टों का भागी होता है । यदि मेरे कारण से जीवों का घात होता है, तो यह इस लोक और परलोक के लिए किवित उपनिषदों के अनुसार मोक्ष का सिद्धांत श्रेयस्कर नहीं है। निरूपित करने में बार-बार जीवन के दुःखमय होने की बात कही गयी है, इसलिये तात्कालीन समाज न हु पाणवहं अणुजाणे, में एक प्रकार के निराशावाद की भावना का प्रसार मुच्चेज्ज कयाई सव्वदुक्खाणं । होने लगा और लोग जीवन में उस उत्साह को --उत्तराध्ययन सूत्र 8, 8 खोने लगे जो वेदकालीन लोगों की प्रमुख विशेषता थी। उपनिषदों ने सन्यास और वैराग्य की भावना प्राणियों के वध का अनुमोदन करने वाला को प्रेरित किया। अतएव पहले जहां लोग मनुष्य कभी भी सब तरह के दु.खों से नहीं छूट सांसारिक सुखों के यो के लिये डट कर परिश्रम सकता । करने में प्रानन्द मनाते थे कहां प्रब गृहस्थाश्रम को जैन धर्म की प्रमुख विशेषता अहिंसा ही मानी छोड़ कर असमय ही वैराग्य और सन्यास धारण गई है। यही अहिंसा विश्व में शांति स्थापित करती करने लगे। है। यही अहिंसा विश्व में मैत्रिक सम्बन्ध परिग्रह से मानव जीवन का निर्वाह गतिशील स्थापित करती है। जीव मात्र के प्रति सतत रहता है, इसके प्रभाव में मानव जीवन की सहयोग की प्रेरणा देती है। इसी के प्राधार पर जीव अपने अच्छे बुरे कर्मों के अनुसार ही सुख व दैनिकोपयोगी वस्तुएं जुटाना एक समस्या बन जाती है। परिग्रह प्रत्येक मनुष्य के लिये अत्यन्त दुःख को भोगता रहता है । अहिंसा के आधार पर प्रावश्यक है चाहे व गरीब हो या अमीर, किन्तु मानव स्वावलम्बी बनता है । स्वतंत्रता का अनुभव आवश्यकता से अधिक परिग्रह एक ही स्थान पर करता है, और उसे अहिंसा के माध्यम से ही स्थिर रह जाता है तो उससे एक और हिंसा का प्रात्मिक शांति प्राप्त होती है। जन्म धीरे-धीरे होने लगता है, और वहीं दूसरी ओर उपनिषदों के अनुसार भी कर्म-फलवाद सामान्य जन-साधारण के लिये एक समस्या सिद्धांत यही है । मनुष्य जिस प्रकार का कर्म करता उत्पन्न हो जाती है। है उसे उसके अनुसार परिणाम भुगतना ही इस सम्बन्ध में यहां यह उल्लिखित है-- पड़ते हैं । अत: मनुष्य से यह अपेक्षा की गई हैं कि "अपरिग्गहो अरिगच्छे'-समयसार, 212 वह अपने कर्मों को सुधारे ताकि उसका अगला इच्छा रहित होना अपरिग्रह है। जन्म अच्छा हो । जब दूसरे जन्म में वह अच्छे कर्म "अप्पारणमणो परिग्गहें"-समयसार, 207 करेगा तो उसका अगला तीसरा जन्म भोर भी वास्तव में प्रात्मा ही अपना परिग्रह है। 1-36 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 www.jainelibrary.o Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "बहुंपि लघटुजन निहे" कम हों। मनुष्य समाजवाद में समान होता है। -ग्राचारांग 0,1,2,5 दम पर इस प्रकार अपरिग्रह और समाजवाद का अटूट और अधिक मिलने पर भी संग्रह न करें। सम्बन्ध है। -मोरारजी देसाई (तीर्थंकर महावीर) "वियारिणयादु क्खबिवध्दणं धणं" -उत्तर ध्ययन सूत्र 19,98 ग्राज जितने भी वाद जैसे समाजवाद, साम्य. धन दुःख बढ़ाने वाला है। वाद निरतिवाद और स्वतन्त्रवाद मादि का जो "जेरण सिया तेण णो सिया" प्रभाव दिखाई पड़ता है इन सब वादों के जन्म की -प्राचारांग सूत्र--1, 2, 4, प्राधारशिला महावीर स्वामी द्वारा दिये गये तुम जिन वस्तुओं से सुख की अभिलाषा करते हो, उपदेश ही है। जिनमें अहिंसा, अपरिग्रह सत्य वास्तव में वे सुखदायक नहीं है। ब्रह्मचर्य आदि जितने भी उपदेश महावीर स्वामी ने दिये हैं। उन सभी को मानव जीवन में उतारने की परिग्रह का चक्र समाज और देश में समान परम प्रावश्यकता है, तभी इन उपदेशों की सार्थकता रूप से घूमता रहना चाहिये । तब तक यह चक्र सिद्ध हो सकती है, जिन मनुष्यों ने इनको अपने लोगों के बीच समानता का रूप लेकर दौडता जीवन में उतार लिया है, उन्हें प्रनन्त प्रानन्द, रहता है, तब तक सभी मनुष्यों की आवश्यकताओं सुख, सन्तोष पोर शान्ति की विपुल उपलब्धि की पूर्ति बराबर नियमित रूप से होती चली जाती है. किन्तु स्थिति इसके एक दम विपरीत हो गई तो अन्य लोगों को कठिनाई का अनुभव होगा और जीवन के चरम लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अपरिग्रह का निर्माण हो जावेगा। प्रत्येक मनुष्य को जीवन में भगवान महावीर स्वामी द्वारा दिये गये उपदेशों को सही-सही पालन कर ऐसी स्थिति को दृष्टिगत रखते हुए मानव को उतारना प्रावश्यक हैं। परिग्रह की एक सुनिश्चित सीमा निर्धारित कर लेना चहिये, जब तब तक सीमा निर्धारित ____ भगवान महावीर स्वामी का 2500 वां होगी, तब तक संतोष, शांति का प्राप्त होना दुर्लभ निर्वाण महोत्सव सम्पूर्ण) भारत के सर्वत्र कोनेहै । अहिंसा का तात्पर्य मानव कल्याण, अन्य कोने में अत्यन्त उल्लास के साथ मनाया गया प्राणियों को सुख शांति देना है । सम त अहिंसा के जिस में हर मनुष्य को सहयोगात्मक भावना उपासकों के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि वे दिखाई देती है । भगवान महावीर स्वामी तीर्थकरों परिग्रह की सीमा निर्धारित करें। की श्रेणी में इस युग के 24 वें तीर्थंकर के पद अपरिग्रह के सिद्धान्त समाजवाद से भी आगे पर पदासीन हुए थे। उनके जन्म के समय सम्पूर्ण हैं। जहां समाजवाद की सीमा है, उस से प्रागे भारत अलग-अलग राज्यों में विभाजित हुमा पड़ा अपरिग्रह है। समाजवाद अपरिग्रह में ही निहित था जिनमें अनेक राजा महाराजा अपने राज्यों का है । अपरिग्रह का लक्ष्य भगवान व मनुष्य को एक संचालन करते और मनमाना अत्याचार, बलिदान बनाना है। धर्म क्या है ? धर्म एक है। मानव धर्म और व्यभिचार किया करते थे। भगवान महावीर है कि मनुष्य मनुष्य का शोषण न करे, समाज में स्वामी ने इनके चरित्र व इस कुकृत्य को प्रधर्म ऊंच-नीच का भेद न हो। प्राथिक असमानताएं बता कर जनता को समझाया और उपदेश दिए। महावीर जयन्ती स्मारिका 77 1-37 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राज उन्हीं के दिये हुए उपदेशों को सही रूप वासियों को पुनर्जन्म एवं कर्म सिद्धान्त को शिक्षा में समस्त मनुष्य मान कर अपने जीवन में उतारें, दी थी और उन्हें बताया था कि वनस्पति में भी तथा उसका उचित पालन भी करें। इसी पुण्यवेला जीव होते हैं, इसलिये हिंसा और मांसाहार से दर में हम मानव जगत् के प्राणियों के लिए सुवर्ण रहना चाहिये । स्वयं पेथागोरस जैनों की भांति अवसर प्राप्त हमा जिससे हम प्रात्मा को परखें, हिसा धर्म का पालन करता था और कई अभक्ष्य आत्म निरीक्षण करें और यह अनुमान लगा कि शाक-सब्जियों का भोजन नहीं करता था। यूनान प्रभी तक वास्तव में सही रूप में भगवान महावीर के राजा डेमेट्रियर्स तीर्थकर महावीर स्वामी के अनन्य स्वामी के उपदेशों, सिद्धान्तों का समावेश हमारे भक्त थे। उन्होंने प्रात्मध्यान की साधना के लिये जीवन में हो पाया है अथवा नहीं, या उनसे हट अपने यहां भगवान महावीर की मूर्ति की स्थापना कर भ्रष्ट तो नहीं हो गये हैं और ऐसा कर सिद्धांत की थी । फिलिस्तीन के महात्मा मूसा के जीवन के कितने परे गर्त में हैं। इस तथ्य का निरूपण पर भी तीर्थकर महावीर की शिक्षाओं का प्रभाव प्रात्म-ज्योति प्रज्ज्वलित कर अवलोकन करते हैं बताया जाता है। उनका अहिंसा का सन्देश ईरान और एक अनुमान प्रांकते हैं कि अभी तक कितनी से आगे फिलिस्तीन, मिस्र और यूनान तक पहुंच स्वस्थता, सिदान्तों और उपदेशों के आधार पर गया था। फिलिस्तीन एस्सेन लोग कदर महिंसा. प्राप्त की है। जीवन के कितने विकारों, हिंसा को वादी थे। मिस्र में शाकाहार का प्रचलन था। 81 त्याग दिया है। ई० में भृगुकच्छ के श्रमणाचार्य ने स्थेन्स में पहुंच ___ इस प्रकार भगवान महावीर स्वामी के सिद्धांतों कर अहिंसा धर्म का प्रचार किया था ।' कहा व उपदेशों से मानव जीवन और समाज तथा देश जाता है कि 892-999 ई० तक अफगानिस्तान के में स्वस्थता का निर्माण हो तो, एक स्वस्थ समा- राज्य सिंहासन पर समनीडेस नामक राजा ने नता देश में स्थिर होगी जिससे असामाजिकता का शासन किया था, जो जैन धर्मावलम्बी था। भगवान् जन्म नहीं हो सकेगा और समाजवाद का निर्माण महावीर के युग में पारस देश का भारतवर्ष से प्रासान हो सकेगा। अत्यन्त घनिष्ठ सम्बन्ध था। ईरान के इतिहास तीर्थकर महावीर के उपदेश केवल भारतवर्ष प्रसिद्ध सम्राट कुरूष का पुत्र राजकुमार प्राद्रंक में ही नहीं अपितु देश-देशान्तरों में भी अलख (उद्देइज्ज) तीर्थंकर महावीर का अनुयायी था। ज्योति प्रकाशित कर रहे थे। 580 ई० में उत्पन्न उसने भगवान महावीर के पास आकर प्रव्रज्या यूनानी दार्शनिक विद्वान पेथागोरस ने भगवान धारण की थी। उस युग में ईरान में अहिंसा और महावीर के सिद्धान्तों से प्रभावित होकर अपने देश- अपरिग्रह का व्यापक प्रचार था। 1. एच० जी० रॉलिन्सन : इण्डिया इन युरोपियन लिटरेचर एण्ड थाट्स, पृ० 5 2. डा० कामताप्रसाद जैन : तीर्थकर भगवान महावीर और प्राधुनिक युग में उनकी शिक्षा का महत्व पृ० 12 1-38 महावीर जयन्ती स्मारिका 17 Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वारणी में स्याद्वाद और विचारों में अनेकान्तता जैन दर्शन को अपनी एक विशेषता है। विद्वान् लेखक ने प्राधुनिक त्रिमूल्यात्मक तर्कशास्त्र की त्रयी. निश्चितता, सम्भाव्यता असम्भाव्यता की तुलना जैन दर्शन की त्रयी-प्रमाण, नय तथा दुर्नय से करते हुए उनके साम्य और वैषभ्य को विशदतापूर्वक स्पष्ट किया है । निबन्ध परिश्रमपूर्वक लिखा गया है तथा स्याद्वाद और अनेकान्त के सम्बन्ध में कई नई उद्भावनाए करता है । प्र० सम्पादक सप्तभंगी, प्रतीकात्मक और त्रिमूल्यात्मक, तर्कशास्त्र के सन्दर्भ में .. * डा० सागरमल जैन, भोपाल (म०प्र०) अनेकान्त, स्याद्वाद, नयवाद और सप्तभंग एक है। हमारी भाषा विधि-निषेध की सीमात्रों से दूसरे से इतने घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित हैं कि उन्हें घिरी हुई है "है" और "नहीं है" हमारे कथनों के प्रायः समानार्थक मान लिया जाता है, जबकि उनमें दो प्रारूप है किन्तु कभी-कभी हम अपनी बात को अाधारभूत भिन्नताए हैं, जिनकी अवहेलना करने स्पष्टतया "है" (विधि) और "नहीं है" (निषेध) पर अनेक भ्रान्तियों का जन्म होता है। अनेकान्त की भाषा में प्रस्तुत करने में असमर्थ होते हैं अर्थात् वस्तुतत्व की अनन्त धर्मात्मकता का सूचक है तो सीमित शब्दावली की यह भाषा हमारी अनुभूति स्याद्वार ज्ञान की सापेक्षिकता एवं उसके को प्रकट करने में असमर्थ होती है. ऐसी स्थिति में विविध आयामों का । अनेकान्त का सम्बन्ध तत्व हम तीसरे विकल्प अवाच्य या प्रवक्तव्य का सहारा मीमांसा है, तो स्याद्वाद का सम्बन्ध ज्ञान मीमांसा। लेते हैं अर्थात् शब्दों के माध्यम से "है" और "नहीं जहां तक सप्तभंगी पौर नयवाद का प्रश्न है, है" की भाषायी सीमा में बांधकर उसे कहा नहीं सप्तभंगी अनेकान्तिक वस्तु तत्व के सापेक्षिक ज्ञान जा सकता है। इस प्रकार विधि, निषेध और की निर्दोष भाषायी अभिव्यक्ति का ढंग है, तो प्रवक्तव्य सम्बन्धी भाषायी अभिव्यक्ति के तीन नयवाद कथन को अपने यथोचित सन्दर्भ में समझने मूलभूत प्रारूपों और गणित शास्त्र के संयोग नियम या समज्ञान की एक दृष्टि है। प्रस्तुत निबन्ध में (Law of Combination) से बनने वाले उनके हमारा उद्देश्य केवल प्रतीकात्मक और त्रिमूल्यात्मक सम्भावित संयोगों के आधार पर सप्तभंगी के स्यात् तर्कशास्त्र के सन्दर्भ में सप्तभंगी की समीक्षा तक अस्ति, स्यात् नास्ति आदि भंगों का निर्माण किया सीमित है अतः इन सब प्रश्नों पर विस्तृत विवेचना गया है किन्तु उसका प्राण तो स्यात् शब्द की यहां सम्भव नहीं है । सप्तभंगी स्याद्वाद की भाषायी योजना में ही है । मतः सप्तभंगी सम्यक् अर्थ को अभिव्यक्ति के सामान्य विकलों को प्रस्तुत करती समझने के लिए सबसे पहले स्यात् शब्द के महावीर जयन्ती स्मारिका 77 1-39 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वास्तविक अर्थ और उद्देश्य का निश्चय करना ग्रहण किया जा सकता है अत: कथन को अधिक होगा। निश्चयात्मकता प्रदान करने के लिए सप्तभंगी में स्यात् के साथ "एव" शब्द के प्रयोग की योजना स्यात् शब्द का अर्थ विश्लेषण : भी की। जैसे-स्यादस्त्येव घट:। यद्यपि "एव" सप्तभंगी के प्रत्येक भंग के प्रारम्भ में प्रयुक्त शब्द का यह प्रयोग अनेकान्तिक सामान्य वाक्य को होने वाले स्यात् शब्द के अर्थ के सन्दर्भ में जितनी सम्यक् ऐकान्तिक विशेष वाक्य के रूप में परिणत भ्रान्ति दार्शनिकों में रही है, सम्भवतः उतनी अन्य कर देता है। फिर भी इतना तो सुनिश्चित है कि किसी शब्द के सम्बन्ध में नहीं है । संस्कृत भाषा में जैन तर्कशास्त्र में स्यात् शब्द का प्रयोग अनिश्चयास्यात् शब्द का प्रयोग अनेक रूपों में मिलता है। स्मक या संशयपरक अर्थ में न होकर विशिष्ट कहीं विधि लिंग की क्रिया के रूप में तो कहीं प्रश्न पारिभाषिक अर्थ में ही हुआ है। किन्तु यह विशिष्ट के रूप में और कहीं उसका प्रयोग कथन की ___ अर्थ क्या है ? सर्वप्रथम जैसा कि सभी प्राचीन अनिश्चयात्मकता की अभिव्यक्ति करने के लिए भी जैन प्राचार्यों ने बताया है कि स्यात् यह "निपात" होता है । इन्हीं प्राधारों पर विद्वानों ने स्यात् शब्द शब्द वाक्य में अनेकान्तता का द्योतक है। (वाक्येके हिन्दी भाषा में "शायद", "सम्भवतः", "कदा- वनेकान्तद्योती'-प्राप्त मीमांसा 103)। फिर भी चित्' और अंग्रेजी भाषा में Sime, how, May हमें यह स्पष्ट करना होगा कि वाक्य के उद्देश्य, be, Probable प्रादि प्रनिश्चयात्मक एव संशय विधेय आदि विभिन्न अंगों के सम्बन्ध में उसके परक अर्थ किये हैं । यद्यपि यह सही है कि किन्हीं अनेकान्तद्योती होने का क्या तात्पर्य है ? मेरी दृष्टि सन्दर्भो में स्यात् शब्द का अर्थ कदाचित्, शायद, में स्यात् शब्द के एक होते हुए भी वह वाक्य के सम्भवतया आदि होता है किन्तु मूल प्रश्न यह है उद्देश्य. विधेय और क्रिया (संयोजक) के सन्दर्भ में कि क्या जैन विचारकों ने उसका इस अर्थ में प्रयोग अलग-अलग तीन अर्ज देता है। जिनका स्पष्टीकरण किया है ? सर्व प्रथम तो हमें यह जान लेना प्रावश्यक है । यदि हम स्यात् शब्द के बाद के कथन चाहिए कि जैन परम्परा में अनेक शब्दों का प्रयोग को कोष्टक में रख दें, तो यह बात अधिक स्पष्ट उनके प्रचलित अर्थ में न होकर विशिष्ट पारिभा- हो जायगी जैसे 'स्यात् (प्रात्मा नित्य है। क्योंकि षिक अर्थों में हुअा है, उदाहरण के लिए धर्म शब्द सप्तभंगी के कथनों का पूर्ण बल तो स्यात शब्द की का धर्म द्रव्य के रूप में प्रयोग । यदि विद्वानों ने योजना में है।" अब कोष्टक हटाने पर इसका रूप जैन परम्परा के मूल ग्रन्थों को देखने का प्रयास होगा स्यात् प्रात्मा स्यात् नित्य स्यात् है (अस्ति)। किया होता तो उन्हें यह स्पष्ट हो जाता कि जैन अब हम देखें कि स्यात प्रात्मा. स्यात नित्य और परम्परा में 'स्यात्' शब्द का क्या अर्थ है। समंत- स्यात् मस्ति में प्रत्येक के साथ लगा हुआ स्यात् भद्र, अमृतचन्द्र, मल्लिषेण आदि सभी जैन दार्शनिकों क्या अर्थ देता है। ने स्यात् शब्द को अनेकान्तता का द्योतक, विवक्षा या अपेक्षा का सूचक तथा कथंचित् अर्थ का स्यात् शब्द क्रिया या संयोजक के सन्दर्भ में प्रतिपादक माना है । इस प्रकार यह बात स्पष्ट हो अनेकान्तिकता का सूचक नहीं है क्योंकि अनेकान्तिक जाती है कि जैन दार्शनिकों ने स्यात् शब्द का क्रिया तो अनिश्चय या संशय को ही व्यक्त करेगी। संशय परक एवं प्रनिश्चयात्मक अर्थ में प्रयोग नहीं स्यात् को 'होना' क्रिया का रूप अथवा अनिश्चय किया है। मात्र इतना ही नहीं वे इस सम्बन्ध में सूचक क्रिया विश्लेषण मानने के कारण ही स्याद्वाद भी सजग थे कि स्यात् शब्द का संशयपरक अर्थ को अनिश्चयवाद, संशयवाद या प्रात्मविरोधी 1-40 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्त समझने की भूल की जाती रही है । वस्तुतः दूसरे यह कि वाक्य या कथन अनेकान्तिक नहीं क्रिया के सम्बन्ध में उसका अर्थ इतना ही है कि होता अपितु वस्तुतत्व एवं उसका ज्ञान भनेकान्तिक विधान या निषेध निरपेक्ष रूप से नहीं हुआ है होता है । कोई भी कथन नय या विवक्षा से रहित अर्थात् अन्य अनुक्त एवं प्रव्यक्त धर्मों का निषेध नहीं होता। अत: प्रत्येक कथन ऐकान्तिक होता है । नहीं हुअा है। यहां उसका अर्थ है पविरोध पूर्वक वह सम्यक् एकान्त होता है। कथन केवल प्रविरोधी कथन । जिसे हम हिन्दी भाषा में भी शब्द से लक्षित एवं सापेक्षक होते हैं अनेकान्तिक नहीं। कर सकते हैं। अत: क्रिया के सम्बन्ध से स्यात का अर्थ है प्रविरोधी और सापेक्ष कथन । विधेय पद के यदि हम स्यात् को कथन की अनेकान्तता का सम्बन्ध में स्यात् शब्द का अर्थ होगा 'अनेक में एक' सूचक भी मानें तो यहां कथन की अनेकान्तता से अर्थात् कथित विधेय उद्देश्य के अनेक सम्भावित हमारा तात्पर्य मात्र इतना ही होगा कि वह विधेयों में एक है। जब हम यह कहते हैं कि स्यात् (स्यात) वस्तुत्व (उद्देश्यपद) की अनन्तधर्मात्मकता डा शिशिर ऋतु का बना हमा है, तो हमारा को दृष्टि में रखकर उसके अनुक्त एवं प्रव्यक्त प्राशय यह होता है कि घडे के सम्बन्ध में जिस धर्मों का निषेध नहीं करते हुए निश्चयात्मक ढंग से अनेक विधेयों का विधान या निषेध किया जा किसी एक विधेय का सापेक्षित रूप में किया गया सकता है उसमें यहां एक विधेय शिशिर ऋतु का विधान या निषेध है।' किन्तु यदि कथन की इसका विधान किया गया है। एक अनेकान्तता से हमारा प्राशय यह हो कि वह उद्देश्य तकं वाक्य में एक ही विधेय का विधान या निषेध पद के सन्दर्भ में एक ही साथ एकाधिक परस्पर होता है । यदि हम एकाधिक विधेयों का विधान या विरोधी विधेयों का विधान या निषेध है अथवा निषेध करते हैं तो ऐसी अवस्था में वह एक तर्क किसी एक विधेय का एक ही साथ विधान और वाक्य न होकर, जितने विधेय होते हैं, उतने ही तर्क निषेध दोनों ही है तो यह धारणा भ्रान्त है और वाक्य होता है। उद्देश्यपद अर्थात् वह वस्तुत्व, जैन दार्शनिकों को स्वीकार्य नहीं है। इस प्रकार जिसके सन्दर्भ में विधेय का विधान या निषेध किया स्यात् शब्द की योजना के तीन कार्य है, एक कथन जा रहा है. के सम्बन्ध में स्यात् शब्द अनन्त धर्मा- या तर्क वाक्य के उद्देश्य पद की अनन्त धर्मात्मस्मकता का सचक है। इस प्रकार स्यात् शब्द कता को सचित करना, दूसरा विधेय को सीमित उद्देश्य की अनन्त धर्मात्मकता का, विधेय के अनेक या विशेष करना और तीसरे कथन का सोपाधिक में एक होने का तथा क्रिया के अविरोधी और कथन (Conditional) एवं सापेक्ष (Relative) बनाना के सापेक्षिक होने का सूचक है । इस प्रकार प्रत्येक है। यद्यपि जैन ताकिकों ने स्यात् शब्द के इन प्रर्थों सन्दर्भ में उसके अलग अलग कार्य हैं। वह उद्देश्य को इंगित अवश्य किया है तथापि इसमें अपेक्षित के सामान्यत्व (व्यापकता) विधेय के विशेषत्व स्पष्टता नहीं आ पायी क्योंकि दोनों के लिए एक और क्रिया के सापेक्षत्व का सूचक है। यद्यपि ही शब्द प्रतीक स्यात् का प्रयोग किया गया था । प्राचार्य समन्तभद्र ने वाक्येषु शब्द का जो प्रयोग स्यात् को अनेकान्तता के द्योतक के साथ-साथ किया है उसके प्राधार पर कोई यह कह सकता है विवक्षित अर्थ का विशेषण (गम्यं प्रति विशेषणकि स्यात् शब्द को कथन की अनेकान्तता का प्राप्त मीमांसा 103) एवं कथंचित् अर्थ का प्रति. द्योतक क्यों नहीं माना जाता । मेरा विनम्र निवेदन पादक (कथंचिदर्थ स्यात् शब्दो निपात:-पंचास्तियह है कि प्रथम तो ऐसी स्थिति में "वाक्येषु" के काय टीका) भी माना गया है । प्रतः उपरोक्त स्थान पर "वाक्यस्य" ऐसा प्रयोग होना था। विवेचना प्रप्रामाणिक एवं प्राचीन ग्रन्थों के आधार महावीर जयन्ती स्मारिका 77 1-41 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से रहित नहीं है । साथ ही वह कथन की सौपा- 1976 में प्रस्तुत किया था। मैं भी यहां इस प्रश्न धिकता एवं सापेक्षता का भी सूचक है। अनेकान्त पर गम्भीर विचार तो प्रस्तुत नही करूगा केवल का द्योतक होना एवं कथंचित् 'अर्थ का प्रतिपादक होना यह दो भिन्न-भिन्न बातें हैं। अनेकान्त का मात्र निर्देशात्मक रूप में कुछ बातें कहना चाहूंगा। द्योतक होना यह कथन के उद्देश्य को सामान्य रूप वस्तुतः कथन में स्यात् शब्द की योजना को स्पष्ट से उसके पूर्ण परिप्रेक्ष्य में ग्रहण करने का सचक प्रयोजन यह है कि हमारा कथन वस्तु के अनूवत और है जबकि कथंचित् अर्थ का प्रतिपादक होना यह अव्यक्त धर्मों का निषेधक न बने । यहां पर अनुक्त कथन के विधेय को सीमित विशेष या माँशिक रूप और अव्यक्त इन दोनों के अर्थों का स्पष्टीकरण से ग्रहण करने का सूचक है । स्यात् शब्द उद्देश्य आवश्यक है। अनुक्त धर्म वे हैं, जो व्यक्त तो है को तो व्यापक परिप्रेक्ष्य में ग्रहण करता है किन्तु किन्तु जिनका कथन नहीं किया जा रहा हैं, जब कि स्यात् के साथ 'अस्ति' तथा एवं' शब्द की जबकि अध्यक्त धर्म में वे है जो सत्ता में तो है किन्तुं जो योजना की जाती है तो वह विषय को प्रांशिक अभिव्यक्त नहीं हो पाये हैं जैसे बीज में वृक्ष की रूप से ही ग्रहण कर पाती है (स्याच्छष्दादप्यनेकान्त सम्भाव्यता का धर्म । जैन परम्परा की भाषा में सामान्यस्य विबोधते शब्दान्तर प्रयोगोऽत्र विशेष इन्हें वस्तु की भावी पर्याय भी कहा जा सकता है । प्रतिपत्तये-श्लोकवार्तिक 55)। स्यात् शब्द के भगवतीसूत्र में निश्चय और व्यवहार नयों की इन भिन्न भिन्न अर्थों की स्पष्टता पर मैं इसलिए चर्चा के प्रसंग में महावीर ने यह स्पष्ट किया है बल देना चाहता हूँ ताकि इन अलग अर्थों के कि वस्तु में प्रकट एवं दृश्यमान धर्मों के साथ आधार पर खड़ी हुई प्रमाण सप्तभंगी और नय । सो अव्यक्त एवं गौ धर्मों की सत्ता भी होती है । सप्तभगी की भिन्नता को ठीक से समझा जा सके। यदि स्यात् शब्द की योजना का उद्देश्य केवल प्रमारण सप्तभंगी उद्देश्य की अनन्त धर्मात्मकता कथन में अनुक्त धर्मों का निषेध न हो, इतना ही पर बल देती हैं जबकि नय सप्तभंगी विधेय की होता तब तो उसे सम्भाव्यता के प्रथ' में ग्रहण सीमितता एवं कथन की सापेक्षता पर बल देती है। करना आवश्यक नहीं था किन्तु यदि स्यात् शब्द इस पर हम आमे विचार करेंगे। के कथन में अव्यक्त धर्मों की सत्ता का भी सूचक है क्या स्यात् प्रसंभाव्यता (Possibility) का सूचक तो प्रसम्भाव्यता के प्रय' में गृहीत किया जा सकता है। किन्तु हमें यह स्पष्ट रूप से ध्यान रखना चाहिए कि अाकस्मिकता एवं अकारणता सम्बन्धी सम्भामाधुनिक त्रिमूल्यात्मक तर्क शास्त्र के प्रभाव वनाएं जैन दर्शन में स्वीकार्य नहीं हैं क्योकि वह के कारण यह प्रश्न उठा है कि स्यात् शब्द को इस असत् से सत् की सम्भावना को स्वीकार नहीं सम्भाव्यता के अर्थ में ग्रहण किया जा सकता है करता है । यदि सम्भावना का अर्थ' 'जो असत् था यद्यपि अाधुनिक विचार सम्भाव्यता को उस उसका सत्ता में पाना है तो ऐसी सम्भाव्यता को अनिश्चयात्मक एवं संशयपरक अर्थ में नहीं लेते हैं व्यक्त करना स्यात् शब्द का प्रयोजन नहीं है । जैन जैसा कि प्रायः पहले उसे लिया जाता था । पूना दर्शन जिन सम्भाव्यताओं को स्वीकार करता है वे विश्वविद्यालय के डा. बारलिंगे एवं डा. मराठे हैं ज्ञान सम्बन्धी सम्भावनाए जैसे वस्तु का जो ऐसा सोचते हैं कि स्यात्-सम्भाव्यता का सूचक है। गुण अाज हमें ज्ञात नहीं है वह कल ज्ञात हो डा. मराठे ने तो इस सम्बन्ध में एक निबन्ध पूना सकता है, क्षमता सम्बन्धी सम्भावनाए जैसे जोक विश्वविद्यालय को जैनदर्शन सम्बन्धी संगोष्ठी (सन में पूर्ण क्षमता है और अभिव्यक्ति या भावी पर्याय 1-42 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्बन्धी सम्भावनाएं जैसे मनुष्य पशु बन सकता - कथन की सापेक्षिकता का सूचक है और अस्ति एवं है । सप्तभंगी में स्यात् शब्द की योजना का उद्देश्य यही है कि वस्तुतत्व के जिन धर्मों को हम नहीं जान पाये अथवा वस्तुतत्व के धर्म सत्ता में तो हैं किन्तु प्रकट नहीं हैं अथवा वस्तुत्व की जो जो भावी पर्यायें अभी अस्तित्व में न प्रापायी हैं, हमारा कथन उनका निषेधक न हो स्यात् एक प्रतीक के रूप में वस्तुतः जैन श्राचार्यों ने स्यात् का प्रयोग एक ऐसे प्रतीक के रूप में किया है जो कथन को प्रांत और सत्य बना सके । कहा भी है- स्यात्कारः सत्यलांछन-अर्थात् स्यात् सत्य का प्रतीक है । यहां लांछन शब्द उसकी प्रतीकात्मकता को स्पष्ट कर देता है, किन्तु दुर्भाग्य यह है कि उसकी इस प्रतीकात्मकता को न समझ कर तथा उसके शाब्दिक अर्थ को लेकर मुख्यतः उसके आलोचकों नेक भ्रांतियां खड़ी की हैं । आधुनिक युग में प्रतीकात्मक तर्कशास्त्र ने हमें जो दृष्टि दी है उसके आधार पर यदि सप्तभंगी की प्रतीकात्मकता को स्पष्ट किया जा सके तो उसके सम्बन्ध से उठने वाले अनेक विरोधाभासों को दूर कर उसे अधिक किया जा सकता है । सुसंगत रूप में प्रस्तुत सप्तभंगी का प्रत्येक भंग एक सापेक्षिक निर्णय प्रस्तुत करता है । सप्तभंगी में 'स्यात् प्रस्ति' आदि जो सात भंग है, वे कथन के तार्किक श्राकार (Logical forms) मात्र हैं । उनमें स्यात् शब्द सप्तभंगी के इस सांकेतिक प्रारूप के दर्शित प्रर्थों में किया है चिह्न コ 财 0 य 00 उ वि - महावीर जयन्ती स्मारिका 77 नास्ति कथन के विधानात्मक (Affirmative ) औौर निषेधात्मक ( Negative) होने के सूचक हैं । कुछ जैन विद्वान् श्रस्ति को सत्ता को भावात्मकता का ● और नास्ति को श्रभावात्मकता का सूचक मानते हैं किन्तु यह दृष्टिकोण जैन दर्शन को मान्य नहीं हो सकता । उदाहरण के लिए जैन दर्शन में आत्मा भाव रूप है वह प्रभाव रूप नहीं हो सकता है । अतः हमें यह स्पष्ट रूप से जान लेना चाहिए कि स्यात् अस्ति स्यात् नास्ति अपने आप में कोई कथन नहीं है । अपितु कथन के तार्किक आकार हैं, वे कथन के प्रारूप हैं । उन प्रारूपों के लिए अपेक्षा तथा उद्देश्य और विधेय पत्रों का उल्लेख प्रावश्यक है । जैसे स्याद् प्रति भंग का ठोस उदाहरण होगाद्रव्य की अपेक्षा से आत्मा नित्य है। यदि हम इसमें पेक्षा (द्रव्यता और विधेय (नित्यता) का उल्लेख नहीं करें और कहें कि स्याद् ग्रात्मा श्रस्ति तो ऐसे कथन अनेक भ्रान्तियों को जन्म देगे । जिसका विशेष विवेचन हमने द्वितीय भंग की चर्चा के प्रसंग में किया है। आधुनिक तर्कशास्त्र की दृष्टि से सप्तभंगी का प्रत्येक भंग एक सापेक्षिक कथन है, जिसे एक हेतुफलाश्रित वाक्य के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है और सप्तभंगी के प्रसंग में उत्पन्न भ्रान्तियों से बचने के लिए उसे साँकेतिक रूप में व्यक्त किया जा सकता है । निर्माण में हमने चिह्नों का प्रयोग उनके सामने अर्थ यदि - तो ( हेतुफलाचित कथन) अथवा श्रन्तभूतता (Implication) प्रपेक्षा (दृष्टिकोण) संयोजन (श्रौर) युगपद् भाव (एक साथ ) अनन्तत्व व्याधातक (विरुद्ध), निषेधक उद्देश्य विधेय 1-43 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भंगों के प्रागमिक रूप भंगों के सांकेतिक रूप ठोस उदाहरण स्यात् अस्ति प्र. उ. वि. है । यदि द्रव्य की अपेक्षा से विचार करते हैं तो प्रात्मा नित्य है। स्यात् नास्ति प्र.उ. वि. नहीं है। यदि पर्याय की अपेक्षा से विचार करते हैं तो प्रात्मा नित्य नहीं है । (112 उ, वि, है। यदि द्रव्य की अपेक्षा से विचार स्यात् अस्ति नास्ति च करते हैं तो प्रात्मा नित्य है और (म उ1 वि नहीं है। यदि पर्याय की अपेक्षा से विचार करते हैं तो आत्मा नित्य नहीं है । ((प्र. ० अ.) य उ यदि द्रव्य पोर पर्याय दोनों ही स्यात् प्रवक्तव्य अपेक्षा से या अनन्त अपेक्षामों से 'प्रवक्तव्य है। एक साथ विचार करते हैं तो अथवा प्रात्मा प्रवक्तव्य हैं (क्योंकि दो (प्र०यउ प्रवक्तव्य है। भिन्न-भिन्न अपेक्षानों से दो अलग २ कथन हो सकते हैं किन्तु एक कथन नहीं हो सकता)। (प. उ. वि. है . (अ.प्र)य उ. यदि द्रव्य की अपेक्षा से विचार स्यात अस्ति च प्रवक्तव्य च ।। करते हैं तो मात्मा नित्य है किन्तु प्य वक्तव्य है। यदि प्रात्मा की द्रव्य पर्याय दोनों या या अनन्त अपेक्षाओं की दृष्टि से (117 उ.वि, है ० (अ)य 231 एक साथ विचार करते हैं तो मात्मा प्रवक्तव्य है। प्रवक्तव्य है। स्यात् नास्ति च (अ उवि नहीं है०(प्र.अ.) उ यदि पर्याय की अपेक्षा से विचार प्रवक्तव्य प्रवक्तव्य है। करते हैं तो प्रात्मा नित्य नहीं है किन्तु यदि अनन्त अपेक्षा की (प्र.उवि नहीं है ० (प्र०)य- उ. रष्टि से विचार करते हैं तो अवक्तव्य है। प्रात्मा प्रवक्तव्य है। स्यात् अस्ति च नास्ति च (117 उ.वि है ०७. उ.वि. यदि द्रव्य दृष्टि से विचार करते प्रवक्तव्य च (म.प्र.)य हैं तो प्रात्मा नित्य है और यदि उ. अवक्तव्य है । पर्याय दृष्टि से विचार करते हैं या तो मात्मा नित्य नहीं है किन्तु 11 उवि है. उ.वि. यदि प्रात्मा अनन्त अपेक्षाओं की नहीं है. (अ) दृष्टि से विचार करते हैं तो 'उ. प्रवक्तव्य है। प्रात्मा प्रवक्तव्य है। 1-44 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभंगी के प्रस्तुत सांकेतिक रूप में हमने में अन्य वस्तुनों के गुण धर्मों की सत्ता भी केवल दो अपेक्षानों का उल्लेख किया है किन्तु मान ली जावेगी तो फिर वस्तुप्रों का पारस्प. जैन विचारकों ने द्रव्य, क्षेत्र काल और भाव ऐसी रिक भेद ही समाप्त हो जावेगा और वस्तु का स्व चार अपेक्षाए मानी हैं। उनमें भी भाव अपेक्षा स्वरूप ही नहीं रह जावेगा,प्रतः वस्तु में पर चतुष्टय व्यापक है, उसमें वस्तु की अवस्थाओं (पर्यायों) का निषेध करना द्वितीय भग है । प्रथम भंग बताता एवं गुणों दोनों पर विचार किया जाता है। किन्तु है कि वस्तु क्या है, जबकि दूसरा भंग यह बताता यदि हम प्रत्येक अपेक्षा की सम्भावना प्रों पर विचार है कि वस्तु क्या नहीं है । सामान्यतया इस द्वितीय तो ये अपेक्षा भी प्रनन्त होगी क्योंकि भंग को 'स्यात नास्ति घट:' अर्थात किसी अपेक्षा वस्तुत्व अनन्त धर्मात्मक है । अपेक्षानों की इन से घड़ा नहीं है, इस रूप में प्रस्तुत किया जाता विविध सम्भावनाओं पर विस्तार से विचार किया - है, किन्तु इसके प्रस्तुतीकरण का यह ढंग थोड़ा जा सकता है किन्तु इस छोटे से लेख में यह सम्भव भ्रान्तिजनक अवश्य है, स्थूल दृष्टि से देखने पर इस सप्तभंगी का प्रथम भंग । स्यात प्रस्ति" एसा लगता है कि प्रथम भग म ऐसा लगता है कि प्रथम भंग में घट के अस्तित्व है । यह स्वचतुष्टय की अपेक्षा से वस्तु के भावात्मक का जो विधान किया गया था, उसी का द्वितीय धर्म या धर्मों का विधान करता है। जैसे अपने भंग में निषेध कर दिया गया है और ऐसी स्थिति द्रव्य की अपेक्षा से थह घड़ा मिट्री का है, क्षेत्र की में स्याद्वाद को सन्देहवाद या आत्म विरोधी कथन अपेक्षा में इन्दौर नगर में बना हना है, काल की करने वाला सिद्धान्त समझ लेने की भ्रान्ति हो अपेक्षा से शिशिर ऋतु का बना हा है, भाव जाना स्वाभाविक है । शकर, प्रभृति विद्वानों ने अर्थात् वर्तमान पर्याय की अपेक्षा से लाल रंग का स्याद्वाद की जो पालोचना की थी, उसका मुख्य है या घटाकार है प्रादि । इस प्रकार वस्तु के स्व प्राधार यही भ्रान्ति है । स्यात् अस्ति घट: पोर द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव की अपेक्षा से उसके स्यात् नास्ति घट: में जब स्यात् शब्द को दृष्टि से भावात्मक गुणों का विधान करना यह प्रथम प्रोझल कर या उसे सम्भावना के अर्थ में ग्रहण "अस्ति" नामक भंग का कार्य है। दूसरा 'स्यात कर 'अस्ति' और 'नास्ति' पर बल दिया जाता है नास्ति' नामक भग वस्तुतत्व के प्रभावाप्मक धर्म तो प्रात्म विरोध का आभास होने लगता है। जहां या वस्तु में कुछ धर्मों को अनुपस्थिति या नास्तित्व तक मैं समझ पाया हूं स्याद्वाद का प्रतिपादन करने की सूचना देता है । वह यह बताता है कि वस्त में वाले किसी भी प्राचार्य की दृष्टि से द्वितीय भंग का स्व से भिन्न पर चतुष्टय का अभाव है। जैसे यह कार्य प्रथम भंग में स्थापित किये गये गुणधर्म का घडा ताम्बे का नहीं भोपाल में बनाया उसी अपेक्षा से निषेध करना नहीं है, अपितु या तो नहीं है. ग्रीष्म ऋत का बना पा नहीं के प्रथम भंग में अस्ति रूप माने गये गुणधर्म से इतर गुण धर्मों का निषेध करना है अथवा फिर अपेक्षा वर्ण का नहीं है आदि । मात्र इतना ही नहीं वह भंग को बदल कर उसी गुण धर्म का निषेध करना होता इस बात को भी स्पष्ट करता है कि घड़ा-पुस्तक, है और इस प्रकार द्वितीय भंग प्रथम भंग के कथन टेबल कमल, मनुष्य प्रादि नहीं है । जहां प्रथम को पुष्ट करता है, खण्डित नहीं। भग यह कहता है कि धड़ा-घड़ा ही है. वहां दूसरा यदि द्वितीय भंग के कथन को उसी अपेक्षा से भंग यह बताता है कि घड़ा घट है इतर अन्य कुछ प्रथम भंग का निषेधक या विरोधी मान लिया नहीं है । कहा गया है कि सर्वमस्ति स्वरूपेरण जावेगा तो निश्चय यह सिद्धान्त संशयवाद या पररूपेण नास्ति च' अर्थात् सभी वस्तुओं की प्रात्मविरोध के दोषों से ग्रस्त हो जावेगा, किन्तु सत्ता स्व रूप से है पर रूप से नहीं। यदि वस्तु ऐसा नहीं है । यदि प्रथम भग में स्यादस्त्येव घटः महावीर जयन्ती स्मारिका 77 1-45 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का अर्थ किसी अपेक्षा से घड़ा है और द्वितीय भंग अपेक्षा नहीं बदली है । यदि प्रथम भंग में यह कहा में "स्यान्नास्त्येव घट:" का अर्थ किसी अपेक्षा से जावे कि घड़ा मट्टी का है और दूसरे भंग में यह घड़ा नहीं है ऐसा करेंगे तो आभासी रूप से ऐसा कहा जावे कि घड़ा पीतल का नहीं है तो दोनों में लगेगा कि दोनों कथन विरोधी हैं। क्योंकि इन अपेक्षा एक ही है : अर्थात्, दोनों कथन द्रव्य कथनों के भाषायी स्वरूप से ऐसा आभास होता है की या उपादान की अपेक्षा से हैं। अब कि इन कथनों में घट के अस्तित्व और नास्तित्व दूसरा उदाहरण लें । किसी अपेक्षा से धड़ा को ही सूचित किया गया है। जबकि जैन प्राचार्यों नित्य है, किसी अपेक्षा से घड़ा नित्य नहीं की दृष्टि में इन कथनों का बल उनमें प्रयुक्त है, यहाँ दोनों भंगों में अपेक्षा बदल जाती है। यहां 'स्यात्" शब्द में ही है, बे यह नहीं मानते हैं कि प्रथम भग मे द्रव्य की अपेक्षा से घड़े को नित्य द्वितीय भंग प्रथम भंग में स्थापित सत्य का प्रतिषेध कहा गया है और दूसरे भंग में पर्याय की अपेक्षा करता है । दोनों भंगों में घट के सम्बन्ध में जिनका से घड़े को नित्य नहीं कहा गया है । द्वितीय भग विधान या निषेध किया गया है वे अपेक्षाश्रित धर्म के प्रतिपादन के ये दोनों रूप भिन्न-भिन्न हैं । दूसरे हैं न कि घट का स्वयं का अस्तित्व या नास्तित्व। यह कहना कि परचतुष्टय की अपेक्षा से घट नहीं पुनः दोनों भंगों के 'अपेक्षाश्रित धर्म' एक नहीं हैं, है या पट की अपेक्षा घट नहीं है भाषा की दृष्टि भिन्न-भिन्न हैं। प्रथम भंग में जिन अपेक्षाश्रित से थोड़ा भ्रान्तिजनक अवश्य है क्योकि पर चतुष्टय धर्मों का विधान है, वे अन्य अर्थात् स्वचतुष्टय के वस्तु की सत्ता निषेधक नहीं हो सकता है । वस्तु में हैं और द्वितीय भंग में जिन अपेक्षाश्रित धर्मों का परचतुष्टय अर्थात् स्व भिन्न पर द्रव्य, क्षेत्र, काल निषेध हुआ है. वे दूसरे अर्थात् पर चतुष्टय के हैं। भाव का प्रभाव तो होता है किन्तु उनकी अपेक्षा अतः प्रथम भंग के विधान और द्वितीय भंग के वस्तु का प्रभाव नहीं होता है। क्या यह कहना निषेध में कोई प्रात्म विरोध नहीं है । मेरी दृष्टि कि कुर्सी की अपेक्षा टेबल नहीं है या पीतल की में इस भ्रान्ति का मूल कारण प्रस्तुत वाक्य में उस अपेक्षा यह घड़ा नहीं है, भाषा के अभ्रान्त प्रयोग विधेय पद (Predicate) के स्पष्ट उल्लेख का हैं ? इस कथन में जैनाचार्यों का प्राशय तो यही अभाव है, जिसका कि विधान या निषेध किया है कि टेबल कुर्सी नहीं है या घड़ा पीतल का नहीं जाता है। यदि "नास्ति' पद को विधेय स्थानीय है। अतः परचतुष्टय की अपेक्षा से वस्तु नहीं है, माना जाता है तो पुन. यहां यह भी प्रश्न उठ यह कहने की अपेक्षा यह कहना कि वस्तु में परचसकता है कि जो घट अस्ति रूप है, वह नास्ति तुष्टय का प्रभाव है, भाषा का सम्यक् प्रयोग रूप कैसे हो सकता है ? यदि यह कहा जावे कि होगा। विद्वानों से मेरी विनती है कि वे सप्तभंगी पर द्रव्यादि की अपेक्षा से घट नहीं है किन्तु पर के विशेष रूप से द्वितीय एवं तृतीय भंग के भाषा द्रव्यादि घट के अस्तित्व के निषेधक कैसे बन के स्वरूप पर और स्वयं उनके आकारिक स्वरूप सकते हैं ? परपुनर्विचार करें और अाधुनिक तर्कशास्त्र के सन्दर्भ यद्यपि यहां पूर्वाचायों का मन्तव्य स्पष्ट है कि में उसे पुनर्गठित करें तो जैन न्याय के क्षेत्र में एक वे घट का नहीं अपितु घट में पर द्रव्यादि बड़ी उपलब्धि होगी क्योंकि द्वितीय एवं तृतीय भंगों का ही निषेध करना चाहते हैं। वे कहना की कथन विधि के विविध रूप परिलक्षित होते हैं। यह चाहते हैं कि घट पट नहीं है या घट में पट अतः यहां द्वितीय भंग के विविध स्वरूपों पर थोडा प्रादि के धर्म नहीं हैं, किन्तु स्मरण रखना विचार करना अप्रासंगिक नहीं होगा । मेरी दृष्टि से होगा कि इस कथन में प्रथम और द्वितीय भंग में द्वितीय भंग के निम्न चार रूप हो सकते हैं 1-46 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोकेतिक रूप अथवा (१) प्रथम भंग-अ. उ.वि है । उपदान की दृष्टि से यह घड़ा मिट्टी का है। । द्वितीय भंग-अ, उ.वि. नहीं है उपदान की दृष्टि से यह घड़ा स्वर्ण का नहीं है। . उदाहरण । (4) प्रथम भंग -12 31 है। (१) प्रथम भंग में जिस धर्म (विधेय) का विधान द्वितीय भंग - अ, उ नहीं है । किया गया है, अपेक्षा बदल कर द्वितीय भंग उदाहरण में उसी धर्म (विधेय) का निषेध कर देना । जब प्रतिपादित कथन देश या काल या दोनों जैसे - द्रव्य दृष्टि से घड़ा नित्य है . पर्याय के सम्बन्ध में हो तब देश काल आदि की दृष्टि से घड़ा नित्य नहीं है । अपेक्षा को बदलकर प्रथम भंग में प्रतिपादित .कथन का निषेध कर देना । जैसे-15 अगस्त (२) प्रथम भंग-प्र: उ.वि. है । 1947 के पश्चात से पाकिस्तान का अस्तित्व द्वितीय भग-अ उवि है। ८ यह चिन्ह प्रथम भंग के विधेय के विरुद्ध है। 15 अगस्त 1947 के पूर्व में पाकिस्तान विधेय का सूचक है जैसे नित्य के स्थान पर का अस्तित्व नहीं था। अनित्त्य । द्वितीय भंग के उपरोक्त चारों रूपों में प्रथम ! उदाहरण पोर द्वितीय रूप में बहुत अधिक मौलिक भेद प्रथम भंग में जिस धर्म का विधान किया गया नहीं है। अन्तर इतना ही है कि जहां प्रथम रूप है, अपेक्षा बदलकर द्वितीय भंग में उसके में एक ही धर्म का (विवेय) का प्रथम भंग में 1 . 'विरुद्ध धर्म (विवेय) का प्रतिपादन कर देना , 'है। जैसे - द्रव्य दृष्टि से घड़ा नित्य है। विधान और दूसरे भंग में निषेध होता है, वहां ...पर्याय दृष्टि से ६ड़ा अनित्य है। दूसरे रूप में दोनों भंगों में अलग अलग रूप में दो . . विरुद्ध धर्मों (विधेयों) का विधान होता है । प्रथम (२) प्रथम भंग-अ.) उ, वि, है। रूप की प्रावश्यकता तब होती है जब वस्तु में एक द्वितीय भंग-41. उ-वि, नहीं है। ही गुण अपेक्षा भेद से कभी उपस्थित रहे और उदाहरण कभी उपस्थित नहीं रहे। इस रूप के लिए वस्तु प्रथम भंग में प्रतिपादित धर्म को पुष्ट करने में दो विरुद्ध धर्मों के युगल का होना जरुरी नहीं है, हेतु उसी अपेक्षा से द्वितीय भंग में उसके जबकि दूसरे रूप का प्रस्तुतीकरण केवल उसी विरुद्ध धर्म या भिन्न धर्म का वस्तु में निषेध स्थिति में सम्भव होता है, जबकि वस्तु में धर्म कर देना । जैसे-.--रंग की दृष्टि से यह कमीज विरुद्ध युगल हो ही। तीसरा रूप तब बनता है, नीला है। रंग की दृष्टि से यह कमीज पीला जबकि उस वस्तु में प्रतिपादित धर्म के विरुद्ध धर्म नहीं है। की उपस्थिति ही न हो । चतुर्थ रूप की आवश्यकता तब होती है, जबकि हमारे प्रतिपादन में विधेय का अथवा स्पष्ट रूप से उल्लेख न हो । द्वितीय भंग के अपने स्वरूप की दृष्टि से प्रात्मा में चेतन है। पूर्वोक्त रूपों में प्रथम रूप में अपेक्षा बदलती है, अपने स्वरूप की दृष्टि से मात्मा अचेतन नहीं धर्म (विधेय) वही रहता है और क्रिया पद निषेधात्मक होता है। द्वितीय रूप में अपेक्षा महावीर जयन्ती स्मारिका 71 1-47 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बदलती है, धर्म (विधेय) के स्थान पर उसका प्रव्यपदेशीय या अनिर्वचनीय माना गया है, विरुद्ध धर्म (विधेय का व्याघातक पद) होता है और यह दृष्टिकोण भी उपनिषदों में ही मिलता है। क्रियापद विधानात्मक होता । तृतीय रूप में अपेक्षा जैसे-'यतो वाचो निवर्तन्ते', यद्वावाम्युदित्य, वहीं रहती हैं, धर्म (विधेय) के स्थान पर उसका नैव वाचा न मनसा प्राप्तु शक्यः प्रादि । बुद्ध विरुद्ध या विपरीत पद रखा जाता है और क्रिया के अव्याकृतवाद एवं शून्यवाद की चतुष्ट कोटि पद निबोधात्मक होता है तथा अन्तिम चतुर्थ रूप विनिमुक्त तत्व की धारणा में भी बहुत कुछ में अपेक्षा बदलती है और प्रतिपादित कथन का इसी दृष्टिकोण का प्रभाव देखा जा सकता निषेध कर दिया जाता है। सप्तभंगी का तीसरा मलिक भंग प्रवक्तव्य है (4) चौथा दृष्टिकोण जैन न्याय में सापेक्षिक अतः यह विचारणीय है कि इस भंग की योजना का प्रवक्तव्यता या सापेक्षिक अनिर्वचनीयता के उद्देश्य क्या है ? सामान्यतया यह माना जाता है रूप में विकसित हमा है। कि वस्तु में एक ही समय में रहे हुए सत्-असत्, सामान्यतया प्रवक्तव्य के निम्न अर्थ हो सकते नित्य-अनित्य प्रादि विरुद्ध धर्मों का युगपत अर्थात् एक साथ प्रतिपादित करने वाला ऐसा कोई शब्द (1) सत व असत् दोनों का निषेध करना । नहीं है । प्रतः विरुद्ध धर्मों की एक साथ अभिव्यक्ति की शाब्दिक असमर्थता के कारण प्रवक्तव्य भंग (2) सत्, असत् और सदसत् तीनों का निषेध की योजना की गई है, किन्तु प्रवक्तव्य का यह अर्थ करना। उसका एकमात्र प्रर्थ नहीं है। यदि हम प्रवक्तव्य शब्द पर ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करने हैं तो (3) सत, असत्, सत्-असत् (उभय) और न सत् न उसके अर्थ में एक विकास देखा जाता है। डा. असत् (अनुभय) चारों का निषेध करना । पद्मराज ने प्रवक्तव्य के अर्थ के विकास की दृष्टि (4) वस्तुतत्व को स्वभाव से ही प्रवक्तव्य मानना । से चार प्रवस्थानों का निर्देश किया है : अर्थात यह कि वस्तुतत्व अनुभव में तो पा (1) पहला वेदकालीन निषेधात्मक दृष्टिकोण सकता है किन्तु कहा नहीं जा सकता। जिसमें विश्व कारण की खोज करते हुए ऋषि (5) सत् और असत् दोनों को युगपत् रूप से उस कारण तत्व को न सत् प्रौर न प्रसत् स्वीकार करना किन्तु उसके कथन के लिए कहकर विवेचित करता है, यहां दोनों पक्षों का कोई शब्द न होने के कारण प्रवक्तव्य कहना। निषेध है। (6) वस्तुत्व अनन्त धर्मात्मक है अर्थात वस्तुतत्व (2) दूसरा प्रोष निषदिक विधानात्मक दृष्टिकोण के धर्मों की संख्या अनन्त है किन्तु शब्दों की जिसमें सत् असत् प्रादि विरोधी तत्वों में सख्या सीमित है और इसलिए उसमें जितने समन्वय देखा जाता है। जैसे : 'तदेजति धर्म हैं, उतने वाचक शब्द नहीं है। अतः तनेजति' प्रणोरणीयान् महतो महीयान्, वाचक शब्दों के अभाव के कारण उसे अंशतः सदसद्वरेण्यम् मादि। यहां दोनों पक्षों की वाच्य और अंशतः प्रवाच्य मानना । स्वीकृति है। यहां यह प्रश्न विचारणीय हो सकता है कि तीसरा दृष्टिकोण जिसमें तत्व को स्वरूपतः जैन परम्परा में इस प्रवक्तव्यता के कौन से अर्थ 1-48 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मान्य रहे है । सामान्यतया जैन परम्परा में प्रवक्तव्यता को स्वीकार करती है, निरपेक्ष को प्रवक्तव्यता के प्रथम तीनों निषेधात्मक अर्थ मान्य नहीं। अर्थात् वह यह मानती है कि वस्तुतत्व नहीं रहे हैं । उसका मान्य अर्थ यही है कि सत् पूर्णतया वक्तव्य तो नहीं है किन्तु वह पूर्णतया और प्रसत दोनों का युगपत् विवेचन नहीं किया प्रवक्तव्य भी नहीं है। यदि हम बस्तुतत्व को जा सकता है इसलिए वस्तुतत्व प्रवक्तव्य है किन्तु पूर्णतया अवक्तव्य अर्थात अनिर्वचनीय मान लेंगे तो यदि हम प्राचीन जैन आगमों को देखें तो प्रवक्त- फिर भाषा एवं विचारों के प्रादान प्रदान का कोई व्यता का यह अर्थ अन्तिम नहीं कहा सकता है। अर्थ ही नहीं रह जावेगा। अतः जैन दृष्टिकोण प्राचारांग सूत्र में प्रात्मा के स्वरूप को जिस रूप में वस्तुतत्व की अनिर्वचनीयता को स्वीकार करते हुए वचनागोचर कहा गया है वह विचारणीय है । वहां भी यह मानता है कि सापेक्ष रूप से वह अनिर्वचकहा गया है कि प्रात्मा ध्वन्यात्मक किसी भी शब्द नीय है । सत्ता अंशतः निर्वचनीय है और अंशतः की प्रवृति का विषय नहीं है। वाणी उसका निर्वचन अनिर्वचनीय । क्योंकि यही बात उसके सापेक्षवादी करने में कथमपि समर्थ नहीं है, वहां वाणी मूक हो दृष्टिकोण और स्याद्वाद सिद्धान्त के अनुकूल है। जाती है, तक की वहां तक पहुंच नहीं है, बुद्धि इस प्रकार पूर्व निर्दिष्ट पांच अर्थों में से पहले दो (मति) उसे ग्रहण करने में असमर्थ है अर्थात् वह को छोड़कर अन्तिम तीनों को मानने में उसे कोई वाणी, विचार और बुद्धि का विषय नहीं हैं किसी , बाधा नहीं पाती है । मेरी दृष्टि में प्रवक्तव्य भंग उपमा के द्वारा भी उसे नहीं समझाया जा सकता है का भी एक ही रूप नहीं है, प्रथम तो 'है' और क्योंकि उसे कोई उपमा नहीं दी जा सकती, वह नहीं हैं ऐसे विधि प्रतिषेध का युगपद् (एक ही अनुपम है, अरूपी सत्तावान है। उस अपद का साथ) प्रतिपादन सम्भव नही है अत: प्रवक्तव्य भंग कोई पद नहीं है अर्थात् ऐसा काइ शब्द नहा ह की योजना है। दूसरे निरपेक्ष रूप से वस्तुतत्व का जिसके द्वारा उसका निरूपण किया जा सके । कथन सम्भव नहीं है । अतः वस्तुतत्व प्रवक्तव्य है। इसे देखते हुए यह मानना पड़ेगा कि वस्तुस्वरूप तीसरे अपेक्षाएं अनन्त हो सकती हैं किन्तु अनन्त ही कुछ ऐसा है कि उसे वाणी का माध्यम नहीं अपेक्षाओं के युगपद् रूप में वस्तुतत्व का प्रतिपादन बनाया जा सकता है । पुनः वस्तुतत्व की अनन्त सम्भव नहीं है इसलिए भी उसे प्रवक्तव्य मानना धर्मात्मकता और शब्द संख्या की सीमितता के होगा। इसके निम्न तीन रूप है : प्राधार पर भी वस्तुतत्व को प्रवक्तव्य माना गया है, प्राचार्य नेमीचन्द्र ने गोमट्टसार में अनभिलाप्य भाव (I) (प्र-अ.) उ. अवक्तव्य है। का उल्लेख किया है । वे लिखते हैं कि अनुभव में (2) ८ . अवक्तव्य है। प्राये वक्तव्य भावों का अनंतवां भाग ही कथन (3) (प्र° )य-73 प्रवक्तव्य है। किया जाने योग्य है । अतः यह मान लेना उचित सप्तभंगी के शेष चारों भंग संयोगिक हैं। नहीं है कि जैन परम्परा में प्रवक्तव्यता का केवल विचार की स्पष्ट अभिव्यक्ति की दृष्टि से एक ही अर्थ मान्य है। इनका महत्त्व तो अवश्य है किन्तु इनका अपना कोई इस प्रकार जैन दर्शन में प्रवक्तव्यता के चौथे, स्वतन्त्र दृष्टिकोण नहीं है, वे अपने संयोगी मूल पांचवें और छठे अर्थ मान्य रहे हैं। फिर भी हमें भंगों की अपेक्षा को दृष्टिगत रखते हुए ही वस्तु यह ध्यान रखना चाहिए कि सापेक्ष और प्रवक्तव्यता स्वरूप का स्पष्टीकरण करते हैं। प्रत: इन पर और निरपेक्ष प्रवक्तव्यता में जैन दृष्टि सापेक्ष विस्तृत विचार अपेक्षित नहीं है। 1-49 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसारण सत्तभंगी और नय सप्तभंगी : जैन तर्कशास्त्र में वाक्य दो प्रकार के माने गये है - सकलादेश श्रीर विकलादेश । इनमें प्रमारण वाक्य सकलादेश अर्थात् पूर्ण वस्तु स्वरूप के ग्राहक श्रीर नय वाक्य विकलादेश अर्थात् वस्तु के प्रशिक स्वरूप के ग्राहक माने जाते हैं। प्रमाण वाक्यों को पूर्ण व्यापी और नय वाक्यों को प्रशव्यापी कहा जा सकता है। नय वाक्य या श्रशव्यापी वाक्य की सत्यता प्रमाण वाक्य या पूर्ण व्यापी वाक्य पर निर्भर होती है अतः वे सापेक्ष सत्य हैं जबकि प्रमाण वाक्य स्वतः सत्य है उनकी सत्यता स्वयं वस्तु स्वरूप पर निर्भर है। तर्कशास्त्र की भाषा में प्रमारण वाक्य को सामान्य वाक्य ( Universal Proposition ) और नय वाक्य को विशेष वाक्य ( Particular Proposition) माना जा सकता है सिद्धसेन, अभयदेव और शान्ति सूरि ने सप्तभंगी के सप्तभंगों में से केवल तीन मूल भंगों (सत्, श्रसत् और अवक्तव्य ) को सकलादेशी और शेष को विकलादेशी माना है जबकि भट्ट प्रकलंक और यशोविजयजी ने सातों ही भंगों को विवक्षा भेद से सकलादेश और विकलादेश दोनों ही माना है । मेरी दृष्टि से यह दूसरा दृष्टिकोण अधिक समुचित है । इसी प्राधार पर प्रमारण सप्तभंगी और नय सप्तभंगी ऐसा विभाजन भी हुप्रा है । प्रथम प्रश्न तो यह है कि प्रमाण सष्तभंगी और नय सप्तभंगी के अन्तर का श्राधार क्या है ? यदि हम यह मानें कि प्रमाण सप्तभगी में प्रभेद दृष्टि से या व्यापक परिप्रेक्ष्य में वस्तु को देखा जाता है और नय सप्तभंगी में भेद दृष्टि या श्रांशिक परिप्रेक्ष्य में वस्तु को देखा जाता है तो समस्या यह है कि एक ही प्रकार की वाक्य योजना में दोनों को कैसे अभिव्यक्त किया जा सकता है । इसलिए जैन प्राचार्यों ने नयसप्तभंगी में 'एव' शब्द की योजना की है और प्रमारण सप्तभंगी में नहीं की है । किन्तु 'एव' शब्द कथन की निश्चयात्मकता का सूचक है। आधुनिक पाश्चात्य तर्कविदों ने भी सामान्य वाक्यों को अनिश्चित परिमाण वाले और 1-50 विशेष वाक्यों को निश्चित परिमाण वाले वाक्य माना है | अतः दोनों की संगति बैठ सकती है । परम्परागत पाश्चात्य तर्कशास्त्र में तो सामान्य तर्क वाक्य के लिए 'सब' और विशेष तर्क वाक्य के लिए 'कुछ' शब्दों की योजना की जाती है किन्तु सप्तभंगी के वाक्यों में ऐसा कुछ भी नहीं है । मेरी दृष्टि में तो स्यात् शब्द के ही दो भिन्न अर्थों के श्राधार पर ही प्रमारण सप्तभंगी की योजना की गई है। भट्ट प्रकलंक ने यह माना है कि स्यात् शब्द सम्यक् अनेकान्त और सम्यक् एकान्त दोनों का सूचक है । अत: जब हम उसे सम्यक् अनेकान्त के रूप में लेते हैं तो वह प्रमाण सप्तभंगी का श्रीर जब सम्यक् एकान्त के रूप में लेते हैं तो वह नये सप्तभंगी का प्रतीक होता है किन्तु एक ही शब्द का दोहरे अर्थों में प्रयोग भ्रान्ति को जन्म देता हैदूसरे यदि हम 'एम' शब्द का प्रयोग उसके भाषायी अर्थ से अलग हटकर कथन को विशेष या सीमित करने के वाले परिमाणक के अर्थ में करते हैं तो भी भ्रान्ति की सम्भावना रहती है । उस युग में जब प्रतीकों का विकास नहीं हुआ था तब यह विवशता थी कि अपने वांछित अर्थ के निकटतम अर्थ देने वाले शब्दों को प्रतीक बनाया जावे किंतु उससे जो भ्रांतियां उत्पन्न हुई है उन्हें हम जानते हैं । यह प्रावश्यक है कि हम प्रमाण वाक्य और नय वाक्य को अलग अलग प्रतीकात्मक स्वरूप निर्धारित कर प्रमारण सप्तभंगी और नय सप्तभंगी की रचना करें। दोनों में मोलिक अन्तर यह है कि प्रमाण सप्तभंगी में कथन का सम्पूर्ण बल वस्तु तत्व की अनन्त धर्मात्मकता पर होता है जबकि नय सप्तभगी में कथन की अपेक्षा पर बल दिया जाता है प्रमाण सप्तभोगी का वाक्य सकलादेशी या पूर्ण व्यापी होता है जबकि नय सप्तभोगी का विकलादेशी या शव्यापी होता है । पाश्चात्य तर्कशास्त्र में पूर्ण व्यापी वाक्यों के उद्देश्य को व्याप्त और शव्यापी वाक्यों के उद्देश्य को अव्याप्त माना जाता है- जैन परम्परा ने भी इन्हें क्रमश: सकला महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देशी और विकलादेशी कहकर इस पद - व्याप्ति इस प्रतीकीकरण से यह बात स्पष्ट हो जाती को स्वीकार किया है। केवल अन्तर यह है है कि सकलादेशी प्रमाण वाक्यों में बल वस्तु की कि पारम्परिक तर्क शास्त्र में जहां निषेधित विधेय अनन्त धर्मात्मकता (सम्भावित मूल्य) पर होता है सदैव ही पूर्ण व्यापी माना जाता है वहां जैन जबकि विकलादेशी वाक्यों में बल उस अपेक्षा पर परम्परा में विधेय का विधान और निषेध दोनों होता है जिससे कथन किया जाता है। इन्ही वाक्यों ही प्रशव्यापी होंगे। क्योंकि स्याद्वादी दृष्टि से के आधार पर प्रमाण सप्तभंगी और नय सप्तभंगी विधेय निषेध भी निरपेक्ष नहीं होगा । आधुनिक की रचना की जा सकती है। विस्तार भय से हम प्रतीकात्मक तर्कशास्त्र की दृष्टि से प्रमाण वाक्य उसमें नहीं जाना चाहते हैं। सप्तभंगी और त्रिमूल्यात्मक तर्क शास्त्र और नय वाक्य का स्वरूप निम्न होगा। ___ वर्तमान युग में पाश्चात्य तर्कशास्त्र के प्रतीक विचारकों में ल्यूकसाइविक ने एक नयी दृष्टि दी ध -अनन्तधर्मात्मकता या अनंतधर्मी है, उसके अनुसार तार्किक निर्णयों में केवल सत्य, अ - अपेक्षाओं की अनंतता असत्य ऐसे दो मूल्य ही नहीं होते अपितु सत्य, -कम से कम एक असत्य और सम्भावित सत्य ऐसे तीन मूल्य --अतर्भूतता होते हैं। इसी सन्दर्भ में डा० एस. एस वारलिंग प्रमारणवाक्य का प्रतीकात्मकस्वरूप पांडे तथा संगमलाल पाण्डे ने जैन न्याय ध0अ05a4° उ.वि. है। को त्रिमूल्यात्मक सिद्ध करने के प्रयास क्रमशः जयपुर एवं पुना की एक गोष्ठी में किये थे। यद्यपि व्याख्या जहां तक जैन न्याय या स्याद्वाद के सिद्धान्त का अनन्तधर्मात्मकता में अनंत अपेक्षाए अन्तभूत प्रश्न है उसे त्रिमूल्यात्मक माना जा सकता है हैं, उनमें कम से कम एक अपेक्षा ऐसी है कि अनंत क्योंकि जैन दार्शनिकों ने प्रमाण नय अोर दुर्नय धर्मी उद्देश्य 'क' विधेय 'ख' है। ऐसे तीन रूप माने हैं, उनमें प्रमाण सत्य का, नय आंशिक सत्य का पोर दुर्नय असत्य के परिचायक उदाहरण अनन्तधर्मी प्रात्मा में अनन्त अपेक्षाए हैं । पुनः जैन दार्शनिकों ने प्रमाण वाक्य और नय वाक्य ऐसे दो प्रकार के वाक्य मानकर प्रमाण अन्तर्भूत हैं उसमें से कम से कम एक द्रव्य अपेक्षा ऐसी है कि प्रात्मा नित्य है। वाक्य को सकलादेश(सुनिश्चित सत्य या पूर्ण सत्य) और नय वाक्य को विकलादेश (सम्भावित सत्य य। नय वाक्य प्रांशिक सत्य) कहा है । वाक्य को न सत्य कहा प्रतीकात्मक रूप 131 जा सकता है और न असत्य । प्रतः सत्य और प्रसत्य के मध्य एक तीसरी कोटि प्रांशिक सत्य या व्याख्या सम्भावित सत्य मानी जा सकती है । वस्तुतत्व की कम से कम एक अपेक्षा ऐसी है कि उ 'क' वि अनन्त धर्मात्कता एवं स्याद्वाद सिद्धांत भी सम्भावित 'ख' है। सत्यता के समर्थक है क्योंकि वस्तुतत्य अनन्त उदाहरण धर्मात्मकता अन्य सम्भावनाओं को निरस्त नहीं करती है और स्याद्वाद उन कथित सत्यता के प्रतिकम से कम एक द्रव्य अपेक्षा है कि उसके रिक्त अन्य सम्भावित सत्यतामों को स्वीकार मनुसार प्रात्मा नित्य है। करता है। महावीर जयन्ती स्मारिका 77 1-51 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रकार जैन दर्शन की वस्तुतत्व की अनन्त धर्मात्मकता तथा प्रमाण, नय और दुर्नय की धारणाओं के आधार पर स्याद्वाद सिद्धांत त्रिमू ल्यात्मक तर्क शास्त्र (Three Valued Logic) या बहुमूल्यात्मक शास्त्र का समर्थक माना जा सकता है किन्तु जहां तक सप्तभंगी का प्रश्न है उसे त्रिमूल्यात्मक नही कहा जा सकता क्योंकि उसमें नास्ति नामक भंग एवं अवक्तव्य नाम भंग क्रमशः असत्य एवं श्रनियतता ( Flase & Indeterm - inate) के सूचक नहीं है । सप्तभंगी का प्रत्येक भंग त्रिमूल्यात्मक तर्कशास्त्र की त्रयी- 1. निश्चितता 2. सम्भाव्यता 3. असम्भाव्यता ↓ ↓ ↓ सत्य सूल्य श्रांशिक सत्यमूल्य 1. 2. 3. जैन दर्शन को नयी सत्य मूल्य सूचक है यद्यपि जैन विचारकों ने प्रमाण सप्तभंगी और नय सप्तभंगी के रूप में सप्तभंग के जो दो रूप माने हैं, उसके आधार पर यहां कहा जा सकता है कि प्रमाण सप्तभंगी के सभी भंग सुनिश्चत सत्यता और नय सप्तभंगी के सभी भंग सम्भावित या प्रांशिक सत्यता का प्रतिपादन करते हैं । श्रसत्य का सूचक तो केवल दुर्नय ही है । अतः सप्तभंगी त्रिमूल्यात्मक नहीं है । संक्षेप में स्याद्वाद सिद्धांत की तुलना त्रिमूल्या मक तर्कशास्त्र से निम्न रूप में की जा सकती है । 1-52 1. प्रमाण ↓ सत्य मूल्य ↓ श्रांशिक सत्य मूल्य श्रतः स्याद्वाद त्रिमूल्यात्मक है किन्तु सप्तभंगी द्विमूल्यात्मक है उसमें असत्य मूल्य नहीं है उसमें भी प्रभाग सप्तभंगी निश्चित सत्यता की सूचक है और नय सप्तभंगी प्रांशिक सत्यता की षण्णवणिज्वा भावा प्रांतभागो दु प्रणभिलप्पानं । वणिज्जापुर प्रांतभागो सुदनिवड़ो ! 2. प्राच्य विद्या सम्मेलन कर्नाटक विश्वविद्यालय धारवाड़ में सन् 1976 में पठित सध्ये सरा नियट्टति, तक्का जत्थन विज्जइ मई तत्त न गहिया... "उपमा न विज्जई अपयस्स पयं नत्थि । नय 3. श्राचारांग 1-5-6-171 असत्य मूल्य दुर्नय ↓ असत्य मूल्य गोमटसार, जीव. 334 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम प्रतिदिन शास्त्र पढ़ते और सुनते हैं किन्तु उसका कोई प्रभाव हमारे जीवन में नहीं होता। इसका कारण यह है कि हम शास्त्र में बताए सत्य को केवल पढ़ने या श्रवण करते हैं उन पर हमारी प्रतीति नहीं होती। यदि प्रतीति हो जाय तो निश्चित रूप से हम उस मार्ग पर चलने लगें। सत्मार्ग पर अग्रसर होने की पहली शर्त है उस पर प्रतीति । इसी को तोते के एक उदाहरण द्वारा विद्वान् लेखक ने, जो कि अपने विशेष ढंग से चिन्तन के लिए विख्यात हैं, स्पष्ट किया है। काश ! हम इस सत्य को समझ सकते। प्र० सम्पादक शाब्दिक सत्य उसका स्थूल संस्करण होता है * विद्यावारिधि डा० महेन्द्रसागर प्रचण्डिया, अलीगढ़ परा प्रतीति की वस्तु है । वह पश्यन्ति मध्यमा मन्दिर का पुजारी द्वार पर बनी एक कोठरी से होती हुई वैखरी का रूप ग्रहण करती है। में निवास करता है । उसके बाहर एक संकरा-सा ध्वनि का धर्म वस्तुतः बिखरना है। शब्द एक छज्जा है । उसी छज्जे में अनेक छींके टंगे हुये हैं। विशेष ध्वनि हैं जो कण्ठ से निकलकर कर्ण-विवर एक पिंजरा उन्हीं के बीच में टंगा है जिसमें पानीमें सुनाई पड़ती है। पाथेय के साथ एक तोता बैठा है। किसी प्रागत की आहट पाकर वह बोलता है-उसके बोल-'हरे शब्द में जो अर्थ-अभिप्राय होता है वह अत्यन्त राम, मुक्ति-मुक्ति' किसी को भी स्पष्ट ध्वनि में सूक्ष्म होता है । उसमें रूप धारण करने की शक्ति सुनाई पड़ सकते हैं। सामर्थ्य नहीं होती । अर्थ का सीधा सम्बन्ध अनुभूतिजन्य है। इस प्रकार शाब्दिक सत्य विनिमय संयोग से एक परदेशी हरिभक्त का मध्य ह्न साध्य होता है जबकि अनुभूतिजन्य सत्य (परानु में पाना हुआ। उन्हें मन्दिर बन्द मिला । वे भूतिमात्र) प्रतीति की बस्तु है । पुजारी बाबा के निकट सोद्देश्य पधारे । उन्हें __ यही कारण हैं कि शाब्दिक सत्य व्यवस्था पुजारी से पहिले तोता के दर्शन हुए। उनके आगकी बात करता है उसमें आस्था के लिए कोई बल मन पर तोता ने 'हरे राम-मुक्ति-मुक्ति' के बोल विवेक नहीं होता। इसीलिए शास्त्र अनुभूति के र सुनाये । प्रागत ने तोते की बात ध्यानपूर्वक सुनी। प्रभाव में निरे निरर्थक प्रमाणित होते हैं। उन्होंने उसे मुक्त करने के लिए पिंजड़े के द्वार खोल दिये । पिजड़ा खोला था तोता के मुक्त होने एक वृत्त का स्मरण हुआ है, यहाँ मैं उसी के के लिए किन्तु उन्हें तब भारी पाश्चर्य हुआ माध्यम से अपनी बात को स्पष्ट करूंगा। जव खुले पिंजड़े से तोता का मुक्त होना नहीं महावीर जयन्ती स्मारिका 11 1-53 Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुआ। मुक्त तो वह तब होता जब उसे मुक्ति का सत्य इसी प्रकार से निरर्थक सिद्ध नहीं होते। अर्थ- अभिप्राय ज्ञात होता । उसने तो मात्र इस प्रकार का किया गया सारा श्रम-परिश्रम व्यर्थ शाब्दिक सत्य को सीखा है और उसी का गाना चला जाता है। हमें परा-प्रदेश की प्रतीति को दुहराना वह आवश्यक समझता है। उत्पन्न करना होगा। प्रभु बन करके प्रभु की क्या हमारे जीवन में नित्य व्यवहृत शाब्दिक उपासना सर्वथा कल्याणकारी होती है। (1) ब्रह्म कहो तो मैं नहीं, क्षत्री हूँ पुनि नांहि । वैश्य शूद्र दोऊ नहीं, चिदानन्द हूँ माहि ।। (2) मधुर वचन बोलो सदा, करो न मन अभिमान । क्षमा दया भूलो नहिं, जो चाहो कल्याण ॥ (3) लोभ पाप को बाप है, क्रोध क्रूर जमराज । माया विष की वेलरी, मान विषम गिरिराज ।। (4) -डा० गोपाल राठौड़ जिसने पाया प्रेम जगत में वह सच्चा धनवान है, जिसने प्रेम दिया जग भर को वह सच्चा इन्सान है। सच्चा धर्म वही जो चलता लेकर दीपक प्रेम का, प्रेम पथिक के चरणों पर झुकता पाया भगवान है। रुदन सदा को खो जाता है, मुसकानों के गांव में, जितनी पावन धार गंग की, उतना पावन प्यार है। 1-54 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध तो इस क्षेत्र में पूर्वजन्म में केवली याश्रित केवली के पादमूल में परोपकार की उत्कट भावना उत्पन्न होने पर दर्शन विशुद्धि प्रावि सोलह भावनाओं के भाने से होता है मगर उसका उदय केवलज्ञान होने पर ही होता है उससे पूर्व नहीं । तीर्थंकरों के पंचकल्याएक इस प्रकृति के सत्ता में होने से सातिशय पुण्योदय के काररण होते हैं । वैदिक सम्प्रदाय में मान्य अवतारवाद की तरह तीर्थंकरों का श्राविर्भाव इस धरा पर नहीं होता । तीर्थंकर कौन है ? धर्म-सूर्य सूर्योदय होते ही अन्धकार का क्षय होता है, उसी प्रकार तीर्थंकर रूपी धर्म-सूर्य के उदय होते ही जगत् में प्रवर्धमान मिथ्यात्व का अन्धकार भी अंत:करण से दूर होकर प्राणी में निजस्वरूप का श्रव बोध होने लगता है किन्हीं की मान्यता है कि धर्म की ग्लानि होने पर धर्म की प्रतिष्ठा स्थापन हेतु शुद्ध अवस्था प्राप्त परमात्मा मानवादि पर्यायों में अवतार धारण करता है । जिस प्रकार बौज के दग्ध होने पर वृक्ष उत्पन्न नहीं होता, उसी प्रकार राग-द्वेष, मोह मादि विकारों के बीज श्रात्म-समाधि रूप अग्नि से नष्ट होने पर परम पद को प्राप्त आत्मा का राग द्वेष पूर्ण दुनियां में प्राकर विविध प्रकार की लीला दिखाना युक्ति, सद्विचार तथा गम्भीर चिंतन के विरुद्ध है । सर्वदोष मुक्त जीव द्वारा मोहमयी प्रदर्शन उचित नहीं कहा जायगा । महावीर जयन्ती स्मारिका 77 प्र० सम्पादक * श्री व्योहार राजेन्द्रसिह, जबलपुर उदय काल इस स्थिति में प्राचार्य रविषेण एक मार्मिक तथा सुयुक्ति समर्थित बात कहते हैं कि जब जगत् में धर्म-ग्लानि बढ़ जाती है सत्पुरुषों को कष्ट उठाना पड़ता है तथा पाप-बुद्धि वालों के पास विभूति का उदय होता है, तब तीर्थंकर रूप महान् प्रात्मा उत्पन्न होकर सच्चे प्रात्म-धर्म की प्रतिष्ठा बढ़ाकर जीवों को पाप से विमुख बनाते हैं। उसने पद्मपुराण में कहा है। श्राचारणां विघातेन कुदृष्टीनां च संपदा | धर्म ग्लानि परिप्राप्त मुच्छ्यन्ते जिनोत्तमाः ॥ ( जब उत्तम माचार का विघात होता है, मिथ्याधर्मियों के समीप श्री की वृद्धि होती है, सत्य धर्म के प्रति घृणा निरादर का भाव उत्पन्न होने लगता है, तब तीर्थकर उत्पन्न होते हैं और सत्य धर्म का उद्धार करते हैं ।) तीर्थ का स्वरूप इस तीर्थकर शब्द के स्वरूप पर विचार करना उचित है । प्राचार्य प्रभाचन्द्र ने लिखा है, 'तीर्थ 1-55 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मागमः तदाधार संघश्च' अर्थात् जिनेन्द्र कथित होती है इससे उनको धर्म तीर्थकर कहते हैं । मूला आगम तथा प्रागम का प्राधार साधुवर्ग तीर्थ है। चार के एक अत्यन्त भाव पूर्ण स्तुति-पद्य में भगवान् तीर्थं शब्द का अर्थ घाट भी होता है । अतएव को धर्म तीर्थकर कहा है। "तीर्थं करोतीति तीर्थंकर" का भाव यह होगा, कि जिनकी वाणी के द्वारा संसार सिंधु से जीव तिर "लोगुज्जोयरा धम्मलित्थयरे जिणवरे य प्ररहते । जाते हैं वे तीर्थ के कर्ता तीर्थकर कहे जाते हैं। कित्तण केवलिमेव य उत्तमबोहि ममदिसंत ॥" सरोवर में घाट बने रहते हैं, उस घाट से मनुष्य (जगत् को सम्यक्ज्ञान रूप प्रकाश देने वाले सरोवर के बाहर सरलतापूर्वक आ जाता है । इसी धर्म तीर्थ के कर्ता, उत्तम, जिनेन्द्र अर्हन्त केवली प्रकार तीर्थकर भगवान के द्वारा प्रदर्शित पथ का मुझे विशुद्ध बोधि प्रदान करें अर्थात् उनके प्रसाद अवलम्बन लेने वाला जीव संसार-सिन्धु में न डूब से रत्न त्रय धर्म की प्राप्ति हो । कर चिन्तामुक्त हो जाता है। भगवान में कहा है तीर्थकर शब्द का प्रयोग मीर्मी कुर्वन्ति तीर्थानि । तीर्थकर शब्द का प्रयोग भगवान महावीर के जिनेन्द्र भगवान को भाव तीर्थ कहा है समय में अन्य सम्प्रदायों में भी होता था, यद्यपि दंसगा-गाणा चरित्ते रिणज्जुत्ता, प्रचार तथा रूढ़िवश तीर्थकर शब्द का प्रयोग श्रेयांस जिणवरा दु सव्वेपि । राजा के साथ करते हुए उनको दान तीर्थंकर कहा तिहि कारणेहिं जुप्ता, है । अतएव तीर्थंकर शब्द के पूर्व में धर्म शब्द को तम्हा ते भावदो तित्थं ॥ लगा कर धर्म तीर्थंकर रूप में जिनेन्द्र का स्मरण करने की प्रणाली प्राचीन है। सभी जिनेन्द्र भगवान् सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान तथा सम्यक् चारित्र संयुक्त हैं । इन तीन कारणों प्रकृति के बन्धक से युक्त हैं, इससे जिन भगवान् भाव तीर्थ हैं। जिनेन्द्र वाणी के द्वारा जीव अपनी प्रात्मा को सम्यक्त्व होने पर ही तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध परम उज्ज्वल बनाता है। ऐसी रत्न-त्रय भूषित होता है । इस प्रकृति का बन्ध क्रियान्वित गति को प्रात्मा को भाव तीर्थ कहा है। जिनेन्द्र रूप भाव छोड़कर तीन गतियों में होता है। किन्हीं प्राचार्यो तीर्थंकर बनता है। रत्न त्रय भूषित जिनेन्द्र रूप का कथन है कि नरक की प्रथम पृथ्वी में तीर्थंकर भाव तीर्थ के द्वारा अपवित्र आत्मा भी पवित्रता का बंध पर्याप्त तथा अपर्याप्त अवस्था में होता है। को प्राप्त कर जगत के सन्ताप को दूर करने में दूसरी तथा तीसरी पृथ्वी में पर्याप्त अवस्था में ही समर्थ होती है । इन जिनदेव रूप भाव तीर्थ के इसकाबन्ध होता है आगे के नरकों में इस प्रकृति का द्वारा प्रवर्धमान प्रात्मा तीर्थकर बनती है और बन्धनहीं होता। पश्चात् श्रुत रूप तीर्थ की रचना में निमित्त होती है। दर्शन विशुद्धि प्रादि तीर्थंकर नाम कर्म के कारण है । दर्शन विशुद्धि प्रादि भावनाए पृथक धर्म-तीर्थकर रूप में तथा समुदायरूप में तीर्थंकर पद प्राप्ति के जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा धर्म तीर्थ की प्रवृत्ति के कारण हैं । 1-56 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 | Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर धर्म जाता है तथा संक्लेश परिणामों के कारण पाप ___ सुख रूप फलों से युक्त होते हैं । दर्शन विशुद्धि का संग्रह कर नरक जाता है । पुण्य कर्म की उदयामें प्रागत दर्शन शब्द सम्यक् दर्शन का ही वाचक वलि द्वारा क्षय करने के लिए जैसे होनहार तीर्थहै । दर्शन के होने पर प्राप्त विशुद्धि रूप यह भावना कर स्वर्ग गमन करता है उसी प्रकार संचित गुण है । विशुद्धि का अर्थ है पुण्यप्रद उज्ज्वल भाव । राशि को उपभोग द्वारा क्षय करने के लिए नरक में जाता है मोक्ष प्राप्ति के लिए दोनों प्रावश्यक विश्व कल्याण की प्रबल भावना के द्वारा । हैं। सम्यकत्व की दृष्टि से स्वर्ग और नरक दोनों सम्यक्त्व प्राप्त जीव तीर्थंकर प्रवृति का बंध करता। ही अस्थाई है। प्राचार्य अमितगति के शब्दों में है। विनयशीलता अहन्त और प्राचार्य भक्ति प्रव - वह सोचता है, कि "मेरी मात्मा अधूरी है उसका चन पटुता आदि अनेक भावनामें सम्यक्त्व के होने विनाश नहीं मिलता। वह मलिनता रहित है। पर सहज ही इसके अंगरूप में प्राप्त होती हैं। ज्ञानस्वरूप है समस्त पदार्थ मेरी प्रात्मा से अलग सम्यक-दर्शन और दर्शन विशुद्धि हैं कर्मों के फलस्वरूप अवस्था में मेरी नहीं है।" इस दृष्टि से इसीलिए दुख और सुख दोनों अस्थाई सम्यक-दर्शन और दर्शन विशद्धि भावना में भेद हैं अतः तीर्थंकर चाहे नरक से अथवा स्वर्ग से है। सम्यक-दर्शन प्रात्मा में एक विशेष परिणाम प्राकर मनपर्यय, मानव देह धारणा करे उससे तीर्थहै। उसके सद्भाव में लोक-कल्याण की भावना करत्व को कोई क्षति नहीं पहुंचती। उत्पन्न होती है । उसे दर्शन विशुद्धि भावना कहते गुण अन्य विशेषता तीर्थंकर प्रकृति के सद्भाव का प्रभाव तीर्थकर की विशेषता उसके गुणों को दृष्टि में रखकर की जाती है। तीर्थकर भक्ति का अन्तिम तीर्थकर प्रकृति का उदय केवली प्रवस्या में चरण बड़ा प्रेरक है........ "मेरे दुखों का क्षय से होता है । यह नियम होते हुए भी तीर्थंकर के गर्भ, कर्मों का क्षय हो ।........रत्न त्रय का लाभ हो। जन्म, तथा तप कल्यागाक तीनों तीर्थंकर के प्रकृति सुगति में गमन हो समाधि पूर्वक मरण हो । जैनेन्द्र सद्भाव मात्र से होते हैं । पंचकल्याणक वाले तीर्थ- की सम्पत्ति प्राप्त हो।" संसार इन पांच प्रकार के कर मनुष्य पर्याय से परिणाम से नहीं पाते । वे कलेश भोर प्रकल्याणों का प्राश्रय माना गया है नरक या देवगति से प्राते हैं । भरत क्षेत्र सम्बन्धी उनको द्रव्य क्षेत्र काल भव तथा भावरूप पंच परावर्तमान तीर्थकर स्वर्ग सुख भोगकर भरत क्षेत्र में वर्तन कहते हैं। मोक्ष का स्वरूप चितवन करने उत्पन्न हुए थे। इनमें नरक से कोई नहीं पाए। वाले सत्पुरुष को उक्त पंच परावर्तन रूप संसार में नरक से निकलकर न पाने वाली प्रात्मा तत्वज्ञों परिभ्रमण का कष्ट नहीं उठाना पड़ता है। उनके को रुचिकर लगता है किन्तु भक्तों को इससे मनो- पुण्य जीवन के प्रसाद से पंच प्रकार के अकल्याण व्यथा होती है। इसका क्या समाधान है ? छूट जाते हैं तथा यह जीव मोक्षरूप पंचमगति को प्राप्त करता है । पंच अकल्याणों की प्रतिपक्ष रूप स्वर्ग या नरक का कारण तीर्थकर के जीवन की गर्भ जन्मादि पंच प्रवस्थानों की पंच कल्याण का पंचकल्याणक नाम से प्रसिद्ध जीव विशुद्ध भावों से पुण्य को संचय कर स्वर्ग है। महावीर जयन्ती स्मारक 77 1-57 Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SOOOOOMMMMMMMMMMMMYHOMES ये जीवन एक रैन का सपना ॐ श्री भगवान् स्वरूप जैन 'जिज्ञासु', आगरा ये जीवन एक रैन का सपना । कोई नहीं यहां अपना, बन्दे, कोई नहीं यहां अपना ।। ये० ।। जान नहीं पाया तू अब तक झूठी जग की थपना । भूल गया इस मोह में फंसकर, जिनवर नाम का जपना ।। ये०॥ BAHAMASOMAGUSAHAHAHAHAHAAN पल-पल में पर्याय बदलती, ज्यों पल-पल दृग झपना । नस जाते जब जीवन क्षण में, कैसा यहाँ पनपना ।। ये०॥ WahhaaaaaaaaaAAaaaaAAAAAADWADOWADOWSAB कांप रहे भव-जीव कि जैसे कृश काया का कपना। मिथ्या दर्शन-ज्ञान चरित से भव-भव माहिं तड़पना ॥ ये० ॥ सम्यक दर्शन-ज्ञान-चरित हैं हरते जीव-कलपना। शाश्वत सुख-दातार अनूठा सम्यक् तप का तपना ।। ये० ॥ अशुभ त्याग कर शुभ में आना, शुद्ध माहि शुभ खपना। धर्म्य-शुक्ल शुभ ध्यान सहारे, मुक्ति-महल पद चपना ।। ये० ।। au*60WHAAAAAAAAAAAAAAAAAAAHHHHH 1-53 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन में भौतिक पदार्थों के संग्रह को परिग्रह नहीं कहते श्रपितु मूर्छा को परिग्रह कहते हैं और मोह के उदय से उत्पन्न हुना ममत्व परिगाम मूर्च्छा कहलाता है। इसलिये धन धान्य प्रावि बाह्य परिग्रहों के बिना भी ममत्त्व परिणाम रखने वाला परिग्रही कहलाता है। धन धान्य आदि तो मूर्च्छा भाव के उत्पन्न होने के कारण होने से काररण में कार्य का उपचार करने से परिग्रह कहलाते हैं। परिग्रह के अन्तरंग और बाह्य ऐसे दो भेद हैं और ये हिंसा की ही पर्यायें होने से पाप रूप हैं। मिथ्यात्व और प्रनान्तानुबंधी चार कषायों के सद्भाव में कभी भी सम्यग्दर्शन नहीं हो सकता जो कि शास्त्रों में मोक्ष महल की पहली सीढ़ी कहा गया है। परिग्रह का उल्टा अपरिग्रह है। इस व्रत का विस्तृत विवेचन विद्वान् लेखक ने इन पंक्तियों में किया है । प्र० सम्पादक महावीर द्वारा प्रतिपादित अहिंसा को परमधर्म माना गया है। अहिंसा के साथ सत्य, प्रचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह को मिलाने से पांच व्रत हो जाते हैं। 23वें तीर्थंङ्कर भगवान् पार्श्वनाथ का धर्म चातुर्याम कहलाता था, क्योंकि उसमें ब्रह्मचर्य व्रत अपरिग्रह में सम्मिलित था । भगवान् महावीर ने ब्रह्मचर्य को अलग महत्त्व देकर पांच व्रतों का व्याख्यान किया । मूल व्रत हिंसा ही है । सत्य, प्रचीर्य अपरिग्रह प्रादि सभी व्रत अहिंसा के ही रक्षक हैं। चोरी करने से जिस व्यक्ति का धन चला जाता है, उसे दुःख पहुंचता है । प्रसत्य भाषण से भी लोगों को कष्ट होता है उसी प्रकार एक व्यक्ति के पास सम्पत्ति का संग्रह हो जाने से दूसरे निर्धन लोगों को पीड़ा होती है । इसलिए अपरिग्रह व्रत भी अहिंसा की रक्षा के लिए है । एक बार महावीर वैशाली के पास वाणिज ग्राम गए, वहां एक प्रानन्द नामक सेठ रहता था, महावीर जयन्ती स्मारिका 77 अपरिग्रह व्रत * डा. कछेदीलाल जैन, शहडोल उसके खजाने में 4 करोड़ मुद्राएं रिजर्व थीं, इतनी ही मुद्राएं ब्याज पर दिए था. और इतनी ही राशि व्यापार में लगाए था । चार गोकुलों में दसदस हजार गौएं थीं, पांच सौ हलों का खेती थी, बहुत लोगों को महावीर के दर्शनार्थ जाते देखकर वह भी महावीर के पास पहुंचा । श्रानन्द ने प्रणुव्रत पालने की इच्छा व्यक्त की- महावीर ने कहा कि तुम्हारे जैसे सम्पन्न सेठ के रहते हुए, कई लोगों के चूल्हे अन्न के प्रभाव में नहीं जलते हैं जबकि तुम्हारे यहां भ्रन्न का इतनी अधिकता है कि लापरवाही से चूल्हे में रोटियां जल जाती हैं । तुम्हारा इतना संग्रह लोक- शोषक एवं लोक पीडक है । पहले प्रत्येक व्यक्ति का पेट भरे इतना ध्यान रखना चाहिए, पेटी भरते रहना उचित नहीं है । श्रानन्द ने महावीर से पूछा- अपरिग्रह प्रणुव्रत किस प्रकार पाला जा सकता है। महावीर ने बताया कि सबसे महान् व्रत तो यह है कि समस्त 1-59 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिग्रह त्यागकर दिगम्बर रूप धारण कर महाव्रती ममत्व भाव या ग्रासक्ति को परिग्रह बताया है। बना जाय । परन्तु गृहस्थ लोगों का उत्तम अणुव्रत जिस प्रकार बैंक का कैशियर अथवा किसी सेठ का यह है कि जितने की आवश्यकता, उपयोग के लिए लेखाकार लाखों रुपयों का लेन देन करता है हो उतना धन रखकर शेष का त्याग किया जाय। परन्तु उन रुपयों के प्रति उनका ममत्व भाव नहीं मध्यम रूप यह है कि अभी जितनी सम्पत्ति है होता है । व्यक्ति का धन सम्पत्ति के प्रति मात्र उससे अधिक का संग्रह न करने का नियम लिया ज्ञाता द्रष्टा का भाव होना चाहिए जैसे दर्पण के जाय । यदि अधिक प्राय हो तो उसका त्याग किया समक्ष उपस्थित वस्तु का प्रतिबिम्ब दर्पण में झलजाय । तीसरा जघन्य रूप यह है कि जितनी कता है परन्तु वस्तु के हटते हो प्रतिबिम्ब मिट सम्पत्ति वर्तमान में है उससे दुगुने तक की सम्पत्ति जाता है । कैमरे की स्थिति दर्पण से भिन्न होती है, का नियम ले लिया जाय और कभी उससे अधिक कैमरे के समक्ष उपस्थित वस्तु का प्रतिबिम्ब निगेनहीं बढ़ने दी जाय । उसने मध्यम मार्ग का अनु- टिव में जम जाता है, किसी व्यक्ति का वस्तु के करण किया और नियम लिया कि इस समय मेरे प्रति इस प्रकार का लगाव नहीं होना चाहिए । पास जितनी सम्पत्ति है उससे अधिक का संग्रह इत प्रकार देश में सम्पत्ति का उत्पादन खुब नहीं करूंगा । अब तक जिन गायों का दूध बेचा होना चाहिए परन्त उस सम्पत्ति पर प्रासक्ति जाता था उसने अमावग्रस्त लोगों में दूध बांटना किसी व्यक्ति की नहीं होनी चाहिए । ऐसी सम्पति शुरू कर दिया, बगीचों के फलफूल बेचना बन्द देश तथा समाज के कल्याण के लिए होती है। करके लोगों में बांटना शुरू कर दिया तथा जो इस व्यवस्था में किसी व्यक्ति को दूसरों के प्रति दूसरों की प्रोर कर्ज था वह भी वापिस लेना ईा जलन की प्रवृत्ति नहीं उत्पन्न होती है । अस्वीकार कर दिया। प्राज संग्रह के लिए इतनी होड़ लगी है कि दूने की तो बात दूर रही सैकड़ों जिस प्रकार मछली की जल के प्रति तीव्र गुना धन बढ़ जाने पर भी बढ़ाते रहने की लालसा प्रासक्ति होने से वह जल के बाहर होते ही बेचैन बनी हुई है। सरकार ने ऋण माफी के कानून हो जाती है । परन्तु मेंढक जल में रहकर भी उससे बनाए हैं अन्यथा साहूकार मूलधन से कई गुना उतना प्रासक्त नहीं है अत: जल के बाहर रहने व्याज ही वसूल कर लेते थे। पर भी बेचनी अनुभव नहीं करता । किसी वस्तु के प्रति व्यक्ति का तीव्र रागात्मक सम्बन्ध हो और अपरिग्रह के चिन्तन में एक बात और समा - ऐसी वस्तु का विछोह हो जाय तो व्यक्ति को वेदना हित है कि देश के विकास के लिए अधिक से । होती है, वस्तु नहीं है परन्तु अपने मन की भावना अधिक उत्पादन एवं सम्पत्ति की समृद्धि होना ही हमें सुखी या दुःखी बनाती है। जिस प्रकार मच्छी बात है । व्यक्ति के लिए अपरिग्रह का व्रत कन्या का विवाह होने पर अपने बचपन के घर को है । व्यक्ति जो भी कमाए ईमानदारी से कमाए, पराया और वर पक्ष के पराए घर को अपना समपरन्तु उसका संग्रह न करके व्यय करता जाय, झने लगती है इसी प्रकार यदि व्यक्ति की दृष्टि क्योंकि विषमता अधिक उत्पादन से नहीं, बल्कि बदल जाय और व्यक्ति को सम्पत्ति के प्रति संग्रह की प्रवृत्ति से बढ़ती है। महावीर ने धन के प्रासबित न रहे तो यही अपरिग्रह होगा। अस्तित्व को परिग्रह नहीं कहा, उनकी परिभाषा में सूक्ष्म दृष्टि प्रतीत होती है। उन्होंने मूर्छा को जिस प्रकार कच्चे नारियल का खोपरे वाला परिग्रह कहा है। अर्थात् धन, सम्पत्ति के प्रति भाग नरेरी से चिपका रहता है और नरेरी के 1-60 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फोड़ने पर खोपरा भी साथ में चोट खाकर फूटता कारण बनती है । यही परिग्रह की आकांक्षा भाई. है, परन्तु सूखे नारियल का खोपरा नरियल से भाई तथा पुत्र पिता के बीच वैर करा देती है । चिपका नहीं रहता है इसलिए नरेरी के फोड़ देने पर भी खोपरा नहीं फूटता है। इसी तरह वस्तुओं __जीवन को चार भागों में विभाजित किया के प्रति आसक्ति होने पर वस्तुओं के विछोह में । र गया था, उनमें गृहस्थ आश्रम में ही व्यक्ति परिदुःख का अनुभव होता है परन्तु प्रासक्ति न होने ग्रह संचय में कार्य करता था, उसमें भी गृहस्थ को पर दुःख नहीं होता है । आसक्ति नहीं रहती थी, इसलिए धन का परहित में दान किया जाता था। इस समय बाल अवस्था प्रासवित एवं संग्रह की भावना रखने के से ही मनुष्यों में विभिन्न प्रकार के संग्रह की प्रवृति कारण निर्धन भिखारी भी परिग्रही हो सकता है, पाई जाती है वानप्रस्थ और संन्यास जैसे प्राश्रम तो आसक्ति न रहने पर सम्पन्न प्रादमी भी अपरिग्रही अब लुप्त ही हो गए हैं । जन्म से मृत्यु पर्यन्त मनुष्य हो सकता है। राजा जनक को लोग अनासक्त अब संग्रह में ही लगा रहता है । संगृहीत वस्तुओं योगी कहते थे। श्रीराम जो राज्य छोड़कर वन को के लेखे जोखे में मनुष्य व्यस्त रहता है । मनुष्य गए तो उन्हें जरा भी दुःख नहीं हुआ क्योंकि उन्हें प्रात्म कल्याण सम्बन्धी सत्कर्मों का लेखा जोखा राज्य के प्रति प्रासक्ति नहीं थी। संस्कृत के एक करना भूल गया है । कवि ने इसी भाव को इस प्रकार है - यह भ्रान्त कल्पना, कि सुख वाहिरी वस्तुओं न विरक्ताः धनस्त्यक्ताः । में है मनुष्य को परि ग्रह के पंजे में जकड़े रहती है न विरक्ताः दिगम्बराः ।। परन्तु वाहिरी वस्तुओं के संग्रह में वास्तविक सुख नहीं है, मनुष्य का आकांक्षा जिस वस्तु के संग्रह विशेषरक्ताः स्वपदे । की होता है, उसके पाने के लिए बेचैनी रहती है, ते विरक्ताः मता: मम ।। तरह तरह की चिन्तामों के बाद कष्ट सहकर उस धन संग्रह तथा परिग्रह की तीव्र प्राकांक्षा के वस्तु को पा भी लेता है, तो उसके तत्काल बाद कारण मनुष्य सभी तरह के पाप एवं दुष्कर्म करके उससे भिन्न अन्य वस्तु को पाने की इच्छा उत्पन्न हो जाती है, इस प्रकार इच्छाओं का क्रम चलता भी धन संग्रह की चेष्टा करता है । डाकू लोग धन के लिए दूसरों की हत्या करके हिंसादि पाप के रहता है । सुख और सन्तोष का समय कभी प्राप्त भागी बनते हैं। संग्रह के लिए तस्करी, टेक्सों की नहीं होता है । प्रर्थशास्त्र की सिद्धान्त है कि एक चोरी प्रादि करके भी लोग झूठे हिसाब रखते है इक्छा दूसरी इच्छा को जन्म देती है रेडियो की तथा प्रसत्य व्यवहार का पाप करते हैं। न्यायालयों इच्छा पूरी होने पर टेलीविजन का, और मोटर में झूठी शपथ लेते हैं । धन संग्रह तीव्र लालसा के साईकिल की इच्छा पूरी होने पर कार लाने की कारण कई ललनाए वेश्या जैसा अब्रह्म का पेशा इच्छा उत्पन्न हो जाती है। प्राशागर्तः प्रतिप्राणी अपना लेती हैं। इस प्रकार संग्रह की लालसा अनेक यत्र विश्वमणू पमम्' प्रत्येक प्राणी की आशा कुकर्मों की जड़ है। राजनैतिक पद की तीव (इच्छा) का गड्ढा इतना बड़ा होता है कि उसको प्राकांक्षा दूसरे नेताओं की हत्या करा देती है। भरने के लिए सारे संसार के समस्त पदार्थ भी थोडे साम्राज्य की प्राकांक्षा दूसरे देशों पर प्राक्रमण कराती है तथा युद्ध जैसे नर संहारक कार्यों का सच्चे सुख का स्रोत प्रात्मा के भीतर है, परन्तु महावीर जयन्ती स्मारिका 71 1-61 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जब स्रोत बाहरि वस्तुनों की इच्छा रूपी कीचड़, पत्थरों से बन्द हो जाता है तो प्रात्मा की हौज जैसी स्थिति हो जाती है । जैसे हौज में बाहर का पानी लाकर भरना पड़ता है तथा उसमें रोज बदल बदल कर नया पानी भरना पड़ता है इसी प्रकार श्रात्मा के अन्तरंग सुख का स्रोत बन्द हो जाने पर मनुष्य बीड़ी, सिगरेट, शराब, सिनेमा, रेडियो श्रीर सेक्स आदि में सुख खोजता है परन्तु लगातार इनके सेवन से भी सुख नहीं मिलता है । गर्मी में कूलर में सुख प्रतीत होता है तो शीत ऋतु में हीटर में । यदि मनुष्य श्रात्मा रूपी कुए में सुख रूपी स्रोत के बन्द कर देने वाले विकार, दुर्व्यसन, बाहरी पदार्थों की चाह रूपी कीचड़, पत्थरों को अलग करदे तो सदैव ऐसा सुख मिलता रहेगा जिसमें बाहरी सुख रूपी जल की जरूरत नहीं है । एक कवि ने बहुत अच्छी बात कही है । गो धन गज धन वाजि धन, सवै रतन धन खान जब श्रावे सन्तोष धन सब धन धूलि समान ॥ जिस मनुष्य के पास सन्तोष रूपी धन विधमान है वही सुखी है । इसलिए इच्छात्रों के बढ़ाने में नहीं, बल्कि इच्छों के कम करने में सुख है । एक व्यक्ति जिसे बीड़ी, शराब, तम्बाकू, सिगरेट, चाय की इच्छा बनी रहती है उसे इन वस्तुओंों के सेवन करने पर सुख प्रतीत होता है । परन्तु वस्तुस्थिति यह है कि जिसे बीड़ी, शराब, गांजा, भांग की इच्छा नहीं होती है वही सुखी है क्योंकि उसे उन चीजों के बिना बेचैनी का अनुभव नहीं होता है । शेक्सपियर ने बहुत अच्छी बात कही है कि सोना एक बुरा विष है । The greatest hum - bing in the world is the idea that money can make a man happy. Gold is worst Poision for man's soul, doing more murders in this loath. Same is the world. than any mortal drug. एक बार दुर्योधन ने अपने मामा शकुनि से 1-62 कहा था कि मैंने युधिष्ठिर के यहाँ यज्ञ में यह अनुभव किया कि सोना श्रग्नि के समान चमकदार तो होता है परन्तु श्रग्नि से भी अधिक जलन पैदा करता है, क्योंकि अग्नि तो छूने पर ही जलती है जबकि युधिष्ठिर के पास भेंट में प्राप्त सोने को देखकर मुझे जलन पैदा हो गई थी । समाज में दान की प्रवृत्ति आसक्ति भाव को कम करने के लिए चालू हुई है जैसे किसी बांध में छोटा सा छिद्र कर देने से उसके द्वारा पानी निकलता रहता है और पूरे बांध को फूटने से बचा लेता है। पान की प्रवृत्ति से परिग्रह के दुर्गा कम हो जाते । जितने द्रव्य का दान किया जाता है उतने के प्रति आसक्ति कम हो जाती है । सम्पन्न होकर भी जो लोग दान के द्वारा समाज या देश का कल्याण करते हैं वे मरकर भी अमर रहते हैं । राजा श्रेयांस, महाराजा भोज तथा भामाशाह दान की प्रवृत्ति के कारण अमर हैं । लोग परिग्रह केवल अपने लिए नहीं बल्कि आगे आने वाली पीढ़ियों के लिए संचय करते हैं । एक विचारक ने बहुत अच्छी बात कही है । पूत सपूत तो क्यों धन संचय । पूत कपूत तो क्यों धन संचय ॥ यदि पुत्र सुपुत्र होगा तो पूर्वजों की कम सम्पति होने पर भी स्वयं कमाकर सम्पन्न ही जावेगा, यदि पुत्र कुपुत्र निकल जावेगा तो पूर्वजों की जोड़ी हुई सम्पत्ति को भी नष्ट कर देगा । इस लिए उसके निमित्त बहुत अधिक संग्रह करना व्यर्थ है । महावीर ने राग द्वेष आदि विकारी भावो को भी परिग्रह की श्र ेणी में गिना है । केवल रुपया पैसा ही नहीं, दासी, दास, बर्तन भांडे, जमीन, मकान, धान्य (अनाज) सोना चांदी आदि वस्तुनों के संग्रह की भावना को भी परिग्रह माना है । इस प्रकार अन्तरंग तथा बहिरंग दोनों प्रकार के परिग्रह को सीमित करना ही गृहस्थों के लिए अपरिग्रह का व्रत है । 883 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमें याद है प्रसिद्ध विद्वान् श्रौर पत्रकार श्री सत्यदेवजी विद्यालंकार ने एक बार अपने एक निबंध में लिखा था कि जैनधर्म और वैदिक धर्म सतत् प्रवाहशील नदी के आमने-सामने के दो किनारे हैं जो कभी नहीं मिलते। एक तीन है तो दूसरा छह । शब्द दूसरे हो सकते हैं मगर उनका अभिप्राय यह ही था। जैनधर्म और वैदिक धर्मो में किन बातों में वैषम्य है और किन में साम्य । इन बातों का तुलनात्मक संक्षिप्त अध्ययन प्रस्तुत किया है विद्वान् लेखक ने अपनी इस रचना में । जैनधर्म बनाम वैदिक धर्मं जैनधर्म, भारत के अतिप्रचलित धर्मों में बौद्धधर्म और वैदिक धर्म या हिन्दू धर्म से सघनता के साथ सम्बद्ध है । भारतीय होने के साथ ही तीनों धर्म समगति रहकर विकसित-वर्द्धित होते रहे हैं। प्रत्येक ने एक दूसरे के उतार-चढ़ाव को देखा है, परस्पर एक ने दूसरे पर प्रहार किया और भेला । यही कारण है कि एक का दूसरे पर प्रभाव स्पर्श अङ्कित हो गया है । वैदिक धर्म या हिन्दू धर्म व सनातन धर्म के नाम से रूढ़ हो गया है। हिन्दू धर्म की यदि व्यापक व्याख्या की जायगी, तो जैनधर्म भी हिन्दूधर्म के अन्तर्गत माना जायगा । किन्तु. रूढ अर्थ के सामने यौगिक अर्थ की मान्यता मद्धिम पड़ जाती है । हिन्दू शब्द की व्याख्यानों में जैनधर्म को हिन्दू धर्म के विद्रोही के रूप में स्वीकार करने का भाव प्राभासित होता है। फिर भी निष्पक्षता की बात तो यह है कि जैनधर्म भारत का स्वतन्त्र महावीर जयन्ती स्मारिका 77 प्र० सम्पादक * प्रो० श्रीरंजनसूरिदेव, पटना धर्म है। इसका निर्णय दोनों धर्मों के शास्त्रों के अन्तरसाक्ष्य से हो जाता है । वैदचतुष्टय हिन्दू धर्म का प्राचीन ग्रन्थ है । पौराणिक कहते हैं कि वेदव्यास ने वेदों का संकलन यज्ञ की श्रावश्यकताओंों को दृष्टि में रखकर किया। वेद के तीन विभाग हैं: मन्त्र, ब्राह्मण और उपनिषद् । मन्त्रसमुदाय संहिता है, तो ब्राह्मणं यज्ञ-याग आदि से सम्बद्ध वेदमन्त्रों की व्याख्या करता है । ब्राह्मण ग्रन्थ के ही अन्तिम भाग प्रारण्यक और उपनिषद् है, जिनमें दार्शनिक तत्वों ही वेदान्त कहा गया है । की विशद पर्यालोचना की गई है। उपनिषदों को विषय की दृष्टि से वेद की कर्मकाण्ड एवं ज्ञानकाण्ड के रूप में वर्गीकृत किया गया है । संहिता, ब्राह्मण और प्रारण्यक कर्मकाण्ड का विषय है और उपनिषद् ज्ञानकाण्ड का । वेदों का प्रधान विषय है देवता की स्तुति 1-63 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और प्रार्थना। वे देवता हैं इन्द्र एवं अग्नि, सूर्य, यह भी एक विसंवादी तथ्य है कि वैदिक प्राय नदी, पर्वत प्रादि प्रकृति की अनन्त विभूतियां । जब भारतवर्ष में पाये तब यहाँ उनका संघर्ष प्रादिदेवतानों की संख्याओं में ह्रास-विकास भी होता वासियों से हुग्रा। ऋग्वेद में संकेतित गौरवर्ण रहा है। इन्हीं देवतामों के अनुग्रह से जगत् चालित आर्यों और श्यामवर्ण दस्युअों का विरोध इसी बात है, यही रहा है वैदिक प्रार्यों का विश्वास । को सम्पुष्ट करता है। उपनिषद् के पूर्ववर्ती काल इसीलिए, वे सदा देव-स्तुति में संलीन है। कहते में वैदिक धर्म के विरोध का बीजारोपण हो गया हैं जब वे वैदिक आर्य, अवैदिक काल में भारत था । चूकि, मार्य बाहर से पाये थे, इसलिए उनमें प्राये, तब अपने साथ देवस्तुतियों को भी साथ यहाँ के प्रादिवासियों को जंगली और अज्ञानी लाये । प्रसिद्ध जैन विद्वान् ५० कैलाशचन्द्र शास्त्री कहकर प्रार्यत्व के प्रभाव से दलित बनाये रखने की ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'जैनधर्म' (पृ० 336) में सहज प्रवृत्ति सम्भव है । वैदिक आर्य और बाद में कहा है कि प्रार्य जब इस नये देश भारत में अन्य उनके परम्परागत उत्तराधिकारी वैदिक धर्म के देवपूजकों के परिचय में प्राये, तब उन्हें अपने समक्ष अन्य धर्मों की स्वतन्त्र मान्यता स्वीकार स्तुतिगीतों के संकलन का उत्साह हुमा । डॉ० करना नहीं चाहते थे। इसलिए, वैदिक धर्मवादियों राधाकृष्णन् की 'इण्डियन फिलॉस्फी' का हवाला ने घोषित किया कि जैनधर्म का उद्गम बौद्धधर्म देते हुए शास्त्रीजी ने ऋग्वेद को उन्हीं स्तुतियों के साथ-साथ या उससे कुछ पहले उपनिषद्काल का संग्रह कहा है। के बहुत बाद में उपनिषदों की शिक्षा के प्राधार पर हुआ। हालांकि, जैन परम्परा की धारणा है : बाझारण-साहित्य में ईश्वरीय ज्ञान की मान्यता तेईसवें ऐतिहासिक तीर्थंकर श्री पाश्र्वनाथ 800 ई. की बात मिलती है । अतः वेदज्ञान की प्राप्ति को प्ति का पू. में उत्पन्न हुए थे (पर वे जैनधर्म के संस्थापक पारस्परिक उत्तराधिकार के रूप में प्रयित माना नहीं थे): किन्तु इस बात का भी प्रमाण मिलता गया है। वैदिक धर्मेतर जैनधर्म के मनीषियों का । "का है कि ई. पू० प्रथम शती में ऋषभदेव की पूजा तर्क है कि वैदिक काल में मनुष्य का देवताओं के . होती थी और वे (भागवतपुराण के अनुसार भी) साथ केवल मांत्रिक सम्बन्ध था; क्योंकि वैदक जैनधर्म के संस्थापक थे । इससे उपनिषदों की ऋचाओं में, प्रार्थना करने का मूल्य साथ-साथ शिक्षा को जैनधर्म का प्राधार मानना असंगत चुका देने की बात उट्ट कित हुई है। सिद्ध हो जाता है । स्पष्ट यह है कि वैदिक प्रारण्यकों और उपनिषदों की स्थिति वेदों के धर्मानुयायी वैदिक धर्म को ही मूलधर्म मानते हैं अनकल नहीं है। भाषा की दृष्टि से भी उपनिषदों पोर जैन-बौद्धधर्मों को उनकी शाखाएं या तत्प्रभाकी भाषा वैदिक प्रक्रिया की क्लिष्टता से ऊबकर वित धर्म के रूप में स्वीकार करते हैं। किन्तु, सरल संस्कृत की ओर मुड़ी। उपनिषद् वेदों की जैनमतावलम्बी जैनधर्म को एक स्वतंत्र धर्म की मौलिकता को स्वीकार करके भी वैदिक ज्ञान को संज्ञा देते है । क्योंकि, जैन मनीषी वैदिक धर्म और मुक्तिदान में असमर्थ मानती है। इसी सन्दर्भ में उपनिषद् के सिद्धान्तों के मिश्रण को तर्क-विरुद्ध माण्डूक्य उपनिषद् की नीची और ऊँची विद्यापों बतलाते हुए कहते हैं कि जैनधर्म अनादिकाल से की बात स्मरण रखनी चाहिए । वेद-प्राप्त विद्या ही अपने अस्तित्व को बनाये हुए है। वैदिक काल निकृष्ट है, परन्तु शाश्वती प्रतिष्ठा देनेवाली की जो रूपरेखा उपस्थित की गई है, उससे यही उपनिषद् विद्या उत्कृष्ट है। प्रमाणित होता है कि जब वैदिक क्रियाकाण्ड का 1-64 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विरोध हुआ और जनरुचि उससे विमुख होने लगी, नहीं, बल्कि वेदविरोधी उक्त धर्मों के कारण बढ़ तब वैदिकों ने अपनी स्थिति बनाये रखने के लिए रही थी और उन्हीं के कारण पशुयज्ञ जनता के अपने विरोधी धर्मों की, जिनमें जैनधर्म प्रमुख था, लिए पालोचना और घृणा का विषय बन रहा प्राध्यात्मिक शिक्षाओं के आधार पर उपनिषदों की था । महाभारत में ऐसी भी कथा मिलती है, रचना की। उपनिषद् भी बातें तो अध्यात्म की जिसमें पशुयज्ञ को अधम बतलाकर हवियज्ञ को ही करती थी, किन्तु समर्थन वैदिक क्रियाकाण्ड को श्रेष्ठ कहा गया है । इसी प्राधार पर पूर्वाग्रहदेती थी, जिसके विरोधी बराबर मौजूद थे। विहीन विद्वानों का कहना है कि महाभारत श्रमणफलस्वरूप, विरोध की अभिवृद्धि होती ही चली संस्कृति से प्रभावित है। यह बात इसलिए भी बहुत हदतक सही है कि विभिन्न धर्मों में परस्पर प्रादान-प्रदान की प्रथा सदातन काल से चली इसी विरोधकाल में भगवान् पाश्वनाथ हुए। प्राई है। उनके उपदेशों ने अपना प्रभाव प्रदर्शित किया । पार्श्वनाथ के लगभग दो सौ वर्ष बाद ही बिहार में वैदिक धर्म की ईश्वर-भावना तथा पशूयज्ञ महावीर और बुद्ध का उदय हुमा। वैदिक धर्म में के हिंसावाद की प्रतिक्रिया के रूप में ही जैनधर्म विचारशास्त्र उच्चतर विद्वानों की वस्तु बनी हुई का जन्म हमा, जिसने मानव श्रेष्ठता की प्रादर्शथी किन्तु महावीर-युग में उनके धर्म का प्रचार वादिता तथा अहिंसावादिता का उद्घोष किया। जनसाधारण में किया जाने लगा । भगवान् इसलिए जैनधर्म को प्रतिक्रियावादी धर्म कहा पार्श्वनाथ ने लगभग सत्तर वर्षों तक स्थान स्थान जाता है। हालांकि यह प्रतिक्रिया दुर्गुण के प्रति पर विहार करके जनसामान्य : धर्मोपदेश किया। सद्गुण की प्रतिक्रिया है। इसी का अनुसरण महावीर और बुद्ध ने अवान्तर काल में किया । इन महापुरुषों ने प्राध्या- चौबीस तीर्थंकरों में तेईसवे पार्श्वनाथ और त्मिक विचारों को व्यावहारिक रूप देने तथा चौबीसवें महावीर वास्तव में ऐतिहासिक पुरुष विचारों के अनुरूप जीवन-यापन करने की प्रवृत्ति थे । वे वासुदेव कृष्ण के पीछे हुए हैं। इन दोनों को अपना प्रमुख लक्ष्य बनाया। वैदिक युग में महारुषों में पाश्वनाथ बुद्ध के पूर्ववर्ती हैं और इन्द्र, वरुण आदि को हो देवता के रूप में पूजा महावीर तथा बुद्ध समकालीन हैं । इन दोनों जाता था, किन्तु जैन-बौद्धधर्मों ने मनुष्य को महापुरुषों ने स्पष्ट रूप से कहा कि हिंसा और सर्वोपरि मानकर उसमें ही देवत्व की प्रतिष्ठा की। शुद्धधर्म का मेल सम्भव नही है तथा धर्म के सी समय रामायण और महाभारत की रचना बहाने पशुवध करना पुण्य नहीं, पाप है। इस हुई और राम तथा कृष्ण को ईश्वर का अवतार निश्चय को उन्होंने अपने शुद्ध चारित्र के द्वारा मानकर मनुष्य ने देवत्व की प्रतिष्ठा से आकृष्ट तथा संघ के प्रभाव से जनसाधारण में फैलाया । होने वाली जनता को वेदब्रह्म की ओर उन्मुख होने इसका हिन्दू-धर्म पर इतना गम्भीर और व्यापक से रोका। जैन-बौद्धधर्म में स्त्री और शूद्र को भी प्रभाव पड़ा कि हिन्दू जनता भी यज्ञ में हिंसा का धर्माचरण का अधिकार था। वेदों का पठन- प्रबल विरोध करने लगी। किन्तु. ब्राह्मणधर्म में पाठन दोनों के लिए जत था: 'न स्त्रीशदौ इतर धर्मों की विशेषताओं को अपनाने की अदभत वेदमधीयाताम् ।' इस बात की पूर्ति महाभारत क्षमता है । उपनिषत्कारों ने उत्तरकालीन उपनिषदों ने भी की। जनता की रुचि अहिंसा की अोर स्वत: के द्वारा बौद्धों और जैनों के अनेक मन्तव्यों को महावीर जयन्ती स्मारिका 77 165 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुआ है। इस प्रकार अपने में सम्मिलित कर लिया, मानों में प्रलय और सृष्टि की कल्पना करते हैं, किन्तु वह उपनिषदों की ही मूलवस्तु हो। अतः, उप- जैन जगत् को अनादिप्रवाह मानते हैं । निषदों में जैन आचार-विचार का जो पूर्वरूप वैदिक धर्मानुयायी मानते हैं कि सनातन धर्म पाया जाता है, उससे यह निर्णय लेना सर्वथा को ईश्वर की प्रेरणा से ब्रह्मा ने प्रकट किया, भ्रान्ति है कि जैनधर्म उपनिषदों से प्राविभूत किन्तु जैनों के मत से युग-युग में तीर्थंकर होते हैं और वे अपने जीवनानुभव के आधार पर सत्य-धर्म का उपदेश करते हैं । वैदिकधर्म में मोक्ष को दुर्लभ वैदिक या हिन्दू-धर्म और जैन धर्म के मानते हैं, किन्तु जैनों की मान्यता है कि मोक्ष सिद्धांतों में अनेक ऐसे अन्तर मिलते हैं, जो जैनधर्म केवल मानवीय अधिकार की वस्तु है। एक मानते को स्वतन्त्र धर्म प्रमाणित करते हैं। जैन वेद को हैं कि भगवत्कृपा से सुख मिलता है, किन्तु दूसरे नहीं मानते, स्मृतिग्रन्थों और ब्राह्मणों के अन्य का मत है कि सुख-दुःख का भोग मनुष्य के सत्प्रमाणभूत ग्रन्थों को भी प्रमाण नहीं मानते । प्रसत कर्मों पर निर्भर करता है। जैनधर्म में महत्त्वपूर्ण पार्थक्य की बात तो यह है कि जैनधर्म धर्मद्रव्य, गुणस्थान, मार्गणा आदि अनेक तत्व के धार्मिक तत्व और उनकी सारणि स्पष्ट और ऐसे हैं, जो हिन्दुधर्म में नहीं हैं। जैनन्याय में निश्चित है, किन्तु हिन्दू-धर्म में परस्पर-विरोधी स्याद्वाद, नय, निक्षेप आदि बहुत-से तत्व ऐसे अनेक सिद्धान्त हैं : 'वेदा विभिन्नाः श्रुतियों हैं, जो जनेतर न्याय में नहीं है। किन्तु, इतने विभिन्ना नैको मुनिर्यस्य वच: प्रमाणम् ।' इसके भेदों के रहते हए भी दोनों धर्मों के अनुयायियों में अतिरिक्त, वैदिक ईश्वर को जगन्नियामक मानते सांस्कृतिक दृष्टि से अद्भुत एकरूपता परिलक्षित हैं, किन्तु जैन नहीं मानते । हिन्दू-धर्मवाले युग-युग होती है । सच और झूठ ॐ श्री मोतीलाल सुराना, इन्दौर एक दिन सच और झूठ का आमना सामना हो गया। सच ने मुह फेर लिया तो झूठ बोला, मैं तुझसे बड़ा हूं, मेरी तरफ देख । यह सुन सच आश्चर्य से देखने लगा उसकी ओर । तब झूठ बोला- मैं यदि न होऊ तो तेरा अस्तित्व भी खतरे में पड़ जाय । तुझे कोई पहचाने नहीं। झूठ की इस बात पर सच को हँसी आ गयी। सोचने लगा-सच ! आखिर झूठे ने भी एक बार तो सच का आसरा लिया। 1-66 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रों में मोक्षमार्ग का कथन दो प्रकार से किया गया है एक निश्चय मोक्षमार्ग तथा दूसरा व्यवहार मोक्षमार्ग (व्यवहार मोक्षमार्ग साधन है और निश्चय साध्य) कविवर दौलतरामजी ने छहढ़ाता में कहा है-'जो सत्यारथ रूप सु निश्चय, कारन सो ववहारो' । व्यवहार निश्चय का कारण है तो कार्य के लिए कारण की उपेक्षा कैसे की जा सकती है। पं. प्रवर प्राशाधरजी ने अनगारधर्मामृत में कहा है कि व्यवहार और निश्चय को मत छोड़। इनमें से एक के भी प्रभाव में धर्मतीर्थ का प्रभाव हो जायगा। पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में भी ऐसा ही कहा है। ४थे गुणस्थान से लेकर अन्तिम गुरणस्थान तक की सारी क्रिया व्यवहार है । कलकत्ते जाने वाले को सारा रास्ता पार करना ही पड़ेगा, (बिना रास्ता पार किए कलकत्ते पहुंच ही नहीं सकता । इसी प्रकार बिना व्यवहार के निश्चय को प्राप्ति नहीं हो सकती । हां व्यवहार को ही लक्ष्य मानने वाला उन्नति नहीं कर सकता, अपने लक्ष्य मुक्ति को प्राप्त नहीं कर सकता। --प्र० सम्पादक व्यवहार नय की उपयोगिता • पं. गुलाबचन्दजी जैनदर्शनाचार्य, जयपुर जैनागम में वस्तु स्वरूप को जानने के लिये को ग्रहण करता है । शुद्ध द्रव्य की प्राप्ति निश्चय प्रमाण नय और निक्षेप का माध्यम बताया गया के प्रवलम्बन से होती है किन्तु जब तक उसकी है । तत्त्वार्थसूत्र में इसी की पुष्टि में कहा है प्राप्ति न हो व्यवहार का पालम्बन लेना पड़ता 'प्रमाणनयैरधिगमः" अर्थात् प्रमाण और नय से है। सम्यग्दर्शनादि का अधिगम होता है। "नामस्थापना - शुद्धज्ञायक तत्त्व प्रात्मा को दर्शन, ज्ञान और द्रव्यभावतस्तत्र्यास." अर्थात् नामादिक से लोक चारित्रमय बताना भी व्यवहार नय का वचन है व्यवहार होता है । प्रमाण वस्तु के पूर्ण स्वरूप को जबकि निश्चय से शुद्ध ज्ञायक ही प्रात्मा को माना बताता है जबकि नय उसके एक देश का विवेचन है - करता है । नय के नाना भेदों में दो भेद प्रमुख हैं ववहारेणुवदिस्सइ गाणिस्स चरित्तदंसरणं एक द्रव्यार्थिक पौर दूसरा पर्यायाथिक । अध्यात्म णारण। भाषा में इन्हीं को निश्चय और व्यवहार की संज्ञा गविणाणं गा चरित्तं ण दंसरणं जागो से व्यवहृत किया गया है। निश्चय वस्तु के निज सुद्धो॥ स्वरूप को साधता है और व्यवहार भेद करके वस्तु (समयसार गाथा 7) महावीर जयन्ती स्मारिका 77 1-67 Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐसा कहने के बावजूद भी प्राचार्य कुदकुद गाणं प्रप्पा सव्वं जम्हा सुयकेवली तम्हा ।। व्यवहार नय के कायल होकर लिखते हैं समयसार 9, 10 जह णवि सक्क मरणज्जो अणज्जभास विणा उ जो विषय ऋषीश्वरों के विचारने का है वह गाहेउँ। प्राज साधारण अज्ञानी जन के विचारने का विषय तह ववहारेण विणा परमत्थुवएसरण मसक्क॥ हो गया। ऋषीश्वर संसार से ऊपर उठे हुए हैं दृढ (समयसार 8) (जैसे अनार्य भाषा के बिना किसी भी वस्तु श्रद्धान ज्ञान और प्राचारण में रंगे पगे हैं नीची अवस्था छोड़ कर ऊची अवस्था में विचरने वाले का स्वरूप ग्रहण करने के लिये कोई समर्थ नहीं है उसी प्रकार व्यवहार के बिना परमार्थ का हैं - अशुभ को तो सर्वथा छोड़ ही चुके हैं शुद्ध में उपदेश देना प्रशक्य है। विशेष टिकाव न होने से ही शुभ में पाते हैं किन्तु वे भी झूले की हिलोरमात्र । वे अवश्य व्यवहार इससे स्पष्ट है कि जब तक जीव संसार में को हेय, अभूतार्थ, प्रसत्पार्थ कह सकते हैं क्योंकि रहेगा उसे व्यवहार की शरण लेना पड़ेगा। इस अन्ततोगत्वा उन्हें तो निज पद पाने हेतु पर पद गाथा में म्लेच्छ शब्द संसारी जीवों के लिये का त्याग करना ही है और वह उन्हें निश्चय की समझना चाहिए क्योंकि जो संसार से ऊपर उठ शरण, या यों कहिए एक मात्र अपने प्रात्म द्रव्य चुके हैं वे पवित्र शुद्ध बुद्ध निरंजन एक स्वरूप एवम् टंकोत्कीर्ण हैं और जो ससार में हैं वे अशुद्ध, की शरण लेनी ही है फिर वे व्यवहार को उपादेय कैसे कहेंगे ? पर पाश्चर्य जो अशुभ में रचे हुए हैं अज्ञानी, विनाशी तथा दीनहीन हैं अत: म्लेच्छ के समान हैं। इसमें यदि तर्क की कोई गुंजाइश है तो शुद्ध की तो बात ही क्या शुभ की ओर भी नजर मात्र श्रद्धाविषयक पवित्रता की हो सकती है किन्तु नहीं कर सकते व्यवहार को हेय अनादरणीय और वह भी विरलों के हिस्सों की ही कही जा सकती अभूतार्थ कहते हैं। जिनके यहां रागद्वेष, मोह है शेष तो सब समान से ही हैं। मात्सर्य असूया तथा परस्पर ईर्ष्या द्वेष के भंडार भरे हैं उत्तम खाना, उज्ज्वल पहनना जमीन के व्यवहार के बिना निश्चय का पत्ता नहीं अधर चलना जिनको प्रिय है उनको व्यवहार हेय हिलता यह कुदकुद के वचन हैं किन्तु व्यवहार नहीं कहना चाहिये। को सर्वथा हेय कहने में कुछ विद्वान् नहीं चूकते । मैं कहता हूं वे कुदकुद को समझे ही नहीं। व्यवहार को निंद्य कहने वाले न तीन ओंकार प्राचाय देव ने श्रुत के माध्यम स अात्मतत्व का पढ़ सकते हैं मोर न पंचपरमेष्ठी की स्तुति ही कर जानने वाले सम्पूर्ण श्रु त के वेत्ता को श्रु त केवली सकते हैं पूजा अभिषेक दान सम्मान तो उनके लिये कहा है जो कि व्यवहार श्रु त के जरिये ही इस और भी परे की चीज है। पराकाष्ठा को पहुँचा है फिर उस व्यवहार का अपलाप कैसे किया जा सकता है ? हम लोग व्यवहारी जीव हैं। हमें निश्चय की जो हि सुएणहिगच्छइ अप्पारणमिणं तु केवलं अकाट्य श्रद्धा रखते हुए उत्तम व्यवहार की सुद्ध। तं सुयकेवलिमिसिणो भरणंति लोयप्पईवयरा॥ भूमिका निभानी चाहिए यदि हम किंचित् भी इस जो सुयणाणं सव्वं जाणइ सुयकेवली भूमिका से चिगते हैं तो समझिये हमने जिनागम तमाहुजिगा। को स्पर्श ही नहीं किया। 1-68 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार का अर्थ - जाता है व्यवहार ही ज्ञान करने और प्राचरण प्रागम में भेद को व्यवहार कहा है और दूसरी करने के लिए शेष रहता है। जब यह जीव बंध भाषा में कारण में कार्य के उपचार को भी व्यवहार और बन्ध के कारणों को मानेगा तब उनसे छूटने कहा है। जहां वस्तु को यथार्थ रूप से समझना हो का उपाय करेगा । जैनागम में सौपाय मुक्ति को ही वहां निश्चय का सहारा लेना होगा किन्तु उसको माना है निरुपाय को नहीं और यह सब व्यवहार समझ कर जीवन में उतारना होगा वहां व्यवहार पवार मार्ग का अनुसरण करने पर ही संभव है । तत्त्व का सहारा काम प्रायेगा। जैसे प्रात्मतत्व की श्रद्धा अथवा भेद विज्ञान के बिना तो जैन दर्शन में प्राप्ति हेतु बन्धन मुक्ति निश्चय से श्रद्धान का स्थान ही नहीं दिया जाता उसके होने के पश्चात् विषय है किन्तु वह कैसे प्राप्त हो इसके लिये आचरण करना, हिंसादि पापों से दूर रहना,क्रोधादि उपाय आवश्यक है। समयसार के मोक्ष द्वार में कषाय से छूटना, संयम धारण करना, इन्द्रियों पर कहा है-कि जैसे बंधनों से बंधा हा पुरुष बंधों विजय पाना, सत्कार्य करना, अपने पाप को पाने के का विचार करने से मुक्ति को प्राप्त नहीं उपाय रूप ध्यानाध्ययन करना अणुव्रत महाव्रत करता इसी प्रकार जीव भी बन्धों का विचार अगाकार करना ये सब व्यवहार माक्ष माग है। करने से मोक्ष को प्राप्त नहीं होता इसी के सहारे हम जीवन यापन करते हुए अपने (गाथा 292) । यदि विचार किया जाय तो आप को तथा अन्य को लाभान्वित कर सकते हैं निश्चय से प्रात्मा निबंध है व्यवहार से ही बंधा हमें इस मार्ग को नहीं छोड़ना चाहिए । व्यवहार है और उपाय करने से ही मुक्त होगा यह बंध और ही जीवन की सफलता की अद्भुत कुजी है । हमारे उससे छूटने के सारे उपक्रम व्यवहार गभित हैं प्रतः लिये निश्चय मात्र श्रद्धान का विषय है । हो सकता इसको नकारा नहीं जा सकता। है वह हमारी भूमिका से ऊपर की भूमिका के लिए परमपयोगी हो किन्तु हम जैसे गृहस्थों के लिए वस्तु प्ररूपणा व्यवहार के माध्यम से होती है तो व्यवहार ही उपादेय है । उसके सहारे के बिना हो ही नहीं सकती। इस . प्ररूपए के कारण ही द्रव्यलिंग और भावलिंग की पं० बनारसीदास ने कहा हैचर्चा की जाती है । द्रव्यलिंग में मुनिलिंग और वस्तु स्वरूप विचारतें शरण प्रापको उसका उपासक गृहीलिंग मोक्षमार्ग कहा गया है प्राप। किन्तु निश्चय से दोनों लिंग ही मोक्षमार्ग में नहीं व्यवहारेपन परम गुरू प्रवर सकल बतलाये । निश्चय तो मात्र श्रद्धा का विषय रह संताप ॥ * * महावीर जयन्ती स्मारिका 71 1-69 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जन्म मंगल गीत : - डा० बड़कुल डी० एल० जैन 'धवल', बरेली शचि रम्भा गावे गीत, जन्म की परिभाषा ॥टेक।। भयो-भयो रे, वीर अवतार, मुदित त्रिसला रानी । अति पुलकित नृप सिद्धार्थ, सुनी जब यह बानी ॥ आये चतुनिकाई देव, हर्ष का था वासा । शचि. ॥१॥ भये चमत्कार बहु भांति, चकित देखें प्रानी । सम्मोहित रति-अनंग, नृत्य की मन ठानी ॥ नाचें किन्नरि-गंधर्व, हृदय अति उल्लासा ।। शचि. ॥२॥ इन्द्रानी बलि-बलि जाय, रुन-झुन ताली पर । बाजें नौबत रमणीक, उत्सव द्वारे - पर ॥ सुधि भूलो सकल जहान, पूर्ण भई मन प्रासा ॥शचि.॥३॥ इक-जादू सी मुस्कान, अधर मोहक राता । थी प्राभा दिव्य महान, भास्कर विसराता ॥ सोहला गावें केई नारि, 'धवल' रोचक भाषा शचि ।४।। 1-70 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 www. Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर वर्द्धमान * उपाध्याय मुनिश्री विद्यानन्दजी महाराज विदेह देश स्थित लिच्छिवि गणतन्त्र भारत उसका मन-मन्दिर एक दिव्य पालोक से प्रकाशित का प्राचीनतम गणराज्य था। उसके गणप्रमुख हो उठा। राजा चेटक थे। उनके एक अत्यन्त सौम्य स्वभाव इन्द्र ने गर्भवती माता की सेवा के लिए 56 वाली त्रिलोक सुन्दरी त्रिशला नामक कन्या थी। दिव्य कुमारी देवियां भेजी। धीरे-धीरे वह घड़ी उसके शील एवं सौजन्य के कारण उसका नाम भी प्रा पहुंची जब विश्व को अहिंसा का परम प्रियकारिणी भी था। राजा सिद्धार्थ और रानी विशुद्ध मार्ग दिखलाने वाला बर्द्धमान-महावीर त्रिशला अपने नन्द्यावर्त राजप्रासाद में वृषभदेव ईसा पर्व 598 सिद्धाथि संवत्सर चैत्र शुक्ला 13 और पारसनाथ प्रादि तीर्थ करों की भक्ति-पूजा (त्रयोदशी) सोमवार को जननी के गर्भ से अवतरित करते हुए अत्यन्त सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर रहे हए। इस शूभ घड़ी पर देवताओं ने नंद्यावर्त थे। ईसा पूर्व ५६६ काल संवत्सर आषाढ़ शुक्ला राजप्रसाद तथा नगर पर रत्नों की वर्षा की । ६ (छठ) शुक्रवार को प्रियकारिणी त्रिशला ने राज्य में चारों और खुशहाली छा गई। शस्य रात्रि में सोलह शुभ स्वप्न देखे । प्रातः काल वह श्यामला वसुन्धरा का अनुपम सौन्दर्य उसकी अत्यन्त प्रसन्न होकर अपने स्वामी राजा सिद्धार्थ प्रफल्लता को व्यक्त कर रहा था। राजप्रासाद में के पास पहुंची तथा उनसे अपने स्वप्नों का फल भी सुख और शान्ति की अभिवृद्धि होने लगी। पूछा। राजा सिद्धार्थ ने ज्योतिष गणना एवं इसे लक्ष्य करके माता-पिता ने बालक का नाम अवविज्ञान के द्वारा फल बताया-"रानी, तुम्हारे वर्द्धमान अर्थात-सतत वृद्धि को बढ़ाने वालागर्भ से एक महान् पुत्र का जन्म होगा, जो प्रात्म वर्द्धमान रखा। कल्याण करते हुए विश्व का महान् कल्याण करेगा। तप्त ताम्रतनु भातुसम गात्र वह हिंसा, चौर्य, असंयम मादि से संत्रस्त मानव यह पूर्वाचल प्रत्यूष पथिक को कल्याण का श्रेयोमार्ग प्रदर्शित करेगा।" रानी दिगम्बर पथ के उन्नायक का मन प्रफुल्लित हो उठा। सहसा उसके मुख से कृपया हर लें मिथ्या तिमिर ।। हृदय की बात फूट पड़ी -- क्या मैं ऐसे महान् पुत्र की मां बनूगी ? रानी त्रिशला के हृदय कमल बालक वर्द्धमान जन्म से ही महान तेजस्वी की उस प्रफुल्लता का अनुभव कौन कर सकता है ? था। उसके जीवन की अनेक महत्वपूर्ण घटनाएं महावीर जयन्ती स्मारिका 77 1-71 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं । एक बार वे वटवृक्ष के नीचे पाठ राजकुमारों गम्भीरता के साथ पिता के समक्ष निवेदन कियाके साथ खेल रहे थे। इतने ही में सगम नामक "पिताश्री इस नश्वर जीवन को अमरत्व की देव ने उनकी परीक्षा लेने के विचार से भयंकर साधना में लगाना चाहता हूं। मैं प्रात्मकल्याण सर्ष उनके पास छोड़ा। उसे देख कर कुछ राज- करके मानव जीवन की सार्थकता सिद्ध करना कुमार तो भाग गए किन्तु वर्द्धमान प्रविजित भाव चाहता हूं।" माता-पिता के अनेक विध समझाने से डटे रहे। उन्होंने उस भयंकर सर्प को निडरता. पर भी विरक्त मन वाले राजकुमार का मन पूर्वक पकड़ कर दूसरी ओर छोड़ दिया। सगमदेव अनुरक्त न बन सका । कुछ समय बीतने पर राजने यह सब कुछ देख कर अपनी वास्तविकता को कुमार के समक्ष लोकान्तिक देव उपस्थित हुए। प्रकट कर उनकी स्तुति की और उन्हें सीधे कन्धे राजकुमार वर्द्धमान एकान्त में वीतराग भाव से पर बैठाकर आनन्दमग्न हो नाचने लगा। वर्द्धमान तत्वचिन्तन कर रहे थे। लौकान्तिक देवों ने उनसे कुमार बालपन से ही अतिर्वार एवं निर्भय थे । वे कहा-प्रभु, आप तो संसार के जीवों का उद्धार देवकुमार और राजकुमारों के साथ वटवृक्ष के करने के लिए उत्पन्न हुए हैं। आप तपश्चर्या के नीचे प्रामली क्रीडा किया करते थे। द्वारा केवलज्ञान प्राप्त करें, कर्मों का क्षय करके केवलज्ञान के द्वारा मोक्षपद के अधिकारी बनें। कुमार वर्द्धमान अत्यन्त मेघावी थे । एक बार राज कुमार को अपने जीवन के लक्ष्य की स्मृति प्रा संजयंत और विजयंत मुनि उनसे कुछ शंकानों का गई। देवताओं द्वारा लाई गई चंद्रप्रभा पालकी में समाधान प्राप्त करने पाए। कुमार वर्द्धमान झूले बैठकर वे ज्ञातखण्ड वन की और चल पडे । में झूल रहे थे। दोनों मुनियों की शंकाओं का उन्होंने ईसा पूर्व 569 सर्वधारी संवत्सर मगशिर निरसन उन्हें दूर से देखकर हो हो गया । वे मुनि ' कृष्णा 10 (दशमी) सोमवार को दिगम्बर मुनि द्वय बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने बालक वर्तमान दीक्षा लेकर निरावरण हो वन के शाल वृक्ष के का नाम सन्मति रखा। इस प्रकार अभिवृद्धि को। नीचे तपश्चर्या प्रारम्भ की। दो दिन पश्चात् उन्होंने प्राप्त होते हुए राजकुमार वर्तमान नन्द्यावर्त प्रथम पारणा (पाहार) कूल ग्राम राजा बकुल के राजप्रासाद में प्रायः एकान्त में ध्यानमग्न हो कर प्रासाद में किया। प्रात्मचिन्तन में लीन दिखाई पड़ते थे। प्रापकी छाया भी वनिता साध्वी चंदना को। जब वे पूर्ण यौवनावस्था को प्राप्त हुए तो सम्यक गुणगण गणनीय वर्द्धमान ।। उनका सुकोमल धवल शरीर कान्ति से जगमगा सहज लिया अनुद्दिष्ट पिण्ड दान में । उठा । कलिंग के राजा जितशत्रु ने अपनी त्रिलोकसुन्दरी सुपुत्री यशोदा के साथ राजकुमार वर्द्धमान यह नियम-यम शाश्वत परिपालित थे । के विवाह का प्रस्ताव रखा । पिता सिद्धार्थ ने बारह वर्ष का वह कठिन तपश्चर्या का जीवन, सुपुत्र वद्धमान को समझाया-राजकुमार अब तुम घोर वन और भयंकर उपसर्गों के बीच वह क्षीण पणं यवा हो गए हो। राजा जितशत्रु का प्रस्ताव कषायी तीर्थकर महावीर अविचलित बने रहे। वे स्वीकार करते हुए राजकुमारी यशोदा से विवाह सच्चे अर्थ में महावीर थे। उन्होंने अपना प्रथम करो और गृहस्थ जीवन में प्रवेश करो ताकि उपदेश (देशना) ईसा पूर्व 557, को विपुलाचल हमारी वंश-वृक्ष परम्परा निरन्तर गतिमान रहे। पर्वत पर दिया। उनकी वाणी केवलज्ञान होने के राजकुमार वर्तमान ने अत्यंत शालीनता एवं 66 दिन बाद प्रस्फुटित हुई, क्योकि उनकी धर्मसभा 1-72 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में गणधर का प्रभाव था। जब विद्वान् ब्राह्मण गौतम उनके शिष्य बन गए तभी तीर्थंकर महावीर की दिव्य ध्वनि खिरी (प्रस्फुटित हुई) । विश्रुत प्रमोध दर्शन सुपर्व सर्वातिशयिनी दिव्यध्वनि मानसपुर में मानसरोवर बस गये में सौरभ-से ।। सुमन श्रात्म-सुख का प्रशोक वृक्ष लिख रहे गौतम ऋषि कपिलाओं की किरणावलियां वीर दिनकर परिलक्षित दिव्य || राजा बिम्बसार (श्रेणिक) उनके समवशरण में प्रधान श्रोता बनकर उपस्थित होता था । इसके उपरान्त तीस वर्ष तक महावीर स्वामी ने लोक कल्याण के हेतु धर्म - प्रभावना की दृष्टि से उत्तर से दक्षिण पूर्व से पश्चिम तक मंगल विहार किया । जहां भी उनका समवशरण जाता था, धर्मचक्र श्रागे-आगे चलता था । सब और सुभिक्ष छा जाता था और पृथ्वी शस्य श्यामला बनकर उनका स्वागत करती । प्राणीमात्र के लिए उनका महान् सन्देश था - जीश्रो श्रौर जीने दो । किसी जीव को कष्ट मत पहुंचा क्योंकि वह भी तुम्हारी तरह श्रात्मा से संयुक्त है । सत्याचरण ही मानव-जीवन को उज्ज्वल बनाने वाला है । किसी के धन के प्रति लोलुप बनकर उसकी चोरी नहीं करनी चाहिए। श्रावश्यकता से अधिक वस्तु का संग्रह अशान्ति का कारण है । संयम हमारे जीवन को महान् बनाता है । शान्तिप्रिय लोक विग्रही नाथ सरिता सम प्रवाह अनवरतसप्त भंग भ्रम जाल निवर्त्तक वीर अनुकूल प्रजागरण सरिता सी ॥ महावीर जयन्ती स्मारिका 77 प्रालोक लोक का रत्नदीप त्रिरत्नों का दीपक प्ररणव ज्ञान दीप सप्त भंग रश्मि अनन्त पथ अनेकान्त के पुंज ॥ तीर्थ ंकर महावीर ने सिद्धान्त रूप में अनेकान्त (स्यादवाद) का प्रतिपादन किया। क्योंकि यह प्रात्मा अनन्तधर्मवाली है । जब परमाणु प्रनन्त गुण वाला है तो? त्रैलोक्यमूल्य श्रात्मा का क्या कहना ? उसका निरूपण भला एकान्त दृष्टि से कैसे किया जा सकता है ? इस प्रकार मानव के कल्याण हेतु धर्म प्रभावना करते हुए भगवान् महावीर ने तीस वर्ष व्यतीत किये प्रौर अपने अन्तिम समय में मल्लों की राजधानी पावानगर पहुंचे । वहां उन्होंने बहत्तर वर्ष की अवस्था में महामणिशिलातले शुक्ल सभा भवन के उद्यान के एक मण्डप में 48 घण्टे योगनिरोध करके ईसा पूर्व 527, कार्तिक कृष्णा 30 प्रमावस मंगलवार, 15 अक्तूबर को निर्वाण प्राप्त किया । हस्तिप ल सहित 18 गणराज्यों के गणमुरूयों ने दीपकों की पंक्ति सजाकर तीर्थ कर महावीर का निर्वाणोत्सव मनाया। इस महान् उत्सव को मनाने के लिए उन्होंने पृथ्वी और प्राकाश को दीपकों के प्रकाश से आलोकित किया। उसी दिन से हमारे देश में प्रति वर्ष प्रमावस्या कृष्णा 30, कार्तिक को झोंपड़ी से लेकर राजमहल तक दीपावली का महान् पर्व धूमधाम से मनाया जाता है। तीर्थ कर महावीर स्वामी ज्ञान के पुंज थे। उनकी ज्ञान ज्योति से समस्त पृथ्वीमण्डल प्रकाशित हो उठा । ज्ञान दीप प्रस्त हो गया इसका प्रतीक जैन लोग दीपक जलाकर मनाते हैं । आज भी हम दीपकों के प्रकाश में भगवान महावीर की उसी ज्ञान ज्योति का प्रतीक दीपक जलाकर निर्वाण पर्व एवं दीपावली मनाते हैं । 1-73 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व के कल्याण * श्री शर्मनलाल जैन "सरस" सकरार विश्व के कल्याण मेरे, इस कलम की वन्दना लो, हे अहिंसा प्राण मेरे, इस वतन की वन्दना लो, [ एक ] तिमिर हिंसा का धरा से, गगन तक छाया हुआ था, बन गया था पशु मानव, स्वर्ग अकुलाया हुआ था, मौन थी नंगी मनुजता, अधम जय पाने लगे थे, सत्य के शव पर निरन्तर, गीध मंडराने लगे थे, हे विजय अभियान मेरे, उस समय की वन्दना लो, विश्व के कल्याण मेरे, इस वतन की वन्दना लो, उस समय तुमने सुधाकर, देश को सम्वल दिया था, देख अति साहस तुम्हारा, नियति को अचरज हुअा था, जब चले तुम महल तजकर, लाल त्रिशला के दुलारे, बने हिंसक से अहिंसक, जिंदगी के क्षण तुम्हारे, हे अमर उत्थान मेरे, आज मन की वंदना लो, विश्व के कल्याण मेरे आज मन की वंदना लो, [ तीन ] हे बृहत वैराग्य जब से, आप शिवपुर को पधारे, हो गया है योग पंगु, भोग ने फिर कर पसारे, दानवी वृति ने छीना, परम मंगल का महरत, यह मही महसूस करती, वीर की फिर से जरूरत, हे जगत जलयान, इस सेवक 'सरस' की अर्चना लो, विश्व के कल्याण मेरे इस वतन की वंदना लो, 1-74 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रात्मा मुक्ति प्रादि के सम्बन्ध में प्रश्न किये जाने पर भगवान् बुद्ध ने कहा था कि उनके बारे में कहना सार्थक नहीं क्योंकि न तो वह मिक्षुचर्या के लिए उपयोगी है और न निर्वाण के लिए। यह बौद्ध दर्शन आगे चलकर 1. सौतांत्रिक, 2. वैमासिक, 3. योगाचार और 4. माध्यमिक इन चार परस्पर विरोधी दर्शनों में विभक्त हो गया। माध्यमिक शाखा के प्रवर्तक प्रसिद्ध शून्यवादी विद्वान् नागार्जुन थे जो मध्यमकारिका तथा विग्रहव्यावतिनी नामक ग्रंथों के कर्ता ईसा की तीसरी शताब्दी के विद्वान् थे। जैन न्यायशास्त्रियों ने इसी शून्यवाद का खण्डन अपने विभिन्न ग्रंथों में किया है। उन्हीं को प्राधार बनाकर विद्वान् लेखक ने यह निबंध प्रस्तुत किया है। प्र० सम्पादक शून्यवाद समीक्षा डा० रमेशचन्द जैन, बिजनौर माध्यमिक बौद्धों का कहना है कि यह समस्त इसी प्रकार समस्त वस्तुओं के दोषों की जानकारी जगत् शून्य है. प्रमाण और प्रमेय का विभाग स्वप्न होने पर रागभाव चिरकाल तक नहीं ठहरता है। की तरह है । शन्यता दर्शन से ही मुक्ति होती है, एक ही पदार्थ में कोई राग करता है, उसी में कोई अन्य समस्त क्षणिकत्वादि भावनायें शून्यता के द्वेष करता है, उसी में कोई मोहित होता है प्रतः पोषण के लिए ही हैं । 'भाव, प्रभाव, भावाभाव विषय की इच्छा निरर्थक है। कल्पना के बिना तथा अनुभय इन चार कोटियों से विलक्षण तत्त्व रागादि भावों का अस्तित्व नहीं होता है। यदि हो शन्य है। बुद्धि से विवेचित किए जाने पर पदार्थों का अस्तित्व होता तो कल्पना की प्रावपदार्थों के स्वभाव का अवधारण नहीं होता प्रतः वे श्यकता ही नहीं थी।10 भव का बीज विज्ञान है अनभिलाप्य और निःस्वभाव हैं। इस संसार में जो और गोचर पदार्थ उसके विषय हैं। पदार्थ के नर पश-पक्षी घट-पट प्रादि पदार्थों का प्रतिभास नैरात्म्य स्वभाव को समझ लेने पर भवबीज निरुद्ध होता है, वह सब मिथ्या है। भ्रान्ति से ही वैसा हो जाता है।11 प्रतिभासित होता है, जिस प्रकार स्वप्न अथवा इन्द्रजाल में हाथी आदि का मिथ्या प्रतिभास होता इस प्रकार माध्यमिक बौद्धों का अभिप्राय है है। सभी गोचर वस्तुयें प्रतिबिम्ब के समान हैं। कि हमारा विज्ञान और उसके विषयीभूत वाह्य यह भी निश्चय नहीं कि इन प्रलीक पदार्थों का पदार्थ न तो पूर्ण रूप से वास्तविक और न पूर्ण कहां से उदगम और कहां लय होता है । यथार्थ रूप से काल्पनिक ही हैं। माध्यमिक शब्द मध्यम में जगत की न कोई उत्पत्ति होती है और न से बनता है। मध्यम बीच को कहते हैं। दोनों विनाश ही होता है । जिस प्रकार प्रतिकूल अन्त के सिद्धान्तों को छोड़ने के कारण यह व्यक्तियों में स्नेह भाव चिरकाल तक नहीं ठहरता, माध्यमिक कहलाता है अर्थात् यह न तो सर्वास्ति महावीर जयन्ती स्मारिका 77 1-75 Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ‘वादी ही है और न सबके अस्तित्व का निषेध ही नहीं । यदि उक्त सिद्धान्त के समर्थन में कोई प्रमाण करता है किन्तु इसने एक-एक बीच का मार्ग विद्यमान नहीं है तब तो यह सिद्धान्त ठीक नहीं चुना 112 नागार्जुन की माध्यमिक कारिका के और यदि इस सिद्धान्त के समर्थन में कोई प्रमाण अनुसार शून्यता ही परम है। ससार और निर्वाण विद्यमान है तो सब कुछ शून्य कसे कहा जा सकता या शून्यता में कोई अन्तर नहीं है। शून्यता या है ? 14 प्राचार्य हेमचन्द्र ने कहा है-अन्यवादी परमसत्ता उपनिषदों के निर्गुण बुद्ध के समान है। तो प्रमाणादि को मानते हैं, इसलिए अपने सिद्धान्तों इस में न तो प्रारम्भ है, न अन्त है, न चिरता है, को सिद्ध कर सकते हैं, परन्तु शून्यवादी उन परन प्रचिरता है, न एकता है, न अनेकता है, न वादियों के समान अपने शून्यवाद को सिद्ध अन्दर आना है, न बाहर जाना। सारतः केवल नहीं कर सकता; क्योंकि जिससे सिद्धि अनारम्भमात्र है जो शून्यता का पर्यायवाची है। हो सकती है ऐसे प्रमाणादि को यह झूठा अन्यत्र भी वह लिखते हैं कि प्रतीत्यसमुत्पाद मानता है । यदि शून्य वादी प्रमाण का ही शून्यता है। शून्यता प्रारम्भ का उल्लेख करते आश्रय लेकर अपने सिद्धान्त की सिद्धि करे तो हुए भी मुख्यतः वह मध्यम मार्ग है जो अस्तित्व इसका शून्यतामय सिद्धान्त कोष करने लगेगा। और अनस्तित्ल के दो परस्पर विरोधी छोरों से क्योकि प्रमाण का आश्रय लेने से प्रमाण पदार्थ दूर है। शून्यता वस्तुओं का सापेक्ष अस्तित्व सिद्ध हो जाता है इसलिए शून्यता नहीं रह सकती है या एक प्रकार की सापेक्षता है। प्रो० है। हे भगवन् ! अापके मत के साथ ईर्ष्या रखकर राधाकृष्णन् के शब्दों में शून्यता का अर्थ माध्य- अपने नए-नए मतों का निरूपण करने वालों ने क्या? मिकों के अनुसार सम्पूर्ण और परम अस्तित्वहीनता अच्छा कहा है, अर्थात ऐसा निरूपण क्यिा जिसका नहीं है, परन्तु सापेक्ष सत्ता है। माध्यमिकों के सिद्ध होना ही कठिन है ।15 तत्वज्ञान में शन्यता की प्रधानता है, अतः उसे बौद्ध : शून्यता समर्थक प्रमाण से अतिरिक्त शून्यवाद कहते हैं। माध्यमिक कारिका में दो प्रकार शेष सब कुछ शून्य रूप है। के सत्यों का उल्लेख है (1) संवृति और ( ) . जैन : तब तो प्रमाण की सहायता से शिक्षित परमार्थ । संवृति का अर्थ वह प्रज्ञान अथवा भ्रान्ति किया जाने वाला व्यक्ति भी शून्यरूप हुआ और है जो वस्तु जगत् को घेरे हुए हैं और मिथ्याभास उसकी शिक्षा पर व्यय किया गया श्रम व्यर्थ पैदा करती है। परमार्थ का अर्थ है कि सांसारिक गया।18 वस्तुयें एक भ्रान्ति या प्रतिध्वनि की भांति बौद्ध : उक्त रूप से शिक्षित किया जाने वाला अस्तित्वभरी है। परमार्थ सत्य संवृति सत्य को व्यक्ति भी अशून्य रूप है । पाए बिना नहीं हो सकता। संवृति सत्य साधन है जैन : तब तो आपके न चाहने पर भी अनेकों तो परमार्थ सत्य साध्य । इस प्रकार से सापेक्ष वस्तुयें प्रशून्य रूप सिद्ध हो गई क्योंकि प्रश्न करने दृष्टिकोण से प्रतीत्य समुत्पाद सांसारिक घटनाओं वाले व्यक्तियों की संख्या अनेक हो सकती है ।17 का अर्थ दे सकता है, परन्तु परमार्थ दृष्टि से सब बौद्ध : वे सभी व्यक्ति जो शून्यता समर्थक समय में अनारम्भ ही निर्वाण या शून्यता है।13 प्रमाण को स्वीकार करते हैं तथा वे सभी व्यक्ति उत्तर पक्ष-(1) शून्यता समर्थक प्रमाण है जिन्हें शून्यता विषयक शिक्षा दी जा रही है, या नहीं ? माध्यमिकों के शून्यवाद सिद्धान्त पर अस्तित्वशील हैं। अन्यवादियों को प्रापत्ति है। वे पूछते हैं कि शून्य- जैन : हम कह ही चुके हैं कि ऐसा मानने पर वाद के समर्थन में कोई प्रमाण विद्यमान है अथवा तो अनेक वस्तुयें प्रशून्य सिद्ध हो गई। 8 शून्यवादी 1-76 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो शून्यवाद का उपदेश करता है वह अपने आगम होता तो कदाचित् ही न होना चाहिए; किन्तु सदा के कथनानुसार ही करता है, इसलिए उसने अपने ही होते रहना चाहिए; क्योंकि जिस प्रात्मा में यह प्रागम में सत्यता स्वीकार कर ही ली अतः शून्यता उत्पन्न होता है वह सदा विद्यमान रहता है । जो की सिद्धि कैसे हो सकती है ? दूसरी बात यह है ज्ञान कदाचित् ही होता है सदा नहीं होता है वह कि प्रमाण सिद्धि प्रमेय के बिना नहीं हो सकती ज्ञान कदाचित् उत्पन्न होने वाले कारणों से ही इसलिए शून्यवादी प्रमाण को नहीं माने तो प्रमेय उत्पन्न हुमा देखा जा सकता है। जैसे बिजली का पदार्थ भी सिद्ध नहीं हो सकते हैं । यदि प्रमेय कुछ ज्ञान । इस प्रकार प्रत्यक्ष से प्रात्मा की सिद्धि होना हैं नहीं तो शून्यवाद की सिद्धि के लिए अधिक असम्भव है; क्योंकि जो प्रात्मा के साथ कभी प्रलाप करना व्यर्थ है, मौन धारण ही श्रेयस्कर है; बिछुड़ता न हो, किन्तु सदा साथ ही मिलता तो क्योंकि शून्यवाद भी एक प्रकार का प्रमेय है।19 ऐसा कोई हेतु दिखाई नहीं देता है। प्रागम परस्पर विरोधी हैं अतः उनमें कोई प्रमाणता नहीं है। एक बौद्धों द्वारा प्रमाता, प्रमेय प्रादि की प्रसिद्धि : शास्त्र पदार्थ को जिस प्रकार सिद्ध करता है. उस बौद्ध : प्रमाता प्रमेय, प्रमाण तथा प्रमिति ये पदार्थ को दूसरा शास्त्र उससे अन्यथा सिद्ध करता चार तत्व जो अन्यवादियों ने कल्पित किए हैं वे करता है । इस प्रकार जब शास्त्रों में स्वयं प्रमाणता सर्वथा झूठ हैं; क्योकि विचार करने पर जैसे गधे के नहीं है तो वे दूसरे पदार्थों का निश्चय कसे करा सींग किसी प्रकार सिद्ध नहीं होते उसी प्रकार ये सकते हैं ? इस प्रकार प्रमाता नहीं है । चारों तत्व भी सिद्ध नहीं होते । प्रमाता नाम प्रात्मा का है परन्तु इस प्रात्मा का किसी प्रमाण वाह्य पदार्थ प्रमेय कहे जाते हैं । उनका खण्डन द्वारा ज्ञान न होने से यथार्थ में कुछ नहीं। प्रत्यक्ष पहले किया जा चुका है। स्व और पर के अवभासक से तो प्रात्मा जाना ही नहीं जा सकता; क्योंकि ज्ञान को प्रमाण कहते हैं। जब प्रमेय ही नहीं है इन्द्रियां केवल रूप, रस, गध और स्पशं वाले तो प्रमाण किसका ग्राहक होगा ? क्योंकि उसका पदार्थों को ही जान सकती हैं। प्रात्मा में रूप, कोई विषय ही नहीं रहेगा। यदि प्रमेय तथा प्रमाण रस, गंध, स्पर्श नहीं है अतः पदार्थ को नहीं जान माने भी जाय तो क्या जब पदार्थ उत्पन्न होता है, सकती हैं। उसी समय प्रमाण उसको जानता है अथवा किसी प्रश्न : प्रात्मा के प्राश्रय से होने वाले अहकार दूसरे समय ? प्रथम पक्ष स्वीकार करने पर तीन लोक के सभी पदार्थ उस ज्ञान में प्रतिभासित होना का मानस प्रत्यक्ष होने से प्रात्मा का मानस प्रत्यक्ष सिद्ध है। चाहिए; क्योंकि समकालीन होने से जिस पदार्थ को जिस समय में जिस प्रकार का जो ज्ञान जानता उत्तर : प्रात्मा का मानस प्रत्यक्ष भी सिद्ध है उसी प्रकार और भी पदार्थ जो उसी समय नहीं होता; क्योंकि मैं गोरा हूँ, मैं काला हूं इस उत्पन्न होते हैं वे सब उस ज्ञान के समकालीन हैं । प्रकार का अहकार होता है वह शरीर का प्राश्रय यदि कहो कि पदार्थ उत्पन्न होने के अनन्तर प्रमारण लेकर भी उत्पन्न हो सकता है। जिस धर्म का उस पदार्थ को जानता है तो प्रश्न है कि वह ज्ञान जिसके साथ सम्बन्ध माना जाता है उसके अतिरिक्त निराकार है अथवा साकार ? यदि वह निराकार किसी दूसरे पदार्थ के साथ भी उसका सम्बन्ध यदि ही है तो जिसका कुछ प्राकार ही नहीं उस ज्ञान में रह सकता हो तो उस धर्म को हेतु मानना व्यभि- प्रत्येक पदार्थ का निश्चय होना कठिन है। यदि चारी है। यदि प्रहकार का ज्ञान प्रात्मा में ही वह किसी प्राकार सहित है तो वह ज्ञान का प्राकार महावीर जयन्ती स्मारिका 77 1-77 Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस ज्ञान से कोई भिन्न वस्तु है प्रथवा अभिन्न ? साकार-ज्ञानरूप और अनाकार-दर्शनरूप पर्यायों में यदि अभिन्न है तो वह ज्ञान ही है इसलिए ज्ञान के से कोई न कोई पर्याय प्रात्मा में सदा होती रहती अतिरिक्त कोई भिन्न स्वरूप प्राकार के न होने से है। अहंकार भी एक प्रकार का ज्ञानरूप उपयोग निराकार पक्ष का दोष यहां भी पा सकता है और है। प्रात्मा में बंधे हए कर्मों में से जिस समय जैसे यदि प्राकार ज्ञान के अतिरिक्त कोई भिन्न वस्तु है ज्ञानावरण कर्म का क्षय तथा अनुदय होता है वैसा तो वह प्राकार चैतन्यस्वरूप है या जड़स्वरूप ? ही इन्द्रिय, मन तथा प्रकाशादि के सहारे प्रात्मा यदि चैतन्यस्वरूप है तो जिस प्रकार ज्ञान जिस में ज्ञान उत्पन्न होता है प्रत: आत्मा में ज्ञानोत्पत्ति पदार्थ को जानता है उसी प्रकार यह ज्ञान का की शक्ति सदा रहने पर भी ज्ञान उत्पन्न होने में प्राकार भी उस पदार्थ को जानता होगा ऐसा चूकि अनेक कारणों की आवश्यकता होती है अतः मानना चाहिए। तब वह यह प्राकार भी स्वयं उन सब कारणों के मिलने पर ही ज्ञान प्रकट हो किसी दूसरे प्राकार सहित है अथवा निराकार है ? सकता है, सदैव नहीं। जैसे बीज में अंकुर उत्पन्न इस प्रकार यहां अनवस्था दोष पाता है । इस प्रकार करने की शक्ति यद्यपि सदा विद्यमान है तो भी प्रमाण ही जब सिद्ध नहीं होता तो प्रमाण के फल- अंकुर की उत्पत्ति तभी हो सकती है जब उत्पत्र स्वरूप प्रमिति कैसे सिद्ध हो सकती है ? अतः होने योग्य मिट्टी, पानी प्रादि सब कारण एकत्रित शून्यता ही परम तत्त्व है। हो जाय। इससे बीज में अंकर उत्पन्न करने की शक्ति को कदाचित नहीं कह सकते; क्योंकि शक्ति जैनों द्वारा प्रमाता आदि की सिद्धि --- शून्य द्रव्य की अपेक्षा नित्य है। इसी प्रकार सदैव वादी ने जो यह कहा कि प्रमाता प्रात्मा की सिद्धि विद्यमान रहने पर भी अहंप्रत्यय (मैं हूँ ऐसा ज्ञान) प्रत्यक्ष ज्ञान से नहीं है; क्योंकि प्रात्मा इन्द्रिय कभी-कभी होता है। प्रात्मा का ज्ञान कराने वाला गोचर नहीं है. यह कहना हमें भी इष्ट है, परन्तु एक भी ऐसा हेतु नहीं मिलता है जो प्रात्मा के मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ, इस प्रकार के मानस बिना न रह सकता हो, यह कहना भी ठीक नहीं प्रत्यक्ष का होना असभव माना है, वह प्रसिद्ध है; है; क्योंकि ऐसे अनेक हेतु हैं जो प्रात्मा के प्रतिक्योंकि मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूं ऐसा अन्तरङ्ग को रिक्त कहीं रह भी नहीं सकते । जैसे-रूपादि विषय करने वाला ज्ञान प्रात्मा में ही हो सकता है। की उपलब्धि का कोई कर्ता है; क्योंकि रूपादि की सुखा दि का अनुभव अाधार के बिना नहीं हो सकता उपलब्धि क्रिया है। जैसे छेदन क्रिया बिना किसी है। यह सुख है यह ज्ञान घटाटि के समान वाह्य कर्ता के नहीं हो सकती है। रूपादि की उपलब्धि मालूम नहीं पड़ता है । मैं सुखी हूँ इस प्रकार का का जो कर्ता है वह प्रात्मा है। चक्षुरादि इन्द्रियाँ ज्ञान प्रात्मा का प्रकाशक है । मैं गोरा हूँ, मैं काला कर्ता नहीं हैं। क्योंकि वे करण होने के कारण परहैं इत्यादि शरीर को मानने वाला जो ज्ञान होता है तन्त्र हैं। पौद्गलिक होने, अचेतन होने, दूसरे के वह प्रयोजन के वश शरीर में आरोपित किया द्वारा प्रेरित होने तथा प्रयोक्ता के व्यापार से जाता है; क्योंकि प्रात्मा के सुख दुख होने में . 'निरपेक्ष प्रवृत्ति न कर पाने के कारण इन इन्द्रियों शरीर सहकारी है। प्रात्मा के अहंकार रूप धर्म का करण होना सिद्ध है। यदि इन्द्रियाँ कर्ता हो का शरीर में वैसे ही आरोपरण होता है जैसे किसी तो उन इन्द्रियों के विनष्ट होने पर पहले की नौकर को यह कहना कि यह जुदा नहीं है। अनुभूत स्मृति से मैंने देखा था, मैने छुपा था, मैंने __ अहं की अनुभूति कभी-कभी होने का कारण सुना था इस प्रकार का ज्ञान नहीं होना चाहिए। यह है कि प्रात्मा का लक्षण उपयोग है। उसकी इन्द्रियों का अपना-अपना विषय नियत है अतः 1-78 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूप और रस की साहचर्य प्रतीति कराने की उनमें जिस स्वभाव की वृद्धि कुछ कुछ होतो रहती सामर्थ्य नहीं है परन्तु रूप रसादि अनेक विषयों का है उसकी कहीं पूर्णवृद्धि हो जाना भी सम्भव है। अनुभव कोई न कोई प्रवश्य करता है, नहीं तो इसी नियम के अनुसार ज्ञानगुण की वृद्धि भी जो प्राम के देखने के अनन्तर जीभ पर पानी क्यों प्रा उत्तरोत्तर एक दूसरे से अधिक होती हुई दिखाई जाता ? प्रतः गवाक्षगत प्रेक्षक के समान समस्त देती है वह किसी जीव में सर्वोकृष्ट हो सकती इन्द्रियों तथा मन में रहकर प्रेरणा करने वाला है। जैसे आकाश को नापने पर बढ़ता हुआ दिखाई इन्द्रियों के अतिरिक्त कोई दूसरा पदार्थ भी है। देता है परन्तु इसकी भी वृद्धि सर्वोत्कृष्ट है । केवल. इस प्रकार इन्द्रियां करण हुई और इनको जो ज्ञान होना इस अनुमान से सिद्ध है । 5 अन्य भी प्रेरणा देता है वह प्रात्मा सिद्ध हुप्रा 121 इसी कई अनुमान हैं जैसे सूक्ष्म, अन्तरित और दूरप्रकार के अन्य उदाहरण स्याद्वाद मंजरीकार वर्ती पदार्थ किसी के प्रत्यक्ष हैं; क्योंकि वे अनुमेय प्राचार्य मल्लिषेण ने दिए हैं, जिनसे प्रात्मा की हैं। जैसे पर्वत की गुफा की अग्नि प्रत्यक्ष होने पर सिद्धि होती है ।23 भी उसकी सिद्धि अनुमान से होती है ।28 इसी प्रकार चन्द्रग्रहण, सूर्यग्रहण प्रादि भविष्यत् विषयों आगम वही अप्रमाण हैं जो परस्पर विरुद्ध को सत्य जताने वाले ज्योतिषशास्त्र को जानता है अर्थ कहते हों। जो प्राप्तप्रणीत आगम है वह वह ग्रहण पड़ने आदि की भविष्यवाणी पहले ही प्रमाण ही है । प्राप्तकथित शास्त्रों में जीवहिंसा, कर देता है। इस प्रकार सर्वज्ञ प्राप्त के द्वारा छेद तथा ताप इत्यादि दुष्कर्मों का निषेध है प्रतः प्रणीत पागम प्रमाण ही है । शास्त्र वे ही वे विशुद्ध हैं। रागादि दोष जिसके नष्ट हो गए अप्रमाण होते हैं, जिनके प्रणेता निर्दोष न हो। हों वह प्राप्त है, ऐसा प्राप्त होना प्रसम्भव नहीं कहा भी हैराग, द्वेष अथवा मोहवश झूठ बोला है । रागादि किसी जीव में अत्यन्त नष्ट हो जाते जाता है। जिसके ये दोष नहीं रहे वह झूठ क्यों हैं जैसे हम लोगों के रागादि का उच्छेद, प्रकर्ष बोलेगा ? हमारे शास्त्र प्रणेता तो कर्मों का नाश और अपकर्ष देखा जाता है, अथवा जैसे सूर्य के होने से दोषरहित हो चुके हैं। ऐसे निर्दोष शास्त्रों प्रकाश को रोकने वाले मेघसमूह की कहीं हीना - में 'प्रात्मा अकेला है' इत्यादि वचनों से प्रागम धिकता देखी जाती है अतः उनका कहीं नाश भी प्रमाण द्वारा जीव द्रव्य की सिद्धि होती है ।27 हो जाता है। जिस जीव के रागादि दोष सर्वथा जिन वाह्य विषयों को ज्ञान जानता है, उनकी विलीन हो गए हों वही सर्वज्ञ प्राप्त भगवान् है। सिद्धि पहले ही की जा चुकी है। जो यह प्रश्न प्रश्न-रागादि अनादि हैं उनका क्षय से दो किया था कि जिन पदार्थों को जानना हो उनके साथ ही उनको जानने वाला ज्ञान उत्पन्न सकता है ? होता है या उनके बाद । इसका उत्तर यह है कि उत्तर - प्रापका यह कहना ठीक नहीं है। हम लोगों का प्रत्यक्ष तो जो विद्यमान हों उन्हीं उपाय से ऐसा हो सकता है। अनादिकालीन को जान सकता है और स्मरण बीती हुई वस्तु को स्वणंमल का सुहागा, अग्नि प्रादि का पुट देकर ही जान सकता है । परन्तु शब्द और अनुमान तीनों क्षय किया जाता है, उसी प्रकार अनादि काल से काल के पदार्थों को जान सकते हैं। ये दोनों ज्ञान लगे हुए जीव के रागादि दोषों का नाश भी उनके यद्यपि निराकार हैं तो भी प्रतिव्याप्ति दोष नहीं प्रतिपक्षी रस्नत्रय के अभ्यास से हो जाता है । दोष है। पदार्थ का निश्चय इस प्रकार होता है कि ज्ञान क्षीण होने पर केवलज्ञान हो जाता है । किसी भी समय हो परन्तु उसी पदार्थ को जान महावीर जयन्ती स्मारिका 77 1-79 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकता है जिसके ज्ञान को रोकने वाला ज्ञानावरण कर्म तथा वीर्यान्तराय कर्म कुछ नष्ट हो गया हो । इसके अतिरिक्त जो शंका यें हैं वे विडम्बना मात्र है । प्रमाण का फल प्रमिति है । प्रमिति का अनुभव स्वयमेव होता है । जिस वस्तु का स्वयमेव अनुभव हो सकता है उसका उपदेश से कराना व्यर्थ है । प्रमारण के फल दो प्रकार के हैं पहला साक्षात् और दूसरा परम्परा से उत्पन्न होने वाला । इनमें से किसी पदार्थ सम्बन्धी प्रज्ञान का नाश हो जाना प्रमाण का साक्षात् फल है । केवलज्ञान का परम्परा फल संसार से उदासीनता होना है प्रोर 1. हरिभद्रः षड्दर्शन समुच्चय पृ० 74 2. न सन्नासन्त सदसन्न चाप्यनुभवात्मकम् । . चतुष्कोटिविनिर्मुक्तं तत्त्वं माध्यमिका: विदुः ॥ 3. बुद्ध्या विवेच्यमानानां स्वभावोनावधार्यते । तस्मादभिलाप्यास्ते नि स्वभावेन देशिता: " 4. शून्यमेव जर्गाद्वनश्वरमिदं मिथ्यावभासके । भान्तेः स्वप्नेन्द्र जालादी हस्त्यादि प्रतिभासवत् ॥ 5. यदन्य सन्निवाने न दृष्टं तदभावत । प्रतिबिम्ब समेतस्मिन् कृत्रिमे सत्यता कथम् 6. वही 9/144 7. एवं च न निरोधोऽस्ति न च भावोऽस्ति सर्वदा । प्रजातमनिरुद्ध च तस्मात् सर्वमिदं जगत् ॥ 12 13. शेष अल्पज्ञानियों के प्रत्येक ज्ञान का परम्परा फल दृष्टानिष्ट पदार्थों में ग्रहण तथा त्याग की बुद्धि उत्पन्न होना है तथा माध्यस्थ पदार्थ में मध्यस्थ हो जाना परम्पराफल है। इस प्रकार प्रमाता, प्रमाण, प्रमेय और प्रमिति चारों सिद्ध हो गए 1 28 अतः न तो पदार्थ सत् रूप ही है, न असत् रूप ही है, न सत् श्रसत् दोनों रूप है और सत् प्रसत् के अभावरूप है; किन्तु इन चारों से अलग कोई विलक्षण तत्व है. यह कथन उन्मत्त कथन जैसा है 129 1-80 नागार्जुन : माध्यमिक कारिका 17 8. नरेषु प्रतिकूलेषु चिरं स्नेहो न तिष्ठति । एवं सर्वत्र दोषज्ञे चिरं रागो न तिष्ठति ।। 9. तत्रैव रज्यते कश्चित् कश्चित्तत्रैव दुष्यति । कञ्चिन्मुह्यति तत्रैव तस्मात् कामो निरर्थकः ॥ 10. बिना कल्पनयास्तित्वं रागादीनां न विद्यते । भूतार्थं कल्पनाचेति को ग्रहीष्यति बुद्धिमान् || 11. बीजं भवस्य विज्ञानं विषयास्तस्य गोचराः । दृष्टे विषय नैरात्म्ये भवबीजं निरुध्यते ॥ प्राचार्यः चन्द्रशेखर शास्त्री : न्यायबिन्दु माल वार्षिक अंक दिसम्बर 1956 (बौद्ध धर्म के 2500 ) वर्ष पृ० 85, 86 लङ्कावतार सूत्र जिनसेन श्रादिपुराण 5 / 45 - बोधिचर्यावतार 9 / 145 - बोधिचर्यावतार 9 / 150 श्रार्यदेवः चतुः शतक 8 / 1 -वही 8/2 - वही 8/3 -वही 14 / 25 - भूमिका पृ० 5 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. हरिभद्रः शास्त्रवार्ता समुच्चय 470, 471 15. विना प्रमाणं परवन्नशून्यः स्वपक्षसिद्धः पदमश्नुवीत । कुप्येत्कृतान्तः स्पृशते प्रमाण महो सुदृष्टं त्वदसूयिदृष्टम् ।। मल्लिषेणः स्याद्वाद मंजरी 11 16. उक्त विहाय मानं चेच्छून्यताऽन्यस्य वस्तुनः । शून्यत्वे प्रतिपाद्यस्य ननु व्यर्थः परिश्रमः ।। शास्त्रवार्ता समुच्चय 473 17. वही 474 18. वही 475 19. किं च स्वामोपदेशेनैव तेन वादिनः शून्यवादः प्ररूप्यते इतिः स्वीकृतमागमस्य प्रामाण्यमिति कुतस्तस्य स्वपक्ष सिद्धिः ? प्रमाणमङ्गीकररमात् ! कि च प्रमाणं प्रमेयं विना न भवतीति प्रमाणाऽनङ्गीकरणे प्रमेयमपि विशीर्णम् । ततश्चास्य मूकतैव युक्ता न पुनः शून्यवादो पन्यासाय तुण्डताण्डवाडम्बरं; शून्यवादस्यापि प्रमेयत्वात् ॥ -स्याद्वाद मंजरी 1/145 20. मल्लेिषण : स्याद्वाद मंजरी पृ० 145-147 21. स्याद्वाद मंजरी पृ. 147-149 22. वही पृ० 149-150 23. वही प० 150 24. वही पृ० 151 25. वही पृ० 151 26. स्याद्वाद मंजरी पृ० 151 सूक्ष्मान्तरित दूरार्थाः प्रत्यक्षाः कस्यचिद्यथा । अनु मेयत्वतोऽग्न्यादिरिति सर्वज्ञसंस्थितिः ।। -समन्तभद्रः प्राप्तमीमांसा 27. स्याद्वाद मंजरी पृ० 151 28. वही पृ० 152 29. ततश्च नासन्न-सन्न सदसन्त चाप्यनुभयात्मकम् । चतुष्कोटिविनिमुक्तं तत्वमाध्यमिका विदुः इत्युन्मत्तभाषितम्। -स्थाढाद मंजरी पृ० 152 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 1-81 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काष्ठ नहीं, कपास बनो * श्री मंगल जैन 'प्रेमी', जबलपुर तुम, कपास सी कोमलता को, भूलकर"...... काष्ठ की कठोरता, अपनाये हो। किसी गलत दिशा का ताबीज, गले लगाये हो। कपास की नन्ही सी बाती, किसी दिये के तेल से मित्रता कर .." वातावरण को प्रकाशित करती है। प्रकाश-दान की बेला में, तिल-तिल जलती है। और काष्ठ ? काष्ठ......विचित्र है, न कोमलता से सरोकार, न मित्रता का व्यवहार। संभवतः इसीलिए, समय की भट्टी में, किसी को प्रकाश दिये बगैर एक बारगी जलती है। जिसकी जिन्दगी के धुएं से, मानवता प्रांख मलती है। सुनो। काष्ठ नहीं, कपास बनो। किसी के सिर पर नहीं, सिरहाने तनो। 1-82 महावीर जयन्ती स्मारिका 71 Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रजातन्त्र का अर्थ है प्रजा द्वारा प्रजा की मलाई के लिए प्रजा पर शासन । महावीर ने स्व द्वारा स्व और पर की भलाई के लिए स्व पर नियन्त्रण का सिद्धान्त प्रतिपादित किया। इसके लिए उन्होंने सर्वजन समभाव, सर्वधर्म समभाव, सर्वजाति समभाव पर बल दिया हमारे संविधान के ये मूलभूत आधार हैं । इनके बिना प्रजातन्त्र पंगु ही नहीं अस्तित्वहीन होगा। भगवान् महावीर सच्चे अर्थों में प्रजातांत्रिक थे। कैसे ? इसका उत्तर प्रापको मिलेगा विद्वान् लेखक को इन पंक्तियों में । प्र सम्पादक - महावीर की प्रजातांत्रिक दृष्टि ० डा० निजाम उद्दीन, श्रीनगर प्रजातन्त्र की सफलता स्वतन्त्रता, समानता, कारण शांतिमय वातावरण नहीं था, मताग्रह की वैचारिक उदारता, सहिष्णुता, सापेक्षता और प्रचण्ड प्रांधी ने सम्यग्ज्ञान व सम्यकदृष्टि का मार्ग दूसरे को निकट से समझने की मनोवृत्ति के विकास धुंधला कर दिया था। यही सब देख महावीर ने पर अवलम्बित है, इनके अभाव में गणतन्त्र का व्यक्ति स्वतन्त्र्य और प्राणी-साम्य का उद्घोष अस्तित्व संदिग्ध रहेगा । महावीर गणतन्त्र के प्रबल किया। समर्थक हैं, उनके उपदेशों में व्यक्ति स्वातन्त्र्य, सामाजिक साम्य, आर्थिक साम्य, धार्मिक साम्य, स्वतन्त्रता की सिद्धि के लिए अहिंसा, सत्य आदि पर विशेष बल दिया गया है और यही गण- और ब्रह्मचर्य की त्रिवेणी में अवगाहन करना पडता तन्त्र के सुदृढ़ स्तम्भ है, यदि इनमें से कोई एक है । अहिसा के द्वारा हम सभी के साथ मैत्री भाव दुर्बल हो गया तो समझिए गणतन्त्र की प्राधार- स्थापित करते हैं और मैत्री भाव में समानता की शिला डगमगा जायेगी। महावीर का युग गण. मनोवृत्ति विद्यमान है। महावीर ने सभी प्राणियों तन्त्रीय तो था लेकिन वहां व्यक्ति-स्वातन्त्र्य का से मैत्री भाव स्थापित करने और किसी को सर्वथा लोप था, पास-प्रथा इतनी व्यापक और मारने का, किसी भी प्रकार के कष्ट देने का निषेध दयनीय थी कि मनुष्य, मनुष्य का क्रीतदास बना किया है । यहां हम अपनी प्रात्मा के समान दूसरे हप्रा था। मनुष्य, मनुष्य के सर्वथा अधीनस्थ था, की आत्मा को महत्व देते हैं, अपने दुख के समान स्वामी का सेवक पर सम्पूर्ण अधिकार था। दास- दूसरे के दुख अनुभव करते हैं यानी 'आत्मवत् सर्व. दासी तथा नारी सभी का परिग्रह किया जाता था। भूतेषु' का चिरादर्श प्रस्तुत करते हैं। प्रजातन्त्र में महावीर के युग में जातीय भेदभाव की खाई बहुत भी अपने समान दूसरे की स्वतन्त्रता को महत्वपूर्ण चौड़ी थी। सामाजिक तथा आर्थिक वैषम्य के समझा जाता है, 'स्व' की सीमित परिधि को महावीर जयन्ती स्मारिका 77 1-83 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'स्व' की संकीर्णता को त्यागे बिना हम किसी भी होगी न स्वतन्त्रता । संयम की आवश्यकता से तरह पर-महत्व को, दूसरे की स्वतन्त्रता को समा- विमुख नहीं रहा जा सकता । महावीर ने ब्रह्मचर्यदर प्रदान नहीं कर सकते । प्राज यदि बन्धकों को व्रत में संयम को जीवन के लिए स्पृहणीय माना है । विमुक्त किया गया है, भूमिहीनों को भूमि प्रदान की ब्रह्मचर्य अस्वाद का ही शाश्वत अभ्यास है। अच्छागई है, बेरोजगारों को रोजगार की समुचित बुरा, खट्टा-मीठा नीरस-सरस, आकर्षक-विकर्षक सुविधाएं प्रदान करने के लिए सरकार की ओर से के बीच समत्व स्थापित करना ही ब्रह्मचर्य है । यहाँ कम, प्रासान शर्तों पर ऋण देने की व्यवस्था की । शरीर का ममत्व स्वत: विसर्जित हो जाता है । गई है तो यहां भी दूसरों की स्वतन्त्रता की स्वीकृति इसके द्वारा हम शरीर के प्रति ममत्व का परित्याग ही है। कर अपरिग्रह या परिमाण-परिग्रह की अोर उद्ग्रीव होते हैं । जब तक वैभव का प्रदर्शन किया जाएगा यह माना कि पराधीनता में सुख-सुविधाओं तब तक समाज में ऊंच-नीच की दीवारें उंची ही का मार्ग खुला रहता है लेकिन ऐसी सुख सुविधाएं रहेंगी अगर वैभव की दीवारों को नीचा करेंगे -- अधिकतर शारीरिक आवश्यकताओं- भोजन, वस्त्र की उपलब्धियों तक ही परिसीमित रहती हैं जबकि उन्हें धराशायी करेंगे तो समाज में सभी समानता के धरातल पर खड़े हो सकते हैं। जहां वैभव होगा स्वतन्त्रता का मार्ग कष्ट और असुविधानों का मार्ग वहां एक व्यक्ति दूसरे से पृथक रहेगा, अपने आपको होता है । कष्ट और असुविधाओं के कटकाकीर्ण दूसरे से परिसम्पन्न समझने के कारण समाज में मार्ग पर चलकर ही स्वतन्त्रता का, मुक्ति की परम विसंगतियां और विद्र पताए वातावरण को प्रदूषित सुख-सुविधाओं का गन्तव्य हाथ पाता है । परतंत्रता करती रहेंगी। वैभव का विसर्जन समाज में एकता में हमें घर मिलता है-आवास मिलता जबकि की भावना उद्बुद्ध करने वाला है। प्रजातन्त्र में स्वतन्त्रता में हम घर से मुक्ति पाते हैं । घर व्यक्ति इस प्रकार के विसर्जन को प्राथमिकता देना आवको सीमा में-बन्धन में बांधकर रखता है, स्व श्यक है । जब तक विसर्जन नहीं होगा--- त्याग-वृत्ति तन्त्रता में हम घर से बाहर प्राकर चौराहे पर खड़े नहीं होती तब तक तो हम दूसरी को अपने साथ होते हैं- दूसरों के साथ रहते हैं या दूसरों को अपने कैसे ले चलेंगे? त्याग ही तो हमारे अन्दर वह साथ रखते हैं । जब हम स्वाधीनता की लड़ाई लड़ अनुभूति और चेतना उदित करता है जिसके द्वारा रहे थे तब घरों से बाहर आ गये-नौकरी, प्राफिस हम दूसरों में जा मिलते हैं; परिग्रह में हम दूसरों से सभी की दीवारें ढह गई । घर से बाहर पाना अपने पापको पृथक् रखते हैं, अपरिग्रह में या त्यागघर और परिवार के प्रति ममत्व का विसर्जन कर वृत्ति में हम दूसरों के साथ मिलकर उनसे तादात्म्य सभी प्राणियों को अपने परिवार में शामिल कर स्थापित कर लेते हैं । अतः प्रजातन्त्र के लिये लेते हैं-"वसुधैव कुटुम्बकम्' के उच्चादर्श का व्यक्तियों को संग्रह-वृत्ति के स्थान पर त्याग-वृत्ति संस्पर्श करने लगते हैं । महावीर की अहिंसा इसी । को महत्व दिया जाता है। संग्रह वृत्ति, स्वतन्त्रता-प्राणिजगत की स्वतन्त्रता का ही तो वैभव-प्रदर्शन, अहंकार या भ्रमकार का ही प्रतिरूपआदर्श प्रस्तुत करती है । महावीर ने कहा है साक्षात् रूप है, प्रजातंत्र में यदि अहंकार की 'अहिंसा निबरणा दिठ्ठा सबभूएसु संजमो।' भावना ने डेरा जमा लिया तो वह प्रजातन्त्र अर्थात् प्राणिमात्र के प्रति जो संयम है, वही तानाशाही का भयावह रूप धारण कर लेता है। पूर्ण अहिंसा है । और जब तक जीवन में संयम की जहां ममत्व है, प्रासक्ति है, अहंकार है मूछी है कलियां प्रस्फुटित नहीं होंगी तब तक न अहिंसा वहीं अधर्म है, बही तानाशाही है। 1-84 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रजातन्त्र में सामाजिक ऐक्य को प्राथमिकता जितना महत्व देते हैं उतना ही दूसरों के मत व दी जाती है, मानव जाति में ऐक्य की प्रतिष्ठापना मान्यता को महत्व देने का वैचारिक प्रौदार्य प्रकट प्रजातन्त्र है। यहां स्वामी सेवक, स्त्री-पुरुष को करते हैं । यदि इसके विपरीत करेगे तो प्रजातन्त्र पृथक्-पृथक् कर्तव्य या अधिकार नहीं दिये जाते । का गला घुट जायगा,उसकी हत्या हो जायेगी । यहां भेददृष्टि का निराकरण प्रजातन्त्र का मूल है, इसी तो सभी को अपने विचार प्रस्तुत करने का समान भेददृष्टि का निराकरण महावीर के उपदेशों का प्रधिकार है, सभी को अपनी निष्ठानुसार मेरुदण्ड है जिसके लिये उमास्वामी ने अपने धर्माचरण करने की स्वतन्त्रता है। इसी को 'तत्वार्थसूत्र' में सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन और हम महावीर के अनेकान्तवाद के परिप्रेक्ष्य में देख सम्यक् चरित्र के समन्वय पर विशेष बल दिया है। सकते हैं। सत्य किसी एक व्यक्ति या सम्प्रदाय की महावीर ने जब यह फरमाया-"जिसे तू मारना बपौती नहीं, वह तो सबका है और सभी के पास चाहता है वह तू ही है" (प्राचारांग 1, 5, 5), तो सत्यांश हो सकता है। हमें दुराग्रह का त्याग कर यहां समत्व का ही उच्च दृष्टान्त प्रस्तुत किया सम्यक् दृष्टि अपनाकर सत्य का रूप जहां भी प्राप्य गया है-प्रात्मा के एकत्व पर ही बल दिया गया है। हो अगीकृत करना चाहिए । मताग्रही सत्य के प्रजातन्त्र में जातीय भेद या वर्ण भेद के लिए कोई द्वार तक नहीं पहुंच सकता, सत्य का मार्ग प्रशस्त स्थान नहीं. रंग व नस्ल की वरिष्ठता के लिए कोई है लस में संकीर्णता नहीं. विस्तार और व्यापकत्व अवकाश नहीं । रंग व नस्ल की निरर्थक वरिष्ठता है। हमें जितना अपना मत प्रिय है दूसरे को भी ने जिस समाज या देश में अपना विष बीज बोया वह उतना ही अपना मत प्रिय है। हमें क्या अधिकार कभी नहीं उबरा सांप्रदायिकता की प्राकाश बेल जिस है कि दूसरे के मत का खण्डन कर उस पर अपने देशजाति के विटप पर फैलने लगती है उसकी प्रगति मत का प्रतिपादन करने का अनैतिक आचरण अवरुद्ध हो जाती है वह दूसरों की दृष्टि में हीन- करें। महावीर ने अनेकान्त के द्वारा एक वैचारिक अनाहत और सावद्य समझी जाती है। महावीर ने क्रान्ति उत्पन्न की। उन्होंने वैचारिक सहिष्णुता अपने समवसरण में किसी जाति, समाज, या धर्मा- का परचम बुलन्द करके सभी को उसके नीचे खड़े वलम्बी पर कभी पाबन्दी नहीं लगाई। उनका धर्म होने अपना अभिमत व्यक्त करने की पूर्ण स्वतंत्रता मानवजाति का धर्म है, किसी सम्प्रदाय या जाति प्रदान की। उन्होंने बतलाया वस्तु या पदार्थ अनेक विशेष का धर्म नहीं । वह आत्मा की पवित्र गंगा धर्म अथवा गुण विशेषता सम्पन्न होता है उसमें है जिसमें सब साथ मिलकर निमज्जन कर सकते एक ही गुण या विशेषता का प्राधान्य नहीं रहता। हैं-वह सभी के पारों कलुषों का शमन करने पनी केवल पत्नी नहीं होती, वह पत्नी के साथ वाला धर्म है। महावीर सम्प्रदायातीत हैं, प्रजातन्त्र एक ममतामयी मां, प्यारी सखी, विश्वसनीय मित्र, भी सम्प्रदायातीत होता है, यहां सभी को अपने मतों लाडली बेटी, प्रिय भाभी प्रादि भी होती है अर्थात् को, विचारों को प्रकट करने की स्वतन्त्रता रहती वह विविधरूपा होती हैं। इसी प्रकार अनेक धर्मों है, सभी को अपनी योग्यतानुसार प्रगति करने की के कारण प्रत्येक वस्तु अनेकान्त रूप में विद्यमान सविधाएं प्राप्त करने के समान अवसर तथा अधि. के रूप नानाविध होते हैं - "प्रने के अन्ताः कार प्रदान किये जाते हैं । व्यक्ति में इस प्रकार की धर्माः यस्मिन् स अनेकान्तः ।" उपाध्याय यशो. प्रात्मस्वातन्त्र्य को भावना महावीर ने हजारों वर्ष । विजय ने कहा है- 'सच्चा अनेकान्तवादी किसी पूर्व जागृत की थी। दर्शन से नहीं करता। वह सम्पूर्ण दृष्टिकोण प्रजातन्त्र में हम अपने मत को, मान्यता को को इसी प्रकार वात्सल्य दृष्टि से देखता है जैसे महावीर जयन्ती स्मारिका 77 1-85 Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोई पिता अपने पुत्रों को। माध्यस्थ भाव ही नहीं, वैचारिक सहिष्णुता एवं उदारता का है, शास्त्रों का गूढ रहस्य है, यही धर्मवाद है।" जब संकीर्णता का नहीं विशाल हृदयता का है और यह विचारों में इस प्रकार माध्यस्थ भाव रहेगा या हम विशाल हृदयता या उदारता अनेकान्तवाद का दूसरों के विचारों-मतों को सहिष्णूता से सुनेंगे, मूल है । समझेगे हृदयंगम करेंगे तो सभी प्रकार के वैचारिक संघर्ष नष्ट हो जायेंगे। फिर राजनैतिक प्रजातन्त्र में लोकव्यवहृत भाषा को महत्व मानचित्र पर बड़े-बड़े मतवाद, युद्धोन्मुखी संघर्षों दिया जाता है। किसी एक सीमित विशिष्ट वर्ग को जन्म न दे सकेंगे, वियतनाम या इस्राईल-परब या सम्प्रदाय की भाषा को बहुसंख्यक भाषा-भाषी की रक्तरंजित समस्याएं करोड़ों की जान लेकर स्वीकार नहीं करेंगे। संस्कृत में उपदेश या भाषण समाप्त न होंगे; वह बिना रक्तपात के भी सुलझाई यदि कोई देने लगे तो उससे चंद मुट्ठी भर लोगों जा सकती हैं। प्रजातन्त्र में वादविवाद के द्वारा को ही लाभ मिल सकता है। महावीर ने अपने मोरोकी जाती उपदेशों को पंडितों की भाषा में व्यक्त नहीं किया संसद में विपक्षी दल के मत को भी सत्ताधारी दल वरन् लोकभाषा अर्धमागधी में व्यक्त किया तभी मान देता है । विपक्ष की धारणामों में भी सत्यता उनका प्रचार-प्रसार अधिक हुप्रा और अधिकाधिक का कोई न कोई अंश विद्यमान रहता है । प्राचार्य लोग उनसे लाभान्वित हुए । जहाँ कहीं भी प्रजामणिभद्र का विचार है : तन्त्र है वहाँ का शासन-कार्य बहुसंख्यक लोगों की भाषा में ही चलता है। ढाई हजार वर्ष पूर्व पक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिषु । महावीर ने भाषा की समस्या का प्रजातांत्रिक अनुकरणीय निदान प्रस्तुत कर दिया था । युक्तिमद्वचनं यस्य, यस्य कार्यः परिग्रहः । स्त्रियों को दीक्षा देकर उन्होंने एक समानता प्रर्थात् मुझे न तो महावीर के प्रति पक्षपात का प्रजातांत्रित प्रादर्श पेश किया था, उनके शोषण है और न कपिलादि मुनिगणों के प्रति ईर्ष्या द्वेष व परिग्रह को नष्ट कर बहुमान और प्रादर प्रदान है जो भी वचन तर्कसंगत हो उसे ग्रहण करना किया था। शोषित वर्ग को समाज में समान चाहिए । महावीर ने 'यही है' को मान्यता नहीं अधिकार दिलाए, स्वामी-सेवक के, शोषक-शोषित दी, उन्होंने यह भी है' को मान्यता देकर पारस्प. के भेदभाव को नष्ट किया, अपरिग्रह के सिद्धान्त रिक विरोधों तथा मताग्रहों की लोह-शृंखला को द्वारा प्रार्थिक समानता का वह प्रादर्श प्रस्तुत किया एक ही झटके में तोड डाला। उन्होंने सत्य को जो सभी प्रजातंत्र देशों में समाजवाद के नाम से सापेक्षता में देखा और उसे अभिव्यक्ति दी स्याद्वाद अभिहित है । महावीर की विचारधारा प्रजातंत्र की की शैली में । प्रजातन्त्र की पूर्ण सफलता अनेकान्त- बहुमुखी विशेषतामों का अनुपम और सनहितकारी दृष्टि में सन्निहित है। प्राज का युग मताग्रह का संगम है । 1-86 महावीर जयन्ती स्मारिका 71 Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ reliance जैन दर्शन प्रत्येक वस्तु में दो विरोधी तत्वों का अस्तित्व मानता है। वह सत् का लक्षण ही उत्पाद व्यय और ध्रौव्य संयुक्त करता है। वस्तु द्रव्य दृष्टि से नित्य और पर्याय दृष्टि से अनित्य है । जैनों की इस मान्यता में विश्व के उस सम्पूर्ण दर्शनों का समन्वय हो जाता है जो कि वस्तु के केवल एक ही धर्म को मानते हैं दूसरे धर्म को नहीं । जनों का यह अनेकान्तवाद विश्व के समस्त दर्शनों में ऐक्य, सहभाव तथा समभाव का प्रचार करने की प्रव्यर्थ पौर्षाव है । कैसे ? यह पढ़िये प्रसिद्ध वैदिक विद्वान् के इस निबन्ध में । प्र. सम्पादक जैन दर्शन की एक दिव्यदृष्टि प्राचार्य रमेशचन्द्र शास्त्री, अजमेर भारतीय विचारधारा को हम अनादिकाल से प्रथम ब्रह्मवादी विचार-परम्परा का उद्भव ही दो रूपों में विभक्त पाते हैं । पहली, परम्परा स्थल पंजाब तथा उत्तर प्रदेश का पश्चिमी भाग मूलक ब्राह्मण्य अथवा ब्रह्मवादी जिसका विकास रहा है तथा दूसरी श्रमण विचार परम्परा का वेद तथा उनके पश्चात् लिखे गए साहित्य के प्राधार उद्भव प्रासाम, बंगाल बिहार, मध्यप्रदेश, राजपर हुअा। दूसरी, पुरुषार्थ मूलक, जिसे श्रामण्य स्थान तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश रहा है। इस श्रमण अथवा श्रमण प्रधान कहा जाता है, जिसमें प्राचरण विचार धारा के जन्मदाता जैन थे। जो स्वयं को और व्यवहार को प्रधानता मिली । यहां यह ज'न मुख्य रूप से भगवान महावीर स्वामी के अनुयायी लेना चाहिए कि श्रमण शब्द का अर्थ ही श्रम मानते हैं। अर्थात् पुरुषार्थ है। इस कारण इस धारा को श्रमण संस्कृति का प्रवर्तक जैन धर्म प्रागैति'पुरुषार्थ मूलक' कहना ही उपयुक्त प्रतीत होता हासिक धर्म रहा है । यह बौद्ध धर्म की अपेक्षा प्राचीन है। श्रीमद्भागवत् में वर्णित जैनधर्म से सम्बन्ध रखने वाले विवरणों का अध्ययन तथा ये दोनों विचारधारायें कतिपय अंशों में एक करने पर सभी विद्वानों ने जैनियों के इस दूसरे की पूरक रहीं और कुछ अंशों में परस्पर विरोधी शों में परस्पर विरोधी मन्तव्य का समर्थन किया है कि जैन मत का भी रहीं । एक ओर इनमें सामञ्जस्य की भावना अविर्भाव वैदिकमत के प्रास-पास या उसके निकट. से पारस्परिक आदान-प्रदान चलता रहा तथा वर्ती पश्चात् समय में ही हया हैं। मोहन-जो दरों दूसरी ओर समस्त भारतीय समाज तथा राष्ट्र की से प्राप्त ध्यानावस्थित नग्न योगियो की मतियों एकता को अक्षुण्ण रखने में भी इनका महत्त्वपूर्ण से जैन श्रमण परम्परा की प्राचीनता सिद्ध होती योगदान रहा है। है ऐसा अनेक विद्वान् स्वीकार करते हैं। महावीर जयन्ती स्मारिका 77 1-87 Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म के महात्माओं को तीर्थङ्कर कहा इस तत्व को एक उदाहरण से समझा जा जाता है । ज्ञान का प्रवर्तन जिन ज्ञानी वीतराग सकता है । जब हम किसी स्वर्ण निर्मित कङ्कण को महान् पुरुषों ने किया है वे तीर्थङ्कर कहलाये। देखते हैं तो उसके सम्बन्ध में कुछ कहने या लिखने धर्मरूपी तीर्थ के निर्माता मुनिजन ही ये तीर्थङ्कर का प्रकार क्या हो सकता है ? यही न कि, यह थे (तरति संसार महार्णवं येन निमित्तेन तत् तीर्थम्- कङ्कण स्वर्ण निर्मित है, सोने से ही इसका निर्माण उमेश मिश्र-भारतीय दर्शन पृ० 98) जैनधर्म में हुआ है। सोने को शुद्ध करके इसे सुनार ने बनाया इन तीर्थङ्करों की संख्या चौबीस मानी गई है। हैं। सोना यो तो मिट्टी ही है, पर यह सामान्य इनमें सर्वप्रथम ऋषभदेव तथा अन्तिम भगवान् मिट्टी नहीं। यह एक पीले वर्ण का धातु है, इसके महावीर स्वामी थे। परमाणु लोहे से कुछ मुलायम होते हैं। इस सोने को सुनार ने ठोक पीट कर कङ्कण का रूप दे दिया इन तीर्थङ्करों द्वारा प्रवर्तित जैनधर्म का है। वास्तव में तो यह सोना ही है, आदि-आदि । दार्शनिक पक्ष अत्यन्त सुदृढ़ है । बाद के जैन यही वर्णन स्वपर्याय कहाता है । अब यदि हम इस विद्वानों ने अपना समस्त बौद्धिक बल लगा कर जिस कङ्कण में परपर्याय के सम्बन्ध को जोड़े तो इसका दार्शनिक चिन्तन को प्रस्तुत किया है वह बरबस वर्णन इस प्रकार किया जायेगा-यह कङ्कण है, विचारकों का ध्यान आकर्षित करता है । जैन दर्शन अंगूठी नहीं है, हार नहीं है, बाली नहीं है, कर्णफूल का एक सुनिश्चित अभिमत यह है कि विश्व की नहीं है, नाक की लौंग नहीं है, नथ नहीं है । यह समस्त वस्तुओं में स्थैर्य तथा विनाश दोनों ही धातु का तो बना है परन्तु यह लोहे का नहीं है. समानरूपेण रहते हैं । विश्व प्रपञ्च की कोई भी पीतल का नहीं है, चांदी का नहीं है, आदि-प्रादि वस्तू न तो एकान्तत: नित्य है और न एकान्ततः अनन्त निषेध करण के साथ जोड़े जा सकते हैं। अनित्य है । नित्यता और अनित्यता सभी वस्तुओं में समानरूप से पाई जाती है। जैन दर्शन ने इस विधि निषेधात्मक दृष्टि से यह पाया परमाणमों के संघात को संसार के समस्त पदार्थों जाता है कि संसार में ऐसा उदाहरण सम्भव नहीं का उत्पादक कारण स्वीकार किया है। जिसमें परस्पर विरोधी गुणों का सम्बन्ध स्थापित न किया जा सके । जैसे किसी दरिद्र व्यक्ति के वस्तुओं के स्वरूप को देखने की जैन द शनिकों साथ धन सम्पन्नता का सम्बन्ध विधिमुख से नहीं की दृष्टि भी बड़ी पैनी है । जैन दार्शनिक प्रत्येक जोड़ा जा सकता है तो उससे क्या हम निषेध मुख वस्तु का निरीक्षण तथा परीक्षण सर्वदर्शन सम्मत से दरिद्र व्यक्ति के साथ दरिद्रता तथा धन सम्पन्नता विधि निषेध शैली से करते हैं। इस विधि निषेध का सम्बन्ध जोड़ सकते हैं। हम कह सकते हैं कि दृष्टि से वस्तु के जो गुण सत्ता सूचक हैं उन्हें यह व्यक्ति दरिद्र है, धनवान नहीं है, यदि यह धन 'विपर्याय' कहा जाता है तथा जो निषेध मुख से सम्पन्न होता तो दरिद्र न होता । इसमें धन का कहे जाते हैं, उन्हें 'परपर्याय' नाम दिया गया है। प्रभाव है अतः यह दरिद्र है। इस प्रकार जैनदर्शन किसी भी वस्तु का परपर्याय से वर्णन करना संभव ने एक ही वस्तु में अनन्त धर्मों या गुणों की स्थानहीं है, अतः स्वपर्याय से ही वस्तु स्वरूप की अव- पना की है, इसी कारण जैन दार्शनिक प्रत्येक वस्तु गति मुख्यरूप से होती है । परन्तु इस स्वपर्याय के को अनन्त धर्मात्मक स्वीकार करते हैं। इसीलिये वर्णन भी वस्तु के गुणों, देश तथा काल आदि के जैनधर्म को स्याद्वाद या अनेकान्तवाद को मानने प्राधार पर एक नहीं अपितु अनेक होते हैं। वाला धर्म कहा जाता है। 1-88 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 www.jainelibrar Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल नदी के उस प्रवाह की तरह है जिसका जल पुनः लौटकर नहीं पाता । चाहे कोई कितना ही प्रयत्न करे किन्तु गया हुआ एक क्षण भी लौट कर नहीं पा सकता। बुद्धिमान वे हैं जो इसका सदुपयोग करते हैं। अनन्त पर्यायों में भटकते-भटकते काकतालीय न्याय की तरह यह मानव जन्म मिलता है । केवल यह ही पर्याय है जिसमें जीव अपने हिताहित का विवेक कर सन्मार्ग प्राश्रय ग्रहण कर अपना उत्थान कर सकता है और जन्म मरण के चक्कर से छटकारा पा सकता है। अन्य किसी पर्याय में ऐसा होना संभव नहीं है। जिन्होंने इस समय का सदुपयोग किया वे इस संसार सागर के पार लग गए। विद्वान् निबन्धकार ने समय की महत्ता बताते हए जो यह कहा है कि 'समय न चूकत चतुर नर' वह सर्वथा सत्य है। प्र० सम्पादक समय न चूकत चतुर नर - * डा. नरेन्द्र भानावत अंग्रेजी में एक कहावत है-Time is है। जो इसको वर्तमानता को न पहचान कर मात्र money अर्थात् समय ही धन है। वास्तव में अतीत की गहराइयों में डूबा रहता है अथवा समय जीवन की अमूल्य सम्पत्ति है । गई सम्पत्ति भविष्य की स्वप्निल छाया में घिरा रहता है, परिश्रम से, विस्मृत ज्ञान अध्ययन से, नष्ट स्वास्थ्य वह कभी समय की जीवन्तता से साक्षात्कार नहीं औषधि से एवं नष्ट संयम गुरुकृपा से पुनः मिल कर पाता । जो क्षण की वर्तमानता को थामे रहता सकता है लेकिन गया हुआ वक्त वापस कभी नहीं है, वही जीवन का वास्तविक प्रानन्द ले पाता है । मिल सकता । इसीलिये समय को अमूल्य धन लेटिन में एक कहावत है कि 'समय के सिर में कहा है ऐसा धन जो किसी भी कीमत पर पुनः केवल आगे की ओर बाल होते हैं, पीछे की ओर प्राप्त नहीं किया जा सकता। अतः समझदार वह गंजा होता है । यदि तुम उसके आगे के बाल मनुष्य समय का पूराःपूरा उपयोग करते हैं:-समय को पकड़ लो तो वह तुम्हारे हाथ पा जायगा न चूकत चतुर नर। परन्तु यदि तुम उसे आगे से निकल जाने दोगे तो फिर संसार की ऐसी काई शक्ति नहीं जो उसे 'समय बड़ो बलवान' कहकर समय की अनन्त पकड़ सके।" समय की इस तस्वीर को पहचान शक्ति का परिचय दिया गया है। इसका अर्थ कर हमें उसके बालों को, वर्तमान क्षणों को यह है कि समय निरन्तर गतिशील है, वह एक क्षण मजबूती से पकड़ कर, जो काम करना है, उसे भी नहीं रुकता, और वर्तमान में ही जीवित रहता तुरन्त कर लेना चाहिये । महावीर जयन्ती स्मारिका 77 1-89 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आज के काम को कभी कल पर नहीं छोड़ना और स्वर्ग को मिलाने के लिए सीढ़ियां लगाएं, चाहिये क्योंकि जो प्राज है वह निश्चित और जो भाग में से जलने की शक्ति का जो तत्व है, उसे कल होगा वह अनिश्चित है । जो शक्ति आज के निकाल दू और मृत्यु को नष्ट कर दूं। यह सब काम को कल पर डालने में खर्च होती है क्यों न मेरे बायें हाथ का खेल था । पर मैं सोचता रहाउसका उपयोग आज का काम आज ही करने में अभी क्या है, कल यह कार्य कर लूगा । यों कलकिया जाय । राजस्थानी कहावत है-कर्या सो कल करते कल तो नहीं पाया पर काल आ गया। काम, भज्या सो राम,' किया, वही काम और अतः हे लक्ष्मण, दुनियां को मेरी यही सीख है कि भजा, वही राम-भजन । काम को और राम भजन हमें कोई बात कल पर नहीं छोड़नी चाहिये, तुरन्त को तुरन्त कर डालना चाहिये। जो काम कर उसे कर डालना चाहिए। डाला सो हो गया, नहीं किया सो रह गया। कौन जाने कल पायेगा या नहीं ? कल शैतान का दूत 'समय' शब्द इस बात का सूचक है कि इसमें है । इतिहास के पृष्ठों पर इस कल की धार पर समभाव की आय का स्रोत निरन्तर प्रवहमान कितने ही प्रतिभाशालियों का गला कट गया। रहता है पर समय का यह अर्थ तभी सार्थक बनता 'कल' की उपासना छोड़कर 'प्राज' के ही नहीं है जब व्यक्ति इसकी सामयिकता को पहचाने, 'प्रभी' के उपासक बनो। संत कबीर मानव को इसके प्रति निरन्तर जागरूक बना रहे और समय सावधान करते हुए कहते हैं की उर्वरता से निरन्तर सम्पर्क बनाये रखे । विश्व में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं जिसके पास एक बार काल करे सो आज कर, आज करे सो अब। भाग्योदयं का अवसर न माता हो । जो इस अवसर पल में परलय होयगी, बहुरि करेगो कब ॥ का स्वागत नहीं करता, तब वह अवसर उलटे पांव लौट जाता है । सम यज्ञ पुरुष हमेशा ऐसे कल, काल बन गया तो फिर जीवन की कला अवसर का लाभ उठाता है । समय की शक्ति और ही नष्ट हो गई। दीपक बुझने के बाद तेल डालने गति को पहचानने की क्षमता केवल मनुष्य में है, से क्या लाभ ? माल लेकर चोर के चले जाये के पशु में नहीं। मनुष्य वर्तमान को वरदान बनाने बाद सावधान होने से क्या लाभ ? जो क्षरण वर्त- के लिए, उसे वरेण्य बनाने के लिए अतीत से मान है, उसे अक्षर बनाने में लग जाओ। जो पल प्रेरणा और अनागत से सपने ले सकता है। और अभी है उसे प्रज्ञा का केन्द्र बना लो, पूजा का अपनी जागरूकता तथा विवेकशीलता में उन्हें, पुष्प बनालो । कहीं ऐसा न हो कि कल की प्रतीक्षा तपाकर, पकाकर, साकार कर सकता है पर इसके करते-करते कल तो नहीं पाये और काल पा लिए प्रमाद को छोड़ना होगा। भगवान् महावीर जाय । पाप और हम तो हैं ही क्या ? सोने की ने अपने शिष्य गौतम को सम्बोधित करते हुए लंका का अधिपति रावण भी इस काल से न बच कहा-समयं गौयम मा पमायए--हे गौतम, क्षण सका। कहा जाता है कि जब रावरण मृत्यु शैय्या मात्र का भी प्रमाद मत कर । पर था तब राम ने लक्ष्मण को रावण से शिक्षा लेने के लिए उसके पास भेजा । लक्ष्मण के प्रार्थना समय को अर्थवान बनाने के लिए कर्तव्य. करने पर रावण ने कहा-मैंने कठोर तपस्या कर परायणता, काम के प्रति निष्ठा और नियमबद्धता यह शक्ति प्राप्त करली थी कि मैं सब कुछ प्राप्त का होना आवश्यक है। जो व्यक्ति अपने प्रति कर सकता था। मेरी तीन इच्छायें थीं-मैं धरती और अपने परिवेश के प्रति जितना अधिक जागरूक 1-90 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, संवेदनशील है, वह उतना ही अधिक समय की प्राय प्राप्त करेगा। इस प्रसंग में एक लोककथा बड़ी अर्थव्यंजक है । एक सेठ बड़ा समृद्धिशाली था | भरा-पूरा परिवार था । पर अचानक उसकी पत्नी का देहान्त हो गया । अब सेठ के सामने समस्या आयी कि वह घर की मालकिन किसे बनावे, किसे तिजोरी की चाबियां सौपे ? समस्या के समाधान के लिए उसने अपनी चारों पुत्र वधुनों की परीक्षा लेनी चाही । पुत्रवधुओं को पास बुलवा कर उसने कहा- मैं चार वर्ष के लिए बाहर जा रहा हूं। ये पाँच-पांच चावल के दाने तुमको सौंप रहा हूं। जब वापस आने पर मांग करू' तब मुझे लौटा देना । यह कहकर सेठ चलता बना । सबसे बड़ बही ने सोचा -- सेठ की बुद्धि सठिया गयी है। पांच चावल के दानों की क्या कमी ? जब सेठजी आयेंगे कोठार से लाकर दे दूंगी और उसने पांचों दाने फेंक दिये। दूसरी बहू ने सोचा-सेटजी अनुभवी हैं। शायद, ये चावल अभिमन्त्रित हों । इनसे कुछ लाभ पहुंच सकता है । यह सोचकर वह उन्हें चबा गयी। तीसरी बहू ने सोचा-न जाने इन चावलों के पीछे क्या रहस्य है ? इन्हें संभालकर रखना चाहिये । पता नहीं कब ये स्वर्ण या रत्नों में बदल जांय श्रौर उसने सन्दूक में उन्हें सुरक्षित रख दिया । चौथी बहू ने सोचा-सेठजी चार वर्ष बाद लौटेंगे, तब तक के लिए क्यों न इनका संवर्द्धन किया जाय ? उसने पांचों दानें अपने मकान से लगी खाली जमीन में डाल दिये । अनुकूल जलवायु पाकर वे अंकुरित हो उठे और समय पाकर वे पक गये और पांच के पांच सौ हो गये । उसने फिर उन पांच सौ दानों को बो महावीर जयन्ती स्मारिका 77 दिया। अब वे और अधिक हो गये । इस प्रकार वह उन दानों को बोती रही और वे बढ़ते रहे । जब चार वर्ष बाद सेठजी लौटे और उन्होंने अपने दिये हुए चावल के दाने मांगे तो दो बहुत्रों नेतो कोठार से लाकर और तीसरी बहू ने सुरक्षित रखे हुए वे दानें लाकर दे दिये पर चौथी बहू ने कहा कि वे दाने पांच नहीं रहे वरन् फलित होकर कई बोरियों में भरे हैं । सेठजी उसकी समयज्ञता, जागरूकता और विवेकशीलता पर बड़े प्रसन्न हुए तथा उसे घर की मालकिन बनाकर, तिजोरी की चाबियां सौंप दी । सच है, जो समय की इस उर्वरता को पहचान पाता है, वही अपने जीवन को सही माने में सफल और समृद्ध वना पाता है । समय की धारा के साथ जो तैरता है, वह न केवल अपना मंगल करता है बल्कि लोक मंगल का क्षेत्र भी विस्तृत करता जाता है । समय जितना सौन्दर्यमय है। उतना ही भयंकर भी । यह कालबली किसी को भी नहीं छोड़ता । शास्त्रों में इसे 'सर्प' से उपमित किया गया है । सर्प की तरह यह भागता है, फुत्कार करता है पर जो इसकी गति को पकड़ लेता है, वह इसकी कटुता को कला में बदल देता है । जो काल की वर्तना में रमण करता है, वह युग प्रवर्तन करता है, नये मूल्यों का निर्माण करता है और काल के कालकूट को पी जाता है । पर जो इसके साथ संक्रमण नहीं कर पाता, क्षण मात्र का भी प्रमाद कर बैठता है तब काल उसे पी जाता है । ऐसा समझकर वर्तमान में वर्तना करने की, पल को प्रज्ञा बनाने की कला सीखने का निरन्तर अभ्यास करते रहना चाहिये, क्योंकि यही क्षण "तथागत' की भूमिका और भविष्य का जनक है । 1-91 Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान का खजाना वैद्य रमेशचन्द्र जैन, बांझल खोजने से ताज भी प्रो राज अपना जानते हो तुम व्यथा. लिख चुके जिस पर कहानी सोच में खोये हुये धनपति की नीति से कर सके नहिं दूर तुम निर्धनों के प्रश्र अब तक है जवानी अरे सत्य और ईमानदारी छल फरेवी जालसाजी ने छुपा दो फूल को भी शूल में परिणत बतादी सत्य कहना क्या ! गुनाह है बोध है क्या? छाया पकड़ना . ध्वस्त इसमें प्राज लाखों जिन्दगानी। अहिंसा के पुजारी ने जिसे अपना बनाया उसीकी आवाज पर चलता जमाना फिर इसे हम क्या कहें ? ज्ञान का खजाना 1-92 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर ने मन में सब जीवों के प्रति समभाव, कर्म में अहिंसा और वचन में स्याद्वाद का उपदेश दिया था। यह जैनधर्म की उसकी अपनी विशेषता है। अगर मानव इन उपदेशों पर अमल करे तो धरती स्वर्ग बन सकती है । प्रापसी झगड़ों का कारण यह है कि हम अपनी हो चलाना चाहते हैं, हम ही ठीक हैं, जबकि संभव है दूसरा जो कह रहा है वह भी किसी दृष्टि से ठीक हो । महावीर ने कहा था कि दूसरों के कथन का वह ही अर्थ करो जिस दृष्टिकोण को लेकर कहने वाले ने वह बात कही थी, अपना दृष्टिकोण उस पर मत थोपो । एक ही बात एक दृष्टिकोण से गलत होते हुए भी दूसरे दृष्टिकोण से सही हो सकती है । समाज में और राष्ट्रों में जो विग्रह खड़े हो जाते हैं उसका कारण एकांगी दृष्टिकोण के अतिरिक्त कुछ नहीं होता। व्यावहारिक जीवन में स्याद्वाद की उपयोगिता पर विद्वान् लेखक ने बड़े अच्छे ढंग से प्रकाश डाला है । प्र० सम्पादक अनेकान्त और जीवन-व्यापार * श्री जमनालाल जैन, वाराणसी जैनधर्म या जैनदर्शन को अनेकान्त दर्शन भी परम्परा उन्हें मिली थी । अनेकान्त या समन्वय की कहा जाता है। प्रत्येक धर्म, दर्शन या तत्वज्ञान की प्रणाली भी धर्म-दर्शन के क्षेत्र में जीवित थी, लेकिन अपनी मूल दृष्टि होती है, एक शैली होती है। उसे परिपूर्णता, स्पष्टता, संस्कारिता और शास्त्री. उसी के अनुसार सम्पूर्ण प्रतिपादन होता है । यह यता प्रदान करने का महत् कार्य पहले-पहल दृष्टि शरीर में प्राणों की भांति व्याप्त होती है। महावीर ने ही किया। 12 वर्ष के कठोर साधना. जैसे वृक्ष का रस, उसकी प्रात्मा, उसका गुण काल के उपरान्त उन्हें केवलज्ञान की या सर्वज्ञता जड़ से लेकर पत्तों तक समान रूप से व्याप्त रहता की प्राप्ति हुई। ढाई हजार वर्ष पूर्व का उनका है, वैसे ही प्रत्येक तत्वज्ञान या सिद्धान्त का विस्तृत युग मत मतान्तरों तथा वाद-विवादों का संघर्षफैलाव भी दृष्टि-विशेष के अनरूप रहता है। स्थल बना हुआ था । वैदिक-प्रोपनिषदिक विचारजैनधर्म, तत्वज्ञान, प्राचार-विचार, दर्शन और धारामों में ही समन्वय नहीं था। अनेक परिव्राजक सिद्धान्त सब में अनेकान्त दृष्टि तिल में तेल की एवं भिक्षु अपनी एक-एक शाखा-प्रशाखा को पकड़ . भांति और दुध में घी की भाँति अोतप्रोत है। कर प्राग्रह की ध्वजा फहरा रहे थे। कुछ तो अपने को शास्ता, तीर्थकर, सर्वज्ञ भी कहते थे। भगवान महावीर अनेकान्त-दृष्टि के प्रवर्तक बाह्य उपकरणों, साधनों, क्रियाओं मादि का भी कहे जाते हैं। जैनधर्म के वे अन्तिम शास्ता या आग्रह पराकाष्ठा को पहुंचा हुआ था। स्वयं जैन महत थे और अपने पूर्ववर्ती 23वें तीर्थंकर परम्परा में भी कई परम्पराएं प्रचलित हो गयी पार्श्वनाथ की अहिंसा तथा संयम-समता-प्रधान- थीं। एक दूसरे में समन्वय और सहयोग के स्थान महावीर जयन्ती स्मारिका 77 -1-93 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर संघर्ष, विरोध और टकराहट ही ज्यादा था। के प्रतीक हैं। दोनों पंखों की दिशाए भिन्न हैं, यह परिस्थिति मनुष्य की मनुष्य से तोड़ने वाली लेकिन वे कोकिल की गति में एक-दूसरे के पूरक थी। महावीर विचार-भेद और पथ-भिन्नता के हैं, सहयोगी हैं। सहअस्तित्व उनकी सार्थकता है । बावजूद मानव-मात्र के प्रति आदर और प्राणि- कोकिल का गाढ़ा रंग इस बात का द्योतक है कि मात्र के प्रति समता उत्पन्न करना चाहते हैं। उसमें सब रंग समाहित हैं। वह आकाश-विहारी बारह वर्ष की मौन-साधना से उनमें इस दृष्टि का है। अनन्त प्रकाश में विचरण करने वाला ऊँचे प्राविर्भाव हुआ। उनकी यह दृष्टि ही अनेकान्त है। से, सूक्ष्मतापूर्वक, दूर तक निरीक्षण करता है और कहा जाता है कि केवलज्ञान-प्राप्ति के पर्व अनन्तता का अनुभव करता है। ग्रन्थकार ने इस भगवान महावीर को कुछ स्वप्न पाये थे उनमें से प्रताक द्वारा अनेकान्त का एक सरस एवं सुन्दर एक स्वप्न में उन्हें चित्र-वित्रित्र पंखों वाला एक अनन्त व्यापी चित्र प्रस्तुत किया है। महान पुस्कोकिल दिखायी दिया। इसे देखकर मनुष्य स्वतंत्र इकाई भी है और समष्टि का प्रतिबद्ध हुए, उन्हें केवलज्ञान हो गया। इस स्वप्न अंग भी है। मनुष्य ही नहीं हर प्राणी की स्वतंत्र का उल्लेख व्याख्या प्रज्ञप्ति नामक जैन आगम में सत्ता है, उसकी अपनी निजता है. वैयक्तिकता है । मिलता है। वहीं इस स्वप्न के फल के विषय में प्रत्येक जीव अपने कर्म का भोक्ता और कर्ता होता कहा गया है कि महावीर स्व-पर सिद्धान्त का है। मनुष्य बाह्य रूप में या कि सांसारिक दृष्टि प्रतिपादन करने वाले विचित्र द्वादशांग का उपदेश से. आर्थिक दृष्टि से पराधीन या बंधा हुमा सा करेंगे। लगता है, फिर भी प्रात्मगुरण की दृष्टि से वह स्वतन्त्र अस्तित्व रखता है। उसमें स्व-पर-हित कभी-कभी सपने बड़े सार्थक हो जाया करते सोचने तथा तदनुसार चलने की बुद्धि, भावना, हैं। उनसे जीवन में मामूल परिवर्तन पा जाता है, शक्ति पीर दृष्टि होती है । वह अनुभव करता है हष्टि बदल जाती है, उलझनें खुल जाती हैं, कि उसका अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व है। यह सब है, समाधान मिल जाता है और रास्ता प्रकाशमान् लेकिन इससे भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि हो उठता है। यह एक प्रानन्द का क्षण होता है, वह सामाजिक भी है । समाज के बिना मानवीय जिसमें मनुष्य को लगता है कि सम्पूर्णता की विकास की, उन्नयन की सम्भावना भी नहीं। उपलब्धि हो गयी । मुझे तो लगता है कि उनके नितान्त और निरपेक्ष रूप में मनुष्य वैयक्तिक है, केवलज्ञान का उनकी सर्वज्ञता का रहस्य इसी क्षण न सामाजिक । वैयक्तिकता और सामाजिकता के में निहित है। तटों के बीच अनेकान्त के सेतु पर ही विवेकपूर्वक - यह पुस्कोकिल अनेकान्त का या स्याद्वाद का एवं सापेक्षता पूर्वक विचरण किया जा सकता है । सार्थक प्रतीक है । अनेकान्त दृष्टि-सम्पन्न प्रत्येक के बूंद के बिना सागर नहीं बनता। लेकिन सागर से विचार का प्रादर करता है, उनमें सत्य का दर्शन पृथक बूद का व्यक्तित्व कैसा और कितना ? करता है और यह तभी सम्भव है जब उसकी वाणी या भाषा में मिठास हो, माधुर्य हो, अमृत. मनुष्य का समग्र जीवन सत्य की खोजों का रस हो । कोकिल का कण्ठ स्वर ऐसा ही होता है। परिणाम है। मानव-सृष्टि के मादि काल से सत्य कठोर और पाषाण-सूक्ष्म व्यक्ति भी कोयल की की खोज हो रही है। हजारों-हजार मनीषियों, मीठी कूक सुनकर पिघल जाता है, द्रवित हो जाता ऋषि-मुनियों, योगियों तथा वैज्ञानिकों ने सत्य की है । कोकिल के चित्र-विचित्र पंख अनेक दृष्टिकोणों खोज में अपने को गला-वपा दिया है। हमारी 1-94 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेक कहावतें व मुहावरे बदल गये, प्राचार. साधना की दृष्टि से एक सूत्र प्रदान किया हैविचार की प्रणालियाँ वदल गयी, दैनिक जीवन के प्राचार में अहिंसा और विचार में अनेकान्त' । क्रिया-कलाप और रीतियाँ बदल गयीं। यह क्रम जीवन में सामंजस्य तभी पा सकता है जब हमारे चिरन्तन काल से चल रहा है और अनन्तकाल विचारों में अनेकान्त दृष्टि हो। अनेकान्त की तक चलता रहेगा। इसी में मानव-समाज की मनोभूमिका के बिना बाह्य आचरण में अहिंसा प्रगति का माप निहित हैं । असल में मनुष्य स्वभाव व्याप्त नहीं हो सकती । अनेकान्त दृष्टि के विकास की विशेषता है कि उसे अपनी वर्तमान स्थिति से के बिना हमारे बाह्य जीवन में जो अहिंसा दीख सन्तोष नहीं होता। बीता क्षण उसके लिए जीर्ण पड़ती है वह मात्र लोक संस्कार या लोक रूढ़ि है। हो जाता है। वह प्रतिक्षण नूतनता का प्राकांक्षी इसीलिए नींव है पोर अहिंसा कलश है। कलश होता है। वह चाहता है कि उसे कुछ ऐसी उप.. हमारी शोभा है. लेकिन प्राधार तो अनेकान्त ही लब्धि हो जो अपूर्व हो। इसका एक कारण ग्रह हो सकता है। नींव की मजबूती पर ही कलश टिक भी है कि प्रत्येक नयी पीढ़ी पुरानी पीढ़ी के कन्धे सकता है । पर चढ़कर कुछ दूर का देखती है। उदय और दार्शनिक क्षेत्र में अनेकान्त वस्तु या द्रव्य की अस्त पर ही प्रगति का पुल निर्मित होता है। स्वतन्त्र सत्ता का उद्घोष करता है। द्रव्य या सत् ___ सत्य की खोज में निरत मानव की भटकन की स्वतन्त्र सत्ता विलक्षणात्मक है अर्थात् उस में भी कम नहीं है । वह विचारों के अरण्य में, आग्रह। उत्पत्ति विनाश तथा स्थायित्व ये तीन लक्षण के गिरि-शिखरों पर, विरोध के सागर में और निरन्तर रहते हैं। इन तीन मूल लक्षणों में से एकाकीपन के श्मशान में भटक गया है, खो गया किसी एक को या उसके भी किसी विशिष्टि अंश है। वह सत्य का स्पर्श करना चाहता है, लेकिन को अपने सिद्धान्त का प्राधार मानने वाले सत्य छिप जाता है। अन्धे की भांति हाथी के मत-मतान्तरों में समन्वय स्थापित करने और किसी एक अवयव को पकड़ कर उसने मान लिया उनकी एकान्त धारणा या मान्यता का निरसन है कि सत्य यही और उतना ही है। प्राग्रह इतना करने के लिए जैनाचार्यों ने अनगिनत प्रयास किये तीव्र और तेज है कि आँख खुलती ही नहीं प्रोर हैं। इससे अनेकान्त उत्तरोत्तर शास्त्रीय एवं वैज्ञाखोलना चाहता भी नहीं । विवेक नेत्र का नाम ही निक रूप ग्रहण करता गया है। बिहारी-सतसई अनेकान्त है। विवेक की आंख खुलते ही सम्पूर्ण के न जाने कितने अर्थ उपलब्ध हैं । कालिदास के हाथी का दर्शन होने लगता है और प्राग्रह अहंकार मेघदूत को पाश्र्वाभ्युदय काव्य में एक-एक चरण की पकड़ छूट जाती है। प्रतिकूलता अनकुलता में के रूप में समाविष्ट करके प्राचार्य जिनसेन ने बदल जाती है। दूसरे का मिथ्या सत्य प्रतीत होने मेघदूत को नया-गौरव प्रदान कर दिया। गोस्वामी लगता है। इस विश्व में तत्व या अस्तित्व की तुलसीदास कृत रामचरितमानस की "सब कर दृष्टि से प्रवास्तविक या यथार्थ कुछ नहीं है। इस मत खगनायक एहा । करिय रामपद पंकज नेहा ।" विराट सृष्टि में प्रण से लेकर ब्रह्माण्ड तक सब चौपाई के 16 लाख तक अर्थ किये जा चुके हैं । कुछ सत्य और वास्तविक है-उसी का विस्तार है। एक ही शब्द के अनेक परस्पर विरोधी अर्थ करने परिवर्तनशीलता का दर्शन तो मात्र पर्यायसापेक्ष के हजारों उदाहरण विश्व साहित्य में मिलते हैं। है, जैसे कि एक पूरी फिल्म के या दृश्य के सैकड़ों समय के थपेड़े खाकर शब्द और ध्वनियों के अर्थ टुकड़े। बदल गये हैं। हम अपनी ही बात के स्पष्टीकरण जैनाचार्यों ने जीवन-सन्तुलन एवं समता- के लिए बार-बार तात्पर्य और मतलब का सहारा महावीर जयन्ती स्मारिका 77 1-95 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेते रहते हैं । गांधीजी हमेशा कहते थे कि मेरी कल की बात अब व्यर्थ समझनी चाहिए । विश्व का कथा-साहित्य परस्पर विरोधी एवं अनन्तमुखी अनुभूतियों एवं प्रवृत्तियों में सामंजस्य स्थापित करने की दृष्टि से बड़ा मूल्यवान है। इन सब से स्पष्ट है कि प्रत्येक व्यक्ति अनेकान्ती होता है श्रौर वास्तविकता तो यह है कि अनेकान्ती हुए बिना कोई जीवित रह भी नहीं सकता । अनेकान्त का शब्दगत श्रर्थ अनेक + अन्त अर्थात् अनेक धर्मात्मकता है। प्रत्येक वस्तु या पदार्थ में अनेक धर्म होते हैं । एक समय में एक साथ कोई भी व्यक्ति वस्तु के अनेक धर्मों का प्रतिपादन नहीं कर सकता । अनेक का अर्थ एक से भिन्न भी होता है । भिन्न में दो से लेकर अनन्त तक समाविष्ट हैं। वस्तु में अनेक धर्मों के अस्तित्व की सार्थकता या उपयोगिता उनके ध्यान में नहीं श्राती सुख-दुःख, नित्य- अनित्य, सत् प्रसत् शाश्वत - प्रशाश्वत आदि विविध द्वन्द्वों का अपेक्षा मूलक सम्पूर्ण अस्तित्व प्रत्येक पदार्थ में निरन्तर रहता है, यह बात केवल जैनदर्शन ने ही व्यवस्थित एवं शास्त्रीय रूप से प्रतिपादित की है । अनेकान्त के साथ-साथ स्याद्वाद शब्द का प्रयोग भी होता है। लोक-व्यवहार में दोनों एकार्थ वाचक हैं | दोनों श्रन्योन्याश्रित हैं। जहां अनेकान्त वस्तु के समस्त धर्मों की ओर समग्र रूप से हमारा ध्यान खींचता है, वहाँ स्यादवाद वस्तु के एक धर्मं का ही प्रधान रूप से बोध कराता है। विविध धर्मात्मक वस्तु हमारे लिए किस प्रकार उपयोगी हो सकती है, यह बतलाना स्याद्वाद का कार्य है । अनेकान्त लक्ष्य है और स्याद्वाद इसे प्राप्त करने का साधन | स्यादुवाद एक वचनपद्धति या अभिव्यक्ति की प्रणाली हैं, जो वस्तु के एक एक धर्म का प्रतिपादन नय सापेक्ष दृष्टि से करती है । जैनदर्शन में 'स्यात्' शब्द का प्रयोग सापेक्ष कथंचित् के प्रथं में होता है । अन्य दार्शनिकों ने 1-96 स्यात् का अर्थ शायद, सम्भवतः, 'हो सकता है, 'किसी तरह ' किया है जो सर्वथा गलत है । प्राकृत- पाली श्रादि प्राचीन जन भाषाओं में 'स्यात्' शब्द के प्रयोग का विश्लेषण करते हुए स्व० डा० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य ने लिखा है कोई ऐसा शब्द नहीं है जो वस्तु के पूर्व रूप का स्पर्श कर सके । हर शब्द एक निश्चित दृष्टिकोण से प्रयुक्त होता है और अपने विवक्षित धर्म का प्रतिपादन करने की शक्ति है, तब यह श्रावश्यक हो जाता है कि प्रविवक्षित शेष धर्मों की सूचना के लिए एक प्रतीक अवश्य हो, जो वक्ता धौर श्रोता को भूलने न दे । स्यात् शब्द यही करता है । वह श्रोता को विवक्षित धर्म का प्रधानता से ज्ञान कराके भी श्रविवक्षित धर्मों के अस्तित्व का द्योतन कराता है । स्यात् शब्द जिस धर्म के साथ प्रयुक्त होता है, उसकी स्थिति कमजोर न करके वस्तु में रहने वाले तत्प्रतिपक्षी धर्म की सूचना देता है । अनेकान्त का आधार नयवाद है। यह भी कहा जा सकता है कि स्याद्वाद वस्तु का प्रतिपादन किसी प्रपेक्षा से पूर्णरूप में करता है और नय उस वस्तु को ज्ञाता के अभिप्राय विशेष के सन्दर्भ में अंशरूप में प्रकट करता है । श्रभिप्राय, सन्दर्भ, काल, शब्द, ध्वनि, अर्थं श्रादि के आधार पर नयों के अनेक उत्तर-भेद हो सकते हैं । स्याद्वाद को सप्तभंगी न्याय भी कहते हैं । सप्तभंगी का अर्थ है वस्तु के अस्तित्व या सत्ता का विधेय और निषेध परक कथन के प्रकार । वस्तु है भी नहीं भी हैं और है- नहीं दोनों भी है श्रोर दोनों रूप अनिर्वचनीय भी हैं । इस प्रकार सात प्रकार से वस्तु-दर्शन किया जाता है। घड़ा-घड़ा है भी, घड़ा नहीं भी है - अन्य कुछ है । हम कैसे कह सकते हैं कि घड़ा घड़ा या मिट्टी ही है या नहीं है, क्योंकि उसके कण-कण में न जाने कितने तत्व, कितनी ऊर्जा, कितनी सम्भावनाएं हैं। इसीलिए वह श्रविर्वचनीय भी है । यह बड़ी गहरी पैठ है । महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य तक पहुंचने के लिए यह सप्तभंगी न्याय बहुत समस्याएं हल की जा सकती हैं, सारे विवाद दूर उपयोगी है। किये जा सकते हैं। शर्त इतनी ही है कि मन में 'ही' और 'भी' को लेकर भी बहुत गलतफहमी अपन अपने विचार के प्रति दृढ़ता तो रहे, पर प्राग्रह न है । अनेकान्ती व्यक्ति प्राग्रह, अहंकार या अभि रहे और दूसरे के विचारों में निहित सत्यांश को निवेशवश अर्थात् दूसरे के दृष्टिकोण या विचार ग्रहण करने की तत्परता रहे । अन्यथा तो जैसे का तिरस्कार करने के लिए 'ही' का प्रयोग कदापि अहिंसा धीरे-धीरे जड़ कर्मकाण्ड या लीक पीटने की निस्तेज प्रक्रिया मात्र रह गयी, वैसे ही अनेकांत नहीं करेगा। भी' का प्रयोग इस तथ्य की सूचना है कि इसके अतिरिक्त और भी बहुत कुछ उसमें के साथ भी खिलवाड़ किया जा सकता है । गर्भित है। हाँ, जीवन में बार-बार 'ही' का भी जैसे ताली दोनों हाथों से बजती है, वीणा के प्रयोग करना पड़ता है । 'ही' का प्रयोग किये बिना तारों से स्वर अंगलियों के स्पर्श से ही निकलता बात में दृढ़ता नहीं पाती। ढीली या संशयास्पद है, दधि का मन्थन रस्सी के दोनों सिरों को आगेबात का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। अंश कथन की पीछे घुमाने से होता है, हमारे पैरों में गति दोनों पूर्णता के लिए 'ही' का प्रयोग पावश्यक है, लेकिन पैरों को आगे बढ़ाने से ही पाती है, हमारी इन्द्रियां जहाँ अपेक्षा का स्पष्ट निर्देश हो वहां 'ही' लगाना पारस्परिक सहयोग पर ही अपना काम करती हैं, प्रावश्यक हो जाएगा। उसी प्रकार समाज का जीवन विरोधों के समन्वय ऊपर के विवेचन से यह स्पष्ट है कि अनेकान्त. से चलता है । यहाँ राजनीतिक क्षेत्र के दो महान् दृष्टि के बिना जीवन चल नहीं सकता। माध्यात्मिक देश सेवकों के दो वचन इस सन्दर्भ में देकर मैं एवं दार्शनिक क्षेत्र में तो उसकी उपयोगिता और अपनी बात समाप्त करूगा । अंग्रेजी राज्य के सार्थकता निर्विवाद है, सामाजिक एवं व्यावहारिक जमाने में पं० जवाहरलालजी नेहरू कहा करते थे क्षेत्रों में भी उसकी उपयोगिता संशय से परे हैं। कि 'हम झुक जाएँगे लेकिन टूटेंगे नहीं।' और अनेकान्त हमें जीवन की पात्रता प्रदान करता है। नेताजी सुभाषचन्द्र बोस कहा करते थे कि 'हम टूट जीवन की पात्रता का प्राधार सत्यनिष्ठा और जाएंगे लेकिन झुकेंगे नहीं ।' ये दोनों वचन परस्पर सत्यग्राहिता है और यह मानव मात्र के प्रति आदर विरोधी प्रतीत होते हैं, लेकिन दोनों वचन हमें भाव पर निर्भर है। अनेकान्त की मर्यादा इतनी अंग्रेज सल्तनत के खिलाफ एक ही जगह पहंचते विस्तृत और व्यापक है कि उससे विश्व की सारी हैं। महावीर-वाणी 1. प्रात्मा अनन्त ज्ञान और सुखमय है । सुख कहीं बाहर से नहीं पाता । 2. यदि सही दिशा में पुरुषार्थ किया जाय तो प्रत्येक प्रात्मा भगवान् बन सकता है। भगवान् कोई अलग से नहीं होते। 3. सब प्रात्माए समान हैं । कोई छोटा बड़ा नहीं है। महावीर जयन्ती स्मारिका 77 1-97 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर उवाच शुद्ध भावना श्री मोतीलाल सुराणा, इन्दौर श्री मोतीलाल सुराना, इन्दौर सुहसायगस्स समरस्स, साया उलग्गस्स निगामृ साईस्स । उच्छोलणा पहोअस्स, दुल्लहा सुगई तारिसमस्स ।। -दशवकालिक सत्र4/126 भावरणा जोगशुद्धप्पा जलेरगावा व प्राहिवा । छुरे का उपयोग करे डाकू और डाक्टर। एक चाहे मारना, दूसरा रक्षक बनकर ।। बिल्ली मुंह में पकड़ती, चूहे को व निज शिशु को एक को चाहे मारना दूसरे की परवरिश करे ॥ भावों का परिणाम भिन्न है, शुद्ध भावों की महिमा है ।। बालक को बालक यदि मारे, भाव द्वेष का बीच में। उसी पुत्र को पिता पीटे तो, सुधार भाव है चित में । जो भी हो समान क्रिया तो, भावों में तो बदला है । जल में नौका तिरती जाती, पार कई लग जाते हैं। शुद्ध हृदय वाले भी धर्मी निश्चित शिवपुरी पाते हैं ।। साधु बनकर कोई साधक, चाहे पाना सुख बनावटी। जिव्हा जिसकी चखना चाहे, माल मलिदा चाट-चटपटी ।। तन धोवे जो सजने खातिर, शयन करे गादी तकिये पर । विषयों में जिसका मन ललचे, नहीं उसे हो मोक्ष प्राप्ति । 1-98 महावीर जयन्ती स्मारिका 11 Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन प्रत्येक द्रव्य को स्वतंत्र सत्ता को स्वीकार करता है। उसकी निश्चय दृष्टि से यह मान्यता है कि एक पदार्थ दूसरे पदार्थ का कुछ नहीं बिगाड़ सकता । प्रात्मा स्वयं ही अपने कर्मोदय से सुख दुःख जीवन-मरण पाता है, कोई अन्य इसमें कारण नहीं है। इसलिए वह ऐसे ईश्वर की सत्ता से भी इंकार करता है जो जगत का कर्ता-हर्ता तथा जीवों को सुख दुःख का देने वाला हो । यह सम्पूर्ण निबंध लेखक ने केवल निश्चय दृष्टि का प्राश्रय लेकर लिखा है । प्राचार्य उमास्वाति ने जो 'सुख दु ख-जीवितमरणोपग्रहाश्च' परस्परोपग्रहो जीवानाम् प्रादि सूत्रों में जो पुद्गल को जीव के सुख-दुख जीवन मरण का कारण बताया है यह व्यवहार दृष्टि से है जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। प्र० सम्पादक जैन-दर्शन का तात्विक पक्ष : वस्तु स्वातन्त्र्य * डा. हुकमचन्द भारिल्ल, जयपुर जैन दर्शन में वस्तु के लिए अनेकान्तात्मक को स्वतन्त्रता की अजान कारी ही पर्याय की परतन्त्रता स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है, उसमें वस्तु- है। पर्याय के विकार के कारण मैं परतन्त्र ह" स्वातन्त्र्य को सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थाग प्राप्त है। ऐसी मान्यता है, न कि पर पदार्थ । स्वभाव-पर्याय उसमें मात्र जन-जन की स्वतन्यता की ही चर्चा को तो परतन्त्र कोई नहीं मानता पर विकारीनहीं, अपितु करण-करण की पूर्ण स्वतन्त्रता का सतर्क पर्याय को परतन्त्र कहा जाता है । उसकी परतन्त्रता व सशक्त प्रतिपादन हुमा है। उसमें 'स्वतन्त्र होना का अर्थमात्र इतना है कि वह परलक्ष्य से उत्पन्न है' की चर्चा नहीं 'स्वतन्त्र है' की घोषणा की गई हुई है। पर के कारण किसी द्रव्य की कोई पर्याय उत्पन्न नहीं होती। है। 'होना है' में स्वतन्त्रता की नहीं, परतन्त्रता की स्वीकृति है। होना है' अर्थात् नहीं है। जो है विश्व का प्रत्येक पदार्थ पूर्ण स्वतन्त्र एवं परिउसे क्या होना ? स्वभाव से प्रत्येक वस्तु स्वतन्त्र मनशील है, वह अपने परिणमन का कर्ता-धर्ता ही है। जहां होना है' की चर्चा है, वह पर्याय की स्वयं है उसके परिणमन में पर का हस्तक्षेप रंचमात्र चर्चा है। जिसे स्वभाव की स्वतन्त्रता समझ में भी नहीं है। यहाँ तक कि परमपिता परमेश्वर प्राती है, पकड़ में प्राती है, अनुभव में प्राती है, (भगवन् ) भी उसकी सत्ता एवं परिणमन का कर्ताउसकी पर्याय में स्वतन्त्रता प्रकट होती है अर्थात् हर्ता नहीं है, दूसरों के परिणमन अर्थात् कार्य में उसको स्वतन्त्र पर्याय प्रकट होती है। हस्तक्षेप की भावना ही मिथ्या, निष्फल और दुःख का कारण है। क्योंकि सब जीवों के जीवन मरण, वस्तुतः पर्याय भी परतन्त्र नहीं है। स्वभाव सुख-दु ख स्वयं कृत कर्म के फल हैं। एक-दूसरे को महावीर जयन्ती स्मारिका 77 1-99 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक-दूसरे के दुःख सुख और जीवन-मरण का कर्ता मानना प्रज्ञान है । सो ही कहा है सर्व सदैव नियतं भवति स्वकीयकर्मोदयान्मरणजीवतदुःखसौख्यम् । श्रज्ञानमेतदिह यत्तु पर: परस्य, कुर्यात्पुमान्मरणजीवितदुःखसौख्यम् ॥' यदि एक प्राणी को दूसरे के दुःख-सुख और जीवन-मरण का कर्ता माना जाए तो फिर स्वयंकृत शुभाशुभ कर्म निष्फल साबित होगे । क्योकि प्रश्न यह है कि हम बुरे कर्म करें और कोई दूसरा व्यक्ति, चाहे वह कितना ही शक्तिशाली क्यों न हो, क्या वह हमें सुखी कर सकता है ? इसी प्रकार हम अच्छे कार्य करें और कोई व्यक्ति, चाहे वह ईश्वर ही क्यों न हो, क्या हमारा बुरा कर सकता है ? यदि हाँ, तो फिर अच्छे कार्य करना बुरे कार्यो से डरना व्यर्थ है क्योंकि उनके फल को भोगना तो श्रावश्यक है नहीं ? और यदि यह सही है कि हमें अपने अच्छे बुरे कर्मों का फल भोगना ही पड़ेगा तो फिर पर के हस्तक्षेप की कल्पना निरर्थक है । इसी बात को श्रमितगति प्राचार्य ने इस प्रकार व्यक्त किया है :-- स्वयं कृतः कर्मयदात्मना पुरा फलं तदीयं लभते शुभाशुभम् । परेण दत्तं यदि लभ्यते स्फुटं स्वयं कृतं कर्म निरर्थक तदा || निजाजितं कर्म विहाय देहिनो, न कोपि कसयपि ददाति किंच ज । विचारयन्तेवमनन्यमानसः परो ददातीति विमुच्य शेमुषीम् ॥ २ आचार्य श्रमृतचन्द्र तो यहाँ तक कहते हैं कि पर द्रव्य श्रीर श्रात्म तत्व में कोई भी सम्बन्ध नहीं है तो फिर कर्ता कर्म सम्बन्ध कैसे हो सकता है । 1-100 नास्ति सर्वोऽपि संबंध: परद्रव्यात्मतत्वयोः । कर्तृ कर्मत्वसंबंधाभावे तत्कता कुतः ॥ विभिन्न द्रव्यों के बीच सर्व प्रकार के सम्बन्ध का निषेध ही वस्तुतः पूर्ण स्वतन्त्रता की घोषणा है । पर के साथ किसी भी प्रकार के सम्बन्ध की स्वीकृति परतन्त्रता को ही बताती है । अन्य सम्बन्धों की अपेक्षा कर्ता-कर्म सम्बन्ध सर्वाधिक परतन्त्रता का सूचक है । यही कारण है कि जैन दर्शन में कर्तावाद का स्पष्ट निषेध किया है । कर्तावाद के निषेध का तात्पर्य मात्र इतना नहीं है कि कोई शक्तिमान ईश्वर जगत का कर्ता नहीं है, श्रपितु यह भी है कि कोई भी द्रव्य किसी दूसरे द्रव्य का कर्ता हर्ता नहीं है। किसी एक महान् शक्ति को समस्त जगत का कर्ता हर्ता मानना एक कर्तावाद है तो परस्पर एक द्रव्य को दूसरे द्रव्य का कर्ता हर्ता मानना अनेक कर्तावाद | जब-जब कर्तावाद वा अकर्तावाद की चर्चा चलती है, तब-तब प्रायः यही समझा जाता है कि जो ईश्वर को जगत का कर्ता माने वह कर्तावादी है और जो ईश्वर को जगत का कर्ता न माने वह कर्ताfवादी । चूंकि जैनदर्शन ईश्वर को जगत का कर्ता नहीं मानता, अतः वह अकर्तावादी दर्शन है । जैन दर्शन का प्रकर्तावाद मात्र ईश्वरवाद के निषेध तक ही सीमित नहीं, किन्तु समस्त परकर्तृत्व के निषेध एवं स्वकर्तृत्व के समर्थन रूप है । कर्तावाद का अर्थ ईश्वर-कर्तृत्व का निषेध मात्र तो है ही नहीं, पर मात्र कर्तृत्व के निषेध तक भी सीमित नहीं, स्वयं कर्तृत्व पर आधारित है । अकर्तावाद यानि स्वयकर्तावाद । प्रत्येक द्रव्य अपनी परिणति का स्वयंकर्ता है। उसके परिणमन में पर का रंचमात्र भी हस्तक्षेप नहीं है । स्वयं कर्तृत्व होने पर भी उसका भार भी जैन दर्शन को महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वीकार नहीं, क्योंकि वह सब सहज स्वभाववत् हूँ और पर जीव मुझे मारते हैं-वह मूढ है, परिणमन है। यही कारण है कि सर्वश्रेष्ठ अज्ञानी है, और इससे विपरीत मानने वाला दिगम्बर प्राचार्य कुन्दकुन्द ने अपने सर्वाधिक ज्ञानी है। महत्वपूर्ण ग्रन्थ समयसार के कर्ता-कर्म अधिकार में ईश्वरवाद के निषेध की तो चर्चा तक ही नहीं ___ जो जीव यह मानता है कि मैं पर-जीवों को को और सम्पूर्ण बल कर्तृत्व के निषेध एवं ज्ञानी । जा जिलाता (रक्षा करता) हूँ और परजीव मुझे को विकार के भी कतत्व का प्रभाव सिद्ध करने । ने जिलाते (रक्षा करते) हैं वह मूढ़ है, अज्ञानी है, पर दिया। जो समस्त कतत्व एवं कर्मत्व के भार आर इसस विपरा और इससे विपरीत मानने वाला ज्ञानी है। से मुक्त हो, उसे ही ज्ञानी कहा है । जो यह मानता है कि मैं पर जीवों को सुखीकुन्द-कृन्द की समस्या अपने शिष्यों को ईश्वर दुःखी करता हूँ और परजीव मुझे सुखी-दुःखी वाद से उभारने की नहीं वरन मान्यता में प्रत्येक करते हैं, वह मूढ़ है, अज्ञानी है और इससे विपरीत व्यक्ति स्वयं एक छोटा-मोटा ईश्वर बना पा है मानने वाला ज्ञानी है। पौर माने बैठा है कि "मै अपने कुटुम्ब, परिवार में जीवों को टखी-सखी करता है. वांधता देश व समाज को पालता हूँ', उन्हें सुखी करता हूँ हूँ तथा छुड़ाता हूँ ऐसी जो तेरी मूढ़मति (मोहित और शत्रुमादिक को मारता हूँ' एवं दु:खी करता बद्धि) हैं वह निरर्थक होने से वास्तव में मिथ्या हूँ अथवा मै भी दूसरे के द्वारा सुखी-दुःखी किया है। जाता हू' या मारा बचाया जाता हूँ।" इस मिथ्या मान्यता से बचाने की थी। अतः उन्होंने कर्तावांद उनका प्रकर्तृत्ववाद "मात्र ईश्वर जगत का सम्बन्धी उक्त मान्यता का कठोरता से निषेध किया । कर्ता नहीं है" के निषेधात्मक मार्ग तक सीमित है । उन्हीं के शब्दों में : है। वह भी इसलिए कि वे जैन हैं और जैन दर्शन जो मणदि हिंसामि य हिंसिज्जामि ईश्वर को जगत का कर्ता नहीं मानता है, अतः वे य परेहि सत्तोहिं। भी नहीं मानते। सो मूढ़ां प्रराणाणी पाणी एतो दु विवरीदो ईश्वर को कर्ता नहीं मानने पर भी स्वयं 1247॥ जो मण्णादि जीवेमि व जीविज्जामि कर्तृत्व उनकी समझ में नहीं पाता। अतः जड़ .य परेहिं सत्तेहि। __ कर्म को कर्ता कहते देखे जाते हैं। जड़-कर्म के सो मूढी अण्णाणी पाणी एतो सद्भाव कोनिज के विकार का कर्ता और उसके दु विवरोदी ।।2500 प्रभाव का स्वभाव को कर्ता मानने वालों से तो जो अणणा दु मण्णादि दुक्खिद ईश्वरवादी ही अच्छे थे। क्योंकि वे अपने अच्छेसहिदे करोमि सस्ते ति। बुरे कर्तृत्व की बागडोर एक सर्व-शक्तिसम्पन्न सो मुढो अप्णाणी णाणी एतो द विवरोदी चेतन ईश्वर को तो सौंपते हैं, इन्होंने तो जडकर्म के 125311 हाथ अपने को बेचा है। इस प्रकार से ये लोग दुखिदसुहिदे जीवे करेमि बधेमि तह विमोचेमि। भी ईश्वरवादी ही हैं क्योंकि इन्होने चेतनेश्वर को जो एसा मूढमई रिणरत्यया सा हु देमिच्छा ।।266॥ स्वीकार न कर, जडेश्वर को स्वीकार किया है । जो यह मानता है कि मैं पर जीवों को मारता पर के साथ प्रात्मा कारणताक के सम्बन्ध महावीर जयन्ती स्मारिका 77 1-101 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का निषेध प्रवचनसार की "तत्व प्रदीपिका" टीका है, और वह परिवर्तन भी कभी-कभी नहीं निरन्तर में इस प्रकार किया है। हुप्रा करता है। प्रतो न निश्चयतः परेण सहात्मनः यह समस्त जगत परिवर्तनशील होकर भी कारकत्व संबंधोऽस्ति ॥ नित्य है और नित्य होकर भी परिवर्तनशील । यह नित्यानित्यात्मक है। इसकी नित्यता स्वत: सिद्ध जीव कर्म का पोर कर्म जीव का कर्ता नहीं है और परिथर्तन स्वभावगत धर्म । है। इस बात को पंचास्तिकाय में इस प्रकार स्पष्ट किया गया है : नित्यता के समान प्रनित्यता भी वस्तु का स्वरूप है सत् उत्पाद व्यब धौव्य से युक्त होता कुव्वं सगं सहाव प्रत्ता कत्ता सगस्स भावस्स । है। उत्पाद और व्यय-परिवर्तनशीलता का नाम ण हि पोग्गलकम्मारणं इदि जिणवयरणं मुणेयध्वं है और ध्रौव्य नित्यता का। प्रत्येक पदार्थ उत्पाद. 161॥ व्यय-ध्रौव्य से युक्त है । प्रतः वह द्रव्य है । द्रव्य कर्म पि सगं कुव्वदि सण सहावेण सम्ममरणारणं । गुण और पर्वायवार होता है । जो द्रव्य के सम्पूर्ण जीवो वि य तारिसो कम्मसहावेण भावेण ॥620 भागों और समस्त अवस्थानों में रहे उसे गुण कहते कम्मं कम्मं कुम्वदि जदि सा हैं तथा गुणों के परिणमन को पर्याय कहा जाता है । अप्पा करेदि अप्पाणं । किध तस्स फलं भुण्जादि प्रप्पा प्रत्येक प्रव्य में अनंत अनन्त गुण होते हैं, कम्मं च देदि फलं ॥631 जिन्हें दो भागों में वर्गीकृत किया जाता है । सामान्य गुण और विशेष गुण । सामान्य गुण सब पपने स्वभाव को करता हुआ प्रात्मा अपने द्रव्यों में समान रूप से पाये जाते हैं और विशेषभाव का कर्ता है, पुद्गल कर्मों का नहीं। ऐसा गुण अपने-अपने द्रव्य में पृथक-पृथक होते हैं । जिन बचन जानना चाहिए । सामान्य गुण भी अन्नत होते हैं और विशेष कम भी अपने स्वभाव से अपने को करते हैं भी अनन्त । अनन्त गुणों का कथन तो सम्भव और उसी प्रकार जीव भी कर्म स्वभाव भाव से नहीं है । अतः यह सामान्य गुणों का वर्णन शास्त्रों अपने को करता है । यदि कर्म-कर्म को और आत्मा में मिलता है : मात्मा को करे सो फिर कम प्रात्मा को फल क्यों देगा और प्रात्मा उसका फल क्यों भोगेगा ? र अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, प्रयुस्लघुत्व, अर्थात् नहीं भोगेगा। प्रदेशत्व । जहा कर्तावादी दार्शनिकों के सामने जगत प्रत्येक द्रव्य की सत्ता अपने अस्तित्व गुण के ईश्वरकृत होने से सादि स्वीकार किया गया है कारण है न कि पर के कारण। इसी प्रकार प्रत्येक वहां अकर्तावादी या स्वयं कर्तावादी जैन-दर्शन के द्रव्य में एक द्रव्यत्व गुण भी है जिसके कारण अनुसार यह विश्व अनादि अनंत है, इसे न तो प्रत्येक द्रव्य प्रति समय परिणमित होता है, उसे किसी ने बनाया है और न ही कोई इसका विनाश अपने परिणमन में पर के सहयोग की अपेक्षा नहीं कर सकता है, यह स्वयं सिद्ध है, विश्व का कभी रहती है। अतः कोई भी अपने परिणमन में भी सर्वथा नाश नहीं होता, मात्र परिवर्तन होता परमुखापेक्षी नहीं है। यही उसकी स्वतन्त्रता का 1-102 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राधार है। अस्तित्व गुण प्रत्येक द्रव्य की सत्ता अत्यान्ताभाव होने के कारण भी उसकी स्वतन्त्रता का प्राधार है 'पौर द्रव्यत्व गुण परिणमन का। अखण्डित रहती है। जहां अत्यन्तभाव द्रव्यों की मगुरूलघुत्व गुण के कारण एक द्रव्य का दूसरे में स्वतन्त्रता की दु'दुभि बजाते हैं । प्रवेश सम्भव नहीं है। सद्भाव के समान प्रभाव भी वस्तु का धर्म जैन दर्शन के स्वातन्त्र्य सिद्धान्त के प्राधार है। कहा भी है : भूत इन सब विषयों की चर्चा जैन दर्शन में विस्तार से की गई है। इनकी विस्तृत चर्चा "भवत्यभावोऽपि च वस्तुधर्माः ।"7 करना यहां न तो संभव है और न अपेक्षित । प्रभाव चार प्रकार का माना गया है : जिन्हें जिज्ञासा हो जिन्हें जैन दर्शन का हार्द प्राक्भाव, प्रध्वंसाभाव, अन्योन्याभाव और अत्यन्ताभाव जानना हो, उन्हें उसका गम्भोर अध्ययन करना एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य का दूसरे द्रव्य में चाहिए। 1. प्राचार्य अमृतचन्द्र ; समयसार कलश 168 2. भावना द्वात्रिंशतिका (सामायिक पाठ) छंद 30-31 3. प्राचार्य अमृतचन्द्र : समयसार कलश 200 4. प्राचार्य कुन्दकुन्द : समयसार, बंध अधिकार 5. पाचार्य उमास्वामी : तत्वार्थसूत्र, अध्याय-5 सूत्र -30 6. वही अध्याय-5 सूत्र-38 7. प्राचार्य समन्तभद्रः युक्त्यनुशासन : कारिका 39 महावीर-वाणी १. प्रत्येक प्रात्मा स्वतन्त्र है कोई किसी के प्राधीन नहीं है । २. पात्मा ही नहीं, विश्व का प्रत्येक पदार्थ स्वयं परिणमनशील है। उसके परिणमन में पर पदार्थ का कोई हस्तक्षेप नहीं है। ३. ईश्वर जगत् का कर्ता हर्ता नहीं है। वह तो मात्र ज्ञाता द्रष्टा है। महावीर जयन्ती स्मारिका 77 1-103 Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAAAAAA 1-104 मतभेद नहीं अब रह पाये Q♡♡♡♡♡♡♡♡♡ * मुनिश्री मानमलजी मतभेद सदा से चलते हैं मन भेद नहीं अब रह पाये 1 मन भेदों के कारण कितने धर्मों धर्मों में द्वन्द्व हुवा परिणाम भयंकर जहरीला बोलो कब उसका बन्द हुवा शोषित की लाल कहानी फिर से न उभर कर मतभेद सदा से चलते हैं मन भेद नहीं अब रह ये पांचों 'गुलियाँ अपना श्रस्तित्व स्वयं का रखती हैं तन पोषण जब करना हो भोजन मिलमिल सब चखती हैं ऐसा ही ऐक्य धर्म जग के नेता फिर दिखलायें मत भेद सदा से चलते हैं मन भेद नहीं अब रह पायें ॥ झाडू का हर तिनका देखो यदि बिखर गया तो मिटता है धार्मिक नेताओ सुनो सुनो युग का स्वर जो अब उठता है -C÷8 आ पाये पाये 11 प्रास्तिकता खतरे में सारी मिल कर चलना श्रब श्रा जाये मत भेद सदा से चलते हैं मन भेद नहीं अब रह पाये ॥ ('अहिंसा वाणी' से साभार ) AAAAAAAAAAAAG Swa महावीर जयन्ती स्मारिका 77 AAAAAA Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राज विश्व का वातावरण स्त्री स्वातंत्र्य और समानाधिकार के नारे से गुञ्जायमान हो रहा है। नारी को उचित अधिकार प्रदान कराने हेतु 'नारी वर्ष' मनाया जा चुका है किन्तु उसके अपेक्षित फल न होते देख अब वर्ष के स्थान में दशाब्दी मनाई जा रही है। भगवान् महावीर के अनुयायियों में स्त्री मुक्ति को लेकर पर्याप्त समय से मतभेद हैं। एक पक्ष उसका समर्थन करता है तो दूसरा उसका विरोध। दोनों ही अपने अपने पक्ष में प्रबल तर्क प्रस्तुत करते हैं किन्तु इस काल में स्त्री तो क्या पुरुष भी मुक्त नहीं हो सकता अतः वर्तमान में यह विवाद व्यर्थ है। फिर भी पाठक दोनों की युक्तियों से परिचित हो अपनी ज्ञानवृद्धि कर सकें तथा स्वतंत्ररूप से चिन्तन कर सकें एतदर्थ लेखकके 40 पृष्ठों के लम्बे . लेख का सार हम यहां प्रस्तुत कर रहे हैं । पाठक इसके अतिरिक्त और कोई अर्थ इसके प्रकाशन का न लगावें। , ..... प्र० सम्पादक . सार संक्षेप जैन तर्क-वाङ्मय में स्त्री मुक्ति का तार्किक विवेचन * डा० लालचन्द जैन, वैशाली प्रसिद्ध ऐतिहासिक विद्वान दलसुख मालव- प्रकार पुरुष उसी भव से मुक्त हो सकता है रिणया के अनुसार स्त्री मुक्ति की दार्शनिक चर्चा व्य- उसी प्रकार स्त्री भी, क्योंकि कारण के मिलने वस्थित रूप से सर्वप्रथम यापनीय संघ के प्राचार्य पर कारण की निष्पत्ति होती है। ... शाकटायन ने अपने 'स्त्री मुक्ति प्रकरण' में की। इसके पश्चात् श्वेताम्बर और दिगम्गर दोनों मोक्ष के कारणों में किसी भी कारण का आम्नायों के प्राचार्यों ने उसको आधार बना कर अभाव स्त्रियों से नहीं है । प्रत्यक्ष, अनुमान तार्किक भित्ति पर स्त्रीमुक्ति का समर्थन और या पागम किसी भी प्रमाण से स्त्रियों में विरोध किया। द्वादशांगी या मूलसूत्र, छेदसूत्र आदि रत्नत्रय का प्रभाव सिद्ध नहीं किया जा में भी इसका स्पष्ट विवेचन दृष्टिगोचर नहीं सकता। प्रत्यक्ष इन्द्रियज्ञान का विषय है होता। लेखक मालवणिया पूर्वोक्त मत से सह जबकि रत्नत्रय प्रतीन्द्रिय । प्रत्यक्ष से प्रसिद्ध विषय में अनुमान की गति नहीं है। किसी मत है। भी आगम में स्त्रियों के रत्नत्रय का प्रभाव 1. मोक्ष का कारण रत्नत्रय प्राप्त होने पर जिस नहीं वताया है। महावीर जयन्ती स्मारिका 77 1-105 Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. कर्मक्षय करने रूप मोक्ष के कारण और संसार का कारण वस्त्र नहीं रागादि हैं। स्त्रीत्व में सह अनवस्थान अर्थात् एक के वस्त्र का प्रभाव भी मुक्ति का कारण नहीं -सद्भाव में दूसरे का न होना जैसे शीत के है क्योंकि सब वस्त्ररहित जीवों की मुक्ति सद्भाव में उष्णत्व का प्रभाव, विरोध भी नहीं होती। केवल वस्त्र मात्र ग्रहण से नहीं हैं। साधु परिग्रही नहीं हो सकता नहीं तो ध्यानस्थ मुनि पर वस्त्र डालने से वह भी 3. 'सर्वोत्कृष्ट रत्नत्रय जो कि मोक्ष का कारण परिग्रही कहलावेगा। वस्त्र का स्पर्शमात्र है, स्त्रियों में नहीं होता' यह कहना भी ठीक भी मुक्ति लाभ में बाधक नहीं है क्योंकि नहीं है क्योंकि इसका ज्ञान हम लोगों को तीर्थ करों के अनेक पदार्थों का स्पर्श होने नहीं हो सकता। पर भी मुक्ति होती है । 'वस्त्र जीवों की 4. अविकल कारण और स्त्रीत्व में परस्पर उत्पत्ति का स्थान है अत: स्त्री मक्ति नहीं परिहार स्थिति लक्षण विरोध भी नहीं है। हो सकती' क्योंकि प्रमाद का योग होने पर ही हिंसा होती हैं और प्रमाद के अभाव में 5. स्त्रियां सातवे नरक तक नहीं जा सकती हिंसा भी अहिंसा होती है । 'स्त्रियां पुरुषों इसलिए उनकी मुक्ति नहीं हो सकती' यह --- द्वारा वदनीय नहीं हैं अतः मुक्त नहीं हो भी ठीक नहीं हैं क्योंकि इनमें अविनाभाव सकतीं' यह तर्क भी ठीक नहीं है क्योंकि सम्बन्ध नहीं है। चरम शरीरी भी सातवें तीर्थ कर की माता को तो इन्द्र भी पूजते हैं। नरक तक नही जाते फिर भी मुक्त होते हैं । 'स्त्रियां दूसरों को स्मरण नहीं करा सकती इस कारण मुफ्त नहीं हो सकती' यह भी 6. 'बादादिलब्धि के अभाव के कारण स्त्रियां ... ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा कोई नियम नहीं मुक्त नहीं हो सकतीं, यह कहना भी ठीक नहीं है। यदि ऐसा नियम हो तो शिष्य कमी .. है क्योंकि-.. मुक्त हो ही नहीं सकेगा । (क) मूक केवली को मोक्ष नहीं हो सकेगा, 'यथाख्यात चारित्र' नहीं होने से स्त्री मोक्ष नहीं २ (ख) तत्वाधिगम सूत्र में जो यह कहा है कि जा सकतीं यह. कारण भी ठीक नहीं है क्योंकि . केवल सामायिक पदों का (तुषमाषभिन्न स्त्रियों के यथाख्योत चारित्र के कारण व्रत उपप्रादि) उच्चारण करके अनन्त जीव सिद्ध हो वासादि होते हैं। .. गये हैं वह मिथ्या हो जायगा । (ग) 'वादादि ... लब्यिों के प्रभाव होने से मोक्ष का भी ... जब भाव स्त्री वेद घाला. पुरुष मुक्त हो सकता - प्रभाव मानना ठीक नहीं है। ... है तो द्रव्य स्त्री वेद वाली स्त्री क्यों नहीं हो 7, 'अल्पश्र त ज्ञान के कारण स्त्री मुक्ति संभव सकती। संक्षेप में ये तर्क स्त्री मुक्ति के समर्थन नहीं है' यह भी ठीक नहीं है । तुषमाषभिन्न में दिये गये हैं। इस विषय को विस्तार से जानने. . ज्ञान वालों को भी मुक्ति होने के कथन के लिए स्त्री मुक्ति प्रकरण, ललित विस्तरा, शास्त्रों में मिलते हैं न्यायावतार वार्तिक, न्यायकुमुदचन्द्र , सन्मति तर्क प्रकरण, षड्दर्शन समुच्चय, शास्त्रवार्ता समुच्च य 8. वस्त्रग्रहण भी मुक्ति में बाधक नहीं है क्योंकि प्रादि ग्रन्थों को देखना चाहिये। 1-106 महावीर जयन्ती स्मारिका 77. Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तद्भव स्त्री मुक्ति के विरोधी निम्न तर्क और वस्त्र परिग्रह है अतः संयम की उत्पत्ति में प्रस्तुत करते हैं बाधक है। 1. स्त्री के सामान्य रत्नत्रय तो होता है जो 7. पीछी कमण्डलु आदि परिग्रह न होकर मोक्ष का कारण नहीं हैं नहीं तो गृहस्थ को भी संयम के साधन हैं जो छोड़े भी जा सकते हैं किन्तु मोक्ष मानना पड़ेगा । विशेष रत्नत्रय स्त्री में इस स्त्री वस्त्र त्याग कभी नहीं कर सकती। कारण नहीं हो सकता कि उसमें तीव्र शुभ और 8. वस्त्र की तरह शरीर मूर्छा का कारण अशुभ भाव दोनों ही अपने चरमोत्कर्ष रूप में नहीं .. नहीं है। हो सकते । स्त्री में रत्नत्रय की प्रकर्षता का अभाव अनुमान से सिद्ध है जैसे कि शकट का उदय वृत्तिका 9. स्त्रियां साधुओं द्वारा वंदनीय नहीं हैं । के उदय होने पर ही होता है यद्यपि दोनों में कार्य- घर पर भी पुरुषों का ही प्राधान्य होता है स्त्रियों कारण सम्बन्ध नहीं हैं। का नहीं। ___10. स्त्रियों में परिग्रह सहन करने की शक्ति 2. स्त्रियों के योनि, स्तन आदि स्थानों में नहीं होती। उनके उत्तम संहनन का प्रभाव सूक्ष्म जीव उत्पन्न होते और मरण करते रहते हैं, होता है। मासिक धर्म भी होता है, स्वभाव से ही वे भीरु प्रकृति की होती हैं इसलिए उनके मुक्ति के योग्य- 11. जिस जीव के सम्यक्दर्शन की उत्पत्ति शील का अभाव है। हो जाती है वह स्त्री जन्म धारण नहीं करती। 3. स्त्रियां स्वभाव से चञ्चल होती हैं अतः 12. प्रायिकानों के महाव्रत उपचार से होते वे प्रमादशील होती हैं उनका एक नाम प्रमदा है वास्तविक नहीं । उनकी इसी विशेषता के कारण है। !3. षोडस कारण भावनाओं से जो तीर्थ'कर ___4. स्त्रियों के सामान्य संयम तो होता है किन्तु प्रकृति का बन्ध होता है उसके फलस्वरूप पुरुष ही मुक्ति योग्य विशेष संयम नहीं होता। यदि ऐसा तीर्थकर हो सकते हैं। यदि स्त्री तीर्थ कर की मुक्ति है तो फिर उसकी स्त्रीरूप में प्रतिमा बनाकर नहीं है तो फिर उनके ऋद्धि विशेष उत्पन्न करने वाला संयम क्यों नहीं होता। क्यों नहीं पूजी जाती। 14. ध्यानारूढ़ मुनि को वस्त्र प्रोढ़ा देने पर 5. स्त्रियां सचेल होने से मुक्त नहीं हो सकती नहीं तो देश संयमी को भी मुक्ति माननी होगी। भी वह ममत्व के अभाव में निर्वस्त्र ही होता है । इस विषय की विस्तृत जानकारी के लिए न्याय6. स्त्रियां गृहस्थों की तरह ही वस्त्र आदि कुमुदचन्द्र, प्रमेयकमलमार्तण्ड, सूत्र पाहुड़, योगपरिग्रह की धारी होने से मुक्त नहीं हो सकतीं। सार, प्रवचनसार, धवला, ज्ञानार्णव, गोम्मटसार सम्पूर्ण परिग्रहों के त्याग पर ही संयम संभव है आदि ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिये। 1-107 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्यों होता है ऐसा, कि एक नहीं चोबस - चौबीस तीर्थंङ्करों के अनुयायी हम रहते हैं जहाँ के तहाँ ? मनाते हैं जयन्तियाँ और निर्वारण तिथियाँ भी फिर भी इन दीपों की ज्योति से निकलने वाला काजल ही रह जाता है दिलों में । क्यों होता है ऐसा कि वीरों के वंशज हम कहाते हैं कापुरुष दिगम्बर के अनुयायी लादे रहते हैं परिग्रह के वादे | मैं बहुत चिन्तित हूं अपनी और अपने समाज की I-108 क्यों ? * प्रकाश श्रमेय, इस यथार्थता पर कि हम हीरों की खान के बने हुए कोयले | और यदि हम हैं लोहे तो जंग लगे हुए उन्हें ऋषभ का पारस पन्थ छूता तो है पर बना नहीं पाता स्वरिणम धातु । आपने अपने और अपने समाज के अर्न्तमन में झांक कर देखा है कभी कि हम जो 'लेविल' लगाये हैं वह माल नहीं है हमारे अन्दर प्राखिर क्यों ? मथुरा महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान जैनसभा ने गत वर्ष (सन् 1976) से एक नई प्रवृत्ति प्रारम्भ की है। वह प्रतिवर्ष उच्चमाध्यमिक कक्षा तक के विद्यार्थियों को जैन विषयों पर एक निबन्ध प्रतियोगिता का आयोजन करने लगी है । गतवर्ष प्रथम और द्वितीय प्राये निबन्ध प्रतियोगियों की रचनाएँ हम यहाँ प्रकाशित कर रहे हैं । पाठकों से हमारा नम्र निवेदन यह है कि वे इन निबंधों को उस ही स्तर का समझकर पढ़े। स्मारिका में इन लेखों का प्रकाशन उत्साहवर्द्धन हेतु है। प्र. सम्पादक प्रथम जनहित में भगवान महावीर 8 श्री हेमन्तकुमार जैन, जयपुर जो देवों का देव देवता, सानों को दूर करने के लिए 'सर्वोदय' का नारा जिसके चरणों में श्रद्धानत । दिया जिसे हम सर्वोदयबाद कहते हैं। ये सभी अन्तर के कण-कण से वन्दन, प्रयोग अपने अपने समयानुकुल ही हुए और इनमें जनहितकारी उसी बीर को संतत ।। सफलता भी मिली। __ आज हम भगवान् महावीर के 2574 वे जन्म भारत की पवित्र भूमि आदिकाल से ही दिवस के उपलक्ष में इस प्रश्न पर विचार कर रहे विभिन्न विचारों की प्रयोगशाला रही है। यहां हैं कि भगवान् महावीर ने जो सन्देश दिए, वो से महापुरुष सदैव ही इस प्रश्न पर गम्भीरता से जनता के लिए किस प्रकार लाभकारी हुए ? एवं विचार करते रहे हैं कि समाज को सुख-शांति किस मानव सभ्यता किस प्रकार दुखों के गर्त से बाहर तरीके से सुलभ हो सके। निकल कर ऊपर की ओर उठी। समाज कल्याण के लिए राम ने 'नीति' का भगवान् महावीर ने जनहित के लिए क्या-क्या प्रयोग किया, कृष्ण ने 'रीति' का प्रयोग किया, कार्य किए वे निम्न हैं : बुद्ध ने 'करुणा' का, तो महावीर ने 'अहिंसा' व 'अनेकान्त' का प्रयोग किया। महात्मा गांधी ने प्राज का मानव मंहगाई से त्रस्त हैं। वास्तव अन्याय के प्रतिकार के लिए 'सत्याग्रह' का प्रयोग में इसका क्या कारण है ? इसका कारण है परिग्रह किया, तो लेनिन ने समाज की सभी प्रकार की अथवा संचय की प्रवृत्ति । भगवान् महाबीर ने कहा विषमतामों को दूर करने के लिये 'साम्यवाद' का है कि "संचय ही समस्त पापों का मल है।" प्रतः प्रयोग किया। सन्त विनोबा ने सामाजिक विषम. इस परिग्रह को अपरिग्रह से जीतने के लिए संचय महावीर जयन्ती स्मारिका 71 1-109 Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं परिग्रह की वृत्ति का त्याग कर संयम से रहना भगवान महावीर ने कहा- सभी समान हैं। चाहिए। समाज में तब तक सुख व अमन चैन नहीं होगा भगवान् महावीर ने कहा है कि जिस प्रकार जब तक यह मिथ्याभिमान रहेगा। अतः सुख को स्वर्ण को तपाकर एवं कसौटी पर रखकर उसकी प्राप्त करने के लिए समन्वयवाद का रास्ता लो। परीक्षा की जाती हैं, उसी प्रकार आप मेरे वचनों वादों की दुनियां में कर्मवाद अपना एक को सत्यता की कसौटी पर रखकर परखिये फिर विशिष्ट स्थान रखता है। कर्मवाद ही जनधर्म उनको ग्रहण करें । भगवान् महावीर ने कहा है कि एवं जैन संस्कृति की गहरी एवं सुदृढ नींव है जिस धर्म की ग्रन्थों की बातें सच्ची नहीं हैं। परन्तु पर ही यह भव्य प्रासाद खड़ा है। मनुष्य अपने मनुष्य की विवेक बुद्धि ही धर्मग्रहण का प्रमाण प्रति फलों से ही सुख एवं दुख भुगतता है। प्राप है। इस प्रकार महावीर ने ऐसे उपदेशों से अन्ध- TT तो पापक कर्म बन्धन क्षीण होंगे. विश्वासों का नाश किया। और पाप मोक्ष को प्राप्त करेगें। कर्मों के बन्धनों प्राज का युग युद्धों की कगार पर खड़ा है। से छुटकारा पाने का ही नाम मुक्ति है । भगवान् शीतयुद्ध की हर समय सम्भावना बनी रहती है। महावीर की वाणी, उपदेश ईश्वर के प्रागे गिड़परन्तु विश्व शान्ति के लिए सिर्फ एक ही साधन गिड़ाने व पहाडों-पर्वतों तीर्थ स्थानों पर भटकने है अहिंसा' । 'पहिंसा' की अमोध शक्ति के सामने की शिक्षा नहीं देते। जैन साधक अपने बन्धनों को सभी शक्तियां कुठित होती दिखाई देने लगी हैं। खोलने के लिए स्वयं प्रात्मा के द्वारा कल्याण करते हैं। प्रतः पाप जैसे कर्म करोगे वैसा ही फल अाज प्रत्येक मनुष्य कहता है कि 'मेरा सो पापको मिलेगा। भगवान् महावीर ने मोक्ष व सच्चा' परन्तु यह समाज में एक मिथ्याभिमान सच्चे मार्ग के लिए तीन नियम बतलाये-1. सम्यक दर्शन 2. सम्यक ज्ञान 3. सम्यक चारित्र । भगवान् महावीर ने कहा था कि प्रत्येक वस्त इनके द्वारा कल्याण हो सकता है। में सच्चाई है, उसे समझने की कोशिश करो, और उसे ग्रहण करो। भगवान महावीर के उपदेश कोटि-कोटि मानवों के लिए बहुत लाभकारी सिद्ध हुए हैं । इनके उपभारत के स्वतंत्र होने के पश्चात् भी वर्ग भेद देशों के श्रवण, मनन व चिन्तन से ज्ञान, प्रेरणा व एवं जाति-पांति का बोलबाला है । भगवान् महावीर पुरुषार्थ का संचार होता है। प्राज के युग को ऐसे ने कहा है कि इस समाज में जाति का सम्बन्ध उपदेशों की अावश्यकता है, एवं जीवन में ढालने कर्म से है, जन्म से नहीं। कोई भी मनुष्य चाहे की भी। किसी भी जाति में जन्म ले,चाहे वह किसी भी देश का हो, वह मेरे धर्म की शीतल छाया में बैठकर प्राज का पुरुष न जाने कदम-कदम पर कितनी पावन बन सकता है। हिंसाएं करता है, बुरे कार्य करता है। जरा सी धन प्राप्ति के लिए किसी की जान लेने में भी न भगवान् महावीर के उपदेशों की एक बड़ी चूकता। भारतीय इतिहास में ऐसे कई उदाहरण विशेषता है-समन्वयवाद । समन्वयवाद का अर्थ मिल जायेंगे जिसमें पुत्र, धन या राजप्राप्ति के है-किसी एक वस्तु के बारे में विभिन्न दृष्टि. लिए पिता अथवा निकट सम्बन्धी की हत्या कर कोणों से विचार करना । देता। परन्तु हमें इस प्रकार हिंसा से बचकर 1-110 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा का पालन करना चाहिए । भगवान् महा- करने से। पाप उन दीन-दुखियों की सेवा करो, वीर ने कहा है कि हमें किसी के जीने में मदद जो मेरी सेवा से कहीं अधिक श्रेयस्कर हैं । वो करनी चाहिए और समय पाने पर स्वयं की भी भी मेरे भक्त महीं जो मेरी प्राज्ञा को नहीं मानते । पाहुति दे देनी चाहिए। मैं उस जीवन से घृणा मेरी प्राज्ञा है कि प्राणी मात्र की सेवा करना व करता हूं एवं व्यर्थ समझता हूं जो जनहित में काम प्राणीमात्र को कष्ट नहीं पहचाना ।। में न पा सके।" उन्होंने जो धर्म चलाया वो धर्म हैं - जैन . धर्म। जैनधर्म एक बहुत ही अच्छा धर्म है । परन्तु भगवान् ने जनहित के लिए अनेक महत्त्वपूर्ण बम इसके दो भाग कर दिये गये हैं-श्वेताम्बर और कार्य किए उनमें से प्रमुख निम्न है : दिगम्बर । ___ हिंसा की रोकथाम : भगवान् महावीर ने ये कुछ मतभेद होने के कारण हुआ । परन्तु हिंसा के विरुद्ध बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य किए। पे उन्हीं माचिस और तिलियों के समान है जो उन्होंने हिंसा के विरुद्ध व्याख्यान दिये और अहिंसा एक दूसरे के बिना नाकाम हो जाती है। को प्रमुख धर्म बताया। कई व्यक्ति भगवान् के । वास्तव में जैन धर्म को देखना चाहें तो एक उपदेशों को सुनकर उनके शिष्य बन गये । उनमें कवि के शब्दों में निम्न हैं। से प्रमुख गौतम थे। जिन्होंने भी केवल्यज्ञान प्राप्त कर लिया एवं महावीर के उपदेशों को सब जगह अन्तई ष्टि है वहां, अर्थात् विदेशों तक पहुंचाया। जहां न पक्षपात का जाल । करूणा-मैत्री है सब जीवों पर जहां, उन्होंने समाज में होने वाले कर्मकाण्डों का जैन धर्म है वह सुविशाल || विरोध किया। उन्होंने यज्ञों का भी विरोध किया। वास्तव में भगवान् महावीर, उनके वचन, जिसमें कई पशुओं की बलि दी जाति थी। उन्होंने उनके उपदेश पवित्र और पावन हैं। उनके उपदेशों कहा इस प्रकार के यज्ञों के बजाय आप अहिंसा से कोटि-कोटि मानवों ने शिक्षा ली हैं, लेंगे एवं रूपी यज्ञ करें, जिससे प्रापका कल्याण हो अपना जीवन सफलता की तरफ अग्रसर करते हैं सकता है। व करेंगे । मानवों व सब प्राणियों के लिए भगवान् भगवान महावीर ने एक बार कहा था कि वे महावीर, उनके उपदेश, मंगल रूप, ज्ञान रूप और मेरे भक्त नहीं है जो मेरी पूजा करते हैं, सेवा करते वरदान रूप साबित होते प्राये हैं, हो रहे हैं और हैं, माला फेरते है। माप मेरे भक्त नहीं बनेंगे भक्ति आगे भी होंगे। महावीर ने कहा सब प्राणियों में एक जैसी प्रात्मा है अतः दूसरों के सुख-दुःख को हमें अपना जैसा समझना चाहिये । घृणा का पात्र पाप है, पापी नहीं । अतः पापी को पाप से छुड़ा कर उसे सन्मार्ग पर लाने का प्रयत्न करना चाहिये । --भगवान् महावीर महावीर जयन्ती स्मारिका 77 1-111 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय जनहित में भगवान् महावीर * श्री जिनेन्द्र कुमार सेठी, जयपुर जनहित में महावीर : आज सारा संसार अशान्ति के कगार पर खड़ा आज सारा संसार प्रशान्ति व असन्तोष के है । उसका कारण हिंसा है। आज महावीर के कगार पर खड़ा है । चारों ओर अशांति ही अशान्ति उपदेश अहिंसा का संसार के समस्त प्राणी माने तो हैं। भौतिक सुखों की प्राप्ति के लिए संघर्ष व अनेक देशों में हो रहे युद्ध बंद हो जाये जिससे कि पारस्परिक ईर्षा के कारण मानव ही मानव के जो धन विनाशकारी युद्ध के हथियारों; रक्षा पर खून का प्यासा हो रहा है। महावीर की जन्मभूमि खर्च समाप्त हो जाये और वह धन लोगों की भलाई बंगाल व निकटवर्ती राज्य बगाल में वीभत्स हत्या- के लिए लगाया जा सकता है। देशों के भीतर अनेक काण्डों का जोर है । अनेक देशों के मध्य युद्ध हो दंगे होते हैं वे समाप्त हो जाये जिससे कि व्यर्थ में रहा है। विश्व तृतीय विश्व युद्ध की ओर जा रहा ही अनेक प्रादमियों की हत्या हो जाती है, बेघरबार है । देशों के प्रदर राजनीति, धार्मिक, जातीय दंगे हो जाते हैं, जो प्रादमी रोज कमाता है रोज खाता हो रहे हैं । अाज संसार में जो लगभग 21 हजार है वह दंगे होने के कारण नहीं कमा पाता जिससे वर्ष पूर्व हो रहा था वही हो रहा है। प्राज भी वह खा नहीं पाता है। महावीर के उपदेश उतने ही जनहितकारी है भारत में प्राज वन्य जीव जन्तु कम होते जा जितने की आज से 23 हजार वर्ष पूर्व महावीर ने रहे है इसका कारण है शिकार यानि हिंसा । आज कहे थे। महावीर भगवान के उपदेश ही अाज अहिंसा के उपदेश को संपार के समस्त प्राणी संसार को शान्ति के मार्ग पर ला सकते हैं। मानें तो जो बेगुनाह जानवरों का शिकार किया महावीर भगवान के उपदेश कितने जनहितकारी हैं जाता है, मांस खाया जाता है वह बंद हो सकता उसका वर्णन निम्नलिखित है: है और समाज को पशुधन से काफी आर्थिक लाभ महावीर के उपदेश हो सकता है। मास से खाने से जो जानवर की 1. अहिंसा 2. अपरिग्रह 3 सत्य 4. प्रचौर्य बिमारी हो जाती है वह अगर कोई मांस नहीं 5. ब्रह्मचर्य । खायेगा तो वे बीमारिया नहीं होगी। अहिंसा : अनेक धर्माचार्यों ने कहा कि किसी अतएव प्राज संसार में महावीर के उपदेशों में जीव को नहीं मारना अहिंसा है। लेकिन महावीर खासकर अहिंसा काफी जनहितकारी है। इससे भगवान् ने तो यहां तक कहा कि किसी को बुरे या हमें काफी लाभ हो सकता है। कटु वाक्य जिससे किसी जीव को या प्राणी को ठेस अपरिग्रह : हम कोई गड्ढा खोदते हैं तो एक पहुचे वही हिंसा है। तरफ मिट्टी का ढेर लग जाता है दूसरी ओर गढे 1-112 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बात १९ में मिट्टी का संकट पा जाता है। प्राज लोगों में महावीर स्वामी में देखने को मिलते हैं । महावीर संग्रह की प्रवृति बढ़ती जा रही है। जिससे एक स्वामी ने यज्ञों मादि धार्मिक कुरुतियों जिनमें जीव पोर तो प्रावश्यकता से अधिक होता जा रहा है हत्या आदि को समाप्त इसलिए नहीं करवाया कि दूसरी ओर लोगों का नसीब नहीं हो रहा है। वे वैदिक परम्पराये थी बल्कि पशुधन वन सम्पदा, भगवान महावीर ने कहा कि अपनी आवश्य- उस समय की प्राधार थी। भगवान महावीर ने कताओं को सीमित रखो। जितनी आवश्यकता हो यह कहा कि वे किस धर्म के बारे में कह रहे है। उतना ही संचय करो। हम प्राज इस उपदेश को भगवान महावीर ने "जीप्रो और जीने दो' कहा माने तो जो ब्लैक हो रहा वह समाप्त हो जाएगे। अर्थात् स्वयं भी जिनो किसी दूसरो को कष्ट पहुचा एवं प्रत्येक ग्रादमी को अपनी प्रावश्यकता अनुसार कर या हिंसा करके नहीं अपितु साथ-साथ स्वयं वस्तुए उपलब्ध हो सकेगी। भी जीमो व दूसरे को भी जीने दो। भगवान ___महावीर का द्वितीय उपदेश अपरिग्रह था जो महावीर ने कहा कि स्याद्वाद अर्थात जितनी अपनी काफी जनहितकारी है। बात कहने का अधिकार है उतना ही किसी दूसरे __ सत्य : हमें सदा सत्य बोलना चाहिए। झूठ को बात सुनने का भी । महावीर भगवान ने कहानहीं बोलना चाहिए। आज महावीर भगवान के कि हम जो कार्य सोचे उसे पूर्व भी करने के प्रयत्न उपदेश को माने तो बेइन्साफी समाप्त हो सकती करना चाहिए। महावीर स्वामी ने स्त्री-पुरुष के है । झूठ बोलने से जो आदमी में पारस्परिक इर्ष्या भद मिटाने के लिए उन्होंने स्त्रियों को दीक्षा दी। होती है वह सत्य बोलने से नहीं होती है। महावीर स्वामी ने अमीर-गरीब, जात पात, स्त्री___ ब्रह्मचर्य और अचौर्य के उपदेशों में महावीर पुरुष आदि के भेद मिटाने के लिए काफी प्रयत्न भगवान ने यह बताया कि हमें संयम से रहना किये । महावीर स्वामी ने अपने विशाल वैभव को चाहिए । किसी दूसरे को देखकर ईर्षा नहीं करनी 30 वर्ष की आयु में छोड़कर (त्यागकर) दीक्षा चाहिए । सारे समाज के मंगल की कामना करनी ली इसका यह प्रसंग है कि प्राप्त करने से अधिक चाहिए । भगवान महावीर ने व्यक्ति के समाज से ग्रानन्द प्राता है। प्राज अगर हम प्राप्त करने के दायित्व क्या है उसे बताया वह उसे हमें निभाना स्थान पर त्याग दें तो सारा संघर्ष समाप्त हो चाहिए। जायेगा। भगवान महावीर ने संसार में होने वाले सब दुखों को प्राज से 2 हजार पूर्व दूर किया लेकिन उनके उपदेश प्राज 21 हजार वर्ष बाद हमें जरूरत प्राज हमारे लिए महावीर के उपदेश काफी है विश्व शान्ति के लिए। जनहितकारी है। महावीर स्वामी ने जो कुछ कहा ___ भगवान महावीर के जीवन की यही सार्थकता है उसका काफी गहराई तक निष्कर्ष निकलता है। है कि हम उनके जीवन से उनके गुणों को हमारे आज हमारे का शांति के मार्ग पर जाना चाहते हो जीवन में उतारे। महावीर भगवान में प्रथम तो हमें महावीर स्वामी के बताये हुए उपदेशों पर तीर्थकर ऋषभनाथ का योग, नेमीनाथ की करुणा, चलना चाहिए महावीर स्वामी के उपदेश काफी पार्श्वनाथ की सहिष्णुता आदि हमें सब अच्छे गुण उपयोगी व जन हितकारी है। सेठजी को फिक्र थी, एक से दस कीजिए । मौत आ पहुंची कि हजरत, जान वापिस कीजिए । महावीर जयन्ती स्मारिका 11 1-113 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीर का जीवन ___ * सुश्री कनकलता बैद, धर्मालंकार ईसा से लगभग 600 वर्ष पूर्व चैत्र शुक्ला देव भयंकर सर्प का रूप धारण कर फुकार करता त्रयोदशी के दिन माता त्रिशला के गर्भ से कुण्डल- हुमा वृक्ष के चारों ओर लिपट गया। सर्प की पुर नामक ग्राम में भगवान् महावीर का जन्म भयंकरता देखकर कुमार के सब मित्र वृक्ष से कूद हा । जिस समय भगवान् महावीर ने जन्म लिया, कर घर भाग गये। पर कुमार ने अपना वैयं नहीं समाज में हिंसा का बोलबाला था। प्रज्ञान रूपी छोड़ा। वे उसके विशाल फरण पर पांव देकर खड़े ज के चारों ओर मंडरा रहे थे, शासकों हो गये और प्रानन्द से उछलने लगे। उनके साहस का अगर कोई सिद्धान्त शेष था तो वह था, से प्रसन्न होकर देव, सर्प का रूप छोड़ अपने 'जीवो जीवस्य भोजनम्' अर्थात् एक जीव ही दूसरे असली रूप में प्रकट हुआ और महावीर की स्तुति जीव का भोजन है। इस प्रकार जो धर्म प्राणी- करने लगा। तभी से प्रापको महावीर नाम से मात्र के सुख, शांति तथा कल्याण के लिए था वही जाना जाता है। हिंसा, विषमता और प्रताड़न का अस्त्र बना धीरे-धीरे भगवान् जवान हो गये। एकदिन हुना था। सिद्धार्थ ने महावीर से कहा. पुत्र ! अब तुम पूर्ण युवा हो गये हो, मैं तुम्हारा विवाह कर तुम्हें जन्म से ही भगवान् महावीर का हृदय दीन राज्य भार सौंप कर दीक्षा ग्रहण करना चाहता दुखियों को देखकर व्याकुल हो जाता था। जब हूं। पिता के ये वचन सुनकर महावीर ने कहा-- सक वे उन दुखियों के दुखों को दूर नहीं कर देते उन्हें शांति नहीं मिलती थी। वे समदर्शी थे। इस पिताजी, जिस संसार से माप बचना चाहते हैं, उसमें मुझे क्यों फंसाना चाहते हैं। आप मुझे कारण भगवान महावीर की कीर्तिगाथा पवन की आज्ञा दीजिये जिससे मैं जंगल में जाकर, वहां के भांति सम्पूर्ण भारत में फैल गयी। वे दूज के शांत वातावरण में रहकर प्रात्म ज्योति को प्राप्त चन्द्रमा के समान दिन प्रति बढ़कर कुमार अवस्था में प्रविष्ट हुये। कर, जगत् का कल्याण करू । पिता और पुत्र का यह संवाद सुन माता एक समय की घटना भगवान् महावीर अपने त्रिशला व्याकुल हो उठी। उसकी प्रांखों के सामने मित्रों के साथ एक वृक्ष पर चढ़ने उतरने का अंधेरा छा गया और वह बेहोश हो गई। जब वह खेल खेल रहे थे। उसी समय संगम नामक एक होश में आई तो महावीर ने उन्हें संसार की 1-114 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसारता के बारे में समझाया, तब माता ने उन्हें प्रकम्पन, अन्धेबल और प्रभास इस प्रकार दस खुशी से दीक्षा लेने की प्राज्ञा दे दी। गणधर पोर बने । भगवान् को दिव्यध्वनि ___भगवान् महावीर के दीक्षा ग्रहण के समय खिरी। देवगण जय-जयकार करते हुए प्राकाश मार्ग से इनके समवशरण में तीन सौ ग्यारह द्वादशांग कुण्डलपुर पाये। वहां उन्होंने भगवान् का दीक्षा के वेत्ता, 9 हजार 9 सौ शिक्षक थे,तेरह सो अवधि भिषेक किया। वे सुन्दर प्राभूषण धारण करने ज्ञानी थे, सात सौ केवल ज्ञानी, ५०० मनः पर्यय के पश्चात् देव निर्मित चन्द्रप्रभा पालकी पर सवार ज्ञानी, नौ सौ विक्रियावृद्धि धारक, चार सो अनु. होकर वन में पाये और वहां प्रगहन बुदो दशमी त्तरवादी, 36000 साध्वियां थीं, एक लाख श्रावक के दिन 'ॐ' नम: सिद्ध भ्यः' कह कर बस्त्रादि और तीन लाख श्राधिकाएं थीं, प्रसंख्यात देवत्याग कर प्रात्म ध्यान में लीन हो गये। देवियां और संख्यात तिर्यच थे। इन सबको तत्पश्चात् एक दिन भगवान महावीर उज्ज- उन्होंने नय प्रमाण और निक्षेपों से वस्तु का यिनि के प्रतिमुक्तक नामक श्मशान में मये और स्वरूप बतलाया। प्रतिमा योग धारण कर वहीं विराजमान हो गये। इसके पश्चात् उन्होंने सम्पूर्ण भारत में घूमउन्हें वहां देखकर महादेव रुद्र ने उनके धैर्य की कर धर्म प्रचार किया । भगवान महावीर ने परीक्षा चाही। उसने बेताल विद्या के प्रभाव से सर्वप्रथम धार्मिक जड़ता और आर्थिक अपव्यय को रात्रि के अन्धकार को प्रत्यधिक सघन बना दिया। रोकने के लिए यज्ञों का विरोध किया. जिसमें तदनन्तर मायामयी सर्प, सिंह, हाथी और अग्नि प्रत्येक मानव के दिल में यज्ञ विरोध इतना विकप्रादि के साथ लम्बी सेना बनाकर पाया और सित हो गया कि पशु यज्ञों का सिर्फ नाम ही शेष कठोर उपसर्ग किये । किन्तु भगवान महावीर रह गये । प्रात्मध्यान से तनिक भी विचलित नहीं हुए। __ भगवान महावीर ने विचारों में अनेकान्त, महावीर के इस अनुपम धैर्य को देखकर महादेव जीवन में अहिंसा, वाणी में स्याद्वाद व समाज में रुद्र अपने असली रूप में आये और भगवान् से अपरिग्रह व पांच अणुव्रतों जैसे अनुपम सिद्धान्तों क्षमा याचन के द्वारा प्रज्ञानी प्राणियों का दिशा बोध किया, जृम्भिका गांव के समीप ऋजुकूला नदी पर, जो आज भी आकाश दीप की भांति मानव का मनोहर नाम के वन में सागोन वृक्ष के नीचे भग- पथ प्रदर्शन कर रहे हैं। वान् महावीर ध्यानस्थ थे। वहीं पर उन्हें केवल- जीवन के अन्तिम वर्षों में भगवान महावीर ज्ञान की प्राप्ति हुई। देवों ने पाकर ज्ञान कल्या पावापुरी पाये और वहां ध्यान में लीन हो गये । एक का उत्सव मनाया और समवशरण की और अपने ध्यान की तल्लीनता के कारण, रचना को। प्रघातिया कर्मों का नाश कर, कार्तिक वदी इन्द्रभूति जिसका अमर नाम गौतम था, अमावस्या के दिन प्रात.काल 70 वर्ष की अवस्था उनका पहला गणधर बना। इसके पश्चात् इनके में मोक्ष की प्राप्ति हुई। देवों ने पाकर निर्वाण वायुभूति, अग्नि, सुधर्म, मौर्य, मौन्द्रय, पुत्र, मैत्रेय, की पूजा की और उनके गुणों की स्तुति की। महावीर जयन्ती स्मारिका 11 1-115 Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . कलमगीर का नमन * श्री तारादत्त निविरोध, जयपुर सर्वोदय के, स्याद्वाद के | महा प्रवर्तक, , अपरिग्रह वृत्ति के उन्मेषक सिद्ध र्थपुत्र त्रिशला की ममता के धन । बचपन के 'वर्धमान' 1 औ' ज्ञान कोष के 'सन्मति' सत्य अहिंसा मानवता के हे क्रांतिदर्शी निर्भीक साहसी सकल मुक्ति के अमर समर्थक श्रद्धा और जगत निष्ठा के केन्द्र सुचिर हे, महावीर अन्तिम तीर्थङ्कर तुम्हें नमन है, कलमगीर की श्रद्धा का यह अर्पित तुम को भाव सुमन है ! - - होगा नया सुधार अगर चाहता जो समाज का, सचमुच में उत्थान हो। धर्म संस्कृति मानवता का और अधिक निर्माण हो ।। तो उसको है 'सरस' लाजमी ऐसा नूतन मोड़ ले । जो दहेज लेता हो उससे हाथ मिलाना छोड़ दे ।। ऐसा विवश करें वह खुद ही हो जाए लाचार । तभी देश के जन जीवन में होगा नया सुधार । -श्री सरस NMMENNNNMannu 1-116 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SOOOOOOOOOOOOOO ECORDOSTSPSDOCOMOSDCOSY) OSPOS SMO खण्ड COBAUSWAHHAUS कला, संस्कृति और साहित्य Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन काल में १२ वर्ष का उत्तर भारत में भीषण काल तथा जैन सन्त भद्रबाहु का अपने शिष्यों सहित दक्षिण में पलायन प्रव एक स्वीकृत ऐतिहासिक तथ्य है । उनके वहाँ पहुंचने के पश्चात् प्रपनी परम्परानुसार उन्होंने वहाँ की तत्कालीन लोक भाषा तामिल को अपनी कृतियों से समृद्ध किया । उन्होंने प्रायः प्रत्येक विषय पर अपनी लेखनी चलाई । उनमें से व्याकरण, छन्दशास्त्र तथा शब्द कोष सम्बन्धी कतिपय जैन तमिल रचनाओं का संक्षिप्त परिचय इस निबन्ध में है । लेखक 'तमिल कोविद' हैं अतः इस विषय पर अपनी लेखनी अधिकारपूर्वक चलाने में सक्षम हैं। - प्र. सम्पादक तमिल भारती को जैन मनीषियों का योगदान * श्री रमाकान्त जैन, बी. ए., सा. र., तमिल - कोविद, लखनऊ समकालीन विद्वान पनमपारणार ने इसे ऐन्द्र निरञ्च" अर्थात् संस्कृत व्याकरण 'ऐन्द्र' जो एक जैन कृति है का निचोड़ कहा है और पाण्ड्य सभा में पढ़े जाने के उपरान्त इमे श्रडकोट्टाशन द्वारा मान्य किये जाने की बात कही है। पनमपाणनार ने तोलकाप्पियर के लिये पल-पूगल निरूत- पडि मैयोन' (अर्थात् महान प्रसिद्ध प्रतिमा योगी) विशेषण प्रयुक्त किया है । इस व्याकररण ग्रन्थ के 'मरवियल' नामक विभाग में जीवों का जो वर्गीकरण किया गया है वह जैन सिद्धान्त के अनुसार है । इस व्याकरण ग्रन्थ पर पाणिनी की अष्टाध्यायी को भांति प्राचीनकाल से ही टीकाएं लिखी जाती रही हैं और प्राधुनिक काल में भी तमिल के प्रकाण्ड पंडितों द्वारा सम्पादित इसके विभिन्न अधिकार (भाग) प्रकाशित हुए हैं । तमिलनाडु की तेन मौलि अर्थात् मधु की भांति मधुर भाषा तमिल की उत्पत्ति का श्रेय मलय पर्वत पर निवास करने वाले श्राचार्य पोदिय मलै प्रगत्तियार ( अगस्त्य ऋषि) को दिया जाता है प्रोर उनकी कृति 'प्रगत्तियम्' को तमिल का आदि व्याकरण माना जाता है, किन्तु वह प्रनुप लब्ध है | तमिल भाषा की जो प्राचीनतम कृति अब उपलब्ध है वह है 'तोलकाप्पियम्' । संयोग से यह एक व्याकरण ग्रन्थ है जिसमें वर्णं, शब्द और अर्थ के विषय में तीन भागों में विचार किया गया है । ग्रन्थ के तृतीय भाग में शब्दों के अर्थों पर विचार करते समय छन्द, प्रलंकार, तत्कालीन रीति रिवाज सम्प्रदाय, युद्ध नीति, राजनीति, तमिलनाडु की भौगोलिक स्थिति इत्यादि विविध विषयों का भी विस्तृत विवेचन हुआ है । इस व्याकररण ग्रन्थ के रचयिता तोलकाप्पियर माने जाते हैं । कुछ लोगों का कहना है कि वह अगस्त्य ऋषि के शिष्य थे । इस ग्रन्थ की प्रस्तावना में महावीर जयन्ती स्मारिका 77 प्रगत्तियम् और तोलकाप्पियन की परम्परा में उनके ज्ञाता और संस्कृत के जैनेन्द्र व्याकरण से 2-1 Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिचित भवनन्दी मुनि ने दसवीं शती ईस्वी के हरण दिये गये । तमिल छन्द शास्त्र पर उपलब्ध लगभग 'नन्नूल' नामक एक अन्य व्याकरण ग्रन्थ यह प्राचीनतम ग्रन्ग है। में केवल वणों और शब्दों पर पांच अध्यायों में विचार किया गया है । तमिलजनों में लोकप्रिय जैन विद्वान उदी चिदेव की भक्ति रचना इस व्याकरण ग्रन्थ पर जो टीकाएं रची गई उनमें 'तिरुक्कलम्बगन्' तमिल की एक विशिष्ट काव्य सर्वाधिक महत्वपूर्ण टीका जैन वैयाकरणी मलै शैली कलम्बगम्' का अन्यतम उदाहरण है जिस में नाथर की है और वर्तमान काल में इसके जो भिन्न-भिघ छन्दों में निबद्ध पदों का मिश्रण संस्करण प्रकाशित हुए हैं उनमें सुसम्पादित कुशलतापूर्वक प्रस्तुत किया गया है । इस रचना में कुरा संस्करण डा. वी. स्वामीनाथ अय्यर का माना जैन धर्म के अतिरिक्त तत्कालीन अन्य धर्मों यथा जाता है। बौद्ध प्रादि के सिद्धान्तों का भी विवेचन किया गया है। प्रतः धार्मिक सिद्धान्तों के तुलनात्मक अध्ययन इसके उपरान्त तमिल व्याकरगा ग्रन्थों की की दृष्टि से भी इस रचना का महत्व है। शृखला में पाण्डी मण्डलन में पोस्रण नदी के तट पर अवस्थित पुलियनगुडि के निवासी जैन विद्वान तमिल शब्द कोषों के निर्माण में भी जैन नम्बीनयनार ने 'तोलकाप्पियम्' के परूल इलक् विद्वानों ने अपना योग दिया। दिवाकर मुनि ने कन' के अाधार पर 'प्रगप्पोरुलविलक्कम' नामक र "दिवाकर निघण्टु' पिंगल मुनि ने 'धिंगल निघण्टु' व्याकरण ग्रन्थ की रचना की। इस ग्रन्थ में रच- और मण्डलपुरुष ने चूड़ामगिण निघण्ट्र' की रचना यिता मे, जो चार भिन्न प्रकार की काव्य रचनामों की । इन शब्दकोषों में विरुत्तम छन्द में 12 में सिद्धहस्त होने के कारण 'नार कविराय' के अध्यायों में रचित 'चूड़ामगि निघण्टु' का गत नाम से विख्यात थे, प्रेम तथा तत्सम्बन्धी अनभवों शताब्दी के उत्तरार्द्ध में बड़ा प्रचार प्रा । सन् की मानसिक अनुभूतियों का सुन्दर विवेचन 1870 ई० से सन् 189: ई. के मध्य 22 वर्षों किया है। में ही इस निघण्टु के सम्पूर्ण भाग अथवा भाग विशेषों के 26 संस्करगा प्रकाशित हुए। इस व्याकरण के साथ-साथ छन्द शास्त्र विषय में निघण्ट्र में जिनसे नाचार्य के शिष्य गुणभद्र का भी जैन विद्वानों ने तमिल भारती की अभिवृद्धि की उल्लेख होने से यह उनके पश्चात् अर्थात् 9वीं है। लगभग 1010 ई० में हुए जैन विद्वान अमृत. शती ईस्वी के उपरान्त की कृति है। सागर ने 'याप्परूगल क्कारिक' तथा 'यापरूगल. विरुत्ति' नामक छन्द शास्त्रों की रचना की। गणित, ज्योतिष और सामुद्रिक शास्त्र जैसे 'याप्परू गलकारिक' के सम्बन्ध में कुमारस्वामी विषयों पर भी जैन विद्वानों ने तमिल भारती के पुलवर ने दीका रची पौर उसे रामस्वामीगल भण्डार को भरा, किन्तु अधिकांश कृतियां काल तथा अम्बल, वन पिल्ले ने सम्पादित और प्रकाशित गर्भ में समाहित हो गई। फिर भी जो उपलब्ध हैं किया है । 'याप्परू गलविरूत्ति' का सम्पादन एस. उनका अपना महत्त्व है। यदि पुराने परम्परागत भवनन्दन पिल्ले ने किया है । इस छन्द शास्त्र में ढग से हिसाब-किताब रखने के अभ्यस्त तमिल जहां प्राचीन और विशुद्ध तमिल छन्दों का विवेचन व्यापारी 'एण्कुव डि' नामक गरिणत पोथी से प्रारहुअा वहां कलितुरै और विरुत्तम जैसे नवीन छन्दों म्भिक शिक्षा ग्रहण करते हैं तो त मिल ज्योतिषी का भी विश्लेषण किया गया और एक से लेकर प्रारूढ अर्थात् भविष्यवाणियां करने के पूर्व 'जिनेन्द्र उन्तीस पंक्तियों तक के विभिन्न छन्दों के 96 उदा- माले' का अभ्यास करते हैं। 2-2 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान जहां अपनी वीरता के लिए प्रसिद्ध है वहां कला की दृष्टि से भी वह किसी प्रान्त से पीछे नहीं है। जैन कला का विकास भी यहां अपनी चरम सीमा पर है । प्राबु और रणकपुर की जैन स्थापत्य कला विश्व प्रसिद्ध है । राजस्थ न को भू.पू रियासत तथा वर्तमान में जिला जैसलमेर का स्थापत्य भी इनसे बराबर की होड़ लेता है। यहां के लौद्रवा के जैन मंदिरों की कला अपने आप में अनुपम है। इस ही शिल्प का विस्तृत विवेचन चित्रों सहित सम्माननीय लेखक ने अपने इस निबन्ध में प्रस्तुत किया है। प्र. सम्पादक जैसलमेर का जैन शिल्प * श्री कुन्दन लाल जैन, प्रिन्सिपल, देहली जैसलमेर प्राचीन राजस्थान की एक प्रसिद्ध धानी पहले लौद्रव नगर थी जो यहां से लगभग रियासत थी जिसका रकवा लगभग 16062 मील 20 कि.मी. दूर है पर बाहरी माक्रमण से बचाने था। यह भारत के धुर उत्तरी पश्चिमी कोने में के लिए सुरक्षा की दृष्टि से सम्बत् 1212 में रावल पाकिस्तानी सीमा से लगा हुआ है। जैसलमेर जैसल (जयशाल) ने इस नगर को बसाया था और इस लाइन का पाखिरी रेल्वे स्टेशन है इससे मागे इस विशाल किले का निर्माण कराया था। इनकी रेल नहीं है, पाकिस्तानी सीमा यहां से लगभग मृत्यु सं. 1224 में हो गई थी। किले पर पहुंचने 100 कि.मी. दूर है । यद्यपि जैसलमेर एक साधा- के लिए बीच नगर में से जाना पड़ता है। किले में रगा सा नगर है पर यहां पुरातत्व, इतिहास, शिल्प प्रब भी प्राधी प्राबादी है और लोग दैनिक एवं कला से सम्बन्धित जो सामग्री बिखरी पड़ी है अावश्यकताओं की पूर्ति के लिए नीचे प्राते वह निश्चय ही जैसलमेर की प्रतिष्ठा में चार चांद रहते हैं। जड़ देती है । यह रतीला प्रदेश जो पानी के प्रभाव प्रमुख द्वार से आगे चलते ही भव्य राजमहल में सर्वथा सूखा सूखा सा प्रतीत होता है अपने कला, के दर्शन होते हैं। (चित्र 1 संलग्न) है जिसके वैभव और पुरातात्विक अवशेषों के कारण कला प्रस्तर खण्डों की कलापूर्ण कटाई खिड़कियों एवं पारखियों का विशेष अ.दरणीय बन गया है तथा जाली झरोखों की नक्कासी बड़ी ही मनोहारी रसगंगा सा सरस पास्वादन प्रदान करता है। लगती है। यहां महारावल लक्ष्मणजी महाराज के जैसलमेर स्टेशन पर उतरते ही दूर पहाड़ी पर राज्यकाल में जैनियों का बड़ा वर्चस्व था । वे जैन प्रवस्थित बादामी पत्थर का चमकता हुमा विशाल साधुनों के प्रति बड़े श्रद्धावान् थे । उन्हीं की कृपा किला दर्शकों का ध्यान बलात् ही अपनी पोर से यहां कई विशाल कलापूर्ण जैन मंदिरों का प्राकर्षित कर लेता है । जैसलमेर राज्य की राज. निर्माण हो सका जो पुरातत्व, शिल्प, इतिहास एवं महावीर जयन्ती स्मारिका 77 2-3 Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कला की महत्वपूर्ण धरोहर हैं। इनका सौन्दर्य वैभव लेखनी से नहीं लिखा जा सकता यह तो स्वयं ही देखने की वस्तु है, इन्हें देखकर जो तृप्ति, असीम मानन्द एवं सुख शांति की अनुभूति होती है वह भुक्तभोगी ही जान सकता है अन्य को दुर्लभ है । सर्व प्रथम चिन्तामणि पार्श्वनाथ का मंदिर है जिसकी नींव खरतरगच्छीय प्राचार्य जिनराज सूरि के उपदेश से सागरचंद सूरि ने सं. 1459 में रखी थी और चौदह वर्ष के लगातार परिश्रम और सतत श्रध्यवसाय के बाद सं. 1473 में बनकर तैयार हुआ जिसकी प्रतिष्ठा जिन चंद सूरि महाराज ने कराई थी। इस मंदिर में इस प्राशय का एक शिलालेख दीवार में जड़ा हुआ है जिसकी लम्बाई 2. फुट 6 इंच तथा चौड़ाई 1 फुट 31⁄2 इंच है। इसमें 27 पंक्तियाँ हैं । जिसके कुछ श्लोक निम्न प्रकार हैं । नवेषु वार्द्धदुमितेथ वर्षे निदेशतः श्री जिन राज सूरे: । गर्भगृहक्षेत्रविम्बं मुनीश्वराः सागरचन्द्र सारा: 121 अस्थापयत् तेषां श्री जिन वर्द्धनाभिध गरणाधीशां समादेशतः । श्री संघ गुरुभक्ति युक्ति नलिनी लीलन्भरालोपम् । सम्पूर्णी कृतवानमुळे खरतर प्रासाद चूड़ामणिः । त्रिद्वीप बुधि यामिनी पति मिते संवत्सरे विक्रमात् 1231 तोऽपि संवत् 1473 तन्नगरं जिनेशभवनं । यत्रेदमालोक्यन्ते स इलाध्यः कृतिनां महीपति रिदराज्ये यदीयेऽजनि । येनेदं निरमाथि सौध विभवैर्धन्यः स संघः क्षितौ । तेभ्यो धन्यतरास्तु ते सुकृतिनः पश्यन्ति येदः सदा 1241 उपर्युक्त विस्तृत प्रशस्ति बाले शिलालेख में जैसलमेर राज्य की राज वंशावली का बड़े विस्तार से वर्णन किया गया है जो इतिहास के शोधार्थियों 2-4 के लिए बड़ी महत्वपूर्ण सामग्री है। जैनाचाय की पट्टावली तथा श्रावक श्राविकाओं का भी उल्लेख है । उपर्युक्त जिनालय के समीप ही संभवनाथ जी का मंदिर है जिसे साहू हेमराज पूना ने सं. 1494 में बनवाना प्रारम्भ किया था जिसमें तत्कालीन शिल्पियों ने अपनी कलापूर्ण पैनी छेनियों द्वारा प्राण प्रतिष्ठा करते हुए तीन वर्ष के कठोर परिश्रम के बाद सं 1497 में परिपूर्ण किया था । इसकी प्रतिष्ठा श्री जिनभद्र सूरि ने कराई थी । इसके पास ही दूसरा मंदिर भगवान महावीर स्वामी का है जिसकी प्रतिष्ठा सा० दीपा बरडिया ने सं. 1473 में कराई थी। इसी के पास शीतलनाथ जी का मंदिर है जिसकी प्रतिष्ठा सं 1479 में डागा गोत्रिय सेठियों ने कराई थी। पास में ही चन्द्रप्रभु का मंदिर है जिसकी प्रतिष्ठा भगुशाली गोत्रिय सा० वोदा ने सं 1509 में कराई थी, पास ही शांतिनाथ के मंदिर की प्रतिष्ठा सं 1536 में संखवालेचा श्रौर चोपड़ा गोत्रिय सेठों ने कराई थी इस समय जिन समुद्र सूरि श्राचार्य उपस्थित थे और इस समय यहां की राजगद्दी पर महारावल देवकरणसी विराजमान थे । इसके पास ही ऋषभदेवजी के मंदिर की प्रतिष्ठा सं 1536 में हुई थी । उपर्युक्त सभी मन्दिर पत्थर के बने हुए हैं और इन प्रस्तरखंडों पर कैसा अनूठा शिल्प वैभव बिखरा पड़ा है कि देखते ही बनता है। इन्हें देखकर खजुराहो, दैलवारा, रणकपुर के शिल्प वैभव फीके से लगने लगते हैं। बड़े खेद की बात है कि कला के ऐसे श्रेष्ठ नमूनों से अभी भी कला जगत अपरिचित पड़ा है जिसके लिए हम जैनियों की रूढ़िवादिता अत्यधिक जिम्मेदार है । जब हमने इन स्थलों के फोटो चित्र उतारना चाहे तो हमें रोक दिया गया और पैढ़ो से संपर्क स्थपित करने को कहा गया पर जब पैढी पर गये तो न तो वहां से कोई सामग्री ही उपलब्ध हो सकी और न ही महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JA NEL जैसलमेर का राजमहल लोद्रवा जैन मन्दिर का प्रष्टापद कल्पवृक्ष Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुमति मिल सकी जितना बड़ा क्षोभ रहा और है। उस शिल्पी ने अपनी सम्पूर्ण कला प्रतिभा कला के ऐसे महत्वपूर्ण खजाने से हम खाली हाथ द्वारा केवल ये दो प्रतिभाए ही घढी थी। इस ही लौटे। यहीं एक मन्दिर में कुछ प्राचीन वत्र मन्दिर में जो शिलालेख है वह निम्न प्रकार है-- रखे हैं जिसके विषय में किंवदन्ती है कि ये वस्त्र श्रीसाहिण योगतो युगबरे त्यच्छं पदं जिनचंद सूरीजी महाराज के हैं जो उनके दाह के दत्तवान् । समय भी नहीं जले थे । यही उनका समाधिस्थल येभ्यः श्रीजिनचन्द्रसूर पट्ट विख्यात सत्कीर्तयः। तत्प? मित तेजसो युगवरा: श्रीजैन सिंहाभिधा लौद्रवनगर-जैसलमेर से लगभग 20 कि.मी. तत्पट्टांबुजभास्कराः गणधराः श्रीजैनराजाः दूर लौद्रवनगर है जिसे लौद्रवा भी कहते हैं यह श्रुताः ।।।:: लौड (लौद्र) राजपूतों की राजधानी थी। सं० तैभाग्योदय सुदर : रिपुसरस्वत्षोडशाब्दे । 900 में भाटी देवराज ने इसे राजपूतों से छीनकर (1675) सितद्वादश्यां । प्रथम रावल की उपाधि धारण की थी। चूंकि सहसा प्रतिष्ठित मिदं चैत्य स्वहस्तश्रिया । लौद्रवा सुरक्षा की दृष्टि से बडा कमजोर था यस्य प्रौढतर प्रताप तरणे श्रीपानाथेशितु । अतः सं0 1212 में इस राज्य की राजधानी यहां सोऽयं पुण्यभरां तनोतु विपुलां लक्ष्मी जिनः से उठाकर जैसलमेर में स्थापित की गई थी। - सर्वदा ।।2।। फिर भी कला पौर संस्कृति का विकास यहां बरा. पूर्व श्रीसगरो नपोऽभवदलकारोन्वये यादवे । बर चालू रहा। आज भी यहां उच्चकोटि के तक्षक पुत्री श्रीधरराजपूर्णकधरौ तस्याथताभ्यांक्षितौ । विद्यमान है जो प्राचीन कलाकृतियों की प्रनुकृतियां श्रीमल्लौद्रपुरे जिनेशभवने सत्कारितं खीमसी। तैयार कर प्राचीन वैभव को नवीनता प्रदान कर तत्पुत्रस्तदनुक्रमेण सुकृतीजातः सुतः पूनसी ।। तत्पुत्रोवरधर्म सद्गुण श्रीमल्लस्तनयोथ तस्य सत्रहवीं सदी में यहां थाहरूसाह भणशाली कर्मणिरतः ख्यातोऽखिलं सुकृती श्री थाहरू नामकः । बड़ा ही प्रभावशाली प्रतिष्ठित धार्मिक श्रेष्ठी हुमा था जिसने पंचमेरू की भांति पांच मदिरों की श्रीशत्रुजयतीर्थ संघ रचना दी न्युत्तमानिध्रुवं । स्थापना सं. 1675 में कराई थी इनमें से दो य. कार्याण्यकरोत्तथा त्वसरफी पूर्णा प्रतिष्ठा मंदिरों में सहस्रफणी पार्श्वनाथ की दो प्रतिमाए क्षणे 144 बडी ही महत्वपूर्ण एवं कला संयुक्त है । प्रत्येक प्रादात्सर्वजनय जैन ममयं चालेखयत पुस्तकं । फणावली में हजार हजार सर्पफरण बने हुए हैं जो सर्गः पुण्यभरेण पावनमलं जन्म स्वकीय सचमुच ही कलाकार की उत्कृष्ट प्रतिभा के नमूने . मुभयतस्य । हैं । कहते हैं जिस शिल्पी ने ये श्याम वर्ण पार्श- . यस्य जिनपल्योद्धारक व्यधात तेत्र कारितः । नाथ की अनुपम प्रतिमाएं घढ़ी थी उससे थाहरू सार्द्ध सद्धरराज मेघतनयाभ्यां पार्श्वनाथो साह बडा प्रभावित हुप्रा था प्रत: पुरस्कारस्वरूप मुदे ।।5।। थाहरूसाह उस शिल्पी को अपने साथ शिखरजी, शतदल कमल यंत्र शत्रुजय प्रादि की यात्रा के लिए ले गए थे और इसी मदिर में शिल्पकला मर्मज्ञ धर्मपरायण जिस रथ से इन दोनों ने यात्रा की थी वह रथ धनाढ्य लोगों के शिल्प प्रेम का एक सुन्दर नमूना प्राज भी लौद्रवनगर के मन्दिर में सुरक्षित रखा शत दल पद्मयंत्र है जो एक विशाल प्रस्तर खंड पर महावीर जयन्ती स्मारिका 71 -2-5 Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्कीर्ण है इसमें साहित्यिक अलंकरण का सुन्दर पटुसा वंश बडा प्रसिद्ध रहा है इनका आदि गोत्र परिचय दिया गया है भगवान पार्श्वनाथ की स्तुति वाफणा था। इन पटुओं की बनवाई हवेलियां के 25 श्लोकों के 100 चरण है । जिनकी समाप्ति जैसलमेर में विद्यमान है जो अपनी बारीक खुदाई मंयामः से होती है उसे बीच गोले में उकेरा गया और जाली कटाव के लिए कला जगत में बहुत ही है पौर 30 मंयाम को केन्द्र मानते हुए 100 प्रसिद्ध हैं । विदेशी कला पारखी इन्हें देखकर हर्ष पंखुडियों में उपयुक्त स्तुति के 100 चरण उकेरे विभोर हो उठते हैं । अब इन सब हवेलियों को गए हैं इस तरह यह शतदल पद्मयंत्र यहां का बहुत भारतीय पुरातत्व विभाग ने अपने अधिकार में ले ही बड़ा महत्वपूर्ण शिल्प है । यही लौद्रवनगर लिया है। यहां सात शास्त्रभंडारों का उल्लेख में मंदिर के पास प्रष्टपदी कल्पवृक्ष भी एक अनुपम मिलता है जिनमें ताडपत्रीय तथा अन्य पाण्डुलिपियां कलाकृति है जो यहां के शिल्पियों ने धढ़ी थी। विद्यमान है। (चित्र संलग्न है)। यहां छोटे बडे मिलाकर कुल जैसलमेर और लौद्रवनगर के बीच अमरसागर 480 शिलालेख उपलब्ध हैं जिनमें सबसे पुराना नामक एक बड़ी विशाल गहरी झील विद्यमान है सं० 1109 का निम्न प्रकार है “ॐ सौहिक पलया जिससे जैसलमेर शहर को पेयजल पहुंचाया जाता मालिकया देवीभूति कारिता'' यहांसे बहुतसे लेखों में है। इसके किनारे गणेशजी का एक प्राचीन मन्दिर थाहरु साह का उल्लेख मिलता है उनकी लघुभार्या है झील के दूसरे किनारे पर भ. प्रादिनाथ का एक सुहागदे तथा बडी भार्या कनकादे का नामोल्लेख है विशाल प्रस्तर जिनालय विद्यमान है जो कला और इन्होंने सं० 1693 में प्रतिष्ठा कराई थी। इनके इतिहास दोनों ही दृष्टि से बडा ही महत्वपूर्ण है । पुत्र का नाम हरराज लिखा हुआ मिलता है। इस तरह जैसलमेर जैन शिल्प का अटूट थाहरु साह राज्य के कोषाध्यक्ष थे। सं० 1891 में अपार भडार है पर इस बहुमूल्य वपौती से बहुत से यहां एक बड़ी विशाल रथयात्रा हुई थी जिसका लोग अपरिचित हैं । जिन्हें बोध कराना हम सबका विस्तृत विवरण पठनीय है यह वाफणा हिम्मत- पुनीत कतव्य है। इसके अतिरिक्त भी यहां बहुत रामजी के मंदिर में शिलाखंड पर उत्कीर्ण है जो सी सामग्री एवं सांस्कृतिक विरासत पड़ी है जिसका राजस्थानी भाषा में है। यहां के प्रोसवालों का विवेचन करना यहां प्रासंगिक न होगा। . मुक्तक इधर चलती कषायें उधर चलती हाथ में माला, है मन में और कहते और करते और कुछ लाला अरे महावीर के अनुयायियों अब तो जरा चेतोतुम्हारे पाचरण ने धर्म को बदनाम कर डाला. --काका बुन्देलखण्डी 2-6 महावीर जयन्ती स्मारिका 17 Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राम कथा की सीता एक महत्वपूर्ण पात्र है। भारत की सन्नारियों में उसका एक विशिष्ट स्थान है। जैनों ने भी सीता को महासती के रूप में स्वीकार किया है। उसके जीवन चरित्र के सम्बन्ध में जनेतरों में ही नहीं जैनों में भी विभिन्न मतमतान्तर हैं। प्रस्तुत निबन्ध में विद्वान लेखक ने उन्हीं सब मतों का विशद विवरण प्रस्तुत किया है । आशा है निबंध पाठकों को रुचिकर तो होगा ही उनके ज्ञान में भी इस सम्बंध में पर्याप्त वृद्धि करेगा। प्र० सम्पादक प्राचीन जैन राम-साहित्य में सीता डा० लक्ष्मीनारायण दुबे, सा० रत्न, सागर जैन राम-साहित्य __ जैन वाङमय में विपूल राम कथा तथा राम काव्य मिलता है । जैन राम कथा सामान्यतया प्रादि कवि वाल्मीकि से प्रभावित है । जैन राम साहित्य प्राकृत, संस्कृत,अपभ्रश तथा कन्नड़ में मिलता है। यह इसका पुरातन रूप है । विमल रि की परम्परा में निम्नलिखित साहित्य मिलता है : प्राकत में चार ग्रन्थ लिखे गये जिन में सीता का चरित्र चित्रण सम्यकरूपेण मिलता है-विमल मूरि का पउमचरियं, शीलाचार्य की रामलक्खण चरियम्, भद्रेश्वर की कहावती में रामायणम् और भुवनतुग सूरि का रामलक्खरणचरिय । संस्कृत में रविषेण के पद्मचरित, प्राचार्य हेमचन्द्र के जैन रामायण, जिनदास के रामदेव पुराण, पद्मदेव विजयगरिण के रामचरित, सोमसेन के रामचरित, प्राचार्य सोमप्रभकृत लघु-त्रियशलाकापुरुष चरित. मेघविजय गणिवर के लघुत्रिषष्टिशलाकापुरुष चरित्र आदि के नाम उल्लेखनीय हैं । अपभ्रश में स्वयंभू का पउमचरिउ, रइघू का पद्मपुराण प्रादि प्रसिद्ध हैं । कन्नड़ में नागचन्द्र के रामचरित पुराण, कुमुदेन्दु के रामायण, देवध के रामविजयचरित, देवचन्द्र के रामकथावतार और चन्द्रसागर के जिन रामायण को विस्मृत नहीं किया जा सकता। जैन सीता-साहित्य : इसी परम्परा में सीता को लेकर भी कतिपय काव्य लिखे गये थे जो कि विशेष उल्लेखनीय हैं-- भुवनतुग सूरि का सीया चरित्र (प्राकृत), प्राचार्य हेमचन्द्र का सीता रावण कथानकम् (संस्कृत), ब्रह्मनेमिदत, शांत सूरि और अमरदासकृत सीताचरित्र (संस्कृत). हरिषेण का सीताकथानक । हस्ति मल्ल ने 'मैथिली कल्याण' नामक नाटक संस्कृत में लिखा था । महावीर जयन्ती स्मारिका 77 2-7 Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन राम कथा की द्वितीय परम्परा के जनक गुणभद्र थे जिनका 'उत्तर पुराण' और कृष्णदास कवि कृत 'पुण्य चंद्रोदय पुराण' संस्कृत में लिखा गया। प्राकृत में पुष्पदंत का तिसट्टी-महापुरिस गुगणालंकार और कन्नड़ में चामुण्डराय का त्रिषष्टि शलाकापुरुष पुराण लिखा गया । जैन रामकथा में विमलसूरि को परम्परा को अधिक प्रश्रय मिला है । यह श्वेताम्बर तथा दिगम्बर दोनों सम्प्रदायों में प्रचलित है परन्तु गुणभद्र की परिपाटी सिर्फ दिगम्बर सम्प्रदाय में ही मिलती है। काव्य के अतिरिक्त सीता को लेकर नाटक साहित्य तथा कथा साहित्य भी लिखा गया। जैन कवि हस्तिमल्ल ने सन् 1290 के आस-पास संस्कृत में मैथिली कल्याण' को लिखा जिसका विवेच्य विषय शृगार है। इसके प्रथम चार अंकों में राम और सीता के पूर्वानुराग का चित्रण मिलता है । वे मिलन के पूर्व कामदेव मंदिर तथा माधवी वन में मिलते हैं। तृतीय तथा चतुर्थ अंक में प्रभिसारिका सीता का वर्णन मिलता है। पंचम तथा अतिम अंक में राम-सीता के विवाह का वर्णन है । संघदास के 'वसुदेवहिण्डि' में जैन महाराष्ट्रीय गद्य में जो रामकथा मिलती है--उसमें सर्वप्रथम सीता का जन्मस्थल लंका माना गया है। वह मंदोदरी तथा रावण की पुत्री है परन्तु परित्यक्त होकर गजर्षि जनक की दत्तक पुत्री बन जाती है। सीता स्वयंवर में सीता भनेक राजारों में से राम का चयन एवं वरण करती हैं। संघदास ने गुरणभद्र को भी प्रभावित किया था क्योंकि 'उत्तरपुराण' में रावण की वंशावली एवं सीता की जन्म गाथा पर्याप्त रूप में 'वसुदेवहिण्डि' से सादृश्य रखती है। जैन राम-साहित्य के अध्वर्यु - कालक्रमानुसार प्राचीन जैन-राम साहित्य के प्रमुख स्तम्भ निम्नलिखित महाकवि थे-- (क) विमल सूरि-'पउमचरिय' तृतीय चतुर्थ शताब्दी ई.) [ग्रंथ प्रशस्ति के अनुसार प्रथम शती वि०सं०] । (प्राकृत) (ख) रविषेण - पद्मचरित' (660 ई०) : प्राचीनतम जैन संस्कृत ग्रन्थ : (संस्कृत) (ग) स्वयंभू-पउमचरिउ' या 'रामायण पुराण' (अष्टम शताब्दी ई०) (अपभ्रंश) (घ) गुणभद्र-'उत्तर पुरण' (नवम शताब्दी ई०) : (संस्कृत) उपरिलिखित ग्रन्थों में सीता के चरित्र के विविध पक्षों का सम्यक् उद्घाटन मिलता है । विमल सूरि और गुणभद्र की सीता विमल सूरि ने सीता हरण का कारण इस प्रकार विवेचित किया है-शम्बूक ने सूर्यहास खड्ग की प्राप्ति के हेतु द्वादश वर्ष की साधना की थी। खड्ग के प्रकट होने पर लक्ष्मण उसे उठाकर शम्बूक का मस्तकोच्छेदन कर देते हैं । चन्द्रानखा पुत्र वियोग में विलाप करती है। यह राम-लक्ष्मण की पत्नी बनना प्रस्तावित करती है । लक्ष्मण खरदूषण की सेना को रोक देते हैं । रावण सीता पर मुग्ध हो जाता है । वह अवलोक नी विद्या से जान लेता है कि लक्ष्मण ने राम को बुलाने हेतु सिंहनाद का संकेत निश्चित किया है। इसलिए वह युक्तिपूर्वक सिंहनाद करके सीता से लक्ष्मण को पृथक कर, सीता हरण करने में सफल हो जाता है । 2-8 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'पउम चरिय' के छियतरवें पर्व में लंका में श्रीराम प्रविष्ट होकर सबसे पहले सीता के पास जाते हैं। दोनों का मिलन देखकर देवगरण फूल बरसाते हैं और सीता के निष्कलंक तथा पुनीत सात्विक चरित्र का साक्ष्य देते हैं । इस ग्रन्थ में श्रीराम की किसी शंका या सीता की अग्नि परीक्षा का कोई उल्लेख भी नहीं है । 'उत्तर पुराण' में भी राम परीक्षा के बिना सीता को स्वीकार करते हैं। सीता अनेक रानियों के साथ दीक्षा लेती है । अन्त में सीता को स्वर्ग मिलता है । स्वयंभू की सीता- स्वयंभू के 'पउमचरिउ' में श्रारम्भ में मूक सीता के दर्शन होते हैं । सागरवृद्धि भट्टारक तथा ज्योतिषी सीता के कारण रावण एवं राक्षसों के विनाश की भविष्यवाणी कर देते हैं : तेहि हरणेव रक्खु महारगे । जंगय- रंगराहिव तरयहें कारणे । श्रीर श्रायहे करण का रोग होसइ विरणासु बहु-रक्तसहु ॥ वन में सीता के चरित्र का विकास मौन रूप में होता है । सीता युद्धों के विपरीत है : कर चलण-देह-सिर खण्डरगहुं । गिव्विरण माए हउ मण्डगहु ॥ हउ ताएं दिण्णी केहादु । कलि-काल-कियन्तहु जेहाहूं ॥ सीता हरण के समय वह अपने को बड़ी अभागिनी मानती है : को संथवइ मई को सुहि कहीं दुक्खु महन्तउ | जहि जहि नामि हउ तं तं जि पएसु पलिनउ ॥ 1. रावरण के प्रलोभनों तथा उपसर्गों से सीता का हिमालय जैसा प्रचल और गंगा जल जैसा पवित्र चरित्र रंचमात्र भी विचलित नहीं हो पाया । सीता श्रग्नि परीक्षा में सफल होती है : किं किंजइ अण्णइ दिव्वे जेरंग विसुज्भहो महु मरणहो । जिह करेंगेय लालि डाहुचर अच्छणि मज्झे हुनारुहरण हो || अन्त में सीता का विरागी मन स्त्री न बनने की घोषणा कर देता है : वह तिह करेमि पुगु रहुबइ । जिह ण पाडिवारी तियमइ ॥ स्वयम्भू ने सीता के चरित्र को अनुपम तथा दिव्य स्वरूप प्रदान किया है । जैन राम- साहित्य में सीता - निर्वासन - प्रसंग: राम कथा के समान सीता- निर्वासन के प्राख्यान को प्रस्तुत करने का सर्व प्रथम श्रेय महर्षि वाल्मीकि को है । गुणभद्र के 'उत्तर पुराण' में सीता-त्याग की कोई चर्चा नहीं मिलती। इसकी श्रृंखला में महाभारत, हरिवंश पुराण, वायु पुराण, विष्णु पुराण, नृसिंह पुराण श्रोर प्रनायक जातकं भी जाते हैं जिनमें सीता निर्वासन प्राख्यान का अभाव है । परन्तु सीता-त्याग को अधिकांश जैन रामसाहित्य स्वीकार करता है । सीता- निर्वासन के मुख्य चार कारण थे : महावीर जयन्ती स्मारिका 77 2-9 Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (क) लोकापवाद : जैन राम-पाहित्य में इसका प्रतिपादन विमलसूरि के 'पउम चरिय' तथा रविषेण के 'पद्म चरित' में मिलता है । स्वयंमू ने अपने महाकाव्य 'पउम चरिउ' में इसकी पृष्ठभूमि का विश्लेषण करते हुए लिखा है : अयोध्या की कतिपय पुश्चली नारियों ने अपने पतियों के समक्ष यह तर्क किया कि यदि इतने दिनों तक रावण के यहां रहकर पाने वाली सीता राम को ग्राह्य हो सकती है तो एक-दो रात अन्यत्र बिताकर लौटने में पतियों को प्रापत्ति क्यों हो ? इस चर्चा को लेकर नगर में सीता-विषयक प्रवाद फैलता है : पर-पुरिसु रमेवि दुम्महिलउ देंति पडुचर पह-यणहो । कि रामण भुजइ जणयसुय वरिसु वसेवि घरे रामण हो । राम कुल की मर्यादा के कारण सीता को निष्कासित कर देते हैं । 'पउम चरिउ' अनेक मार्मिक तथा भाव-प्रवरण प्रसंगों से परिपूर्ण है परन्तु सीता-त्याग का प्रसंग सर्वाधिक कारुणिक और विदग्ध है । विभीषण सीता के पवित्र चरित्र को निर्दोषिता सिद्ध करने के लिए अपनी सारी शक्ति लगा देते हैं। लका से त्रिजटा माकर गवाही देती है । मन्त में सीता की अग्नि परीक्षा होती है । दूसरे दिन जब सीता को सबेरे सभा में लाकर प्रासन पर बैठाया जाता है, तब सीता वर-प्रासन पर संस्थित ऐसी शोभायमान होती है जैसे जिन प्रासन पर शासन-देवता-- सीय पइटु णिवठ्ठ वरासणे । सासण देवए जं जिण-सासणे ।। प्रखर तथा स्पष्टवादिनी सीता का, शंकालु तथा नारी-चरित्र की भर्त्सना करने वाले श्रीराम को कितना प्रात्माभिमान पूर्ण एवं सतेज उत्तर है कि गंगा-जल गदला होता है, फिर भी सब उसमें स्नान करते हैं। चन्द्रमा सकलंक है, लेकिन उसकी प्रभा निर्मल, मेघ काला होता है परन्तु उसमें निवास करने वाली विद्युत्छटा उज्ज्वल । पाषाण अपूज्य होता है, यह सर्न विदित है परन्तु उससे निर्मित प्रतिमा में चंदन का लेप लगाते हैं। कमल पंक से उत्पन्न होता है लेकिन उसकी माला जिनवर पर चढ़ती है, दीपक स्वभाव से काला होता है लेकिन उसकी शिखा भवन को पालोकित करती है। नर तथा नारी में यही अन्तर है जो वक्ष और बेलि में । बेलि सुख जाने पर भी वृक्ष को नहीं छोड़ती: साणुण केण वि जरोण गणिज्जइ । गंगा गइहिं तं जि ण हाइज्जइ ॥ ससि कलंक सहिं जि पह रिणम्मल । कालउ मेहु तहिं जें तरिण उज्जल ।। उवलु अपुइ जु ण केण वि छिप्पइ । तहिं जि पडिप चन्दररोण विलिप्पइ ।। धुज्जइ पाउ पंकु जइ लग्गइ। कमल-भाल पुणु जिगहों बलग्गइ । दीवउ होइ सहावें कालउ । वट्टि-सिहए मण्डिज्जइ पालउ । णर णारिहि एवड्डउ अन्नउ। मरणे विवेलिलण मेल्लिय तरुवरु ।। अन्त में सीता तपश्चरण के लिए प्रस्थित हो जाती हैं। स्वयंभू ने सीता के चरित्र को सम्वेदनशीलता से प्रापूर्ण कर दिया है । वह पाठकों की दया, समवेदना तथा सहानुभूति की अधिकारिणी बन जाती है। स्वयंभू के पूर्व विमलसूरि, रविषेण तथा प्राचार्य हेमचन्द्र ने सीता-त्याग के प्रसंग का सम्यक् प्रतिपादन किया है। 2-10 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'पउम चरिय' के पूर्व 92-94 में सीता त्याग का विस्तृत वर्णन मिलता है । लंका से लौट माने के समय भी जनता के अपवाद की चर्चा मिलती है। श्रीराम स्वत: गर्भवती सीता को वन में विभिन्न जैन चैत्यालय दिखला रहे थे कि अयोध्या के अनेक नागरिक उनके पास आये और प्रभयदान पाकर उन्होंने अपने प्रागमन का निमित्त निरूपित किया। उनसे श्रीराम को सीता का अपवाद विदित होता है और वे अपने सेनापति कृतांतवदन को जिन-मंदिर दिखलाने के बहाने सीता को गंगा पार के वन में छोड़ पाने का प्रादेश देते हैं। संयोग से वन में पुण्डरीकपुर के नरेश वज्रजंघ ने सीता का करुण क्रन्दन सुन लिया जिस पर वह उन्हें अपने भवन ले पाया और उसके यहां सीता के दो पुत्र 'पद्मचरित' के छियान्नवे पर्व में सीता के ग्रहण स्वरूप दुष्परिणामों में प्रजा का मर्यादा विहीन स्वरूप और नारियों का हरण, प्रत्यावर्तन तथा उनकी स्वीकृति बतलायी गयी है। _ 'योगशास्त्र' (द्वादश शताब्दी) में सीता निर्वासन के तदनंतर एक घटना का वृतात मिलता है । तदनुसार श्रीराम अपनी भार्या के अन्वेषण में वन गए हुए थे किन्तु सीता कहीं नहीं मिल पायी। राम ने यह विचार करके कि सीता किसी हिंसक पशु द्वारा समाप्त हो चुकी है, प्रतएव, उन्होंने परावर्तित होकर सीता का श्राद्ध किया । (ख) धोबी का पाख्यान - जैन रामसाहित्य में इसकी चर्चा नहीं मिलती। (ग) रावण का चित्र-इस वृतान्त को प्रस्तुत करने का सर्वप्रथम एवं प्राचीनतम श्रेय जैन-राम-साहित्य को है। - हरिभद्र सूरि के (अष्टम शताब्दी) उपदेश पद में सीता द्वारा रावण के चरणों के चित्र निर्मित करने का सूत्र मिलता है । टीकाकार पुनिच्चन्द्र सूरि (द्वादश शताब्दी) के कथनानुसार सीता ने अपनी ईाल सपत्नी के प्रोत्साहन से रावण के पैरों का चित्र बनाया था। इस पर सपत्नी ने राम को यह चित्र दिखला दिया और उन्होंने सीता का त्याग कर दिया। भद्रेश्वर की 'कहावली' (एकादश शताब्दी) में यह पाख्यान पाया है कि सीता के गर्भवती हो जाने पर ईर्ष्यालु तथा द्वेषमयी सपत्नियों के प्राग्रह पर सीता ने रावण के पैरों का चित्र निर्मित किया जिसे उन्होंने सीता द्वारा रावण के स्मरण के प्रमाण स्वरूप राम के समक्ष उपस्थित कर दिया। राम ने इसकी उपेक्षा कर दी। सौतों ने रावण चित्र का किस्सा दासियों के द्वारा जनता में फैला दिया। तत्पश्चात् राम गुप्तवेश धारण कर नगरोद्यान में गये जहां उन्होंने अपनी इस हेतु निंदा सुनी। गुप्तचरों ने भी लोकापवाद की चर्चा की। राम का निर्देश पाकर कृतांतवदन तीर्थयात्रा के बहाने सीता को वन में छोड़ पाया। उसके बाद राम ने लक्ष्मण एवं अन्य विद्याधरों के साथ विमान में चढ़कर सीतान्वेषण किया परन्तु उन्हें न पाकर यह समझ लिया कि वे किसी हिंसक जानवर का ग्रास बन गयी हैं। हेमचन्द्र के 'जैन रामायण' (द्वादश शताब्दी) में भी यही गाथा है। नागरिकों ने भी सीता के लोकापवाद की चर्चा की जिसे राम ने ठीक पाया। देवविजयगरिण के 'जैन रामायण' (सन् 1596) में नारियां राम से शिकायत करती हैं कि सीता रावण के चरणों की पूजा-अर्चना करती है महावीर जयन्ती स्मारिका 77 2-11 Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामिन् एषा सीता रावणे मोहिता रावणांही भूमो लिखित्वा पुष्पादिभिः पूजयति ॥ जैन रावण-चित्र-कथा का भारतीय रामायणों पर प्रभाव : जैन राम-साहित्य में प्रायी, सीता द्वारा रावण के चित्र के निर्माण की घटना का भारतीय रामायणों पर व्यापक प्रभाव पड़ता दिखलायी देता है। बंगाल में कृत्ति वास प्रोझा द्वारा लिखित रामकथा 'कृत्तिवास रामायण' या 'श्रीराम पांचाली' (पन्द्रहवीं शताब्दी का अन्त) में सखियों से प्रेरित होकर सीता रावण का चित्र खींचती है । सिक्खों के दशमेश गुरु गोविन्दसिंह ने 'रामअवतार कथा' या 'गोविन्द रामायण' (सन् 1698) में रावण-चित्र के कारण राम के सीता पर संदेह होने का वृत्तांत मिलता है । संस्कृत की 'प्रानन्द रामायण' (पन्द्रहवीं शताब्दी)के तृतीय सर्ग में कैकयी के आग्रह पर सीता रावण के सिर्फ अंगूठे का चित्र बनाती है जिसे कैकयी पूरा करती है, और राम को बुलाकर नारीचरित्र की मालोचना करती है यत्र यत्र मनोलग्नं स्मर्यते हृदि तत्सदा । स्त्रियाश्च चरित्रं को वेत्ति शिवाद्या मोहिताः स्त्रिया ॥ 'काश्मीरी रामायण' अथवा 'रामावतारचरित' (अट्ठारहवीं शताब्दी) में दिवाकर भट्ट ने रावण के चित्र के ही कारण सीता-त्याग को चरितार्थ होते निरूपित किया है। राम की सगी बहिन सीता से चित्र बनवाती है । ___ नर्मदा द्वारा रचित गुजराती रामायण 'रामायणनोसार' (उन्नीसवीं शताब्दी) के अनुसार राम सीता को रावण का चित्र खींचते हुए और अपनी दासी से रावण का वृतांत कहते हुए सुनते हैं । जैन हिन्दी रामकथा 'पद्म पुराण' (सन् 1661) में दौलतराम ने भी रावण के चित्र का उल्लेख किया है। सम्राट जहांगीर के समय में मुल्लाह मसीह या सादुल्ला करावनी तखल्लुस मसीह ने फारसी में लिखित "रामायण मसीही' अथवा "हदीस-इ-राम-उ-सीता" के अनुसार राम की बहिन ने सीता से रावण का चित्र खिंचवाकर कहा कि सीता रात-दिन इस चित्र की पूजा करती है। जैन रावरणचित्र-कथा का लोकगीतों पर प्रभावः इस मूल स्रोत को हमारे लोकगीतों ने भी स्वीकार किया है । लोकगीतों में सीता-परित्याग की घटना का अत्यन्त मार्मिक वर्णन तथा सीता का चरित्र चित्रण मिलता है । एक अवधी सोहर लोकगीत में ननद के कहने से सीता ने रावण का चित्र बनाया था-- ननद भौजाई दुइनों पानी गयीं भरे पानी गयीं। भौजी जोन खन तुम्हें हरि लेइ ग उरेहि देखावह हो । जोमें खना उरेहों उरेहि देखावउं, उरेहि देखावंउना । ननदी सुनि. पइहैं बिरना तोहार तो देसवा निकरि हैं हो। लाख दोहइया राजा दसरथ राम मथवा छुवी, राम मथवा छुवौना। 2-12 महावीर जयन्तो स्मारिका 71 Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भौजी लाल दोहइया लछिमन भइया जो भइया बताव हो ।। मागों न गांग गंगुलिया गंगाजल पानी, गंगाजल पानी हो । ननदी समुहे के प्रोवरी लियावउ तो खना उरेहों हो । मांगिन गांग गंगुलिया गंगाजल पानी, गंगाजल पानी हो । हेइ हो, समुहें के प्रोबरी लिपाइन तौ खना उरेहैं हो ।। हथवा उरेहीं सीता गोडवा उरेही अवर उरेही दुइनौ प्रांखि । हैइ हो, प्राइ गये सिरीराम प्रांचर छोरि मूदिनि हो । लोकगीतों में सर्वत्र सीता-परित्याग का कारण रावण के चित्र का निर्माण ही बताया गया है । सीता पहले से ही चित्रकला विशारदा थी और लोकगीतों में विवाह के पूर्व भी कई स्थलों पर सीता के चित्रकला-प्रावीण्य का वृत्तांत मिलता है । अतएव, लंका से लौटने के बाद सीता के द्वारा रावण के चित्र निर्माण में कोई अस्वाभाविकता प्राती प्रतीत नहीं होती। एक भोजपुरी लोकगीत सोहर में भी इसी भावना की परम पुष्टि मिलती है-- राम प्रवरु लछुमन भइया, पारे एकली बहिनियां हइहों की। ए जीवा रामजी बइठेले जेवनखा बहिन लइया लखे रे की ।। ए भइया भोजी के दना बनवसवा जिनि खना उरहे ले की । जिनि सीता भूखा के भोजन देली, पोर लागा के बहतरवा ।। होनी से हो सीता गहुवाइ रे प्रासापति, कइसे बनवा सिन हो कि ।। इसी प्रकार एक बुन्देली लोकगीत में भी सीता निर्वासन का कारण रावण के चित्र का निर्माण है-- चौक चंदन बिन मांगन सूनो कोयल बिन अमराई । रामा बिना मोरी सूनी अजोध्या लछमन बिन ठकुराई ।। सीता बिना मोरी सूनी रसोइया कौन करे चतुराई । पाम इमलिया की नन्हीं-नन्हीं पतियां नीम की शीतल छोइ ।। प्रोई तरें बैठी ननद भौजाई कर रही रावन की बात । जौन खना भौजी तमें हर लेगव हमें उरेइ बताव। रावन उरे हों जबई बारी ननदी घर में खबर न होय । जो सुन पाहें तुम्हारे घर में देंय निकार । राम की सौंगध लखन की सौंगध दसरथ लाल दुहाई । हमारी सौंगंध खामो बारी ननदी तुमको कहा घट जाई । अपनी सौगंध खात हों भौजी, सिजिया पावन देऊ । सुरहन गऊ के गोबर मंगाओं वैया मिटिया देव लिपाईं । हाथ बनाये, पांव बनाये और बत्तीसई दांत ।' ऊपर को मस्तक. लिखन नहिं पाम्रो. मा गए राजाराम । त्याव ने वैया पिछोरिया लिखना देंय लुकाय ॥ महावीर जयन्ती स्मारिका 77 2-13 Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के पवसाता न उतर जैन रावण चित्र-कथा का विदेशी रामकाव्य पर प्रभाव जावा के 'सेरत काण्ड' में कैकयी स्वतः सीता के पंखे पर रावण का चित्र प्रकित करती है पौर सुषुप्तावस्था में लीन सीता के पर्यक पर रख देती है । 'हिकायत सेरी राम' में कोकवी देवी भरत शत्रुघ्न की सहोदरी है । सीता ने कीकवी देवी के प्राग्रह के कारण पंखे पर रावण का चित्र खींच दिया। कीकवी ने उसे सोती सीता के वक्षस्थल पर रख दिया और यह आक्षेप किया कि सोने ता ने उस चित्र का चुम्बन लिया था। राम ने कीकवी पर विश्वास कर लिया। हिन्देसिया के 'हिकायत् महाराज रावण' में यह वृत्तांत पाया है कि रावण वध के उपरांत राम तो लंका में रहते सात माह हो गये । रावण की पुत्री अपने पिता का चित्र सोती सीता की छाती पर रख देती हैं । सीता निद्रावस्था में उस चित्र का चुम्बन करती है, उसी क्षण राम उनके पास पाते हैं और उस दृश्य को देखकर राम क्रोध से प्राग बबूला हो जाते हैं। हिन्दचीन अर्थात् समेर-वाङमय की सर्वाधिक सशक्त कृति 'रामकेति' (सत्रहवीं शताब्दी) है। इसके पचहत्तर- सर्ग में प्रतुलय राक्षसी सीता को सखी बनकर उससे रावण का चित्र प्रकित कराती है और इस चित्र में प्रविष्ट हो जाती है । इसके परिणाम स्वरूप सीता प्रयास करने के बाद भी उस चित्र को मिटा नहीं पाती है, और अंततः हताश होकर पलंग के नीचे उसे छिपा देती है । तदुपरांत राम के इस पलंग पर लेट जाने पर उनको तेज बुखार हो जाता है । जब उन्हें उस चित्र का पता लगता है तो वे लक्ष्मण को सीता को वन में ले जाकर मार डालने का आदेश देते हैं । श्यामदेश की रचना 'राम कियेन' में अदुल नामक शूर्पणखा की पुत्री सीता से रावण का चित्र अंकित करवाती है और तत्पश्चात् इसी चित्र में प्रवेश कर जाती है जिससे सीता उसे मिटा नहीं पाती है। श्याम के उत्तर पूर्वीय प्रांतों के लामो भाषा में सोलहवीं शताब्दी में 'राम जातक' की रचना हुई थी जिसमें भी रावण चित्र के कारण सीता-त्याग होता है । लामोस के 'ब्रह्मचक्र' या 'पोम्नचका' में शूर्पणखा स्वत: छद्मवेश में सीता के पास प्राकर उनसे चित्र बनवा लेती है। __ थाईलण्ड की 'थाई रामायण' में भी इसी चित्र की पर्याप्त चर्चा है। सिंहली रामकथा में उमा सीता के पास प्राकर उनसे केले के पत्ते पर रावण का चित्र अंकित करवाती है । अकस्मात राम के प्रागमन पर सीता इस चित्र को पलंग के नीचे फेंक देती हैं। राम उस पलंग पर बैठ जाते हैं और पलंग कांपने लगता है। कारण विदित होने पर राम अत्यन्त क्रुद्ध हो जाते हैं। रावण के चित्र का मूल उत्स जैन-साहित्य है जिसने विदेशों में जाकर बड़ा उग्र तथा विशिष्ट रूप धारण कर लिया है। (घ) परोक्ष कारण-'पउम चरियं' के पूर्व १०३ में यह कथा प्रायी है कि सीता ने अपने पूर्व जन्म में मुनि सुदर्शन की बुराई की थी और इसके परिणामस्वरूप वह स्वयं लोकापवाद की पात्र बन गयी। 2-14 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाकलन : सम्पूर्ण जैन राम- साहित्य सीता की विभिन्न छवियों तथा बिम्बों से परिपूर्ण है । उनको जैन कवियों ने अपने धर्म सम्प्रदाय तथा सिद्धान्त के अनुसार गढ़ने का सफल प्रयास किया है । भारतीय वाङ्मय को जैन राम साहित्य का यह अप्रतिम प्रदेय है कि उसने सीता को धरती पुत्री के समान ही आकलित किया । हिन्दी की जैन रामकथा की मध्यकालीन परम्परा में मुख्य कृतियां निम्नलिखित हैं- (क) मुनिलावण्य की 'रावण मन्दोदरी सम्वाद' (ख) जिनराजसूरी की 'रावण मन्दोदरी सम्वाद' भोर (ग) ब्रह्मजिनदास का 'रामचरित' या 'रामरास' और 'हनुमंत रास' | इनमें सीता के चरित्र के अनेक उज्ज्वल तथा सरस पावों को सफलतापूर्वक उद्घाटित कया गया है। श्वेत - श्री हाँ वे ! जो, शरीर धोकर महावीर जयन्ती स्मारिका 77 * श्री सुरेश सरल, जबलपुर ऊँची टहनी पर बैठे हैं, बगुले हैं; क्षण भर पूर्व पोखर के गंदे कीचड़ में लेटे थे । जिनके लिये कीचड़ ौर टहनी दोनों 'फ्री' हैं, समाज में भी ऐसे"श्वेत- श्री " हैं । 2-13 Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंच मुक्तक .पं० प्रेमचन्द्र "दिवाकर", सांगर पानी की सतह भू से ऊपर नहीं बढती । कि काठ की हंडी चूल्हे 4 नहीं चढ़ती ।। फिर भी यार दोस्तो जो सीमा से उफनता हैस्वयं मिटता आबरू हर जगह है घटती ॥1॥ भारत की तुम शान न पूछो, दांत गिने शेरों के, तन से निकलीं आँखें चाहे. लक्ष्य सधे तीरों के । सत्रह बार छमा शत्रु को, फिर भी गर्व न करते, ऐसे वीर इसी वसुधा के अन्तिम दम तक लड़ते ।।2।। जो सहयोग करते हैं उन्हें सहयोग मिलता है, जो प्रादर और का करते उन्हें प्रादर भी मिलता है। जो कर्तव्य करते हैं उन्हें अधिकार मिलता है, जो सेवा "प्रेम" से करते उन्हें मेवा भी मिलता है ।।3।। जिसके ज्ञान नहीं वह जानवर है. जिसके प्रेम नहीं वह पत्थर है । रुचि संगीत न हो जिसमें वह सहृदय नहीं, स्वाभिमान की चाह न हो वह कायर है ।।4।। जमाने को क्या कहें, कि गरजते तो हैं पर बरसते नहीं, भाषणों की किताबों पर किताबें किन्तु कर दिखाया कुछ नहीं। उल्लू अगर सीधा न हुआ तो बगलें छकने लगती हैं, "प्रेम" से चने के छिलके फटकते तो हैं पर निकलते नहीं ॥5॥ 1-16 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सूरजमल बंद प्रदर्शनी का उद्घाटन करते हुए फैन्सी ड्रेस शो का एक दृश्य जैन मेला 1976 श्री माणकचन्द सोगाणी, सदस्य राजस्थान विधानसभा, श्री कपूरचन्द पाटनी 'समाज बंधु' को विजय स्तम्भ प्रदान करते हुएसाथ में सभा के अध्यक्ष श्री राजकुमार काला भी हैं Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हाल ही में मुनिश्री विद्यानन्दजी के आशीर्वाद से डा. देवेन्द्रकुमारजी द्वारा सम्पादित होकर रयणसार नामक ग्रंथ कुन्दकुन्दाचार्य द्वारा रचित कहा जाकर प्रकाशित हुवा है। ग्रंथ के सम्पादन में विद्वान् सम्पादक ने कठिन श्रम किया है इसमें सन्देह नहीं किन्तु रयरसार को प्रसंदिग्ध रूप से कुन्दकुन्दाचार्य की रचना सिद्ध करने में वे प्राय असफल रहे हैं। इस निबंध के विद्वान् लेखक ने पुष्ट युक्तियों द्वारा यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि रयणसार कुन्दकन्दाचार्य की रचना नहीं हो सकती। समाज में पहले भी ऐसे कई ग्रंथों का छानबीन द्वारा पता लग चुका है जो प्राचीन प्रसिद्ध प्रामाणिक आचार्यों के नाम से अन्यों ने लिखे हैं । संभवत: रयणसार भी ऐसी ही रचना हो । विद्वानों को ऊहापोहपूर्वक इसका निश्चय करना चाहिये इसी पवित्र भावना से यह निबंध हम यहां दे रहे हैं। -प्र० सम्पादक रयणसार के रचयिता कौन ? * पं० बंशीधरजी शास्त्री, एम० ए०, सवाईमाधोपुर मुस्लिम शासनकाल में भारत में ऐसी धन संचय करने लगे और उन श्रावक-श्राविकाओं परिस्थितियां हो गई थीं जिनके कारण दिगम्बर को शास्त्रों और प्रागम परंपरा से दर रखा जैन साधु नग्न नहीं रह सके और इन्हें वस्त्र धारण उन्होंने धर्म के नाम पर मंत्रतंत्रादि का लोभ या करने पड़े। ऐसे वस्त्र धारी साधु भट्टारक कहलाते डर दिखाकर कई ऐसी प्रवृतियां चलाई जो दिगम्बर थे। प्रारम्भ में कतिपय भट्टारकों ने साहित्य संरक्षण जैन प्रागम के अनुकूल नहीं थीं। इन्होंने प्राचीन एवं संस्कृति की परंपरा बनाए रखने में महत्वपूर्ण साहित्य अपने अधिकार में कर लिया मोर नवीन योगदान किया था । किन्तु वे वस्त्र, वाहन, साहित्य निर्माण करने लगे वह भी कभी-कभी द्रव्यादि रखते हुए भी अपने प्रापको साधु के रूप प्राच ज मा केप प्राचीन प्राचार्यों के नाम पर ताकि लोग उन्हें में ही पुजाते रहे । वे पीछी कमण्डल भी रखते थे। प्रामाणिक समझकर उन प्रवृत्तियों का विरोध नहीं चूकि दिगम्बर परंपरा में वस्त्रधारी व परिग्रहधारी करें। ऐसे नव निमित साहित्य द्वारा उन नवीन साधु नहीं माना जा सकता इसलिए इन भट्रारको प्रवृत्तियों का समर्थन किया गया। इन्होंने त्रिवर्णाने अधिकांश साहित्य जो कि उस समय हस्तलिखित चार, सूर्य प्रकाश, चर्चासागर, उमास्वामी होने के कारण अल्प संख्या में ही थे अपने कब्जे श्रावकाचार अदि प्रागम विरुद्ध ग्रन्थों का निर्माण में कर लिया । इन भट्टारकों ने प्रमुख केन्द्रों में अपने किया था । स्व. पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार, प. परमेष्ठीदासजी जैसे विद्वानों ने इनकी समीक्षा अपने मठ बना लिए, विभिन्न प्रकार से श्रावकों से कर स्थिति स्पष्ट कर दी है। महावीर जयन्ती स्मारिका 77 2-17 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह ठीक है कि श्रागरा-जयपुर के विद्वानों द्वारा ज्ञान के सतत प्रसार से उत्तर भारत में इन भट्टारकों का अस्तित्व समाप्तप्रायः हो गया है | फिर भी कुछ भाई, जिनमें विद्वान् एवं त्यागी भी हैं, फिर भट्टारक परंपरा को प्रोत्साहन देना चाहते हैं श्रीर उन भट्टारकों द्वारा रचित ग्रन्थों का प्रचार करते हैं । ऐसे ग्रन्थों में 'रयणसार' भी एक है यद्यपि इसे प्राचार्य कुन्दकुन्द द्वारा विरचित बताया जाता है किन्तु इस ग्रन्थ की परीक्षा करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि यह ग्रन्थ अपने वर्तमान रूप में कुन्दकुन्दाचार्य द्वारा रचित नहीं हो सकता । अपने विचार प्रस्तुत करने से पूर्व मैं कतिपय साहित्य मर्मज्ञ विद्वानों के मत उद्धृत करना आवश्यक समझता हूँ - स्व० डा० ए० एन० उपाध्याय ने प्रवचनसार की भूमिका में इस प्रकार लिखा है रयणसार ग्रन्थ गाथा विभेद, विचार पुनरावृत्ति अपभ्रंश पद्यों की उपलब्धि, गण गच्छादि का उल्लेख और बेतरतीबी श्रादि को लिए हुए जिस स्थिति में उपलब्ध है उस पर से वह पूरा ग्रन्थ कुन्दकुन्द का नहीं कहा जा सकता। कुछ अतिरिक्त गाथाओं की मिलावट ने उसके में गड़बड़ मूल उपस्थित कर दी है और इसलिए जब तक कुछ दूसरे प्रमाण उपलब्ध न हो जाय तब तक यह विचाराधीन ही रहेगा कि कुन्दकुन्द इस रयणसार के कर्त्ता हैं । पुरातन ग्रंथों के पारखी स्व० पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार का रयणसार के संबंध में निम्न मत है-: - 2-18 उनके क्रम का बहुत बड़ा भेद पाया जाता है । कुछ अपभ्रंश भाषा के पद्य भी इन प्रतियों में उपलब्ध हैं। एक दोहा भी गाथाओं के मध्य में आ घुसा है । विचारों की पुनरावृति के साथ कुछ बेतरतीबी भी देखी जाती है, *गण गच्छादि के उल्लेख भी मिलते हैं, ये सब बातें कुन्दकुन्द के ग्रंथों की प्रवृति के साथ संगत मालूम नहीं होती, मेल नहीं खातीं । ( पुरातन जैन वाक्य सूची प्रस्तावना) स्व० डॉ० हीरालालजी जैन ने अपने 'भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान' शीर्षक ग्रन्थ में रयणसार के सम्बन्ध में इस प्रकार लिखा है : इसमें एक दोहा व छः पद अपभ्रंश भाषा में पाये जाते हैं या तो ये प्रक्षिप्त हैं या फिर यह रचना कुन्दकुन्द कृत न होकर उत्तरकालीन लेखक की कृति है, गण गच्छ प्रादि के उल्लेख भी उसको अपेक्षा कृत पीछे की रचना सिद्ध करते हैं । पृ० 105 श्री गोपालदास जीवाभाई पटेल ने 'कुन्दकुन्दाचार्य के तीन रत्न' शीर्षक पुस्तक में रयणसार के सम्बन्ध में निम्न मत प्रस्तुत किया है : यह ग्रन्थ कुन्दकुन्दाचार्य रचित होने की बहुत कम सम्भावना है अथवा इतना तो कहना ही चाहिए कि उसका विद्यमान रूप ऐसा है जो हमें संदेह में डालता है । इसमें अपभ्रंशके कुछ श्लोक हैं और ग़रण गच्छ और संघ के विषय में जिस प्रकार का विवरण है वह सब उनके अन्य ग्रन्थों में नहीं मिलता । (प्र० 20 ) यह ग्रंथ भी बहुत कुछ संदिग्ध स्थिति में स्थित है । जिस रूप में अपने को प्राप्त हुआ है उस पर से न तो इसकी ठीक पद्य संख्या ही निर्धारित की जा सकती है और न इसके पूर्णतः मूल रूप का ही पता चलता है | ग्रंथ प्रतियों में पद्य संख्या और तीर्थंकर महावीर और उनकी श्राचार्य परम्परा के स्व० डॉ० नेमीचन्दजी ज्योतिषाचार्य ने महावीर जयन्ती स्मारिका 77 पं० पन्नालालजी साहित्याचार्य ने रयरणसार को 'कुन्दकुन्द भारती, नामक कुन्दकुन्द के समग्र साहित्य में इसलिए सम्मलित नहीं किया कि इसमें गाथा संख्या विभिन्न प्रतियों में एक रूप नहीं है। कई प्राचीन प्रतियों में कुन्दकुन्द का रचनाकार के रूप में नाम नहीं है । Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरे खण्ड में पृष्ठ 115 पर रयणसार के सम्बन्ध में डॉ० उपाध्ये का मत उद्धृत करते हुए लिखा है वस्तुतः शैली की भिन्नता और विषयों के सम्मिश्रण से यह ग्रन्थ कुन्दकुन्द रचित प्रतीत नहीं होता ।" 4 डॉ० लालबहादुर शास्त्री ने अपने 'कुन्द कुन्द और उनका समयसार' नामक ग्रन्थ में रयणसार का परिचय देकर लिखा है कि ‘रयणसार की रचना गम्भीर नहीं है, भाषा भी स्खलित है, उपमाओं की भरमार है । ग्रन्थ पढ़ने से यह विश्वास नहीं होता कि यह कुन्दकुन्द की रचना है । यदि कुन्दकुन्द की रचना यह रही भी होगी तब इसमें कुछ ही गाथा ऐसी होंगी जो कुन्दकुन्द की कही जा सकती हैं। शेष गाथा व्यक्ति विरोध में लिखी हुई प्रतीत होती हैं । गाथानों की संख्या 167 है | ( पृ० 142 ) ( इस ग्रन्थ का विमोचन उपाध्याय श्री विद्यानन्दजी के भाशीर्वाद से हुमा है) इस प्रकार उक्त विद्वानों व अन्य प्रमुख विद्वानों द्वारा भी रयणसार कुन्दकुन्द की रचना नहीं मानी गयी है । इस ग्रन्थ को कुन्दकुन्दाचार्य कृत न मानने के कुछ और भी कारण हैं जिन पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है । 1 कुन्दकुन्द के सभी 'सार' ग्रन्थों ( प्रवचनसार, नियमसार, और समयसार ) पर संस्कृत टीकाए उपलब्ध हैं जबकि इसी तथाकथित 'सार' ( रयणसार) की संस्कृत टीका नहीं है । प्राचीन काल में कुन्दकुन्द के उक्त तीनों ग्रन्थ नाटकत्रयी के नाम से विख्यात से हैं और यदि उनके सामने यह 'रयरणसार' उपलब्ध होता तो नाटकत्रयी ही क्यों कहते ? 2. कुन्दकुन्दाचार्य से लेकर 17 वीं शताब्दी तक न तो इसकी कोई हस्तलिखित प्रति मिलती है, न किसी भी श्राचार्य या विद्वान् ने उस समय महावीर जयन्ती स्मारिका 77 तक इसका कोई उल्लेख या उद्धरण दिया है । कुन्दकुन्द के टीकाकार अमृतचन्द्र, पद्मप्रभुमलधारी, जयसेन आदि टीकाकारों ने भी इसका कहीं भी उल्लेख नहीं किया । पं० श्रशाधर, श्रुतसागर आदि टीकाकारों ने भी अपनी टीकानों में इसका उल्लेख नहीं किया जबकि उनकी टीकात्रों में प्राचीन ग्रन्थों के उद्धरण प्रचुरता से मिलते हैं । 3. 17 वीं शताब्दि से पूर्व की इसकी कोई हस्तलिखित प्रति लेखनकाल युक्त प्रभी तक नहीं मिली। कोई व्यक्ति किसी प्रति को अनुमान से किसी भी काल की बता दे वह बात प्रामाणिक नहीं कही जा सकती । 4. कुन्दकुन्दाचार्य की रचनाओं में विषय को व्यवस्थित रूप से प्रस्तुत किया गया है जबकि इसमें पं० जुगल किशोरजी मुख्तार के शब्दों में विषय बेतरतीबी से प्रस्तुत किये गये हैं । वैसे कहा यह जाता है कि रयणसार' की रचना प्रवचनसार और नियमसार के पश्चात् की गई थी (देखें - रयणसार प्रस्तावना डा० देवेन्द्रकुमार शास्त्री पृ० 21 ) किन्तु रयरसार एवं इन ग्रन्थों की 'तुलना से विदित हो जाता है कि प्रवचनसार प्रोर नियमसार जैसे प्रौढ़ एवं सुव्यवस्थित ग्रन्थों का रचयिता रयणसार जैसी संकलित, अव्यवस्थित, पूर्वापर विरुद्ध प्रोर आगम विरुद्ध रचना नहीं लिखेगा । ( इसके आगम विरुद्ध मंतव्यों का श्रागे विवेचन किया जायेगा ) । 5. इसकी विभिन्न प्रतियों में गाथा संख्याएं समान नहीं है, वे 152 से लेकर 170 तक हैं । 6. कुन्दकुन्दाचार्य के ग्रन्थों में उच्चस्तरीय प्राकृत भाषा के दर्शन होते हैं, उनके काल में अपभ्रंश भाषा थी ही नहीं । उसका प्रचलन एवं प्रयोग कुन्दकुन्द के सैकड़ों वर्ष बाद हुआ है फिर अपभ्रंश की गाथाएं रयणसार में कैसे आ गई । डॉ० लालबहादुरजी शास्त्री के शब्दों में इसकी 2-19 Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा स्खलित है । इससे स्पष्ट है कि यह रचना कुन्दकुन्द के बहुत काल बाद जब अपभ्रंश का प्रयोग होने लगा होगा अन्य किसी द्वारा लिखी जाकर कुन्दकुन्दाचार्य के नाम से प्रचारित की गई होगी । 17 वीं 18 वीं शताब्दि में अचानक इस ग्रंथ का प्रादुर्भाव कैसे हुआ यह अभी तक स्पष्ट नहीं हो सका है । यह ठीक है कि मोक्षमार्ग प्रकाशक में कुन्दकुन्द का नाम बिना | दये 'एयणसार' की एक गाथा उद्धृत की गई है । पाठकों को ध्यान रहे कि इस ग्रंथ में जैन ग्रंथों के उद्धरण भी यथा प्रसंग उद्धृत किये गये हैं अतः उसी प्रकार रयणसार की गाथा भी उद्धृत की गई हो तो क्या श्राश्चर्य है ? 18 वीं 19वीं शताब्दि में हुए भूधरदासजी एवं पं० सदासुखजी ने इसे कुन्दकुन्द कृत कहा है । सम्भव है उस समय कुन्दकुन्द का नाम होने के कारण इस ग्रंथ का विषय सिद्धान्त शैली आदि का विशेष विवेचन न किया गया होगा और इसे कुन्दकुन्द की रचना लिख दी हो जैसा कि आज भी हो रहा है कुछ लोग इसके प्रचार के कारण इसे कुन्दकुन्द कृत मान लेते हैं और दूसरे से पूछते हैं इसे क्यों नहीं मानते ? रयणसार को 'कुन्दकुन्द की रचना सिद्ध करने के लिए इसमें मंगलाचरण, अन्तिम पद व कई विषय ऐसे लिखे गये हैं जो कुन्दकुन्द की रचना से साम्यता लिए हुए प्रतीत हों और दूसरी ओर कुन्दकुन्द एवं दिगम्बर मान्यता से श्रसम्मत मत भी इसमें प्रस्तुत कर दिये गये हैं ताकि लोग उन श्रसम्मत मतों को भी कुन्दकुन्दाचार्य कृत मानले । अब रयणसार की ऐसी गाथाओं पर विचार किया जाता है जो प्रागम परम्परा, कुन्दकुन्दाचार्य कृत अन्य रचनाओं एवं रयणसार की ही अन्य गाथामों के विपरीत मान्यता वाली हैं । 2-20 दान के प्रसंग में पात्र और अपात्र का विचार न करने वाली निम्न गाथा उल्लेखनीय है : दाभीरणामेतं दाइ घण्टणो हवेइ सायारो । पत्तापत्तविसेसं संदसरणे किं विचारेण ॥4॥ यदि गृहस्थ प्रहार मात्र भी दान देता है तो धन्य हो जाता है साक्षात्कार होने पर उत्तम पात्रअपात्र का विचार करने से क्या लाभ ? इसी गाथा के श्रागे 15 से 20 वीं गाथा में उत्तम पात्र को ही दान देने का फल बताया है न कि प्रपात्र को दान देने का फल । कुन्दकुन्दाचार्यं कृत किसी भी रचना में नहीं लिखा कि अपात्र को दान देना चाहिए | प्रवचनसार की गाथा 257 में प्रपात्र को दान देने का फल इस प्रकार बताया है : जिन्होंने परमार्थ को नहीं जाना है और जो विषय कषायों में अधिक है ऐसे पुरुषों के प्रति सेवा उपकार या दान कुदेव रूप में और कुमानुष रूप में फलता है । वसुनन्दी श्रावकाचार में 242 वीं गाथा में अपात्र दान का फल निम्न प्रकार लिखा है : जिस प्रकार ऊसर भूमि में बोया हुग्रा बीज कुछ भी नहीं उगता है उसी प्रकार प्रपात्र में दिया गया दान भी फल रहित जानना चाहिए । शास्त्रकारों ने मिथ्यादृष्टि को अपात्र कहा है और उसे दान देने का फल इस प्रकार बताया गया है दर्शन पाहुड की टीका में लिखा है कि मिथ्या दृष्टि को अनादि का दान भी नहीं देना चाहिए। कहा भी है- मिथ्या दृष्टि को दिया गया दान दाता को मिध्यात्व बढ़ाने वाला है । इसी प्रकार सागार धर्मामृत में लिखा है - चारित्राभास को धारण करने वाले मिथ्या दृष्टियों को दान देना सर्प को दूध पिलाने के समान केवल अशुभ के लिए ही होता है। 21-64 / 149 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपासकाध्ययन में उस दान को सात्विक 14 वीं गाथा अवश्य उद्धृत की जाती है । कहा गया है जिसमें पात्र का परीक्षण व निरीक्षण समणसत्र में भी उक्त गाथा का समावेश किया है स्वयं किया गया हो और उस दान को तामस दान जब कि उत्तम पात्र को दान देने की प्रेरणा देने कहा गया है जिसमें पात्र-अपात्र का ख्याल न किया वाली न केवल रयणसार में अपितु अन्य सभी गया हो । सात्विक दान को उत्तम एवं सब दानों शास्त्रों में गाथाएं हैं किन्तु वे गाथाये समणसूत्त में में तामसदान को जधन्य कहा गया है । (829.31) नहीं दी गई है। पाठक विचार करें कि अपात्र के दान का इस इस प्रकार की गाथानों से अपात्रों-मिथ्या प्रकार का फल होने पर कुन्दकुन्दाचार्य जैसा महान दृष्टि शिथिलाचारी एवं अनाचारी को प्रोत्साहन प्राचार्य कैसे कह देता कि पात्र-अपात्र का क्या एवं समर्थन मिलता है ऐसी गाथा कुन्दकुन्द जैसे विचार करना? पागम परंपरा के संस्थापक की नहीं हो सकती। वस्तुतः ऐसी गाथा कोई भट्टारक या शिथिलाचारी ही लिख सकता है जो चाहता है कि लोग मुनि के आहार के पश्चात् प्रसाद दिलाने उसे आहार दान देते ही रहें चाहे उसके पाचरण वाली निम्न गाथा भी विचारणीय है-- कैसे ही क्यों नहो । उनकी परीक्षा न करे और एक जो मुनिभुत्तवसेसं भुजइ सो भुजए जिणुवदिळं। बार पाहार देने पर उसकी फिर परीक्षा करना या संसार-सर-सोक्खं कमसो रिणवाणवरसोवखं । 2 । शिथिलाचारी या अनाचारी मान लेने पर भी उसको जो जीव मुनियों के प्राहार दान देने के प्रकाश में लाना सम्भव नहीं हो सकेगा। पश्चात् अवशेष प्रश को सेवन करता है वह संसार यशस्तिलक चम्पू काव्य में उक्त 14वीं गाथा के सारभूत उत्तम सुखों को प्राप्त होता है और क्रम के प्राशय का निम्न श्लोक मिलता है से मोक्ष सुख को प्राप्त करता है । भुक्तिमात्रप्रदाने हि का परीक्षा तपस्विनाम् ते सन्त, सन्त्व-सन्तों वा गृहंदाने न क्षुल्लक ज्ञानसागरजी ने अवशेष प्रश के लिए शुद्धयन्ति । 36 ।। लिखा है कि इसको प्रसाद समझकर ग्रहण करना चाहिए इसका दानसार में महत्व बताया गया है । उक्त चम्पू काव्य उत्तरकालीन रचना होने के ___ अब तक मैंने रयणसार की 4-5 मुद्रित साथ-साथ एक काव्य ग्रन्थ है जिसको आचार शास्त्र प्रतियां देखी है उनमें यह गाथा उक्त रूप में ही या दर्शन की मान्यता नहीं दी जा सकती। वैसे लिखी गई है। समणसुत्तं में भी उक्त गाथा इसी सिद्धान्त की दृष्टि से उक्त श्लोक भी प्रागम परंपरा रूप में सम्मिलित की गई है किन्तु अभी डा० के प्रतिकूल ही है क्योंकि सम्यग्दृष्टि गृहस्थ सच्चे देवेन्द्र कुमार शास्त्री द्वारा सम्पादित रयणसार इस साधु को ही वंदना पूर्वक आहार दे सकता है वह गाथा में प्रागत 'मुनिभुक्तवसेंस, को मुणिभुक्ता विसेंस असाधु की वंदना नहीं कर सकता । लिखा गया है। यह परिवर्तन संभवतः इसीलिए प्राज भी शिथिलाचारियों के विरोध की बात। किया गया है कि प्रसाद खाने का जैन परंपरा से पर उक्त गाथा की दुहाई दी जाती है और उनको किसी प्रकार प्रौचित्य सिद्ध नहीं होता, अन्यथा दान देने का समर्थन किया जाता है । रयणसार इस परिवर्तन का कारण उन्होंने नहीं बताया। की अन्य गाथानों में उत्तम पात्र को दान देने वाली निम्न गाथा में मुनि के लिए देय पदार्थों की जो गाथाए हैं उन्हें उद्धृत नहीं किया जाता किन्तु सूची दी गई है महावीर जयन्ती स्मारिका 71 2-21 Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 231 हिय मिय-मण्णं पांरण रिगरवज्जेहिं गिराउल में नहीं पाए । प्राचीन ग्रन्थों में उत्तम मध्यम एवं ठारर्ण । जधन्य पात्रों के नाम से तीन भेद पात्रों के हैं फिर सयरणासणभवयरणं जारिणका देइ मोक्खरो। कुपात्र एवं प्रपात्र हैं ये सप्तक्षेत्र कब से किस शास्त्रकार ने मान्य किए हैं. इसका स्पष्टीकरण मोक्षमार्ग में स्थिर (गृहस्थ) (मुनि के लिए) प्रावश्यक है। इनमें प्रतिम चार क्षेत्र दत्तियों हितकर परिमित अन्नपान, निर्दोष प्रौषधि, (पात्रदत्ति, समदत्ति, दयादति और अन्वयदत्ति) के नाम से प्रादिपुराण में भरत चक्रवर्ती ने अवश्य निराकूल स्थान, शयन, प्रासन, उपकरण को समझकर देता है । (डा. देवेन्द्रकुमारजी ने भावार्थ a बताए हैं । पुत्र परिवार को समस्त धन संपदा देना में उपकरण के बाद कोष्ठक में "प्रादि" और तीनलोक के राज्य फलस्वरूप पंचकल्यारण रूप फल अर्थात तीर्थकर पद देता है ऐसा कुन्द-कुन्द या अन्य लिखा है) मुनि के लिए शयन, प्रासन, उपकरण किसी प्राचार्य ने नहीं लिखा । सभी मनुष्य मरते पौर प्रादि क्या है ? प्राज मुनिगण अपने इन शयन प्रासन उपकरण आदि के नाम पर इतना समय या वैसे भी अपनी धन संपदा पुत्र परिवार परिग्रह रखते हैं कि उन्हें लाने लेजाने के लिए बड़ी को दे जाते हैं क्या वे तीर्थकर प्रकृति के फल को २ बसें चाहिए । इतने परिग्रह को रखते हुए वे मुनि पाते हैं ? ऐसा कथन कर्म सिद्धान्त के सर्वथा निग्रंथ दिगम्बर कैसे कहला सकते हैं ? विपरीत है। स्वयं डा० देवेन्द्र कुमारजी भी उक्त गाथा से सहमत नहीं दिखते है. इसी लिए उन्होंने निम्न गाथा में सप्तक्षेत्रों में दान देने का फल भावार्थ में 'पंचकल्लागफल का अर्थ नही दिया। इस प्रकार बताया गया है उत्तम पात्र मुनि को धन देने के लिए कुन्दकुन्द इह रिणयसुवित्तबीयं जो ववइ जिणुत्तसत्त जैसे निग्रंथ तपस्वी कैसे कह सकते थे ? उनकी __ खेत्त सु। गाथानों में तो मुनि को द्रव्य देना पापमूलक ही सो तिहुवरणरज्जफलं भुजदि कल्लाणंपचफलं। बताया गया है। 161 गाथा संख्या 2 में सम्यग्दृष्टि का निम्न स्वरूप इस लोक में जो व्यक्ति निज श्रेष्ठ धन रूप बताया हैबीज के जिनदेव द्वारा कथित सप्तक्षेत्रों में बोता है पुव्वं जिणेहिं भणियं जहट्ठियं गणहरेहि वित्थरियं । वह तीन लोक के राज्य फल-पंचकल्याणक रूप कल को भोगता है। पुव्वाइरियक्कमजं तं बोल्लइ सोहु सद्दिट्ठी ।2। इन सप्तक्षेत्रों का किसी प्राचीन ग्रंथ में (जो) पूर्वकाल में सर्वज्ञ के द्वारा कहे हुए, उल्लेख देखने में नहीं पाया। डा. देवेन्द्र कुमारजी __ गणधरों द्वारा विस्तृत तथा पूर्वाचार्यों के क्रम से प्राप्त वचन को ज्यों का त्यों बोलता है वह निश्चय ने भावार्थ में सप्तक्षेत्र इस प्रकार लिखे हैं । जिन से सम्यग्दृष्टि है। पूजा 2. मन्दिर प्रावि की प्रतिष्ठा 3. तीर्थयात्रा 4. मुनि प्रादि पात्रों को दान देना 5. सहमियों सम्यग्दृष्टि का ऐसा लक्षण इसी ग्रंथ में मिलता को दान देना 6. भूखे-प्यासे तथा दुखी जीवों है अन्यत्र शायद ही मिले। को दान देना 7. अपने कुल व परिवार वालों को गृहस्थ के आवश्यक षटकर्मों में दान का अंतिम सर्वस्वदान करना । कुन्दकुन्दाचार्य उनके टीकाकार स्थान है किन्तु रयणसार के कुन्दकुन्द दान को देव व अन्य प्राचार्यो के ग्रन्थों में क्षेत्र के ये भेद देखने पूजा से भी पहले मुख्य स्थान देते हैं 2-22 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दारणं पूया मुक्खं सावयधम्ये ण सावयातेण विरणा। अतिचार कौन से हैं यह स्पष्ट किए जाने की श्रावक के षट्कर्तव्यों का क्रम इस प्रकार है- आवश्यकता है। देवपूजा, गुरु उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और मुनि के लिए विभिन्न वस्तुओं में ममत्व का दान। दान का अन्तिम स्थान होते हुए भी निषेध इस प्रकार किया गया हैस्वाध्याय, संयम, तपादि की सर्वथा उपेक्षा कर वसदी पडिमोवयरणे गणगच्छे समयसंघजाइ कुले । दान को प्रथम स्थान देना तथा 155 गाथाओं के सिस्सपीड सिस्सछत्ते सुयजाते कप्पड़े पुत्थे । 144 ग्रंथ में दान की व्याख्या एवं प्रशंसा में 30-31 पिच्छे संत्थरणे इच्छासु लोहेण कुणइममयारं । गाथाएं लिखना बताता है कि इस ग्रंथकार को यावच्च अट्टरुछ ताव ण मुचेदी ण हु सोक्खं ।146 दान अतिप्रिय था। भट्टारकगण नाना प्रकारों से (यदि साधु वसतिका, प्रतिमोपकरण में, धन संग्रह किया करते थे। षट कर्तव्यों में दान को गरमच्छ में, शास्त्र संघ जाति कूल में, शिष्यमुख्य एवं प्रथम स्थान देना उसका सर्वोच्च फल- प्रतिशिष्य छात्र में, सूत प्रपौत्र में, कपड़े में, पोथी तीर्थ कर पद एवं निर्वाण प्रादि बताना केवल में, पीछी में, विस्तर में, इच्छामों में लोभ से इसीलिए था कि भक्त लोग उन्हें दान देते रहें। ममत्व करता है और जब तक प्रातरौद्र ध्यान नहीं छोड़ता है तब तक सुखी नहीं होता है। मेरा प्राशय यह नहीं है कि दान का कोई क्या दिगम्बर जैन साधु कपड़े, प्रतिमोपकरण, महत्व नहीं है। श्रावक के कर्तव्यों में उसका विस्तर आदि रखता है जो उनके प्रति ममत्व का अंतिम स्थान है (जो कि तर्कसिद्ध एवं बुद्धिगम्य फल बताया गया है। ये गाथाए किसी अदिगम्बर भी है) उसको उसके बजाय प्रथम स्थान कैसे दिया द्वारा लिखी हुई हो तो कोई आश्चर्य नहीं है । उक्त गया? इस ग्रंथ में श्रावक के अन्य प्रावश्यका, गाथा में प्रयक्त 'गण गच्छ' का गठन कुदकुद के व्रतों, प्रतिमानों का नामोल्लेख मात्र किया बहुत काल बाद हुआ है। उमास्वामी ने अपने सूत्र गया है। 24 अध्याय 9 में गणशब्द का प्रयोग उक्त गणइस ग्रंथ की 7वीं गाथा में सम्यग्दृष्टि के गच्छ के अर्थ में नहीं किया है । डा० देवेन्द्र कुमारजी चवालीस (संपादक के शब्दों में दूषण) न होना ने उमास्वामी के उक्त सूत्र का हवाला देते हुए बताया है । 25 दोष, 7 व्यसन, 7 भय एवं प्रति- कुदकुद कृत ही माना है किंतु उनके काल में गरण क्रमण-उल्लंघन 5 इस प्रकार कुल 44 दोष बताए या गच्छों का गठन नहीं हुमा यह तो निश्चित ही गए हैं। परम्परा में सम्यग्दष्टि के 25 दोषों का है। उत्तरकालीन रचनामों में ही गण-गच्छ का उल्लेख तो यथा प्रसंग सर्वत्र मिलता है किन्तु इन प्रयोग मिलता है। इसीलिए डा० ए०एन० उपाध्ये, 44 दोषों का उल्लेख अन्यत्र देखने में नहीं पाया। डा० हीरालालजी, पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार कुदकुदाचार्य के उत्तरवर्ती किसी प्राचार्य या सदृश अधिकारी विद्वानों ने इस नथ को कुदकुद टीकाकार ने इनका उल्लेख नहीं किया। इसका की रचना मानने में संदेह व्यक्त किया है। कारण यही प्रतीत होता है कि उक्त प्राचार्यों के प्रथकार ने इस रयणसार को न पढ़ने सुनने समक्ष यह रयणसार न रहा हो। अतिक्रमण- वाले को मिथ्या दृष्टि बताया हैउल्लंघन के 5 अतिचार कौन से हैं यह भी देखने गंथमिणं जो इ रण हु मण्ण इ ण हु में नहीं पाया। डा. देवेन्द्रकुमार ने व्रत नियम के सुरणेइ गहु पढ़। उल्लंघनस्वरूप 5 अतिचार लिखे हैं। 12 व्रतों के ग ह चितइण ह भावइ सो चेव हवेइ 5-5 अतिचार होते हैं सो वे व्रत नियम के 5 कुट्टिी ।। 541 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 2-23 Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो व्यक्ति इस ग्रंथ को नहीं देखता, नहीं में प्राकृत भाषा के रयणसार ग्रंथ का नामोल्लेख मानता, नहीं सुनता, नहीं पढ़ता, नहीं चिंतन है और रचयिता का नाम वीरनन्दी है जो संस्कृत करता, नहीं भाता है वह व्यक्ति ही मिथ्यादृष्टि टीकाकार प्रतीत होते हैं । इस टीका की खोज करनी होता है। चाहिए।" समझ में नहीं पाया कि डाक्टर सा. जैसे महान ग्रंथकार इस रचना ने ग्रथ को बिना देखे ही कैसे मान लिया कि वीर को न देखने न पढ़ने, न सुनने न मानने वाले को नन्दी संस्कृत टीकाकार प्रतीत होते हैं जबकि उन्होंने मिथ्यादृष्टि बताते ? ऐसी गाथा की रचना तो अपने स्वयं सूची में रचयिता के स्थान पर वीरनन्दी का ग्रंथ की महत्ता दिखाने के लिए भट्टारक ही कर नाम स्पष्ट लिखा हुप्रा बताया है। चूकि प्रति सकते हैं न कि संसार त्यागी आत्मसाधना में लीन सामने नहीं है अतः अन्य कल्पना करना ठीक नहीं कुदकुदाचार्य । है। फिर भी प्राप्त सूचनानुसार सूची में प्राकृत इस ग्रंथ में ऐसी ही अन्य गाथाए हैं जिनका भाषा के रयणसार के कर्ता का नाम वीरनन्दी है सूक्ष्म परीक्षण करने से इनमें विषमताए एवं न कि कुन्दकुन्द । जब तक इसे गलत सिद्ध नही विपरीतता मिलेगी। किया जावे इस सूची के वर्णन को सही मानना ___डा० देवेन्द्रकुमारजी ने अपनी प्रस्तावना में समीचीन होगा । मध्यकाल में वीरनन्दी हुए हैं इसे कुदकुद कृत मानने का प्रयास किया है। उन्होंने प्राचारसार लिखा था सम्भव है रयणसार उन्होंने प्रस्तावना के पृ० 92 पर 'रचनाए' शीर्षक भी उन्हीं का लिखा हुआ हो। परा में लिखा है कि श्री जुगलकिशोर मुख्तार ने विद्वान् सम्पादक डा० देवेन्द्रकुमारजी ने प्राचार्य कुदकुद की 22 रचनाओं का उल्लेख इसकी कई गाथाएं प्रक्षिप्त बतलाकर मूल ग्रन्थ से किया है जो इस प्रकार है। इस सूची में रयणसार अलग प्रस्तुत की हैं किन्तु फिर भी ग्रंथ में कुछ का नाम भी है। इस सूची के साथ रयणसार के गाथाए ऐसी और हैं जिन पर क्षेपक लिखा हुया सम्बन्ध में श्री मुख्तार सा. का उक्त मत उद्धृत है अतः इसके मूल प्रश और क्षेपकांश का निर्णय नहीं किया इससे पाठक यही समझे कि मुख्तार हो पाना सहज नहीं है। सा. रयणसार को कुदकुद कृत ही मानते थे जब अतः अतरंग बहिरंग परीक्षण से यह ग्रंथ कि वास्तविक स्थिति दूसरी ही है। वीतराग परम तपस्वी दिगम्बर कुदकुदाचार्य द्वारा ___डा० देवेन्द्र कुमार जी ने अनेकांत के जनवरी लिखा हुआ नहीं मालूम होता अपितु किसी भट्टारक मार्च ७६ के अंक में 'रयणसार-स्वाध्याय परम्परा या और किसी द्वारा उनके नाम पर लिखा हा में' शीर्षक लेख में लिखा है-"रयणसार नाम की प्रतीत होता है। एक अन्य कृति का उल्लेख दक्षिण भारत के भण्डारों विद्वानों से मेरा नम्र अनुरोध है कि वे इस की सूची में हस्तलिखित ग्रथों में किया गया है। ग्रंथ का सम्यक् प्रकार से तुलनात्मक अध्ययन कर श्री दिगम्बर जैन म. चित्तामूर, साउथ पारकाड अपना मंतव्य प्रस्तुत करें ताकि लोगों को सही मद्रास प्रांत में स्थित शास्त्रभण्डार में क्रम सं0 39 स्थिति ज्ञात हो जावे। * इसमें विषयों का व्यवस्थित वर्णन नहीं है । दान, सम्यग्दर्शन, मुनि, मुनिचर्या प्रादि का क्रमश. वर्णन न होकर कभी दान का, कभी सम्यग्दर्शन का, कभी पूजन का, कभी मुनि का वर्णन इधर उधर अप्रासंगिक रूप से असंबद्ध रूप से मिलता है।) 2-24 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भूगोल के अनुसार जम्बू द्वीप को भरत, हैमवत प्रादि सात क्षेत्रों में विभक्त करने वाले हिमवत्, महाहिमवत् प्रादि छह कुलाचल पर्वत हैं। प्रत्येक कुलाचल पर्वत पर एक-एक सरोवर है। उस सरोवर के मध्य में एक कमल है । हिमवत् पर्वतोपरि सरोवर का नाम पद्म है। इसके कमल में भी देवी का सामानिक प्रौर पारिषद् जाति के देवों सहित निवास है । लौकिक परम्परा में श्री समृद्धि की प्रतीक है। प्र० सम्पादक प्राकृत साहित्य में श्री देवी की लोक परम्परा * श्री रमेश जैन, बीकानेर __ महावीर का भुकाव जन भावना को मादर की, अपितु पूजा-अर्चना, आयतन निर्माण इत्यादि देने का, अधिक रहा है। उन्होंने अपने शिष्यों को की महत्वपूर्ण सूचनाए जैन साहित्य में सुरक्षित प्रादेश दिया था कि वे जिस जिस क्षेत्र पौर प्रदेश में हैं। सर्वप्रथम हम वैदिक-साहित्य में चचित स्वरूप विहार करें, वहां की भाषा (क्षेत्रीय पौर प्रादेशिक) को प्रस्तुत करेंगे तत्पश्चात् प्राकृत-अपभ्रंश सीखें और प्रवचन करें। इसलिए उन्हें अठारह साहित्य में श्री देवी के स्वरूप की विवेचना रखेंगे। देशी भाषाओं का ज्ञाता होना प्रावश्यक कहा गया प्रजनन एवं समृद्धि की देवी श्री है। लोक-रुचि मोर लोक-भावना को प्रादर देने की मूलभित्ति पर जैन धर्म आधारित हैं । जैन-साधु प्रजनन की देवी के रूप में सबसे पुराना और श्रावक के सीधे सम्पर्क, विभिन्न क्षेत्रों में विहार उल्लेख 'वाजसनेयी संहिता' में मिलता है । इसे करने के फलस्वरूप जैनाचार्यों द्वारा रचित साहित्य कीचड़ में विकसित-कमल से युक्त, समृद्धिदाता कहा में, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, लौकिक परम्प- गया है।' रामों एवं धर्मों का आकलन, सहज ही हो गया है। ऐसा ही उल्लेख ऋग्वेद के खिल भाग में आये प्रजनन को देवी श्री के सन्दर्भ वैदिक साहित्य श्री सूक्त (पांचवा मण्डल) में है जहां देवी को माता में, प्रचुर मात्रा में प्राप्त है । ईसा की 2री-3री श्री,क्ष्मा या पृथ्वी कहा है (देवी क्ष्मा या भूमि), शताब्दि तक श्री का श्रीलक्ष्मी में समन्वय हो गया श्री (देवी मातरं श्रियम्) । इसे सब पशुओं की और श्री का मूल स्वरूप तिरोहित हो जाना प्रतीत जनित्री और अन्नों की उत्पादियत्री कहा है (पशूनो होता है । किन्तु जैन साहित्य में प्राप्त सूचनामों से रूपमन्नस्य मयि: श्रीः श्रयतां यशः) । यह कृषकों ऐसा लगता है कि श्री देवी अपने मूल रूप में लोक- की संरक्षक देवी रही। इसके लिए 'पार्दा' विशेषण परम्परा में सुरक्षित रहीं है। न केवल मूलस्वरूप भी प्रयुक्त हुमा है, जिसका अर्थ ताजा, वृक्ष जैसा महावीर जयन्ती स्मारिका 77 2-25 Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरा भरा, सजीव धौर इन गुणों द्वारा चेतना प्रदान करने वाली है । इस प्रकार वैदिक साहित्य में इसे भौतिक समृद्धि दाता, कल्याणकारी, सौंदर्य, विजय, प्राभा, दैहिक सौंदर्य की अभिवृद्धि कर्त्ता, बीमारियों से रक्षा करने वाला प्राभूषण कहा है। अथर्ववेद में भी श्री देवी के समृद्धिदाता तथा पशु संरक्षक रूप की चर्चा है। जहां इसकी प्रार्थना में गायों, खाद्य सामग्री, मन्त्र, समृद्धि, स्वर्ण दासी, स्वास्थ्य, सुख का निवेदन किया गया है । रामायण के सुन्दर काण्ड ( 30 / 2 ) में हनुमान सीता को देखकर उन्हें पहले नन्दन वन का देवता समझ बैठते हैं (प्रवेक्षमाणस्तां देवीं देवतामिव नन्दने) । इसमें भी मानव शरीर के सौन्दर्यप्रतीक के रूप में श्री देवी का चित्रण मिलता है । 'कुवलयमालाकहा' में राजा दृढवर्मा की कुल परम्परा से चली आई भगवती राजश्री कुल देवता का सन्दर्भ है । राजा कुलदेवी श्री की पूजा करके एक पुत्र पाने का वर पाते हैं। अर्थात् कुवलयमाला में हम सिरिदेवी या श्री देवी को संतान प्रदान करने वाली देवी के रूप में पूजित होता पाते हैं । यहां इसे रायसिरि' और सिरी दोनों से सम्बोधित किया गया है। धनपाल की तिलक मंजरी में भी राजा द्वारा अपने (निजी उद्यान) प्रमदवन में श्री देवतागृह और उसमें स्थापित श्री की काष्ठप्रतिमा का उल्लेख है । यहां पुत्र प्राप्ति के निमित्त श्री श्रायतन में पूजा करने की, तथा श्री देवी द्वारा पुत्र प्रदान करने की चर्चा है। विशिष्ट बात यह है कि यहां भी राजश्री और श्री दोनों रूप में सन्दर्भ हैं। प्रतः ऐसा प्रतीत होता है कि जैन साहित्य में 'श्री' के अनेक रूप विकसित हुए। एक रूप राज्यश्री का था जो न केवल राज्य की समृद्धि का सूचक था अपितु राज परिवार की वृद्धि से सम्बद्ध था । श्री देवी को प्रभिलाषित या इच्छित की पूर्ति प्रर्थात् श्री देवी प्रजनन की देवी की रूप में लोक में बराबर पूजित रही। दूसरी बात है, श्रीगृह या श्रायतन के निर्माण की श्रीदेवी के मन्दिर, श्रायतन को हम उद्यान में पाते हैं जो उसके प्रजनन-रूप की याद दिलाते हैं । जब उसका सम्बंध प्रार्य पूर्व से ही लोक में हरियाली, उत्पादन की देवी के रूप में रहा । तीर्थंकर माता के स्वप्नों एव अष्टमंगल द्रव्यों में से एक श्री देवी की परम्परा जैन साहित्य में कुषाण कालीन प्राकृत ग्रन्थ 'अंगविज्जा' में करने वाली देवी कहा है । अन्यत्र 'सिरिधर' या श्रीगृह का उल्लेख भी है । 3 मिलिन्द्र - प्रश्न' में ( प्र० 2 / 1 ) श्रीदेवता के धार्मिक सम्प्रदाय एवं अनुयायियों की चर्चा है । ये अनुयायी 'भक्त' कहलाते थे । बुद्धवंस में ( II, 2 / 2 ) नन्द श्राराम में निर्मित 'सिरिधर' की चर्चा है । प्रक्षुण्ण रूप से मिलती है । उद्यान में श्री देवी का प्रायतन बनाने और महावीर जयन्ती स्मारिका 77 दूसरी ओर श्री धौर लक्ष्मी को विष्णु की पत्नी कहा गया है। महाभारत ( विराट पर्व ) में देवियों के परिगणन में विष्णु के साथ श्री, दामोदर के साथ लक्ष्मी, इन्द्र के साथ शचि का उल्लेख आया है । समन्वय की धारा शान्तिपर्व में भी इष्टिगोचर होती है, जहां श्रीभूति श्रौर लक्ष्मी को एक कहा गया हैं । (भूतिलक्ष्मीति मामाहुः श्री रित्सेवचवासवः) । प्राकृत साहित्य में श्री देवी 'वसुदेव हिण्डी' में श्रीगृह का उल्लेख है जो रेवतक पर्वत के पास स्थित नन्दनवन में बना था । 2-26 यहां पीठीका पर श्री देवी की प्रतिमा स्थापित थी । सत्यभामा ने श्राकर प्रार्थना की. इच्छा पूरी होने पर समुचित पूजा-अर्चना करेगी । वसुदेव हिण्डी में श्री को मानवीय सौंदर्य के प्रतीक रूप में चित्रित किया गया है तथा सौन्दर्य के मापदण्ड के रूप में उसकी चर्चा है । श्रीवत्स युक्त प्रद्य ुम्न तथा धम्मिल प्रादि का वर्णन मिलता है। 4 Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसकी पूजा करके संतान प्राप्ति की लोक परम्परा दूसरी शती) के पश्चिमी तोरण के एक स्तम्भ पर की पुष्टि श्री चन्द के अपभ्रश कहाकोसु (11 वी लेख सहित 'सिरिमा देवता' का अंकन प्राप्त है। शती) से होती है। पुत्र-प्राप्ति प्रथवा सन्तान- डॉ० मोतीचन्द्र ने उस्मानाबाद के तेर स्थान से प्राप्ति के लिए मातृदेवी के रूप में पूजित इला देवी प्राप्त हाथीदांत पर उत्कीरण सिरिदेवी का उल्लेख की चर्चा भी माख्यानमणिकोश प्राकृत ग्रन्थ में भी किया है । देवगढ़ में भी श्रीदेवी का मातृदेवियों पायी है। के रूप में अंकन प्राप्त है। ___ इस प्रकार प्राकृत साहित्य में श्रीदेवी का पुरातत्वीय या मूर्तिकला में सिरिया श्री देवी स्वरूप मानवीय सौंदर्य के प्रतीक, एवं सन्तान अंकन बराबर मिलता रहा है। भरहुत (ई० पू० प्रदान करने वाली देवी के रूप में चचित है। संदर्भ: 1 तथा 2 : 'Shri' according to Mrs. Hartmaun appears as distinct female deity in the 'Vajasneyi-Samhita' for the first time. She was a pre Aryan goddess of fertility and other phenomena relating to it whose Symbol is the lotus-growing in the mud and stirne and whose cult, Mythology and Iconography show a variety of true characteristics of the deities concerned with fertility and prosperity in general, -Dr. Motichandra An-Ivory figure from Ter, Lulit Kala No. 8-Page one. 'इहिं सिरी विणेया' अंगविज्जा प्र. 51 पृ० 205, तथा 'सुवकेसु सिरिधर गतं ब्रूया' प्र० 57 पृ०2221 वसुदेवहिण्डी-डा० भोगीलाल जे० सांडेसरा का गुजराती पनुवाद । 'अस्थि देवस्स महाराय-स-प्पसूया पुव्व पुरिस-संरोज्झा रायसिरि भगवई कुल-देवया तं समाराहि पुत्त-वरं पत्थेसु'ति ।'-कुवलयमालाकहा-पृ० 13 पंक्ति 28-29। और 'तो सिरीए संलत्त' । 'नरवई वि लद्ध रायसिरि-वर-प्पसाम्रो विग्गयो देवहरयानो'पृ० 15 पंक्ति 9 तथा 151 विधेहितावन्मंत्रजपविधिमाराधितप्रसन्नया राजलक्ष्मया वितीर्णम् । प्राप्नोतु पुत्रवरमियम् । धनपाल कृत-तिलक-मंजरी पृ० 33 तथा- 'तत्र चातिप्रशस्तेऽहनि तथा योग्य माचित समस्त पूज्यवर्ग: परिपूर्णसर्वावयवां सर्वप्रतिमालक्षणपेतां सर्वालंकारभूषितवपुलंतां सर्वलोकनानन्दजननी सर्वदोष निमुक्तामत्युदारमुक्ताशैलदारु-संभवा भगवत्या श्रियः प्रतिकृति यथाविधि प्रतिष्ठाय ।'-पृ०33-341 'हिमवंतपोमदह वासिणीए सिरियादेवीए सुहासिणीए' श्रीचन्द्रकृत 'कहकोसू' संधि 48 कडवक 4 से 6 तक विस्तार से देखें। तत्थ इलादेवीए प्राययणं विज्जइ जणपसिद्ध। तं च जणो कज्जथी पुत्ताइनिमितमच्चे। पाख्यान मणिकोश पृ० 91 पंक्ति 6 तथा विस्तार से देखें मेरा लेख-मातृदेवी इलाः परम्परा और विकास। Dr. Motichandra : An Ivory figure from Ter, Lalit Kala No. 8, Page one. महावीर जयन्ती स्मारिका 17 2-27 Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MOM RISASISARUSSA PODAWABANGO DASANDO DOSADASOCCORON यह मानव जीवन * कु• उषाकिरण, जबलपुर यह मानव जीवन है कितना दुर्लभ कितने हैं इसके प्रायाम अस्तित्वों का ही संघर्ष धरा पर दलनी यूं ही जीवन की शाम हर परिवेशों पर धूल जमी है सात्विकता तो कूल पड़ी है यह मन घृणा-द्वेष के वातायन में नित-प्रति रमता जाता है मृगतृष्णा के भ्रमित नीर में खोजता फिरता पिपासा का निदान कशोर्य वयसंधि की गरिमा में पुरुषार्थ कहां त्याग क्षमा करुणा का धाम बहुरंगी चुनरी के अवगुण्ठन में राष्ट्र की अवनति का धाम सब अपनी ढपली ले राग विहाग करे बेनाम नारी जो लज्जावसना थी सुखोपभोगों की दौड़ में विजयी होकर कैसी हो गई छलना निज का ममत्व विसराकर करुणा रत है देने में रूप सौन्दर्य का दान यूही प्रादर्शों को होड में बीता है अबतक जीवन लघुतम यह मानव जीवन KUMHOWYWANYCOSMS SMS MHE. MY SMS 2-28 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 RDI secolo CONSSANDHA SWAHHAHAHAHAHAHAHHAHHAHA. Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व के दर्शनों को मोटे रूप से वो भागों में बांटा जा सकता है1. ईश्वरवादी और 2. श्रनीश्वरवादी । जैन और बौद्ध इस अर्थ में अनीश्वरवादी हैं कि वे इस विश्व का कोई कर्ता धर्ता एवं मानवों को उनके अच्छे बुरे कर्मों के शुभाशुभ फलों का देने वाला कोई ईश्वर नहीं मानते। वे मानव की श्रम शक्ति पर विश्वास करते हैं। जीव जैसा कर्म करता है उसको वैसा ही फल स्वतः मिलता है इसीलिए इनकी संस्कृति श्रम पर प्राधूत होने से श्रमण संस्कृति कहलाती है जिसका अर्थ है सब पर सम भाव रखने वाला परिश्रमशील तथा तपस्वी आदि । दूसरी धारा वैदिक है जो ईश्वरवादी है । लेखक के अनुसार दोनों धाराएं एक दूसरे को विरोधी न होकर परस्पर सहयोगी एवं एक दूसरे की पूरक हैं। - श्रम साधना और श्रमण संस्कृति भारतीय संस्कृति की संरचना में दो घटकों का महत्वपूर्ण योगदान है । वे हैं (1) ब्राह्मण संस्कृति, ( 2 ) श्रमण संस्कृति । ब्राह्मण संस्कृति सीधा सम्बन्ध वैदिक साहित्य से माना जाता है जिसमें याज्ञिक कार्यों का उल्लेख किया गया है । इस संस्कृति के प्रस्तोता के रूप में वैदिक ऋषियों का उल्लेख मिलता है जबकि दूसरे घटक के पुरस्कर्ता के रूप में चौबीस तीर्थंकरों का नाम लिया जाता है । श्रमण संस्कृति को वर्तमान रूप देने का श्रेय अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर को है । इन दोनों चिन्तन धाराम्रों ने यद्यपि भारतीय संस्कृति को सजाया संवारा, और निखारा है किन्तु कुछ विद्वज्जन इन दोनों विचार सरणियों को एक दूसरे का सहयोगी मानने में न केवल संकोच करते हैं अपितु एक दूसरे को परस्पर विरोधी विचारधारा वाली संस्कृति के रूप में प्रति महावीर जयन्ती स्मारिका 77 * डा० कृपाशंकर व्यास, शाजापुर (म. प्र. ) पादित करने में अपनी अहंमन्यता मानते हैं । यह है भारतीय भूमि में फलित दो संस्कृतियों का परिणाम । किन्तु यह शुभ संकेत है कि अनेक प्रनुसंधित्सुत्रों ने यह सिद्ध करने का प्रशंसनीय कार्य किया है कि दोनों चिन्तन धारायें एक दूसरे की विरोधी नहीं अपितु सहयोगी एवं पूरक हैं और दोनों ने भारतीय संस्कृति के उदात्त महनीय, श्रनुकरणीय रूप को विकसित किया है जिसका प्रतिफल है कि श्राज भी विदेशी भारतीय संस्कृति के समक्ष श्रद्धावनत हैं । व्याकरण सम्मत अर्थ श्रमण संस्कृति ने भारतीय संस्कृति के उन्नयन में कितना बहु प्रायामी एवं बहु-सोपानी योगदान दिया है इसको स्पष्ट करने के लिये श्रावश्यक है। कि "भ्रमण " शब्द का व्याकरण सम्मत विवेचन प्र० सम्पादक 2-29 Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया जाये। श्रमण शब्द की व्युत्पत्ति "श्रम्" अनुयोग द्वार सूत्र में “समण" शब्द की विस्तृत धातु से है जिसका अर्थ है स्वतः परिश्रम करना, व्याख्या की गई है। कथन हैचेष्टा करना, प्रयत्न करना । "श्रम्" धातु में जब "तो समणों जइ सुमणो, भावेण य जइ ण 'ध' प्रत्यय लगता है तब "श्रम्' शब्द की सिद्धि पावमणो" होती है। 'श्रम्' धातु के साथ "युच्' प्रत्यय लगने ___ सयणे प्र जणे म समो, समो प्रमाणावपर विशेषण श्रमण बनता है जिसका अर्थ है __ मारणेसु" अनु. 132 परिश्रमी, मेहनती, सन्यासी प्रादि (विशेष द्रष्ट व्य (जो मन से सु-मन (निर्मल मनवाला) है संस्कृत हिन्दी कोश-वामन शिवराम प्राप्टे पृ० 2° संकल्प मात्र से भी जो कभी पापोन्सुख नहीं होता, 1135) इस व्याकरण सम्मत अथ के कारण श्रमण स्वजन तथा परजन में, मान एवं अपमान में सदा संस्कृति परिश्रमी व्यक्ति की संस्कृति की पर्याय सम रहता है वही “समण" होता है। सिद्ध होती है। यदि इसी अर्थवत्ता के प्राधार पर महावीर और श्रमरण शब्द : "श्रमण संस्कृति" का मूल्यांकन किया जाये तो उपरिविवेचन से स्पष्ट है कि अन्य तीर्थ करों इस संस्कृति को पूर्ण-रूपेण भौतिकवादी संस्कृति की अपेक्षा भगवान महावीर के जीवन एवं कार्यहोना चाहिये था किन्तु यर्थाथता इससे परे है।। कलापों में समता का स्थान सर्वोपरि था। उनके जैन ग्रन्थ और श्रमरण शब्द : हृदय में स्वकल्याण की अपेक्षा पर कल्याण की श्रमण संस्कृति नैतिक प्राध्यात्मिक व्याख्या भावना बिशेष बलवती थी। सभी जीवों के प्रति परस्सर करने वाली सस्कृति है। प्रत. श्रमण शब्द उनकी दृष्टि कारुण्यमयी उदात्त थी। ऊंच-नीच का प्रयोग इस संस्कृति के संदर्भ में किस रूप में छोटा-बड़ा किसी भी प्रकार का विभेदात्मक विचार प्रतिपादित किया गया है इसका अवलोकन जैन उनके विशाल हदय को छ भी नहीं पाया था। ग्रन्थों में करना नितांत आवश्यक है। जैन ग्रन्थों संसार के सभी प्राणियों को जन्म मरण के भवमें भगवान महावीर के लिये 'समरण" शब्द चक्र से मुक्त कराने के लिये सतत उनका अन्तस्तल का प्रयोग किया गया है। "समणे भगवन छटपटाता रहता था। जीवन में जब कभी किसी महावीरे" । भगवान् महावीर के लिये श्रमण शब्द प्राणी को उनकी दयामयी दृष्टि की आवश्यकता विशिष्ट अर्थ एवं ध्वनि वाला है। उत्तराध्ययन में पड़ी वे सदा उसके रक्षक रूप में प्रस्तुत रहे । "समयाए समरणो होइ" चन्दनबाला की मुक्ति गाथा उनकी इसी उदात्तमयी का स्पष्ट उल्लेख है जिसकी ध्वनि है कि भावना की ही प्रतीक है। समता के सिद्धान्त का परिपालन करने वाला ही जैन ग्रन्थों में भगवान महावीर के लिये न यथार्थतः श्रमण पद का अधिकारी है। इसी मत की पुष्टि उत्तराध्ययन की चरिणका में भी की गई केवल ''समण" शब्द का प्रयोग मिलता है अपितु है । कथन है-- "महासमण" भी प्राप्त है। जो कि भगवान् महावीर की "सर्वजन हिताय" भावना का ही "समो सव्वत्थ मणो जस्स भवति स द्योतक माना जा सकता है। भगवान् अपने जीवन समणो" जिसका मन सर्वत्र समभाव से स्थित में अनेक झंझावातों से जूझते हुये कभी भी रहता है वही समण (श्रमण) है ।) "समता" के सिद्धान्त से विचलित नहीं हो सके। __कालान्तर में "समण' शब्द अपने प्रतिपाद्य चण्डकौशिक सर्प की गाथा इसी महा समता" अर्थ से दूर न हो जाये सम्भवतः इसी कारण से की गाथा है। 2-30 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण शब्द की उपरि व्याख्या के अतिरिक्त सकता है। इसी कारण उन्होंने श्रम की महत्ता यदि व्याकरण सम्मत अर्थ प्ररिप्रेक्ष्य में भी श्रमण प्रतिपादित की है और श्रम को अपने जीवन में संस्कृति के उन्नायक भगवान महावीर के जीवन अक्षरशः उतारा था। तभी वे "महासमरण" के की घटनाओं का मूल्यांकन किया जाये तो भी महनीय पद के यथार्थ अधिकारी बने । "श्रमण सस्कृति" अपनी गरिमामयी अर्थवत्ता से अलग नहीं होती है । श्रमण संस्कृति दूसरों को श्रम का प्राध्यात्मिक अर्थ अ कष्ट देने में और स्वतः सुख के उपभोग में विश्वास कुछ विद्वतजन 'श्रम' शब्द का प्राध्यात्मिक नहीं करती है अपितु इसके विपरीत "स्वतः के अर्थ 'तप" करते हैं। उन्होंने सात्विक श्रम को श्रमसाध्य फल प्राप्ति'' के प्रमोघ मंत्र के प्रति तपश्चर्या माना है। उनके मतानुसार व्यक्ति तप पूर्ण निष्ठा रखती है। व्यक्ति उति के चरम द्वारा शरीर को तपाता है, कसता है और वही सोपान पर उसी समय पहुंच सकता है जब वह श्रमण पद का अधिकारी होता है। जैन दर्शन में प्रोस्थावान होकर श्रम करे, परावलंबन का हिमायती तप का प्रथ कवल "उ तप का अर्थ केवल "उपवास" या मात्र ध्यान न बनकर स्वावलबन को जीवन का प्रादर्श माने। लगाना नहीं है अपितु "तप" शब्द का एक विशिष्ट पालस्यमयी जीवन से सदा दूर रहे अन्यथा विस्तृत अर्थ है जो कि जीवन की प्रत्येक समस्या "श्रमण" होकर के भी व्यक्ति "पापी हो का हल प्रस्तुत कर सकता है । अतः व्यक्ति प्राध्या. जायेगा। त्मिक उन्नति हेतु तप का सम्बल ले यही जैन दर्शन का अभिप्राय है। यह अवश्य है कि तप के साथ पावापुरी के प्रतिम प्रवचन में तो भगवान अन्य नैतिक आस्थाये भी जुडी हैं जिन्हें मानना महावीर की स्पष्ट उक्ति है व्यक्ति के लिए प्रावश्यक है। इस प्रकार तप और "जे कई उ पव्वइए, निदासीले पगामसों। श्रम की एकरूपता सिद्ध होती है । भोच्चा पिच्चा सुहं सुप्रइपावसमणे त्ति वच्चई ।। कर्म और श्रम जो व्यक्ति प्रवजित होकर भी रात दिन निद्रा 'श्रम' शब्द की अर्थवत्ता विवेचन पश्चात् यह लेता रहता है, प्रालस्य में सदा प्रामग्न रहता है और खा पीकर मस्त रहता है वह चाहे श्रमसा ही स्पष्ट है कि "श्रम' का सीधा संबंध व्यक्ति के 'कर्मभाव' से है। व्यक्ति जैसा कर्म करेगा फल भी क्यों न हो ऐसे श्रमहीन श्रमण "पापी श्रमण" उसे वैसा ही मिलेगा। कर्म करने का श्रम ही कहलाते हैं। व्यक्ति को उन्नति या पतन के मार्ग पर ले जाने में श्रम की प्रतिष्ठा में इससे अधिक सुन्दर और समर्थ है। यदि व्यक्ति का श्रम उदात्तमयी भावना महनीय कथन और क्या संभव है। महावीर ने से होता है तो श्रम शील का प्राध्यात्मिक कल्याण जीवन में जो कुछ अनुभव किया उसे शब्दों में संभव है किन्तु इसके विपरीत भावना से प्रेरित अभिव्यक्त कर प्राणीमात्र को सचेत किया है कि श्रम व्यक्ति को पतनोन्मुख कर सकता है । इसी जीवन की सार्थकता "श्रम' में ही है । "श्रम" ही कारण भगवान महावीर श्रम के साथ उदात्तमयी एक मात्र माध्यम है जिससे प्रारणो अपने गन्तव्य भावना के भी हिमायती थे। उनकी भावना थी पर पहुंच सकता है । बाह्याडंबर एवं ग्रालस से जन कल्याण की। उनकी इसी भावना के कारण मनुष्य चाहे भिक्षु का चोगा क्यों न पहिन ले किन्तु ही प्रबुद्ध विचारक प्राचार्य समन्तभद्र ने महावीर वह यथार्थ मे "श्रमण" पद का अधिकारी नहीं हो के उदात्तमय श्रम को सर्वोदय शासन कहा है महावीर जयन्ती स्मारिका 17 2-31 Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "सर्वापदामन्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं राष्ट्र ही नहीं अपितु विश्व की मानव जाति में तवैव" एक रूपता भा सकती है और वर्तमान में राष्ट्रों इसी जन कल्याणमयी भावना की प्रस्तुति का जो विध्वंसक रूप है वह भी प्रतीत का विषय अथर्ववेद में भी मिलती है बन सकता है। तभी प्रत्येक मानव सच्चे अर्थ में भारतीय संस्कृति (श्रमण संस्कृति) का अनुयायी "श्रमेण लोकांस्तपसा पिपति" होकर श्रमण शब्द का अधिकारी हो सकता है अर्थ 11-5-4 (सूक्ति त्रिवेणी) (ब्रहमचारी अपने श्रम एवं तप से लोगों की "समे य जे सव्वपाण भूतेषु से हु समणे" अथवा विश्व की रक्षा करता है।) प्र. व्या. 2-5 यदि आज मानव इस बहुअर्थी श्रम के सिद्धांत जो समस्त प्राणियों के प्रति समभाव रखता को जीवन में साकार रूप दे दे तो समाज एवं है वस्तुत: वही श्रमण है । : : कब वे दिन दिखेंगे :: श्री मंगल जैन 'प्रेमी' जबलपुर पानी और दूध घनिष्ठ मित्र मिलकर एक रूप होते हैं, एक दूसरे के अनुरूप होते हैं, अग्नि पर तपते समय(दुखों को झेलते समय) पानी दूध के साथ... सच्ची मित्रता निभाता है, स्वयं वाष्पीकृत हो उड़ता" पर दूध को जलने से बचाता है, दूध मित्रता का" बोध कराता है. पानी को उड़ते देख, अपने से विलग होते देख, उफना उठता है, मित्र को रोकने पातुर हो उठता है, तब पानी के चंद छींटेदूध का उफान शांत करते हैं, जैसे मित्र, मित्र सेगले मिलते हैं, तब लगता है" कब दिन वे दिखेंगे? जब मानव, मानव के मित्र बनेंगे ? 2-32 महावीर जयन्ती स्मारिका 17 www.jaineli Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मेला 1976 सभा की कार्यकारिणी के सदस्यों की संगीत कुर्सी प्रतियोगिता का एक दृश्य महिलाओं की संगीत कुर्सी प्रतियोगिता का एक दृश्य बालकों की जलेबी दौड का एक दृश्य vate & Rersonal use Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डा० पाठक उन अध्ययनशील अजैन विद्वानों में से एक हैं जिन्होंने भगवान महावीर पर शोध प्रबन्ध लिखकर पी. एच. डी. की डिग्री प्राप्त की हैं । अपना यह शोध प्रबन्ध प्रापने मुद्रित भी करा दिया है। प्रस्तुत लेख में भगवान महावीर सम्बन्धी कुछ मूर्तिलेखों का और शिलालेखों परिचय प्रस्तुत करते हुए ऐसे लेखों के उजागर करने की आवश्यकता प्रतिपादित की है। वास्तव में जैन मूतिलेखों का इतिहास की दृष्टि से बहुत बड़ा महत्व है । भारतीय इतिहास को कई विलुप्त कडियां इससे जोडी जा सकती हैं । खेद है इस महत्वपूर्ण कार्य की भोर समान ने नहीं के बराबर ध्यान दिया है। -प्र० सम्पादक. भगवान महावीर :मतिलेखों व शिलालेखों में डा० शोभनाथ पाठक, मेघनगर सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह प्रोर ब्रह्म मथुरा के कङ्काली टीले की खुदाई में महा. चर्य के सम्बल से समाज को संवारने वाले २४वें वीर से सम्बन्धित अनेक · मतियां मिली हैं। तीर्थकर भगवान महावीर की लोक व्यापकता महावीर के जन्म वृत्तान्त का विवेचन प्लेट नं. १५ को प्रांकना आसान नहीं है । भारतीय जन-जीवन की मूर्ति से होता है जिस पर विशेष प्रकाश में समाविष्ट उनकी समष्टिगत गरिमा को कला- डा. बूहलर ने डाला है। इसी प्रकार वर्धकारों ने अपने प्रान्तरिक उफान के छलकाव को मान के साधुत्व जीवन पर प्रकाश प्लेट नं. 17 विविध मूर्तिलेखों व शिलालेखों के रूप में उकेर (XVII) से पड़ता है जिसमें वे उपदेश देते हुए कर उजागर किया है, जिसका संक्षिप्त विवरण वताये गये हैं। मूर्ति में तीन श्रोताओं का स्पष्ट यहां प्रस्तुत किया जा रहा है । प्राभास होता है । महावीर की हाथ उठाये हुए मुद्रा-गांभीर्य-सत्यशील की द्योतक मानो पांचों मूर्तिलेखों में महावीर की महत्ता शतधा महाव्रतों को उगल रही है। इसी मूर्ति के साथ होकर प्रस्फुटित हुई है । अतीत के उथल पुथल से अर्थात् प्लेट नं० 17 के समीप महावीर अन्य हमारी यह थाती अस्त-व्यस्त हो गई, पर सज. तीन तीर्थ करों के साथ बड़ी बारीकी से शान्त गता के साथ खोजी गई कुछ उपलब्धियां अद्वितीय मुद्रा में उकेरे गये हैं। दिल्ली संग्रह के क्र. 48. हैं। मूति रूप में तराशी गई महावीर की प्रतिमा 413 की महावीर प्रतिमा भी अनूठी है। देश के कोने-कोने में यत्र-तत्र बिखरी पड़ी है, भाजपावश्यकता है शोध व उत्खनन के आधार कंकाली टीले से महावीर की एक प्रति पर उसे उजागर करने की। हां उक्त माधार सुन्दर प्रतिमा लगभग 53 ई. पू. की मिली है। पर कुछ उपलब्धियों का संक्षिप्त विवरण यहां मथुरा संग्रहालय की महावीर प्रतिमा क्र. 2126 प्रस्तुत है । जो 9 इञ्च ऊंची एक पीठिका पर प्रतिष्ठित है, महावीर जयन्ती स्मारिका 77 2-33 Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्यधिक शान्त मुद्रा में दर्शकों को मोह लेती है। प्रतिमा तथा दूसरी पीठिका पर धातु की पद्मासन इसके पादपीठ में खुदे हुए अधूरे लेख में वर्तमान प्रतिमा अत्यधिक प्राकर्षक है। दक्षिण में अनेक नाम स्पष्ट है, किन्तु समय निश्चित नहीं आकर्षक महावीर की प्रतिमाए प्राप्त हुई हैं। हुप्रा है। दमोह मध्यप्रदेश की महावीर प्रतिमा प्रत्य__ महावीर की मूर्तियों में उनका प्रतीक सिंह धिक पाकर्षक है। म. प्र. के अन्य भागों में भी भी यह पहचान कराता है कि यह महावीर प्रतिमा तथा देश के कोने-कोने में महावीर की प्राचीनतम ही है कंकाली टीले से प्राप्त प्लेट क्र. LXXXV मूर्तियां शोध का विषय बनी हुई हैं। इन सबका की प्रतिमा बिना सिंह प्रतीक के बरबस ही पार• समन्वित संग्रह तैयार कराने की आवश्यकता है। खियों को असमंजस में डाल देती है। कङ्काली की प्लेट क्र. LXXXVII की मूर्ति जो बिना सिर की शिलालेखों में महावीर है, इसके हाथों की भाव मुद्रा से स्पष्ट हो जाता पाषाण शिलाओं में महावीर कथा के अनेक है कि यह महादीर की मूर्ति है। इसी प्रकार भाव संजोये गये हैं। यहां प्रमुख शिलालेखों पर प्लेट क्र.XC तीन तीर्थ करों की प्रतिमा में मध्य- प्रकाश डाला जा रहा है। हाथीगुम्फा के शिलावाली सिंह प्रतीक संजोये महावीर महत्ता को लेख इस क्षेत्र में अग्रगण्य है । एक शिलालेख में उजागर करती है। खारवेल के शारीरिक सौन्दर्य की तुलना महावीर तेईस तीर्थ करों से घिरी हुई कङ्काली टीले के सौन्दर्य से की गई है।" के प्लेट क्र. XCIV की महावीर प्रतिमा अत्यधिक बाड़ली (राजस्थान) से प्राप्त महावीर विष. सुधर सलोनी है। मथुरा के कङ्काली टीले यक शिलालेख अति प्राचीन है जिसे काशीप्रसाद से प्राप्त महावीर की अनेक पद्मासन मूर्तियां जायसवाल ने 374ई० पू० का माना है। 10 अत्यधिक आकर्षक हैं । यहां पुरातत्व का पर्याप्त राजगृह के मणियार मठवाले शिलालेख में यद्यपि भण्डार है। महावीर का उल्लेख नहीं है, परन्तु उसका संबंध भारत कला भवन वाराणसी में संग्रहीत उनसे अवश्य है । महावीर का प्रथम उपदेश विपुल क्र. 161 की मूर्ति जो ध्यान मुद्रा में पासीन है, पर्वत पर हुमा था, जहां पर प्राप्त एक शिलालेख और पीठिका में धर्मचक्र तथा उसके दोनों प्रोर सिंह पूर्ण तो नहीं है किन्तु उसका निम्न भाग विचारहैं, उनके गांभीर्य भाव को उजागर करती है 16 रणीय है जो इस प्रकार है। उड़ीसा से प्राप्त महावीर की, ऋषभदेव के साथ जा श्रेणिक" इससे स्पष्ट खडी प्रतिमा प्रथम व अन्तिम तीर्थ कर की गरिमा होता है कि यह राजा श्रेणिक का महावीर के पर प्रकाश डालती है। समवशरण में जाने से सम्बद्ध है। प्राचीनकाल में भगवान महावीर की वीतराग कङ्काली टीला मथुरा से अनेक महावीर विषमूर्ति का पर्याप्त प्रचार था, यह तथ्य यक शिलालेख प्राप्त हुए हैं जिस पर उनकी स्तुतियां हाथी गुम्फा, खण्डगिरि, उदयगिरि आदि की महा- की गई हैं ।।। प्राडर (धारवाड़) के कीर्तिवर्मा वीर प्रतिमानों से स्पष्ट होता है। कागली जि. प्रथम के शिलालेख में महावीर को लक्ष्यकर मंगलाबेलारी से प्राप्त महावीर की खड्गासन (खड़ी) चरण किया गया है। 2-34 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानसाले के (1103) ई० चालुक्य सामन्त राज्याध्यक्ष श्री सुभट प्रादि ने महावीर की वार्षिक सान्तारदेव तैल जो भगवान पार्श्व के वंश में जन्मे पूजा व रथयात्रा के प्रसंग में उत्कीर्ण कराया था।" थे. उनके शिलालेख में महावीर व गौतम गणधर का उल्लेख है ।12 श्रवण वेलगोल के सिद्धरवस्ती के स्तम्भ लेख में महावीर का स्मरण किया गया है यथाः लगभग 1209 ई० के रहवंश के राजा लक्ष्मी वीरो विशष्टांम विनयायराती देव की रानी चन्दिकादेवी ने, अपने प्रसाध्य रोग से मिति लोकेरमिवष्टन्तेयः । मुक्ति पाने की कामना से, भगवान महावीर का निरस्तकम्मा निखिलार्थवेदी एक मन्दिर बनवाया तथा उसमें महावीर की मूर्ति पायादसों प्रश्चिम तीर्थ नाथिः । प्रतिष्ठित कर नित्य प्राराधना करती। महावीर तस्याभवन सदसि वीरः जिनस्य के प्रति असीम श्रद्धा व भक्ति के परिणामस्वरूप सिद्ध सप्तद्धयो गणधरा............ धै रोग मुक्त हो गई।13 ये धारर्यान्त शुभ दर्शन भीनमाल में सन् 1277 ई० का एक स्तम्भ बोध वृत्त मिथ्यात्रयादपि.. लोख जयकूप झील के उत्तरी किनारे पर है, जिसमें देश के कोने-कोने में महावीर विषयक अनेक महावीर के श्रीमाल नगर में पाने का उल्लेख है ।14 मूर्ति व शिलालेख अभी प्रतल के गर्भ में उजागार इस ले रा को कायस्थों के नंगमकुल के वाहिका होने की बाट जोह रहे हैं । 1. "The Jain stupas and other Antiquities of Mathura" (By V. A. Smith. Plate XVIII Page 25-26) 2. वही प्लेट XVII पृष्ठ 24 3. 'नवनीत' मासिक बम्बई जून 1973 पृष्ठ 78 4. Jain stupa and other Antiquities of Mathura Page. 46 Page 52 6. नवनीत मासिक बम्बई जून 1973 पृष्ठ 78 7. प्रिन्स अल्वर्ट एण्ड विक्टोरिया संग्रहालय, लंदन 8. पहिंसा वाणी, अप्रेल-मई, 1956 9. i. e. one who like (Prine) Vardbman in his boy hood. JBORS, Vol XIII 1927 P. 224, K.P.J. 10. जनल प्रांव दी विहार एण्ड उड़ीसा रिसर्च सोसायटी भा. 16 (1930) 11. 'नमो अरहन्तो वर्तमानम' जैन शिलालेख संग्रह भाग 2 12. "वर्द्धमान स्वामिगल तीर्थवत्ति........पूर्व पृ. 369-370 13. इन्सऋप्सन्स इन नार्दर्न कर्णाटक पृ. 15 14. यः पुरात्र महास्थाने श्रीमाले सुसमागतः । सदेव श्री महावीर.............. 15. दी गजेटियर माफ दी बम्बई प्रेसीडेन्सी, भाग 1, खंड 1, पृष्ठ 480 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 2-15 Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक सत्य का द्वार 2-36 - श्री भवानीशंकर, जबलपुर एक दृष्टि है जिसमें दृश्य सभी चलते हैं. एक हृदय है जिसमें सुख-दुख सब पलते हैं. एक प्राइना है जिसमें हर बिम्ब उभरता. एक बिन्दु है जिसमें सिन्धु सभी ढलते हैं. एक लहर है जिसमें दुनिया लहराई है. एक सतह है जिसमें असीम गहराई है. एक बूंद है जो हर प्यास बुझा देती है. एक किरण है जो सारे तम पर छाई है. एक सत्य का द्वार युगों से खुला हुआ है. एक प्रारण सबकी साँसों में घुला हुआ है. लेकिन हम सब भूल गए हैं उस दीपक को जो कि हमारे ही कमरे में जला हुआ है. हम अतृप्तियों को जीते हैं जीवन-जल में. हम डूबे रहते हैं आने वाले कल में. कागज के फूलों का है विश्वास हमारा. हम सुख की सुगन्ध अनुभव करते हैं छल में. मृगमरीचिकाओं में शान्ति नहीं मिलती है. विश्वासों की उम्र यहां तिल-तिल जलती हैअंधकार के पार द्वार खोलो प्रकाश का सुबह जहां विस्तार दिवस का ले चलती है। महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खारवेल का हाथी गुम्फा वाला लेख जैन इतिहास की दृष्टि से ही नहीं भारतीय इतिहास की दृष्टि से भी बड़ा महत्वपूर्ण । यह अब तक प्राप्त शिलालेखों में प्राचीनतम है। विद्वानों को इसके ठीक-ठीक पढ़ने में हों सौ वर्ष का दीर्घ काल लगा । धन्य हैं वे लोग जिन्होंने इतना श्रम साध्य कार्य सम्पन्न किया । उसी महत्वपूर्ण लेख की संस्कृत छाया और हिन्दी अनुवाद भी नीरज श्रौर डॉ. अग्रवाल ने मिल कर बड़े परिश्रम से तैयार किया जिसे पाठक स्मारिका के गर्ताांक में पढ़ चुके हैं। उसी कड़ी में यह निबन्ध है । विद्वान् लेखकों ने कड़े परिश्रम द्वारा कई पुष्ट प्रमाणों से खारवेल का राज्यारोहण काल ईसा पूर्व प्रथम शती के अन्तिम चरण में 20 ईसा पूर्व के आसपास सुनिश्चित किया है। प्र. सम्पादक खारवेल की तिथि * श्री नीरज जैन, एम. ए., तथा डॉ. कन्हैयालाल अग्रवाल, सतना दो हजार वर्ष प्राचीन हाथीगुम्फा प्रभिलेख खण्डगिरि उदयगिरि पर्वत के दक्षिण की श्रोर लाल बलुवे पत्थर की एक चौड़ी प्राकृतिक गुहा में उत्कीर्ण है । इसमें सत्रह पंक्तियां हैं। यह प्रभिलेख पहली बार स्टलिंग द्वारा 1820 ई० में प्रकाश में आया । तब से 1927 ई० तक इसके संशोधित पाठ समय-समय पर प्रकाशित होते रहे । इस प्रकार पुरातत्त्ववेत्ताओं को विवेच्य प्रभिलेख पढ़ने और समझने में लगभग एक शती ( 1820 ई० से 1927 ई०) का दीर्घकाल लगा । इस अभिलेख में कलिंग चक्रवर्ती जैन सम्राट खारवेल के व्यक्तित्व और शासनकाल की घटनाओं का विस्तृत परिचय दिया गया है । इसकी एक प्रमुख विशेषता यह है कि इसमें खारवेल के शासन के प्रतिवर्ष की घटनामों का उल्लेख किया गया है जिसका वर्णन हम महावीर जयन्ती स्मारिका, 1975 में प्रकाशित अपने 'हाथीगुम्फा अभिलेख की विषयवस्तु' शीर्षक लेख में कर चुके हैं। लेख शृंखला की दूसरी किश्त महावीर जयन्ती स्मारिका 196 में 'खारवेल का हाथीगुम्फा प्रभिलेख' शीर्षक से प्रकाशित हुई थी । इस लेख में शिलालेख का मूलपाठ संस्कृतच्छाया और हिन्दी अनुवाद दिया गया था । उसी क्रम में यह तीसरा शोध लेख प्रस्तुत है जिसमें खारवेल की राज्यारोहण तिथि पर विचार किया गया है । प्राचीन भारतीय इतिहास की सम्पूर्ण समस्याओंों में शासकों की तिथियां अत्यन्त विवादास्पद हैं । इसका मुख्य कारण साहित्यिक या पुरातात्त्विक सामग्री में संवत् आदि का उल्लेख न होना ही है । अनिर्णीत तिथियों की इसी श्रृंखला में खारवेल की तिथि भी है। हाथीगुम्फा अभिलेख से खारवेल के जीवनचरित पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है । अभिलेख उसके जीवन की प्रतिवर्ष की महावीर जयन्ती स्मारिका 77 2-37 Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घटनाओं का तो वर्णन करता है किन्तु उसकी राज्यारोहण तिथि के सम्बन्ध में वह मौन है । तो भी, परोक्षरूप से अभिलेख में कुछ ऐसे सन्दर्भ उपलब्ध हैं जिनके आधार पर हम किसी निष्कर्ष तक पहुंच सकते हैं । उक्त सन्दर्भों के पाठ प्रायः सभी विद्वानों ने स्वीकार कर लिये हैं अतः उन्हें प्रसंदिग्ध कहा जा सकता है । ये निम्नांकित हैं 1 1. चौथी पक्ति में 'सातकरिण' का उल्लेख है कि 'उसकी कुछ चिन्ता न करते हुए उसने पश्चिम दिशा की ओर श्राक्रमण करने के लिये अश्व, गज, पैदल और रथवाली एक विशाल सेना भेजी ।' --- 2. बारहवीं पंक्ति में कहा गया है कि 'मगधराज वृहस्पतिमित्र से चरणवन्दना करायी । नन्दराज द्वारा ले जायी गयी कलिंग-जिन ( की प्रतिमा) को स्थापित किया ।' 3. पंक्ति छ: में वर्णन मिलता है कि पांचवें वर्ष में नन्दराज द्वारा 300 वर्षों (ति-वससत) पूर्व बनवायी गयी तृरणसूर्य मार्गीया प्रणाली को नगर (राजधानी) तक लाया ।' उपरिवरिणत ‘सातकरिण' 'वहसतिमित' मौर 'नन्दराज' में से किसी एक की भी पहचान खारवेल की तिथि निश्चित करने में सहायक हो सकती है । श्रतः अब हम उन पर विचार करेंगे सातकरण : हाथीगुम्फा अभिलेख में उल्लिखित सातकरण का अभिज्ञान आन्ध्र सातवाहन वंश के तीसरे शासक सातकरिण प्रथम से किया गया है । इस सातकरिण के सम्बन्ध में निम्नांकित तथ्य विचारणीय है : 1. वह नागनिका के नानाघाट अभिलेख में उल्लिखित सिमुक का पुत्र या भतीजा और दक्खन का राजा था जिसे लेख में 'दक्षिणापथपति' कहा गया है । 2. वह पश्चिम का राजा था और उसकी रक्षा कलिंग नरेश खारवेल ने की थी । 3. वही साँचा अभिलेख का राजा सातकरिंग था । 2 4. पेरिप्लस में उसका उल्लेख हुआ है । 5. वह भारतीय साहित्य में वर्णित प्रतिष्ठान का राजा और शक्तिकुमार का पिता था । 6. वह मुद्राओं का 'सिरि-सात' है । उपरिवति तथ्यों में से तीसरे तथ्य के सम्बन्ध में मार्शल का कथन है कि नानाघाट श्रीर हाथीगुम्फा अभिलेखों में उल्लिखित सातकरण ई० पू० दूसरी शती में हुआ । उस समय सांची पर शुगों का श्राधिपत्य था । श्रतः सांची पर शुंगों का स्वामित्व सम्भव नहीं प्रतीत होता । किन्तु हाथीगुम्फा अभिलेख ई० पू० पहली शती का है, तब तक शुगों का पतन हो चुका था और कण्व वंश वहां शासन कर रहा था । इसी वंश का अन्तिम शासक सुशर्मा सातवाहन वंश के पहले शासक सिमुक द्वारा अपदस्थ कर दिया गया। सिमुक के बाद उसका भाई कृष्ण गद्दी पर बैठा | M उसी का उत्तराधिकारी था । अगर प्रस्तुत सातकरिंग का समय या सिंहासनारोहण तिथि ज्ञात की जा सके तो खारवेल की तिथि की समस्या हल हो सकती है। पौराणिक साक्ष्य से विदित होता है कि 30 राजानों ने महावीर जयन्ती स्मारिका 77 2-38 Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 460 वर्षों तक शासन किया और सातवाहन सत्ता का पतन 225 ई० के लगभग हुआ। प्रतः (460-225)=235 ई० पू० में सातवाहन शक्ति का अभ्युदय हुप्रा और इसी समय उनका पहला शासक सिमुक गद्दी पर बैठा । अतः 235 ई० पू० में प्रथम दो शासकों का शासनकाल (23 + 18) घटाने पर 194 ई० पू० की तिथि शेष बचती है। इसी समय सातकणि प्रथम सत्ता में पाया। किन्तु इस तिथि पर गम्भीर आपत्तियां व्यक्त की गयी हैं। पहली, सातवाहन वंश के सम्पूर्ण शासकों पोर उनकी शासनावधि के सम्बन्ध में सभी पुराण एकमत नहीं हैं । उदाहरणार्थ मत्स्यपुराण में 19 राजामों का उल्लेख किया गया है किन्तु उसमें तीस नाम गिनाये गये हैं। इसी प्रकार अन्य पुराणों की पाण्डुलिपियों में यह संख्या 28 से 31 तक बतायी गयी है। वायु, ब्रह्माण्ड, भागवत और विष्णु सभी 30 शासक बताते हैं, लेकिन 30 नामों का वर्णन नहीं करते । वायु 17, 18 या 19; ब्रह्माण्ड 17, भागवत 23 और विष्णु 22 या 24 और 23 शासकों का उल्लेख करते हैं। प्रार० जी० भण्डारकर का मत है कि लम्बी सूची में ऐसे राजकुमारों का भी नाम सम्मिलित कर लिया गया है जिन्होंने कभी शासन नहीं किया या अगर शासन किया भी तो प्रान्तीय शासकों के रूप में । इसलिये डा० हेमचन्द्र रायचौधरी का कथन है कि यदि सातवाहन वंश में केवल 19 शासक ही हुए थे तथा उनका शासनकाल केवल 300 वर्षों तक ही चला था तो यह स्वीकार कर लेने में कोई प्रापत्ति नहीं होना चाहिये कि सिमुक अन्तिम कण्व राजाओं के समय, या ईसा पूर्व पहली शती में हुपा था। यह भी स्वीकार किया जा सकता है कि सिघुक का शासन तीसरी शती ई० तक उत्तरी दक्खन से समाप्त हो चुका था। दूसरे, पौराणिक कालक्रमानुसार शुगवंश का शासन चन्द्रगुप्त मौर्य के राज्याभिषेक 322 ई० पू० के 137 वर्ष बाद प्रारम्भ हुआ । इस वंश ने 112 वर्ष शासन किया । अन्तिम शुग शासक अपने अमात्य द्वारा अपदस्थ कर दिया गया । इस प्रकार कण्व वंश प्रारम्भ हुआ जिसने 45 वर्ष शासन किया । अन्तिम कण्व शासक सुशर्मा सातवाहन सिमुक द्वारा शासन च्युत कर दिया गया । इस प्रकार (322 - (137+ 112+45)=28 ई० पू०) में सिमुक शासन कर रहा था । यदि यह स्वीकार किया जाय कि सिमुक का राज्यकाल 28-27 ई० पू० में समाप्त हो गया तो सिमुक के उत्तराधिकारी के 10 वर्ष के शासन के बाद सातकरिण प्रथम 17 ई० पू० में सिंहासन पर बैठा । चूकि खारवेल ने दूसरे शासन वर्ष में सातकणि पर प्राक्रमण किया था प्रतः उसकी राज्यारोहण तिथि 20-19 ई० पू० हुई जिसे हम 20 ई० पू० मान सकते हैं । वहसतिमित: अभिलेख से ज्ञात होता है कि बारहवें वर्ष खारवेल ने मगधराज वहस तिमित (वृहस्पति'मित्र) से चरण वन्दना करायी । ई० सन् के पूर्व और पश्चात् की शतियों में निम्नांकित वृहसतिमित नामधारी राजानों ने शासन किया : 1. मोरा अभिलेख' (मथुरा) में वृहस्पतिमित्र की पुत्री यशमिता द्वारा एक मन्दिर निर्माण का उल्लेख है। 2. पमोसा अभिलेख (इलाहाबाद) में प्राषाढ़सेन को वहसतिमित का मातुल बताया गया है । यह अभिलेख उडाक के दस शासनवर्ष का है । 3. कौशाम्बी से प्राप्त मुद्राओं पर दो भिन्न वृहस्पतिमित्रों के नाम मिलते हैं । इनमें से महावीर जयन्ती स्मारिका 77 2-39 Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक का सिक्का दूसरे के द्वारा पुनर्मुद्रित किया गया है । " 4. लखनऊ संग्रहालय में सुरक्षित वृहस्पतिमित्र के सिक्के को पांचाल सिक्कों की श्रेणी बताया गया है 110 5 दिव्यावदान 11 की एक अनुश्र ुति में वृहस्पतिमित्र को प्रशोक के पौत्र सम्प्रति के उत्तराधिकारियों में से एक कहा गया है। 6. वृहस्पतिमित्र एक नवमित्र राजवंश का राजा था जिसने कण्वों के बाद शासन किया 132 4 डा० काशीप्रसाद जायसवाल के अनुसार खारवेल की राज्यारोहण तिथि 182 ई० पू० है । डा० जायसवाल का यह मत मूलतः पुष्यमित्र की वृहस्पतिमित्र के साथ की गयी पहचान पर प्राधारित है । उनके अनुसार वृहस्पति नक्षत्र का अधिपति पुष्य (तिष्य भी ) है । प्रत: वहसतिमित पुष्यमित्र का पर्यायवाची है । 13 डा० रमेशचन्द्र मजूमदार का कथन है कि हाथीगुम्फा अभिलेख मैं उल्लिखित बहसतिमितम या बहुपतिमितम को यदि शुद्ध पाठ मान लिया जाय तो पुष्यमित्र को वृहस्पतिमित्र या वृहस्पति कहा जा सकता, किन्तु पर्याप्त प्रामाणिक सामग्री के अभाव में इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता । इस सन्दर्भ में यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि दिव्यावदान 16 में वृहस्पति या पुष्यमित्र को अलग-अलग बताया गया है और पुष्यमित्र के विरोधी खारवेल की राजधानी राजगृह में स्थित बतायी गयी है 127 6 मोरा और पोसा अभिलेखों के वृहस्पतिमित्रों को एक मानकर यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया है और उनका तादात्म्य मुद्राओं के वृहस्पतिमित्रों से स्थापित किया गया है। एलन 18 ने इस सन्दर्भ में गम्भीर प्रापत्ति करते हुए इसे असम्भव बताया है । प्रायः सभी विद्वान् इस तथ्य से सहमत हैं कि वृहस्पतिमित्र एक नवमित्र राजवंश का शासक था । इस सन्दर्भ में डा० राय चौधरी का कथन है कि "ई० सन् के प्रारम्भ होने के पूर्व की शताब्दी में संभवतः मगध तथा समीपवर्ती भूभागों पर मित्रवंशों का शासन था। जैन ग्रन्थों में बलमित्र और भानुमित्र राजानों का पुष्यमित्र का उत्तराधिकारी कहा गया है। इससे मित्रवंश के शासन का अस्तित्व प्रमाणित होता है । डा० बरूना ने मित्र राजानों की एक सूची तैयार की है। इस सूची में वृहस्पतिमित्र, इन्द्राग्निमित्र, ब्रह्ममित्र, वृहस्पतिमित्र, विष्णुमित्र, वरूणमित्र, धर्ममित्र तथा गोमित्र राजाओं के नाम मिलते हैं । इनमें से इन्द्राग्निमित्र, ब्रह्ममित्र तथा वृहस्पतिमित्र निश्चितरूप से मगध के राज्य से सम्बन्धित थे । शेष कौशाम्बी पौर मथुरा से सम्बन्धित थे । किन्तु इससे यह पता नहीं चलता कि ये मित्रवंशी राजा लापस में या कण्व तथा शुंग वंशों से किस रूप में सम्बन्धित थे ।"19 डा० बरूया 20 उपर्युक्त मत का समर्थन करते हुए कहते है कि ई० पू० पहली शती के मध्य में कण्व शासन की समाप्ति के बाद मगध में नवमित्र वंश ने राज्य किया । इस वंश के इन्द्राग्निमित्र और ब्रह्ममित्र खारवेल के सम कालीन वृहस्पतिमित्र के पूर्वाधिकारी थे । अगर इसे ठीक माना जाये तो खारवेल की तिथि पहली शती ई० पू० के अन्तिम चरण (20 ई० पू० ) में मानी जा सकती है । पवनराज डिमित : अभिलेख की प्राठवीं पंक्ति में ' यवनराज डिमित' पाठ का अनुमान किया गया है। यहां पर कहा गया है कि खारवेल के राजगृह पर प्राक्रमरण करने के समाचार को सुनकर भयवश यूनानी महावीर जयन्ती स्मारिका 77 4-40 Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजा डिमित अपनी सेना तथा वाहन छोड़ कर मथुरा भागने को विवश हुप्रा । डा० जायसवाल इस यवनराज डिमित का तादात्म्य हिन्द-यूनानी शासक यूथोडेमस के पुत्र डेमेट्रियस से स्थापित करते हैं। डा० बनर्जी22 और डा० कोनो23 उपयुक्त पाठ और अभिज्ञान से सहमत है। तो भी, डा० कोनो सन्देह व्यक्त करते हुए कहते हैं कि 'यवन राज' के बाद केवल 'म' प्रक्षर ही स्पष्ट है । अतः 'डिमित' पाठ अनुमान के प्राधार पर ही पूरा किया जा सकता है। डा० टार्न-4 का भी ऐसा ही मत है। अनेक विद्वान जिनमें डा० बरू प्रा25, रायचौधरी26 और सरकार प्रमुख हैं, का मत है कि अभिलेख में ‘डिमित' का उल्लेख नहीं है । डा. नारायण 28 का मत है कि अगर हम 'यवनराज डिमित' पाठ को स्वीकार भी कर लेते हैं, तो भी, हम यूथी डेमस के पुत्र डेमेट्रियस को पहली शती ई० पू० के उत्तरार्द्ध में नहीं रख सकते । अतः खारवेल की राज्यारोहण तिथि निश्चित करने में 'यवनराज डि मित' पाठ से हमें कोई सहायता नहीं मिलती। ति-वस-सत: __ अभिलेख की चौथी पंक्ति में 'ति-वस-सत' पद मिलता है । इस पद का अनुवाद निम्नप्रकार से किया गया है 1. भगवानलाल इन्द्रजी29 इस पद का अनुवाद 'उसने नन्दराज के त्रिवर्षीय सत्र का उद्घाटन किया' करते है। उनकी यह अवधारणा सभी विद्वानों द्वारा अस्वीकार कर दी गयी है । 2. प्रो० लुडर्स30 का मत है कि 'वह नन्दराज द्वारा 103 वर्ष पूर्व बनवायी नहर नगर मे लाया।' 3. जायसवाल मौर बनर्जी31 का कथन है कि 'वह नन्दराज द्वारा 300 वर्ष पूर्व बनवायी नहर राजधानी तक लाया' कालान्तर में उन्होंने प्रभिलेख के पाठ और अनुवाद में संशोधन किया और तब उक्त पद का अनुवाद 300 वर्ष के स्थान पर 103 वर्ष स्वीकार कर लिया। डा० जायसवाल उपयुक्त अवतरण के वर्ष को नन्द संवत् में प्रकित मानते हैं। प्रलबेरूनी ने इस संवत् का उल्लेख किया है। पाजिटर चन्द्रगुप्त मौर्य का राज्याभिषेक 322 ई० पू० में मानते हुए और नंदवंश की समस्त शासनावधि 80 वर्ष उस में जोड़कर 402 ई० पू० में पहले नन्द शासक का राज्यारोहण स्वीकार करते हैं । उनके अनुसार नन्द शासक द्वारा कलिंग में (402 - 103) = 299 ई० पू० में नहर बनवायी गयी। किन्तु यह असंभव प्रतीत होता है । अगर पौराणिक साक्ष्य को मानकर नन्दों की शासनावधि 100 वर्ष भी स्वीकार कर ली जाये तब (322 + 100 - 103)= 319 ई० पू० नहर का निर्माण वर्ष निर्धारित होता है। लेकिन इस तिथि के पूर्व ही चन्द्रगुप्त मौर्य मगध का शासक बन चुका था, प्रत. उपयुक्त तिथि प्राचीन भारतीय शासकों के मान्य कालक्रम के विपरीत होने से स्वीकार नहीं किया जा सकती। राखालदास बनर्जी का मत है कि नहर का निर्माण खारवेल के पांचवे शासनवर्ष के 103 वर्ष पूर्व नन्दवंश के प्रथम शासक के राज्यकाल में हुप्रा । डा० जायसवाल से सहमति प्रकट करते हुए वे कहते हैं कि नन्द संवत् =458 ई० पू० में प्रारम्भ हुमा । अतः नहर का निर्माण (458 - 102)= 355 ई० पू० में कराया गया। यह तिथि चन्द्रगुप्त मौर्य के राज्यारोहण के 33 वर्ष पूर्व की होने के कारण समीचीन हो सकती है। किन्तु इस मत की सबसे बड़ी कमी यह है कि महावीर जयन्ती स्मारिका 77 2-41 Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनर्जी महोदय ने 103 वर्ष का समय खारवेल और नन्दराज के राज्यकालों का अन्तराल न मानकर एक पूर्व प्रचलित संवत् का वर्ष मान लिया है। इस समय इस प्रकार के किसी संवत् के प्रयोग की पुष्टि किसी स्रोत से नहीं होती। अशोक के समान ही खारवेल शासनवर्ष का ही उल्लेख करता है, किसी संवत् वर्ष का नहीं । अतः बनर्जी का कथन स्वीकार नहीं किया जा सकता। हा० रायचौधरी32 का मत है कि 'ति-वस-सत' की व्याख्या पौराणिक कालक्रमानुसार सही प्रतीत होती है । मौर्यों ने 137 वर्ष शंगों ने 112 वर्ष और कण्वों ने 45 वर्ष शासन किया । इस प्रकार कुल अवधि 294 वर्ष हुई जिसे 300 वर्ष माना जा सकता है । अगर पद का अर्थ 103 वर्ष किया जाये तो खारवेल का राज्यारोहण नन्दराज के (103 - 5) = 98 वर्ष बाद या 322 -98 = 224 ई० पू० में हुआ । किन्तु इस समय कलिंग पर मौर्यों का शासन था। इसलिये ति-वस-सत का अर्थ 103 के स्थान पर 300 वर्ष करना उचित है । डा० सरकार33 का ऐसा ही मत है । डा० जायसवाल ने भी इस व्याख्या को स्वीकार किया था, लेकिन उन्होंने खारवेल को पुष्यमित्र शुग का समकालीन सिद्ध करने के लिये नन्दराज का अभिज्ञान शैशुनाग नरेश नन्दिवर्द्धन से किया था । इस नन्दिवद्धन के राज्य में कलिंग सम्मिलित नहीं था। पुराणों से ज्ञात होता है कि महापद्मनन्द ही पहला शासक था जिसने कलिंग पर विजय प्राप्त की। उसने (322 + 12)= 334 ई० पू० तक शासन किया। प्रतः (334-300)=34 ई० पू० खारवेल की राज्यारोहण तिधि हुई । चूंकि इसके पूर्व हम खारवेल की तिथि 20 ई० पू० मान चुके हैं, अतः यहां भी हम उसी तिथि को स्वीकार करते हैं। इस तिथि के आधार पर खारवेल का कालक्रम निम्न प्रकार होगा -- जन्म - 44 ई० पू० (24+16+ 8) युवराज- 28 ई० पू० (20+ 8) राज्याभिषेक-- 20 ई० पू० वाह्य साक्ष्य खारवेल की तिथि निश्चत करने के सम्बन्ध में कुछ वाह्य प्रमाण भी उपलब्ध हैं। ये निम्नांकित हैं-- प्रभिलेख की लिपि: विद्वानों का मत है कि हाथीगुम्फा अभिलेख की लिपि संभवत नानाघाट अभिलेख और हेलियोडोरस के बेसनगर गरुड़ स्तम्भलेख को परवर्ती है 184 ब्राह्मी लिपि के विकास के जो सात चरण बताये गये हैं उनमें से पांचवें चरण का प्रतिनिधित्व बेसनगर गरुड़ स्तम्भलेख, नागनिका के नानाघाट अभिलेख और धनभूति के भरहुत अभिलेख से होता है । छठवें चरण का प्रतिनिधित्व हाथीगुम्फा अभिलेख करता है ।35 राखालदास बनर्जी36 का मत है कि नानाघाट अभिलेख की लिपि क्षत्रप पोर प्राद्य कुषाण शासकों की लिपि से मिलती है । रेप्सन37 का कथन है कि नानाघाट अभिलेख का 'द' मक्षर एक मुद्रालेख के 'द' अक्षर के समान है । इस मुद्रा का समय द्वितीय या पहली शती ई० पू० है । बुहलर38 का भी मत है कि नानाघाट अभिलेख गौतमीपुत्र सातकणि प्रौर उसके पुत्र पुलुभावी के 100 वर्ष पहले का प्रतीत होता है । एन० जी० मजमदार अभिलेख की लिपि का समय 100-75 ई० पू० निर्धारित करते हैं। गौरीशंकर हीराचन्द प्रौझा40 का कथन है कि हाथीगुम्फा अभिलेख में अक्षरों के सिर 2-42 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनाने का यत्न किया गया है, परन्तु वे वर्तमान नागरी अक्षरों के सिरों जैसे लम्बे नहीं अपितु छोटे हैं । ये सिरे पहले पहल इसी लेख में मिलते हैं । 'भि' और 'लिं' में प्रयुक्त 'इ' की मात्रा भरहुत लेख के सदृश है और 'बी' में 'ई' की मात्रा के दाहिनी मोर की खड़ी लकीर को भी वैसा ही रूप दिया गया है। 'ले' में ल के अग्रभाग को दाहिनी मोर नीचे झुकाया गया है और 'गो' में 'पो' की मात्रा नानाघाट प्रभिलेख के 'गो' की मात्रा की तरह व्यञ्जन के ऊपर उसे स्पर्श किये बिना ही गाडी लकीर के रूप में बनायी गयी है । पहले लिपि के आधार पर नानाघाट अभिलेख का समय द्वितीय शती ई० पू० निर्धारित किया गया था । अब विद्वानों ने यह स्वीकार कर लिया है कि इस लेख की तिथि बाद की है ।41 डा० सरकार का मत है कि हाथीगुम्फा के व, म, प, ह भोर य प्रक्षरों के कोणीय स्वरूप और सीवे प्राधार से इस प्रभिलेख का समय प्रथम शती ई० पू० का अन्तिम चरण प्रतीत होता है। अभिलेख को लेखन पद्धति और भाषा शैली : राजनीतिक दृष्टि से प्राचीन भारतीय अभिलेखों में प्रशस्तिपरक लेख प्रत्यन्त महत्वपूर्ण है । इसमें राजा का नाम, वंशावली, प्रारम्भिक जीवन, विजय, शासनप्रबन्ध और उसके व्यक्तिगत गुणों का वर्णन होता है । इन्हें दो भागों में विभक्त किया गया है-- शुद्ध प्रशस्ति और मिश्रित प्रशस्ति । शुद्ध प्रशस्ति का पहला उदाहरण खारवेल का हाथीगुम्फा अभिलेख और मिश्रित प्रशस्ति का रूद्रदामा का गिरनार प्रस्तर प्रभिलेख (150 ई०) है । खारवेल से पूर्व के अनेक शासकों के अभिलेख प्राप्त हुए हैं । यद्यपि अशोक के अभिलेखों में प्रशस्ति के सभी महत्त्वपूर्ण तत्व विद्यमान हैं तथापि उनमें उद्देश्य, शैली और सजीवता का प्रभाव है । मौर्यों के बाद शुगों का शासन प्रारम्भ हुमा । उनके शासनकाल का कोई भी प्रशस्ति अभिलेख उपलब्ध नहीं है । खारवेल के बाद रूद्रदामा का ही अभिलेख प्राप्त हुआ है जो मिश्रित प्रशस्ति प्रकार का है । अगर यह माना जाय कि शुद्ध प्रशस्ति के विकास में 100 बर्ष और फिर मिश्रित प्रशस्ति के लिये 50 वर्ष लगे तो यह कुल समय 150 वर्ष का हो जाता है । अत: शुद्ध प्रशस्ति के विकास का समय भी पहली शती ई० पू० का अन्तिम चरण निर्धारित किया जा सकता है। सम्पूर्ण प्रभिलेख अपभ्रंश प्राकृत भाषा में है जिसमें अर्धमागधी और जैन ग्रन्थों में प्रयुक्त प्राकृत का पुट है । डा० बरूपा का कथन है कि प्रस्तुत अभिलेख न तो पालि त्रिपिटक शैली का है और न ही प्राद्य जैन आगम, वेद, ब्राह्मण, प्राचीनतर उपनिषद, कल्पसूत्र, नियुक्त और प्रातिसारव्य का । जहाँ तक इसकी गद्यशैली का सम्बन्ध है वह भारतीय साहित्य के इतिहास के मील का पत्थर है । अभिलेख की रचना में प्रोज गुण से युक्त काव्य शैली का विकास परिलक्षित होता है जिससे इसके परवर्ती होने की पुष्टि होती है 144 उदयगिरि-खण्डगिरि का कला और स्थापत्य : खारवेल की तिथि निश्चित करने में उसके शासनकाल में निर्मित कला तथा स्थापत्य के नमूनों से कुछ सहायता मिल सकती है । उदयगिरि-खण्डगिरि की गुहामों की तिथि निर्धारण करते हुए सर जान मार्शल45 हाथीगुम्फा को सभी गुफामों में प्राचीनतम मानते हैं । यह प्रसमान प्राकार की एक प्राकृतिक गफा है, जिसकी पाव भित्तियों को छेनी से अकोर कर संवारा गया है। इतनी महत्त्वहीन गुफा के शीर्ष पर ही खारवेल के अभिलेख की विद्यमानता से अनुमान होता है कि गुफा महावीर जयन्ती स्मारिका 77 2-43 Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का निर्माण स्वयं सम्राट द्वारा कराया गया था। तिथिक्रम के अनुसार दूसरी गुफा मंचापुरी है । यह दो मंजिली है । निचली मंजिल में स्तम्भयुक्त बरामदा और उसके पीछे कोठरियो बनी हैं। इसी गुफा की ऊपरी मंजिल में खारवेल की रानी का लेख है और निचली मंजिल में वक्रदेव और वडुख के लेख मंकित हैं । इससे अनुमान होता है कि ऊपरी मंजिल पहले बनायी गयी थी। इन दोनों गुहामों की कला में भरहुत, बोधिगया और सांची की कला का विकसित रूप प्रतिबिम्बित होता है ।46 प्रो० घोष" का मत है कि भरहुत स्तूप के तोरणद्वार पर उत्कीर्ण अभिलेख पुष्यमित्र शुग के समय से एक शती बाद का या ई० पू० पहली शती के अन्तिम चरण का है। अतः खारवेल की तिथि भी इसी समय रखी जा सकती है। शिशुपालगढ़ उत्खनन : उदय गिरि-खण्डगिरि से 10 किलोमीटर दक्षिण-पूर्व में शिशपालगढ़ को अधिकांश विद्वान खारवेल की राजधानी कलिंगनगर मानते हैं।48 हाथीगुम्फा अभिलेख से इस तथ्य पर कोई प्रकाश नहीं पड़ता कि कलिंगनगर उक्त पहाड़ियों से कितनी दूरी पर स्थित था । इन पहाड़ियों पर भिक्षुमो के निवास के लिये गुहाएं बनाने का प्रयोजन यह प्रतीत होता है कि उनकी निर्जन और एकान्त पृष्ठभूमि साधु जीवन के लिये उपयुक्त वातावरण प्रदान करती थी। साथ ही यह कलिंग राजधानी से अधिक दूर न थी जिससे मुनिगण वहाँ सुविधापूर्वक धर्मप्रचार और आहार आदि के लिये जा सकते थे और उनके भक्तगण मुनियों के प्रति अपनी भक्ति जताने हेतु इस पवित्र साधनास्थल तक सुविधापूर्वक पा सकते थे। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कलिंगनगर का शिशुपालगढ़ से किया गया अभिज्ञान समीचीन प्रतीत होता है। प्रभिलेख की तीसरी पंक्ति में कहा गया है कि खारवेल ने "प्रथम शासनवर्ष में, तूफान से गिरे हुए (राजधानी के) गोपुर और प्राकार निवास का जीर्णोद्धार कराया।" शिशुपालगढ़ के मतिरिक्त और कोई प्राकार युक्त नगर खण्डगिरि उदयगिरि के समीप नहीं मिला । शिशुपालगढ़ उत्खनन से ज्ञात होता है कि यहां पर तीसरी दूसरी शती ई० पू० में नगर रक्षा के लिये एक दृढ़ दीवार का निर्माण किया गया था। यह दीवार चार चरण में पूर्ण हुई थी। इसमें से तीसरे चरण में निर्मित दीवार 3 से 4 फीट तक मोटी है जिससे ज्ञात होता है कि इस बार इसकी सुदृढ़ता पर विशेष ध्यान दिया गया था। यह चरण पहली शती ई. के मध्य का प्रतीत होता है। दीवार का तृतीय चरण खारवेल के प्रथम शासनवर्ष में पूर्ण हुआ होगा । अतः इससे भी खारवेल का राज्यारोहण काल प्रथम शती ई० पू० का अन्तिम चरण समर्थित होता है । इस प्रकार खारवेल की तिथि से सम्बन्धित अन्तरंग और वाह्य साक्ष्यों पर विचार करके हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि खारवेल का राज्यारोहण ई० पू० प्रथम शती के अन्तिमचरण में 20 ई० पू० के प्रासपास ही हुआ। 1. प्रा० भा० रा० इ०, पृ० 365-68 2. ए गाइड टु सांची, पृ. 13 3. डा० क० ए०, पृ० 37 4. बही, पृ० 36 2.44 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5. 6... 7. 8. 9. 10. 11. 28. 29. 30. प्रा० भा० रा० इ०, पृ० 357 पर उद्धृत प्रा० भा० रा० इ०, पृ० 358 बोगल, ज० रा० ए० सो०, 1912, पृ० 120 1 ए० इं०, खण्ड 2, पृ० 241 दे० एलन, के० क्वा० ० इ, पृ० XCVI और 150; ज० न्यू० सो० ई० खण्ड 4, go 143 12. 13. 14. 15. 16. 17. 18. 19. 20. 21. 22. 23. एक्टा ओरियण्टलिया खण्ड 1, पृ० 27 24. पो० बै० इ० परिशिष्ट 5, पृ० 458 25. प्रो० ब्रा० इं०, पृ० 17-18 26. ए० ई० पू० पृ० 208 1 27. पो० हि० ए० इ o 31. के० क्व० ० इ. पृ० CXVII; स्मिथ, के० वा० ई० म्यु०, खण्ड 1, एलन, To 185 पृ० 433; ज० बि० उ०रि० सो०, खण्ड 2, पृ० 96; वही, खण्ड 3, पृ० 480; प्रो० ब्रा० ई०, पृ० 273 पोलिटिकल हिस्ट्री, पृ० 352-53 ज० बि० उ०रि० सो०, खण्ड 3, पृ० 236 - 45; सांख्यायन गृह्यसूत्र 1.26.6 इ० ए०, 1919, पृ० 189; दे० एलन, के० क्वा० ऍ० इं०, पृ० XCVIII इ. हि० क्वा०, 1929, पृ० 594 तथा प्रागे पृ० 433-34 इं० हि० क्वा०, 1930, पृ० 23 के० क्वा० ऍ इं० पृ० XCVII-VIII 0 प्रा० भा० रा० इ०, पृ० 352-53 गया। ऐण्ड बुद्धगया खण्ड 2, पृ० 74 तथा श्रागे ० बि० उ०रि० सो०, खण्ड 6, पृ० 5; वही खण्ड 13, पृ० 228 वही टिप्पणी 1; ए० ई०, खण्ड 20, पृ० 76, 84 प्री० बै० इं०, पृ० 43 इं० श्रो० कां० प्रो०, ( लाइडन), 1884, पृ० 135 To 420 ए० ६०, खण्ड 10, क्र ं०, 1345, पृ० 161 ज० बि० उ०रि० सो०, खण्ड 3, पृ० 425 तथा प्रागे; ए० ई० खण्ड 20, पृ० 11 तथा भागे महावीर जयन्ती स्मारिका 77 2-45 Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38. 32. प्रा० भा० रा० इ०, पृ. 201 33. ए. ई० यू०, पृ० 216 34. सरकार, से० ई०, खण्ड 1, पृ० 213-14, टिप्पणी । ___ मे० प्रा० स. बं०, खण्ड 1, पृ० 10-15; इ० हि० क्वा०, 1929, पृ० 601 तथा मागे 36. मे० प्रा० स० बं०, खण्ड 11, भाग 3, पृ० 145 37. के० प्रा० क्वा०, पृ० LXXVII प्रा० स० वे० इ०, सण्ड 5, पृ० 65 39. मानूमेण्टस प्राव सांची खण्ड ।, पृ० 277 40. प्राचीन लिपिमाला, पृ० 52 41. प्रा० भा० रा० इ०, पृ० 354-55; चन्दा, मे० प्रा० स० ई०, क० 1 से० ई०. खण्ड 1 पृ० 213, टि० 1 43. प्रो० बा० ई० पृ० 172 44. से० इ० खण्ड ), पृ० 214 टिप्पणी 45. के० हि० ई०, खण्ड 1, पृ० 638-42 46. प्रो० प्रा० ई०, पृ. 307 तथा प्रागे 47. प्रो० इ० हि० कां० 1943, पृ. 109-16 ऐश्यंट इण्डिया, खण्ड 5, पृ० 66 तथा मागे 49. वही, पृ० 74 48. -2-46 महावीर जयन्ती स्मारिका 11 Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ भगवान् महावीर के समय वैदिक विद्वान् बोलचाल तथा प्रन्थ रचना में संस्कृत का प्राश्रय लेते थे जिससे कि जन साधारण धर्म का मर्म न समझ सकें और जनता के कर्मकाण्ड प्रादि में पुरोहितों का एकाधिपत्य कायम रहे। भगवान् महावीर और बुद्ध ने इस एकाधिकार को समाप्त करने और जनता तक धर्म का रहस्य समझाने के लिए उस समय के जनसाधारण में प्रचलित बोलचाल की भाषा प्राकृत का सहारा लिया । धर्मग्रंथ भी इसी भाषा में लिखे गए । आज की हिन्दी तथा अन्य भाषाओं में प्रचलित बहुत से शब्दों का प्रादि स्रोत प्राकृत में प्राप्त होता है । हिन्दी के विकास क्रम को भले प्रकार हृदयंगम करने के लिए प्राकृत भाषा का अध्ययन प्रत्यन्त आवश्यक है। -प्र० सम्पादक भगवान महावीर और बुद्ध की परम्परा में जन-भाषाओं का विकास * डा. प्रेम सुमन जैन, उदयपुर ईसा पूर्व छठी शताब्दी में मानव ने विभिन्न चाहते थे। प्रगुत्तर निकाय के तिक-निपात के क्षेत्रों में प्रात्म-निर्भरता और स्वतन्त्रता प्राप्त की एक सुत्त में उन्होंने कहा भी है कि तथागत द्वारा थी। लोकतन्त्र के विकास के साथ-साथ उस समय उपदिष्ट धर्म खुला हुमा ( भाषा आदि के बन्धन धर्म और भाषा का क्षेत्र भी व्यापक हुअा था। से रहित) ही चमकता है, ढंका हुमा नहीं ।। उस समय के प्रमुख साधक और चिन्तक भगवान् मज्झिम निकाय के किन्ति सुत्त से ज्ञात होता है महावीर तथा बुद्ध ने समग्र समाज को नैतिक- कि भगवान बुद्ध का जोर शब्दों पर नहीं था, अर्थों उत्थान के पथ पर आगे बढ़ाने का प्रयत्न किया पर था। न उन्हें संस्कृत से द्वेष था न मागधी था। अतः उन्होंने अपने धर्म का प्रचार जन- से मोह। वे केवल ऐसी जीवित भाषा में उपदेश सामान्य की ऐसी भाषा में किया जो उस समय देना चाहते थे जिसे लोग आसानी से समझ सकें। देश के बहुभाग में प्रचलित थी। इस भाषा को इसलिए उन्होंने मागधी को अपने उपदेशों का बौद्ध एवं जैन प्रागमों में मागधी कहा गया है, जो माध्यम चुना था । मागे चलकर पालि तथा अर्धमागधी के नाम से मगध जनपद की भाषा के प्रति बौद्ध धर्म में जानी गयी है । कोई प्राग्रह नहीं था । भाषा कोई भी, जन-जन के भगवान् बुद्ध का धर्म किसी वर्ग व जाति समझ में प्राने वाली होनी चाहिये । भगवान् बुद्ध विशेष के लिए नहीं था । प्रत वे अपने धर्म के इस बात से परिचित थे कि एक ही वस्तु के लिए उपदेशों को किसी भाषा विशेष में नहीं बाँधना विभिन्न स्थानों की भाषाओं में अलग-अलग शब्द * उड़ीसा में जनवरी 76 में आयोजित अन्तर्राष्ट्रीय बौद्ध एवं जैनधर्म सम्मेलन में प्रस्तुत निबन्ध । महावीर जयन्ती स्मारिका 17 2-47 Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयुक्त होते हैं । अतः उन्होंने भिक्षुनों से कहा था कि अपने जनपद की भाषा के प्रयोग के प्रति ममता न रखकर जहां जैसा प्रयोग चलता हो, वहां उसी के अनुसार बरतना चाहिए । जनभाषात्रों के महत्व के प्रति भगवान् बुद्ध के इस प्रकार के विचार होने के कारण ही बौद्ध धर्म के इतिहास में देश-विदेश की विभिन्न जन भाषाओं का प्रयोग हो सका है। यद्यपि भगवान् बुद्ध के समय में भी जन भाषात्रों को किसी धर्म बिशेष की भाषा मानने में लोगों को श्रापत्ति थी । बौद्ध भिक्षु चमेलु प्रौर तेकुल इस बात से दुखी होते हैं कि नाना जाति श्रीर गोत्रों के मनुष्य अपनी-अपनी भाषा में बुद्ध वचनों को रख कर उन्हें दूषित करते हैं । प्रत बुद्ध वचनों को छान्दस् (वैदिक संस्कृत) में रखने की भगवान् बुद्ध से अनुमति चाहते हैं । किन्तु बुद्ध ऐसा करना दुष्कृत' मानते हैं । वे नहीं चाहते थे कि बुद्ध के उपदेश शिष्ट समुदाय के कुछ लोगों की भाषा में सिमट कर रह जाय । श्रत उन्होंने भिक्षुषों को अपनी अपनी भाषा में बुद्ध वचन सीखने की अनुज्ञा दी थी। भगवान् बुद्ध के इस उदार दृष्टिकोण के कारण ही बौद्ध धर्म जब तक भारत में प्रभावशाली रहा, यहां की जनभाषात्रों को समृद्ध करता रहा है । बौद्ध राजाओं ने भी जनभाषात्रों के महत्व को समझा है । बौद्ध धर्म के सच्चे भक्त होने के कारण वे बुद्ध की वारणी को जन-जन तक पहुंचा देना चाहते थे । इसलिये उन्होंने अपने अभिलेख प्रादि विभिन्न प्रान्तों की जन भाषाओं में प्रचारित किये हैं । अशोक के अभिलेख इस बात के प्रमाण हैं । यद्यपि अशोक के अभिलेखों में पालि भाषा की प्रधानता है, किन्तु उनमें विभिन्न स्थानों की जन- भाषा के तत्व भी स्पष्ट हैं। 8 सांची श्रोर सारनाथ के अभिलेख भी बौद्ध धर्म से प्रभावित हैं, जिनकी भाषा पालि है । बरमा के राजा धम्मचेति का कल्याणी - अभिलेख भी पालि में 2-48 है । इस तरह बौद्ध धर्म के शासक भी भगवान् बुद्ध की विचारधारा से प्रभावित रहे हैं । बौद्ध धर्म में दार्शनिक साहित्य की प्रधानता है । दर्शन की विशिष्ट अनुभूतियों को जनभाषा में प्रस्तुत करने से बहुत से नये शब्दों का भण्डार जनभाषा को प्राप्त हुमा है। पालि भाषा में इस तरह के अनेक शब्द हैं, जो अन्य भाषाओं में नहीं हैं तथा पालि से उन भाषाधों में ग्रहण किये गये हैं । प्राकृत, अपभ्रंश प्रादि जन भाषाओं के साहित्य को समझने के लिए भी पालि की शब्दसम्पत्ति का अध्ययन श्रावश्यक है। क्योंकि पालि का विकास मगध जनपद की अनेक बोलियों के सम्मिश्रण से हुधा है। प्रारम्भ में पालि को मागधी ही कहा जाता था । 10 तथा इस मागधी भाषा को सब प्राणियों की मूल भाषा भी कहा गया है । 11 जो इसके जनभाषा होने का प्रमाण हैं । प्रारम्भ में पालि बुद्धवचन के लिए प्रयुक्त शब्द था, 12 बाद में बुद्धवचन की भाषा को पालि कहा जाने लगा है । भारत में बौद्ध धर्म ने पालि भाषा को अपना कर मगध जनपद में प्रचलित जन-भाषा को समृद्ध किया है । तथा पालि भाषा के साहित्य द्वारा भारतीय साहित्य की अनेक विधानों को पुष्ट किया । बौद्ध धर्म में जनभाषा को अपनाने की परम्परा निरन्तर बनी रही है । जब बौद्ध धर्म भारत के पड़ोसी देशों में गया तो वहां भी पालिभाषा का प्रचार हुआ । किन्तु उन देशों की जनभाषाओं में भी बौद्ध धर्म का पर्याप्त प्रचार हुमा हैं । भारत के दक्षिण में बौद्ध धर्म सर्व प्रथम लंका में गया । लंका में पालि त्रिपिटक के प्रतिरिक्त सिंहली भाषा में निबद्ध त्रिपिटक का भी पर्याप्त प्रचार है । सिंहली भाषा में बौद्ध धर्म के अन्य ग्रन्थ भी वहां लिखे गये हैं । जब यह धर्म बरमा पहुंचा तो वहां की संस्कृति को इसने प्रभावित महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया। बरमी भाषा में बौद्ध धर्म के अनेक ग्रन्थ जैन धर्म में प्रारम्भ से ही लोकभाषानों को हैं । यद्यपि यहां लम्बे समय तक पालि भी बौद्ध महत्त्व दिया जाता रहा है। भगवान् ऋषभदेव साहित्य की भाषा बनी रही है। थाईलैण्ड और एक लोक देवता के रूप में प्रतिष्ठित हुए हैं।17 कम्बोडिया बोद्ध देश कहे जाते हैं । यहां का धर्म, उनके बाद की श्रमण-परम्परा का जो इतिहास साहित्य और भाषाए बौद्ध धर्म से अनुप्राणित मिलता है उससे स्पष्ट कि श्रमण-परम्परा तथा हैं । बौद्ध धर्म की हीनयान शाखा का यहां पर्याप्त महत् धर्म का शिष्ट समुदाय की भाषा संस्कृत से प्रचार है।13 कोई घनिष्ट सम्बन्ध नहीं रहा है ।18 जैनाचार्यों बौद्ध धर्म की महायान शाखा का प्रचार चीन, द्वारा प्रणीत पूर्व साहित्य की भाषा प्राकृत पर ही तिब्बत, कोरिया, मंगोलिया तथा जापान में अधिक आधारित मानी गई है । वैदिक साहित्य के कई है। चीन में बौद्ध ग्रन्थों का अनुवाद चीनी भाषा साक्ष्यों द्वारा भी महावीर के पूर्व जनभाषा के रूप में हुआ है इससे चीनी भाषा की समृद्धि तो में प्राकृत का प्रचलित होना प्रमाणित होता है। हुई ही है, जिन संस्कृत ग्रन्थों का यह अनुवाद पार्श्वनाथ एवं महावीर द्वारा तो जनभाषा के है उनके अस्तित्व को प्रमाणित करने में भी प्रचार-प्रसार के स्पष्ट प्रमाण उपलब्ध हैं ।20 चीनी अनुवाद के ग्रन्थ महत्वपूर्ण हैं। प्राचार्य भगवान् महावीर की साधना जन सामान्य कुमारजीव एवं परमार्थ ने चीनी अनुवाद के । को धार्मिक समानता, सामाजिक प्रतिष्ठा तथा अतिरिक्त अन्य स्वतन्त्र ग्रन्थ भी चीनी भाषा में राजनैतिक स्वतन्त्रता उपलब्ध कराने में सार्थक हुई लिखे हैं, जो बुद्ध धर्म एवं उनके प्राचार्यों के है। मनुष्य की भाषा की स्वतन्त्रता पर महावीर ने सम्बन्ध में विशेष प्रकाश डालते हैं । तिब्बत में विशेष बल दिया है। उनके जीवन में ऐसे कई बौद्ध धर्म के प्रचार ने एक प्रोर जहां भारत और प्रसग आये हैं जब उन्होंने जन भाषा के विकास के तिब्बत के सम्बन्धों को दृढ़ किया है वहां तिब्बत लिए परम्परा से प्राप्त शास्त्र और भाषा की की जनभाषा को भी समृद्ध किया है। बौद्ध ग्रन्थों व्यवस्था को स्वीकार नहीं किया। कहा जाता है का तिब्बती अनुवाद इतना सटीक हुमा है कि कि महावीर ने किसी को अपना गुरु नहीं बनाया । उसके माधार पर भारत के मूल संस्कृत ग्रन्थों का वे पाठशाला से वापिस लौट प्राये ।21 इस घटना पुनः उद्धार किया जा रहा है ।15 जापान में की यह सार्थकता है कि व्यावहारिक शिक्षा ही प्रचलित बौद्ध धर्म से वहाँ अनेक बौद्ध सम्प्रदायों आत्मज्ञान का प्रवेशद्वार नहीं है। अक्षर और ने जन्म लिया है । इन सम्प्रदायों के साहित्य द्वारा ध्याकरण-ज्ञान से रहित व्यक्ति भी प्रात्मविकास जापानी भाषा की अधिक समृद्धि हुई है ।16 इस के पथ पर आगे बढ़ सकता है । लोक की भाषा में तरह बौद्ध धर्म देश-विदेश में जहाँ भी फला-फूला, अपनी बात कह सकता है। वहां की जनभाषामों को उसने अवश्य प्रभावित किया है । भगवान् बुद्ध के जनभाषानों के सम्बन्ध भाषा के दोष एवं गुणों को जान कर ही में उदार-विचार, पालि भाषा की उत्पत्ति के उसका व्यवहार करने तथा भाषा की क्लिष्टता को मूल में जनभाषामों का मिश्रण, बौद्ध राजारों हमेशा त्याग करने की बात महावीर ने कही है। 22 का लोकभाषानों को प्रश्रय तथा बौद्ध प्राचार्यों दशवकालिक में उन्होंने कहा है कि जिससे द्वारा अनेक भापात्रों के ज्ञान की उपलब्धि प्रादि अप्रीति उत्पन्न हो और दूसरा व्यक्ति शीघ्र कुपित सबके कारण ही भगवान् बुद्ध की परम्परा में हो ऐसी अहितकारी भाषा कभी नहीं बोलनी विभिन्न जनभाषाए विकसित हो सकी हैं। चाहिये ।23 ज्ञानवान् व्यक्ति सुनने वाले के हृदय महावीर जयन्ती स्मारिका 71 2-49 Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तक पहुंचने वाली भाषा का ही व्यवहार करें 124 तथा यदि कोई व्याकरण की दृष्टि से भाषा बोलने में स्खलित हो जाय तो उसका उपहास नहीं करना चाहिये 125 महावीर के इस प्रकार के विचार ही जन-भाषा के उत्थान में श्राधारभूमि रहे हैं। इन्हीं से प्रेरित होकर महावीर की परम्परा में प्रत्येक युग और स्थान की जन भाषा को महत्व प्रदान किया गया है । महावीर के उपदेश की भाषा को दिव्यध्वनि कहा गया है 126 इस भाषा की यही दिव्यता है कि वह सभी प्राणियों तक सम्प्रेषित होती थी । श्राध्यात्मिक दृष्टि से वह अनक्षरात्मक थी तथा व्यावहारिक दृष्टि से अक्षरात्मक 127 उसमें श्रायंअनायं सभी भाषाओं के तत्व सम्मिलित थे 128 इसे सर्वभाषात्मक कहा गया है । 29 दिव्वध्वनि का यह स्वरूप इस बात का द्योतक है कि महावीर ने किसी ऐसी व्यापक जनभाषा में उपदेश दिये थे जिसमें विभिन्न बोलियां सम्मिलित थीं । उस समय इस प्रकार की भाषा मगध जनपद में प्रचलित थी । उसे जैन शास्त्रों में अर्धमागधी 30 और शौरसेनी प्राकृत के नाम से जाना गया है। प्राचीन जैन श्रागम इन्हीं जन भाषात्रों में हैं । पालि, अर्धमागधी व शौरसेनी में बौद्ध एवं जैनधर्म के श्रागम उपलब्ध । इन भाषाओं को बुद्ध और महावीर के कार्य क्षेत्र में प्रचलित भाषाएं भी माना गया है। किन्तु उस समय वास्तव में जन साधारण में क्या ये भाषाएं बोली जाती थीं ? यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है । और यदि इनका प्रयोग जनता में होता था तो उसका स्वरूप क्या वही है, जो ग्रागम या त्रिपिटक की भाषाओं का है ? भाषाविदों ने इन जिज्ञासायों का समाधान खोजने का प्रयत्न किया है। किन्तु कोई स्पष्ट उत्तर हमारे सामने नहीं है। अतः यह मानकर चलना पड़ता है कि जब दो महापुरुषों ने जनसाधारण को उद्बोधित करने के लिए इन भाषाओं का प्रयोग किया तथा उस समय के 2-50 राजात्रों ने भी जनता तक अपनी बात पहुंचाने के लिए इन्हीं भाषाओं में अपनी राजाज्ञाएं प्रसारित कीं तो अवश्य ही इनका प्रयोग लोक में होता रहा होगा । साहित्य में प्राकर इन भाषाओं का कुछ परिष्कार हो गया होगा । महावीर की परम्परा के प्राचार्यों ने अर्थमागधी व शौरसेनी के अतिरिक्त काव्य और कथा के लिए महाराष्ट्री एवं पंशाची प्राकृत भाषाश्रों को भी अपनाया है। इससे पूर्व पश्चिम एवं दक्षिण भारत की लोकभाषाओं की समृद्धि में वे अपना योग दे सके है । महाराष्ट्री प्राकृत क्रमशः साहित्य की भाषा बनते रहने से रूढ़ होने लग गयी थी । तब लगभग ईसा की छठी शताब्दी में अपभ्रंश नामक जनभाषा साहित्य के लिए प्रयुक्त होने लगी । जैन प्राचार्यों ने अपभ्रंश भाषा को अपनी रचनाओं से बहुत प्रधिक समृद्ध किया है । प्राकृत के दाय को प्रपभ्रंश जनभाषा ने प्रच्छी तरह सुरक्षित रखा है । प्राध्यात्मिक जीवन की जितनी अनुभूतियां इस अपभ्रंश साहित्य में हैं, उतनी ही लोक संस्कृति की छवियां भी इसमें कित हैं। भारतीय साहित्य की एक सुदीर्घ परम्परा का इतिहास प्रपभ्रंश - साहित्य में है 131 मध्ययुग में जैनाचार्यों ने भारत की प्राधुनिक श्रार्य भाषाओं को अपनी रचनाओं से समृद्ध किया है । स्वभावतः उनमें प्राकृत, अपभ्रंश भाषात्रों का पर्याप्त प्रभाव दृष्टिगोचर होता है । वस्तुतः आधुनिक भाषाओं का पोषण ही उनसे हुआ है । राजस्थानी भाषा में अपरिमित जैन साहित्य लिखा गया है । 32 राजस्थानी भाषा ध्वनि परिवर्तन और व्याकरण दोनों की दृष्टि से मध्ययुगीन भाषात्रों से प्रभावित हैं 133 उसका शब्द एवं धातुकोश प्राकृत अपभ्रंश से समृद्ध हुआ है । कुछ क्रियाए द्रष्टव्य हैं प्राकृत घड़इ खण्डइ किदो राजस्थानी प्राकृत जांचइ घड़ खांडे कीधो राजस्थानी जांचे धारे होसी धारइ होसइ महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेहुण डाबु रन्न रान गुजरात में महावीर की परम्परा का अधिक की समृद्धि में भी अपना योगदान किया है 136 प्रभाव रहा है। गुजराती भाषा का जैन साहित्य महाराष्ट्रो प्राकृत का प्रभाव मराठी भाषा पर भाषा और संस्कृति की दृष्टि से पर्याप्त समृद्ध स्पष्ट है । यथाहै 34 मध्यदेश की शौरसेनी प्राकृत व अपभ्रंश प्राकत मराठी प्राकत मराठी का गुजराती पर अधिक प्रभाव है । शब्द समूहों के प्रणिय प्रणिया उन्दर उन्दीर उदाहरण द्रष्टव्य हैं: कोल्लुग कोल्हा जल्ल जाल प्राकृत गुजराती प्राकृत गुजराती तोंड तक्क ताक अंगोहलि घोल प्रोइल्ल पोलक नेऊरण नेऊन मेवड़ा उण्डा ऊण्हा छोयर छोकरा सुण्ह षून वाउल्ल बाहुली डब्ब कर्णाटक में जैन धर्म का प्रसार वहां की पूर्वी भारत की प्राधुनिक भाषामों में भोजपुरी. संस्कृति के लिए वरदान सिद्ध हुअा है । न केवल मगही, मैथिली, उड़िया, बंगाली और असमिया वहां धर्म की भावना जागृत हुई अपितु जैनाचार्यो प्रमुख हैं। इन भाषानों के विकासक्षेत्र में प्राकृत के सहयोग से तामिल एवं कन्नड़ साहित्य की व अपभ्रश का पर्याप्त प्रभाव रहा है। जैनाचार्यों समृद्धि भी पर्याप्त हुई है। साहित्य के अतिरिक्त की विहारभूमि होने से उन्होंने इन भाषाओं को दक्षिण की इन भाषानों में प्राकृत के तत्व भी भी धर्मप्रचार का माध्यम बनाया है । इन समाहित हुए हैं । कुछ शब्दों के उदाहरण द्रष्टव्य भाषामों में प्राकृत अपभ्रंश के अनेक पोषक तत्व उपलब्ध हैं, जिनका अध्ययन विद्वानो ने किया है। यहां कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं । प्राकृत कन्नड प्राकृत अोलग्ग प्रोलग कन्दल कद (1) प्राकृत भोजपुरी प्राकृत भोजपुरी चवेड़ चप्पालि देसिय देसिक जीहा जीभ चक्क चाक पल्लि किसन किसुन किस्सा पिसुणिम पिसुण खिस्सा प्राकृत तमिल प्राकृत तमिल कड्ढ काढ़इ सिज्झ सीझइ प्रक्क प्रका कडप्प कलप्पाइ (2) प्राकृत मैथिली प्राकृत मैथिली कोरि पिल्लम कच्चहरिप्र कचहरी कद्दम कादों अाज हम राष्ट्रभाषा के रूप में जिस हिन्दी लोहाल लोहार सिक्खल सिक्करी भाषा का प्रयोग करते हैं उसका विकास कई टिलक टिकुली पिढिमा पिरहिमा प्रवस्थानों से गुजर कर हुपा है। हिन्दी भाषा (3) प्राकृत उडिया प्राकृत उड़िया में जैन प्राचार्यों ने कई रचनाएं लिखी हैं 137 सिग्राल शिपाल हिम हिमा महावीर की परम्परा का हिन्दी भाषा से घनिष्ठ सही सही नाह सम्बन्ध होने के कारण हिन्दी की शब्द-सम्पत्ति में ठाण ठा थण थन संस्कृत के अतिरिक्त बहुत से ऐसे शब्द भी हैं जो सवत्ति सावत भत्त भात मीधे प्राकृत अपभ्रश से उसमें आये हैं । हजारों वेज्ज वेज हत्थ हाथ वर्षों से इन शब्दों की सुरक्षा महावीर की परम्परा दक्षिण भारत में भी जैन धर्म पर्या'त के साहित्य में होती रही है ।38 उदाहरणार्थ कुछ विकसित हुआ है । जैनाचार्यों ने वहां की भाषामों शब्द द्रष्टव्य है : कन्नड पल्ली कुरर पिल्लइ नाह महावीर जयन्ती स्मारिका 77 2-51 Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरहट्ट चारों प्राकित हिन्दी प्राकृत हिन्दी इस तरह स्पष्ट है कि महावीर की परम्परा प्रक्खाड अखाड़ा रहट ने प्रारम्भ से ही जनभाषा को महत्व दिया है तथा उक्खल प्रोखली उल्लुट उल्टा प्रत्येक युग और स्थान की जनभाषा को साहित्य कोइला कोयला खल्ल खाल चाउला तथा प्राध्यात्मिक चेतना से विकसित किया चावल चोक्ख चोखा छइल्लो छैला झाड़ है 140 भारतीय भाषाओं के भाषावैज्ञानिक, साहिडोरो डोरा चारा त्यिक एवं सांस्कृतिक अध्ययन व अनुसंधान के पत्तल पतला भल्ल भला लिए यह अनिवार्य हो गया है कि महावीर एवं हिन्दी भाषा में प्राकृत के शब्द ही नहीं, अपितु बुद्ध की परम्परा तथा उसके सम्पूर्ण साहित्य का बहुत-सी क्रियाएं भी ग्रहण की गयी हैं 139 विधिवत् प्रध्ययन किया जाय। पब तक जो यथाः अध्ययन किया गया है उसका पुनः मूल्यांकन कर प्राकृत हिन्दी प्राक तहिन्दी समग्र रूप से बौद्ध एवं जैन धर्म की परम्परा के उड़ना कुद्दति कूदना स्वरूप एवं उसके योगदान को स्पष्ट करने की खोदना चमक्क चमकना देक्स देखना पिट्ट पीटना नितान्त आवश्यकता है । तभी हम भारतीय लुक्का लुकना बैठना आदि। संस्कृति की पूर्णता की ओर अग्रसर हो सकेंगे। सन्दर्भ 1. अंगुत्तर निकाय तिक-निपात सुत्त; द्रष्टव्य, मिलिन्दप्रश्न (हिन्दी), पृ. 231 2. मज्झिम निकाय, किन्ति-सुत्त, 31113 3. उपाध्याय, भरतसिंह. पालि साहित्य का इतिहास, पृ० 27 4. मज्झिम निकाय, भरण-विभंग सुत्त, 31419 5. 'संकाय निरुत्तिया बुद्ध-वचनं दूसेन्ति', विनय पिटक, चुल्लवग्ग 6. 'हन्द मयं भन्ते बुद्धवचनं छन्दसो पारोपेमाति', 7. 'मनुजानामि भिक्खवे सकायनिरुत्तिया बुद्धवचनं परियापुरिणतु', 8. सेन, सुकुमार, ए कम्पेरेटिव ग्रामर आफ मिडिल इण्डो-आर्यन लेंग्वेजेज । 9. उपाध्याय, वही, पृ० 681-90 10. 'सम्मासम्बुद्ध न वृत्तप्पकारो मागधको वोहारो'–समन्तपासादिका, बुद्धघोष तथा 'सा मागधी मूल भासा-सम्बद्धा चापि भासरे'-कच्चान व्याकरण । 11. 'सब्वेसं मूल भासाय मागधाय निरुत्तिया'-चूलवंश, परिच्छेद 37 तथा 'मागधिकाय सब्बसत्तानं मूलभासाय'-विशुद्धिभग्ग । 12. प्राचार्य बुद्धघोष की अट्ठकथाएं द्रष्टव्य । 13. वापट, बौद्धधर्म के 2500 वर्ष । 14. सोगन, यमकामी, सिस्टम्स आफ बुद्धिस्ट थाट, पृ. 72-79 2-52 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 | Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15. राहुल सांकृत्यायन, तिब्बत में बौद्ध धर्म । 16. सुजुकी, ऐसेज इन जैन बुद्धिज्म, पृ० 222-331 17. द्रष्टव्य', लेखक का निबन्ध- 'भगवान् ऋषभदेव एवं शिव के व्यक्तित्व का विकास' । 18. हस्तीमल जी महाराज, जैनधर्म का मौलिक इतिहास, भाग 1 19. देवस्थली, जी० वी०, 'प्राकृतिज्म इन द ऋग्वेद' सेमिनार प्रकाशन. पूना, 1969 20. देवेन्द्र मुनि, भगवान् पार्श्व : एक समीक्षात्मक अध्ययन 21. आवश्यकचूणि पूर्वभाग, पृ० 246-47 22. भासाइ दोसे य गुणेण जाणिया। तीसे य दुढें परिवज्जिए सया ।। --दशवकालिक, 7156 23. अप्पत्तियं जेण सिया आसु कुप्पेज्ज वा परो। सव्वसो तं न भासेज्जा भासं अहियगामिरिणं ॥ --दश० 8147 24. वएज्ज बुद्ध हियमाणुलोमियं । 25. वई-विक्खिलियं नच्चा न तं उवहसे मुणी। --महावीर के हजार उपदेश 26. शास्त्री, नेपिचन्द्र-भगवान् महावीर की प्राचार्य परम्परा, भाग 1 27. गोमट्टसार जीवकाण्ड, 2271488115 28. अट्ठारस महाभासा वि खुल्लयभासा विसत्तसतसंखा । प्रक्खर रणक्खरप्पय सण्णी जीवाण सयलभासाओ | --तिलोयपण्णत्ति, 1161 29. समन्तभद्र, स्वयम्भूस्तोत्र, 97 30. भगवं च णं अद्धमागहीए भासाए धम्मं प्राक्खइ । ---समवायांगसुत्त , 98 31. जैन, देवेन्द्र कुमार, अपभ्रंश भाषा और साहित्य । 32. नाहटा, अगरचन्द, राजस्थानी साहित्य की गौरवपूर्ण परम्परा । 33. जैन, प्रेम सुमन, राजस्थानी भाषा में प्राकृत-अपभ्रश के प्रयोग । 34. मशी. कन्हैयालाल माणिकलाल गजराती साहित्य, भाग 5 35. डांडेकर, मार० एन०-प्रोसिडिंग आफ द सेमिनार इन प्राकृत स्टडीज, 1969 36. शास्त्री, कैलाशचन्द्र, दक्षिण भारत में जैनधर्म । 37. शास्त्री, नेमिचन्द, हिन्दी का जैन साहित्य । 38. जैन, जगदीशचन्द्र, प्राकृत साहित्य का इतिहास, पृ० 693-702 । 39. जैन, प्रेम सुमन, प्राकृत-अपभ्रंश तथा अन्य भारतीय भाषाएं । 40. कत्रे एस० एम०, प्राकृत लेंग्वेजेज एण्ड देयर कन्ट्रीब्युशन्स टू इण्डियन कल्चर । महावीर जयन्ती स्मारिका 77 2-53 Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जब हम तुमको देख सकेंगे * श्री अनोखीलाल अजमेरा-इन्दौर बीत चुके सपनों के वे दिन जो अतीत की याद दिलाते, मंगल गान उसव स्वरूप जो हर्षित हो हम नित्य मनाते । चित्रपटादि सज्जित . मंचों पर काव्य गोष्ठियों में भी देखा, साहित्यिक की सूझ बूझ के कल्पित अंबारों में देखा । कई योजनाओं को घड़कर स्मृतिस्वरूप स्तूप बनाये, पर न तुझे हम अपने मन के उस घट दर्पण से लख पाये। कई स्वरूप तुम्हारे थे, पर तुम एक रूप हो रहे निरन्तर, सिद्धारथ के राजपुत्र थे, त्रिसला की आखों के वत्सल । कुड ग्राम, वैशाली में भी बंधे प्यार से रहे निरन्तर, पर वे भी पा न सके भिन्न भिन्न, रूपों का अन्तर । तो हम फिर क्या देख सकेंगे युग युग बीता वह रूप तुम्हारा, इन्द्रादिक भी न देख सके जो था मन मोहक रूप तुम्हारा । मरिण माणिक अ बार लगाकर स्वर्ण मंजुषा खूब लुटादें, सिंहासन पाषाण मूतियां चाहे हम नित प्रति बैठाद । यह तो है सम्मान तुम्हारा जो है वह अपण करते हैं, दर्पण को रख दूर कल्पना में जो रमते है। मरिण माणिक कचन कामिनी क्या उस स्वरूप को देख सकेगी, महलों का उज्ज्वल प्रकाश क्या उस ज्योति को झेलस केगी। जो कैवल्य ज्ञान पद पाकर तुमने उज्ज्वल प्रकाश फैलाया, तिमिर तोम युग युग में भी तुमने था उज्ज्वल दीप जलाया। वीतरागता के स्वरूप बन बीतराग को देख सकगे, वही स्वरूप हमारा होगा, जब हम तुमको देख सकेंगे। 2-54 महावीर जयन्ती स्मारिका 71 Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक विद्वान् श्री नाथूरामजी प्रेमी ने अपने 'जैन साहित्य और इतिहास" नामक पुस्तक के 'पद्मचरित प्रौर पउमचरिय' नामक निबंध में 'पउमचरिय' के रचनाकार श्री विमलसूरि को जनों की उस तृतीय धारा के होने की संभावना व्यक्त की थी जिसका प्रतिनिधित्व प्रागे चलकर यापनीय संघ ने किया। उसमें उन्होंने पांच काररण दिये थे । विद्वान् लेखक ने विमलसूर को श्वेताम्बर सिद्ध करते हुए उनमें से चार कारणों के निरसन का प्रयत्न किया है किन्तु उन्होंने इसका कोई समाधान इस लेख में नहीं किया कि उसमें तीर्थंङ्कर की माता के स्वप्नों की संख्या १५ है जबकि दिगम्बर १६ पौर श्वेताम्बर १४ मानते हैं। यह भी विचारणीय है कि दोनों ही सम्प्रदायों की मान्यतानुसार दिगम्बर श्वेताम्बर संघ भेद वि० स० १३६ या १३६ में हुवा जबकि पउमचरिउ वि० सं० ६० की रचना है । क्या विमलसूरि यापनीय थे ? विमलसूरि का पउमचरिय जैन साहित्य का शीर्ष ग्रन्थ है । इस ग्रन्थ में श्वेताम्बर - दिगम्बर दोनों ही सम्प्रदायों के विरोधी प्रविरोधी तथ्य उपलब्ध होते हैं, जो कि विमलसूरि के यापनीय होने की सम्भावना व्यक्त करते हैं । 2 पउमचरिय श्वेताम्बराचार्य विमलसूरि की कृति है, श्रनेक प्रमाण इस तथ्य को पुष्ट करते हैं । पउमचरियकार ने ग्रन्थ की प्रशस्ति में अपनी गुरुपरम्परा दी है। वे स्वसमय परसमय पारंगत आचार्य राहु के प्रशिष्य व नाइलकुलवंशनंदिकर प्राचार्य विजय के शिष्य हैं । इस नाइलकुल का उल्लेख श्वेताम्बर ग्रन्थों में ही मिलता है। मुनि कल्याण विजयजी का कथन है कि सूत्रों के व्याख्या ग्रन्थों के उल्लेखों से इस कुल के मुनि स्वतन्त्र प्रकृतिवाले प्रतीत होते हैं। 4 श्वेताम्बर अन्यों में इस कुल का नामोल्लेख नाइलकुल को स्पष्टरूप से श्वेताम्बर प्रमाणित करता है । नन्दिसूत्र में तो महावीर जयन्ती स्मारिका 77 -प्र० सम्पादक डॉ० कुसुम पटोरिया, नागपुर प्राचार्य भूतिदिन को स्पष्टरूप से नाइलकुलवंशनंदिकर ही कहा गया है निश्चित ही नाइलकुलवंश श्वेताम्बर सम्प्रदाय से सम्बद्ध है तथा विमलसूरिका नाइलकुलवंशी होना उनके श्वेताम्वरत्व का प्रबल प्रमाण है । आचार्य र विषेण के समक्ष जैन रामकथा की दो धाराये विद्यमान थी एक पउमचरिय की और दूसरी उत्तरपुराण की । दिगम्बराचार्य रविषेण ने उत्तरपुराण की कथा को छोड़कर पउमचरिय की कथा को अपने ग्रन्थ का प्राधार बनाया है । प्राचार्य रविषेण निश्चित ही पउमचरिय से बहुत अधिक प्रभावित है, तभी उन्होंने अपना पद्मचरित्र पउमचरिय के पल्लवित छायानुवाद के रूप में लिखा है । प्राचार्य विमलसूरि के ग्रन्थ का उपयोग करने पर भी उन्होंने पउमचरिय प्रथवा विमलमूरि का नामोल्लेख नहीं किया है। निश्चित ही प्राचार्य विमलसूर उनके सम्प्रदाय के अर्थात् दिगम्बर 2-55 Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्प्रदाय के नहीं थे, इसलिये रविषेणाचार्यं उनके नामोल्लेख से कतरा गये हैं । यापनीय सम्प्रदाय के अनुयायी स्वयंभु ने भी अपने अपभ्रंश पउमचरिय के प्रारम्भ में लिखा है कि यह रामकथा र विषेणाचार्य के प्रासाद से उन्हें प्राप्त हुई है । यदि श्राचार्य विमलसूरि यापनीय होते तो स्वयंभु निश्चित ही उनका बहुमानपूर्वक उल्लेख करते । स्वयंभु पउमचरिय और विमलसूरि से परिचित न हों, यह बात असंभव प्रतीत होती है । आचार्य विमलसूरि द्वारा जैन मुनि के लिये सियंवर या सेयंबर शब्द का प्रयोग भी उनके श्वेताम्बरत्व को प्रमाणित करता है ।" पुष्पिका में विमलसूरि को पूर्वघर बताया गया है, पूर्वधरों की सूची में इनका नाम कहीं भी प्राप्त नहीं होता, किन्तु श्वेताम्बर परम्परा भगवान महावीर के निर्वाणोपरान्त एक हजार वर्ष तक पूर्वधरों का अस्तित्व स्वीकार करती है । श्राचार्य विमलसूरि का पूर्वधर होना श्वेताम्बर परम्परानुकूल है । श्रागमेतर श्वेताम्बर जैन साहित्य जैन महाराष्ट्री में लिखा गया है, पउमचरिय भी जैन महाराष्ट्री में रचित है, अतः इसकी भाषा भी इसे श्वेताम्बर घोषित करती है । स्त्रीमुक्ति' जैसे सिद्धान्त का समर्थन करने के कारण उन्हें दिगम्बर परम्परा का प्राचार्य तो माना ही नहीं जा सकता । यापनीय सम्प्रदाय अवश्य स्त्रीमुक्ति स्वीकार करता रहा किन्तु इनके यापनीय होने के भी साधक प्रमाण नहीं मिलते हैं, किन्तु जैसा कि डॉ० वी० एम० कुलकर्णीजी ने कहा है इनका नाइलकुलवंश, श्वेताम्बर मुनि का उल्लेख तथा जैन महाराष्ट्रो भाषा ये प्रमाण इनको श्वेताम्बराचार्य प्रमाणित करते हैं 18 2-56 पउमचरिय के जो उल्लेख श्वेताम्बर परम्परा के विरुद्ध प्रतीत होते हैं उनमें से प्रमुख यह है कि गौतम गणधर तथा राजा श्रेणिक की वक्ता श्रोता योजना दिगम्बर परम्परा के अनुकूल है; महावीर के गर्भापहरण तथा विवाह की घटना का उल्लेख नहीं है भादि । भगवान महावीर के जीवनकाल में ही गौतम श्रादि गणधर धर्मोपदेश दिया करते थे । श्रावश्यक चूरिंग में भगवान महावीर की देशना के उपरान्त गौतम आदि गणधरों के धर्मोपदेश का उल्लेख है तित्थगरो पढमपोरुसीय धम्मं ताब कहेमि जाव पढमपोरुसी उग्धाडवेला । उवार पोरुसीए उठ्ठिते तित्थकरे गोयमसामी प्रनो वा गणहरो बितीय पोरुसीए धम्मं कहेति । 10 राजा श्रेणिक भगवान महावीर के समकालीन प्रसिद्ध जैन सम्राट हुये हैं, जिन्होंने गौतम गणधर से अपनी अनेक शंकाओं का समाधान किया होगा, अतः इन्द्रभूति गौतम तथा राजा श्रेणिक की वक्ता श्रोता योजना की परम्परा का प्रारम्भ हुआ । श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार भगवान महावीर पश्चात् प्रमुख शिष्य होने पर गौतम गणधर के स्थान पर सुधर्मा स्वामी को संघ का नेतृत्व प्राप्त हुआ। सुधर्मा स्वामी ने पट्टधर होने के काल में जम्बूस्वामी की शंकाओं का समाधान किया । इस प्रकार जैन सम्प्रदाय में प्रथमतः गौतम श्रेषिक व फिर आर्य सुधर्मा व जम्बूस्वामी की वक्ता श्रोता योजना का आरंभ हुप्रा । इनमें से प्रथम को दिग़म्बर सम्प्रदाय ने और दूसरी को श्वेताम्बर सम्प्रदाय ने अपना लिया । पउमचरिय श्रारम्भिक शताब्दियों की रचना है, उस समय तक ये परम्परायें रूढ़ नहीं हुई होंगी, श्रतः पउमचरिय में श्रेणिक गौतम गणधर की श्रोता वक्ता योजना मिलती है । महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर के विवाह के सम्बन्ध में भी तीथंकर की माता के 14 स्वप्न, भरत चक्रवर्ती श्वेताम्बर सम्प्रदाय में दोनों मान्यतायें हैं। कल्प- की 64 हजार रानियां प्रादि उल्लेख प्राचार्य सूत्र व आवश्यक भाष्य इन्हें विवाहित मानते हैं विमलसूरि के श्वेताम्बर होने का समर्थन करते हैं। दूसरी अोर समवायांग स्थानांग व आवश्यक निश्चित ही विमलसूरि एक श्वेताम्बराचार्य हैं, नियुक्ति में इनके अविवाहित रहने की मान्यता है। उनका नाइकुलवंश, स्वयंभु द्वारा स्मरण न किया ___ केवलज्ञान प्राप्ति के उपरान्त भगवान महावीर जाना तथा उनके श्वेताम्बर साधु का प्रादरपूर्वक का भव्यों को प्रतिबोधित करते हुये विपुलाचल उल्लेख उनके यापनीय न होने के प्रबल पर प्रागमन, तीर्थङ्करत्व-प्राप्ति के 20 कारण, प्रमाण है। 1. पउमचरिय भाग 1 : Introduction. Dr. V. M. Kulkarni : Page 18-22, 2. (पद्मचरित और पउमचरिय) जैन साहित्य का इतिहास : श्री नाथूरामजी प्रेमी पृ० 98 3. परमचरिय 118, 117, 118 4. पउमचरिय भाग 1 : Introduction, Vimalsuri's life. 5. नन्दिसूत्र : गाथा 38 6. पउमचरिय 22/78-79 7. पउमचरिय 83/12 8. पउमचरिय : Introduction : Dr. V. M. Kulkarni P. 22 9. प्रावश्यक चूरिण : भाग 1 पृ० 332 10. मावश्यक चूणि ; भाग | पृ० 333 महावीर जयन्ती स्मारिका 2-57 Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असम्पृक्त लगाव संगीत लहर डॉ० नरेन्द्र भानावत श्री उदयचन्द्र'प्रभाकर' शास्त्री, इन्दौर मतवाद, प्राम्र बल्लरियां कोयल के स्वार्थ, और कट्टरता से बंधी धुटन भरी तंग मुट्ठियों को जरूरत हैमहावीर के अनन्तधर्मा सापेक्ष चिन्तन के भ्रममुक्त खुलाव की। ini sabiani nadilanie दिशा हीन, बेमानी, विक्षिप्त यात्रा को तेज भागती पेंडूलमी रफ्तार को जरूरत हैमहावीर के स्थितप्रज्ञ अन्तर्मन के विवेकदीप्त पड़ाव की। सरगम से गूंज उठी माभास हुआ पत्तों को ये कौन पाण्डुर वस्त्रों के बीच फिर भी खामोशी दूर क्षितिज के कोने तक चंचल मंद पबन फिर भी ललचाया जीर्ण-शीर्ण वस्त्रों को धरती पर विखराया ममता ने समताभाव घराकर छोटी सी कच्छी पहनाई धर्म दीप की ज्ञानदृष्टि अपनाई ये मेरे नहीं आज मैं जिनको कहता हूं पर वो देखो सुख को जन जन में अब भी वांट रहा पता नहीं कैसी पहरी झुरमुट से यों ताक रहा संगीत लहर ज्ञानामृत की सरिता में यों घोल रहा तब क्या मैं महावीर को जान सका? रक्तरंजित, जहरीली पंधेरी, मनन्त लालसानों से प्रस्त, संतप्त दुर्लभ जीवन सांसों को जरूरत हैमहावीर के तप संयममय मसम्पृक्त लगाव की। 2-58 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रिंस प्राफ वेल्स संग्रहालय, बम्बई का जैन कांस्य मूतियों के संग्रह के कारण अपना एक अलग ही महत्वपूर्ण स्थान है । इन मूतियों में से कुछ के सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों ने विभिन्न समयों पर कई पत्र पत्रिकाओं में अपने निबन्ध प्रकाशित कराये हैं मगर प्राज तक एक भी ऐसा निबन्ध प्रकाशित नहीं हुआ जो वहां की सम्पूर्ण कास्य मूर्तियों के सम्बन्ध में एक ही स्थान पर जानकारी उपलब्ध करा सके । विद्वान लेखक ने अपने इस निबन्ध द्वारा एक बहुत बड़े प्रभाव की पूर्ति की है। प्राशा है इस क्षेत्र के शोधार्थी छात्रों एवं अनुसंधिस्सुत्रों के लिए यह निबन्ध बडा उपयोगी सिद्ध होगा। 2ACT STO प्र. सम्पादक प्रिन्स आफ वेल्स संग्रहालय, बम्बई में कांस्य मतियां * डा. व्रजेन्द्रनाथ शर्मा दिल्ली प्रिन्स पाफ वेल्स संग्रहालय, बम्बई में जैन आदिनाथ एक पद्म पर जो त्रिरथ पीठिका पर कांस्य प्रतिमानों का बड़ा महत्वपूर्ण संग्रह है। स्थित है, कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े हैं । इनके घुघराले इन प्रतिमामों में केवल दो को छोड़कर जो चोपडा केश दोनों ओर कन्धों पर लटक रहे हैं । इनके वक्ष तथा श्रवण बेलगोला से प्राप्त हुई थीं अन्य मूर्तियां पर सोने का श्रीवत्स चिन्ह अंकित है तथा नीचे पश्चिमी भारत में बनी प्रतीत होती हैं। इन मूर्तियों के अधो भाग में धोती पहिने है जिसकी गांठ सामने पर सुप्रसिद्ध विद्वान् डा० उमाकान्त प्रेमानन्द शाह लगी है। इनके शीश के पीछे एक सुन्दर प्रभा बनी तथा डा० मोतीचन्द व श्री सदाशिव गोरक्श्कर है तथा दोनों ओर एक-एक चंवरधारी सेवक खड़ा प्रादि ने विभिन्न अंग्रेजी की पत्रिकाओं में निबन्ध है। इनके अतिरिक्त दोनों प्रोरही तीन-तीन तीर्थकर प्रकाशित किये हैं। प्रस्तुत लेख में हम समस्त जैन ध्यान मुद्रा में हैं । प्रादिनाथ के शीश के पीछे बनी मूर्तियों को एक ही स्थान पर प्रकाशित कर रहे हैं प्रभा के दोनों मोर चार-चार तीर्थकर विराजमान जिससे जैन मूर्तिकला में रुचि रखने वाले विद्वान हैं। इनके ऊपर एक पंक्ति में छः तथा उनके ऊपर एवं विद्यार्थियों को उनकी जानकारी प्राप्त हो अन्य पंक्ति में तीन अन्य तीर्थकरों को ध्यानस्थ सके। प्रतिमायें हैं। सबसे ऊपर की पंक्ति के मध्य में इस संग्रहालय की सबसे प्राचीन जैन कास्यमूर्ति पांच फणों की छाया में तेईसवें तीर्थकर पार्श्वनाथ प्रथम तीर्थकर ऋषभनाथ का चौवीसी पट्ट है (नं० की मूर्ति है । मूल प्रतिमा के बाह्य भाग पर दोनों 42) जो चोपड़ा, जिला खानदेश में कई वर्ष पूर्व प्राप्त प्रोर नीचे से ऊपर तक क्रमशः गज-शार्दूल, वीणाहना था । दो फीट ऊंची एवं पाठवीं शती ई० में वादक, मृदंग वादक, ढपली वादक तथा हाथ जोड़े निर्मित इस अत्यन्त कलात्मक मूर्ति के मध्य में दिव्य उपासिकायें तथा मालाधारी गन्धर्व उड़ते महावीर जयन्ती स्मारिका 77 2-59 Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिखाये गये हैं और सबसे ऊपर मध्य में त्रिछत्र के क धर्म का काफी प्रचार था, जिसके फलस्वरूप अनेक ऊपर कलश बना है। जैन धर्म से सम्बन्धित देवी देवताओं की मूर्तियों का पूजा हेतु निर्माण हुा । इस काल में अधिकतर सिंहासन के दाहिनी मोर एक पेड़ के नीचे लघु कांस्य मूर्तियों का ही विशेष रूप से निर्माण किरीटधारी यक्ष है जो देखने में कुवेर प्रतीत होता हुआ जो कि न केवल मन्दिरों में ही वरन् जैन उपा. है। इसके दाहिने हाथ में बीजपूरक व बायें में सकों के घरों में भी प्रतिष्ठापित की गई । कला की नकुल है। इसी प्रकार दूसरी ओर सम्भवतः यक्षी दृष्टि से ये मूर्तियां एक ही प्रकार की हैं और अम्बिका की मूर्ति है जो प्राम्र वृक्ष के नीचे दाहिने अधिकतर पीतल की हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि हाथ में एक प्राम्रलुम्बि तथा बांये से एक बालक कलाकारों ने मूर्तियों की बाह्य रचना पर विशेष को पकड़े हैं परन्तु इनका वाहन सिंह नहीं दर्शाया ध्यान न देकर उन्हे केवल पूजा की वस्तु मान कर गया है । सिंहासन के मध्य में धर्मचक्र स्थित है और ही उनकी रचना की। यही कारण है कि राजएक-एक मृग है । इसके निचले भाग पर नवग्रह बने स्थान व गुजरात में बनी असंख्य मूर्तियां अधिकतर हैं । यह मूर्ति जैन मूर्तियों में अद्वितीय है। एक ही प्रकार की हैं ! राजस्थान में वसन्तगढ़ तथा दूसरी दुर्लभ जैन प्रतिमा बाहुबलि की है जो गुजरात में प्रकोटा से जो धातु की प्रतिमायें मिली कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े हैं (नं0 105) यद्यपि हैं उनमें मूर्तिकला की दृष्टि से प्राय: अधिकतर एलोरा, बादामी, मध्य प्रदेश तथा अन्य स्थानों विशेषतायें सामान्य ही हैं। अधिकतर मतियों में से भी ऐसी मूर्तियां ज्ञात हैं परन्त श्रवणबेलगोला बाह्य प्राडम्बर का प्रभाव प्रतीत होता है। इन क्षेत्र से मिली चालक्य यगीन 9वीं शती ई० मूर्तियों में तीर्थकर को त्रिछत्र के नीचे प्रासीन अथवा की यह कांस्य मूति जैन मूर्तिकला के क्षेत्र में सिंहासन पर विराजमान दिखाया गया है और अद्वितीय स्थान रखती है। श्रवणबेलगोला जैनधर्म उनके दोनों ओर चंवरधारी सेवक व ऊपर उड़ते के अनुयायियों के लिए एक पुनीत स्थल है और गन्धर्वो का मकन है । पीठिका पर सामने धर्मयहां की विश्व प्रसिद्ध लगभग 57 फीट ऊंची चक्र को घेरे दो मृगों के अतिरिक्त नवग्रह का भी गोम्मटेश्वर की विशाल मूर्ति स्थित है जिसका प्रकन मिलता है । इनके अतिरिक्त प्रत्येक तीर्थकर निर्माण गंग सेनापति चामुण्डराय ने लगभग 983 का यक्ष एवं यक्षिणी उनके पासन के दोनों ओर ई० में करवाया था। दिखाये गये हैं । प्रादिनाथ पार्श्वनाथ, सुपार्श्वनाथ की प्रतिमाओं के अतिरिक्त शेष तीर्थकरों की पहएक फुट पाठ इञ्च ऊंची इस नग्न कांस्य मृति चान के लिए मतियों के पृष्ठ भाग पर उत्कीर्ण लेखों में उनके केश ऊपर की ओर हैं तथा जटायें कन्धों से ही सहायता लेनी होती है। इन लेखों में मूर्ति पर पड़ी हुई हैं । संसार त्यागने पर धोर तपस्या के निर्माण काल के अतिरिक्त मूर्तियों के दान कर्ता में लीन होने के कारण उनके शरीर से अनेक की वंशावली तथा कभी कभी कुछ विशेष 'गच्छों' लतायें लिपट गई थी, जिसको इस मूर्ति में बड़ी के नामों का भी पता चलता है जो कि उस समय सुन्दरता से कुशल कलाकार ने दर्शाया है। उनकी पनप रहे जैन धर्म के इतिहास के लिए भी परम सीधी नासिका, नीचे का भारी होट, लम्बे कान एवं उपयोगी है। ऐसी मूर्तियां जैन मन्दिरों के अतिसुडौल शरीर की बनावट के कारण प्रायः सभी रिक्त भारत एवं विदेशों के अनेक संग्रहालयों में भी कलाविदों ने इस मूर्ति की भरपूर प्रशंसा की है। प्रदर्शित हैं। जो स्थिति मध्य युग में बौद्ध धर्म की मध्य काल में राजस्थान तथा गुजरात में जैन पूर्वी भारत में थी, लगभग वही स्थिति इस काल में 2-60 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म की पश्चिमी भारत में भी थी। नलादा नौ मूर्तियां विद्यमान हैं। इसमें सबसे प्राचीन कुर्कीहार, फतेहपुर तथा अन्य स्थानों से असंख्य प्रतिमा जो वीं शती ई० की है (नं० ६७.६), बौद्ध कांस्य एवं पाषाण मूर्तियां पूर्वी भारत से पार्श्वनाथ की सर्प फरणों की छाया में ध्यान प्राप्त हुई हैं। राजस्थान व गुजरात के अनेक जैन मुद्रा में विराजमान हैं । पार्श्वनाथ की १०वीं भण्डारों में तथा जैन मन्दिरों में तिथियुक्त जैन शती ई० की एक मूर्ति में (६७.२३) वे पांच मूर्तियां उपलब्ध है जिनका विस्तार से अध्ययन फणों के नीचे बैठे हैं और यक्ष धरणेन्द्र तथा मावश्यक है। यक्षी पद्मावती जो तीर्थ कर मूर्ति के दोनों ओर हाथ जोड़े हैं के शरीर के नीचे का अधो भाग प्रिन्स प्राफ वेल्स संग्रहालय में इस समय सर्प रूपी बना है जो सामान्यतया प्रस्तर प्रतिपश्चिमी भारत से प्राप्त लगभग इक्कीस जेन मानों की अपेक्षा कांस्य प्रतिमानों में कम ही प्रतिमायें उपलब्ध हैं जो ईसवी 887 से 1 427 मिलता है। के समय की बनी हैं। कला की दृष्टि से इन मतियों में कोई विशेष अन्तर नहीं है इनमें तीर्थकरों के पार्श्वनाथ की एक त्रितीर्थी प्रतिमा जिसके अतिरिक्त कई वितीर्थी तथा पंचतीर्थी प्रतिमायें भी पृष्ठ भाग पर वि० सं० १११० (१०५३ ई० का हैं। पीतल की बनी इन सभी मतियों में तीर्थकर अस्पष्ट लेख उत्कीर्ण है, के दोनों ओर ऋषभनाथ को ध्यानमुद्रा में बैठे दिखाया गया और साथ में एवं महावीर की कायोत्सर्ग मुद्रा में मूर्तियां स्थित उनके यक्ष एवं यक्षिणीयों का प्रकन है। इनका हैं और उनके पैरों के समीप पीठिका से निकलते संक्षेप में वर्णन इस प्रकार है। हुए पद्मों पर धरणेन्द्र एवं पद्मावती की प्रासन मूर्तियां बनी हैं । मूल प्रतिमा के शीश के ऊपर प्रथम तीर्थ कर मूर्ति में 'जिन' एक सिंहासन बने सर्प के सप्त फणों का अङ्कन बड़ी सुन्दरता पर विराजमान है और इनके दोनों ओर एक-एक से हमा है ! पार्श्वनाथ के वक्ष पर प्रकित चंवरधारी सेवक खड़ा है (नं० ६७.७) । पीठिका श्रीवत्स चिन्ह में चांदी का प्रयोग हुप्रा है । से निकलते हए कमल के फार दाहिनी ओर यक्ष (नं०६७.१०)। एवं बाई पोर यक्षिणी का अङ्कन है तथा सामने प्रष्ट ग्रह व प्रभा के ऊपर मालाधारी गन्धर्व है ! पार्श्वनाथ की कई त्रितीथियों के अतिरिक्त एक मूर्ति के पृष्ठ भाग पर उत्कीर्ण लेख से ज्ञात होता पंचतीर्थी भी इस संग्रहालय में विद्यमान है है कि यह वि० सं० ६४४ (८८७) ई० में (नं. ६७.२४) । लगभग बारहवीं शती ई० में बनी थी। निर्मित हुई इस मूर्ति के मध्य में पार्श्वनाथ मध्य में सर्पफणों के नीचे ध्यान मुद्रा में विराजमान उपयुक्त जिन प्रतिमा से काफी साम्यता हैं। इनके दोनों ओर कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े प्रादिरखती हुई भगवान् ऋषभनाथ की मूर्ति है जिनकी नाथ एवं महावीर मूर्तियों के ऊपर एक-एक अन्य पहचान कन्धों पर पड़े हुए उनके केशों से की जा तीर्थ कर की ध्यान-मुद्रा में लघु मूर्ति स्थित है । सकती है । (नं० ६७०६) मूर्ति पर्याप्त रूप से नीचे सामने वाले भाग पर धरणेन्द्र व पद्मावती नष्ट है । सिंहासन के दोनों प्रोर इनका यक्ष का अन्य मूर्तियों की भांति अंकन है । गोमुख तथा यक्षी चक्रेश्वरी की लघु मूर्तियां है। का यह लगभग हवीं शती ई० की कृति है। इसी संग्रहालय में नेमिनाथ की मूर्ति भी है प्रिन्स आफ वेल्स संग्रहालय में पार्श्वनाथ की जिसके पृष्ठ भाग पर वि० सं० १२२८ (११-७१ महावीर जयन्ती स्मारिका 77 2-61 Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ई.) का लेख उत्कीर्ण है (नं. ६७२०) । यहां पर पन्द्रहवें तीर्थकर धर्मनाथ की चौवीसी अन्य मूर्तियों की ही भांति इस मूर्ति में नेमिनाथ भी उल्लेखनीय है (नं० 67.17) जिसका निर्माण के दोनों ओर चंवरधारी सेवकों के अतिरिक्त उनके 15वीं शती ई० के पूर्वाद्ध में हुआ था। मध्य में यक्ष एवं यक्षी का अङ्कन प्राप्त है । नेमिनाथ की धर्मनाथ एक गज सिंहासन पर ध्यान मुद्रा में इस प्रकार की मूर्तियां कम ही प्रकाश में पाई हैं। विराजमान हैं। इनके दोनों प्रोर एक-एक तीर्थ उपयुक्त नेमिनाथ की मूर्ति से साम्यता कर जो पार्श्वनाथ तथा सुपाणनाथ प्रतीत होते रखती चौबीसवें तीर्थकर महावीर की भी मूर्ति हैं, सर्प फणों के नीचे कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े हैं। है। इसमें इनके शीश के पीछे पद्म-रूपी प्रभा हैं शेष तीर्थकर पंक्तियों में प्रभा तोरण के ऊपरी भाग तथा इनकी प्रांखों में चाँदी लगी हुई है। कला पर ध्यान मुद्रा में प्रदर्शित किए गए हैं । मूल मूर्ति की दृष्टि से यह मूर्ति कोई अच्छा उदाहरण नहीं के दोनों प्रोर यक्ष किन्नर तथा यक्षिणी कन्दर्पा मानी जा सकती है। मूर्ति के पीछे सं० १२४३ का सुन्दर प्रकन प्राप्त है। मकर तोरण के ऊपरी (११८६ ई.) के लेख से ज्ञात होता है कि इसका भाग में कलश बना है। मूर्ति के पीछे वि. सं. निर्माण वोधरदेव एवं पूनसिरि के पुत्र वहड़क ने 1484 (1427 ई०) का लेख उत्कीर्ण है । क्यिा था तथा वीरप्रभ सूरि ने इसकी प्रतिष्ठापना की थी (नं0 67.19)। महावीर की वाणी ! यदि जन जन के अन्तस् में, घुल जाये महावीर की वाणी ! झूठ, छल, कपट, काला बाजारी, का हो जाये मुंह काला, हिंसा, चोरी, अनाचार का जग से निकल जाय दीवाला, सबल-निबल के छुपा-छूत के । भेदों पर पड़ जाये पाला, असामाजिक तत्वों की गति विधियों पर भी पड़ जाये ताला सारा पाप पंक धुल जाये वह निकले धारा कल्याणी यदि जन जन के अन्तस् में घुल जाये महावीर की वाणी ! (श्री ज्ञानचन्द्र 'ज्ञानेन्द्र' ढाना) 2-62 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HOOT भारत भर में जैन मूर्तियों के संग्रह की दृष्टि से मथुरा के पश्चात् लखनऊ संग्रहालय की गणना की जा सकती है। हमारे विद्वान् लेखक श्री रस्तोगी, जो कि वहां ही के एक अधिकारी हैं, प्रतिवर्ष स्मारिका के पाठकों को वहां की महत्वपूर्ण कलाकृतियों से परिचित कराते रहते हैं और वह परिचय भी सचित्र । इस वर्ष मो वे एक 11वी शताब्दी की महत्वपूर्ण मनोज्ञ मूति का सचित्र परिचय अपनी इन पंक्तियों में प्रस्तुत कर रहे हैं । मूर्ति के पाद लेख में वुस्तावट नामक स्थान का उल्लेख है जो प्रायः अज्ञात है। इससे प्राग्वाट (परवार अथवा पोरपाव) जाति का अस्तित्व 11वीं शताब्दी में सिद्ध है। -प्र. सम्पादक एक विचित्र जिन-विम्ब * श्री शैलेन्द्र कुमार रस्तौगी, लखनऊ जिस प्रकार रत्नाकर के अन्तराल में अगणित (1) ॐ संवत् 1063 माघसुदि 13 वुस्तावट रत्न छिपे रहते हैं। उसी प्रकार से भारत के वास्तव्य प्राग्वाट वणिक रिसिय [T] हृदय उत्तरप्रदेश की राजधानी लक्ष्मणपुरी या लखनऊ स्थित राज्य संग्रहालय के संग्रह सागर में (2) ककुणल्य: सुतेन वीवक नाम्ना श्रावकेन भी असंख्य सुविख्यात एवं अज्ञात कलारत्नछिपे कारितेयं श्री मुनिसुव्र (3) तस्य प्रतिमा । अधुना ऐसी हो दुर्लभ एक मनोज्ञ जैनकला. रत्नस्वरूपा प्रतिमा (जे-776) का परिचय अर्थात सवत् 1063 की माघसुदि की त्रयोदशी प्राप्त करें । पालोच्य निदर्शन (3'-3}"x2'x को वुस्तावट (?) वासी प्राग्वाट वणिक रिसिय 1-1") प्राकार का काले प्रस्तर पर तराशा गया ककुणल्य पुत्र वीवाक या वीचक नामक श्रावक ने है । इसे प्रदेश के प्रागरा जनपद स्थित मुस्लिम इस मुनिसुव्रत की प्रतिमा को बनवाया। किले के समीप जमुना पुलिन से यहां लाया गया था। सौभाग्य से कुछ अंश को छोड़कर सम्पूर्ण इह संदर्भित "वुस्तावट'' कहाँ है मुझे ज्ञात प्रतिमा पूर्ण सुरक्षित है। प्रतिमा की चरण चौकी नहीं यदि विज्ञ इतिहासकारों को इसका परिचायक के नीचे देवनागरी लिपि एवं संस्कृत भाषा में ज्ञात हो तो अनुरोध है कि इसकी भौगोलिक निबद्ध अधोलिखित लेख उत्कीर्ण है : स्थिति से मुझे भी अवगत कराने की कृपा करें। महावीर जयन्ती स्मारिका 17 2-63 Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी प्रकार 'प्राग्वाट' भी विचारणीय पद है चंवर धारियों का प्रालेखन है। दोनों ही के एककिन्तु इसका समाधान पोरवाल या परवार जाति एक हाथ खंडित हो चुके हैं। पीठ के दोनों प्रोर के रूप में ज्ञात हुआ। यह जाति आज भी सिंहासन के गजमुख बने हैं। मुनिसुव्रत की प्रतिमा राजस्थान में पायी जाती है। __ के ऊपर की ओर दाँयी बाँयी ओर विद्याधर यू तो प्रतिमा लेख में श्री मुनिसुव्रत की मिथुन बने हैं, मलनायक के शिर के पीछे प्रष्ट प्रतिमा की स्थापना का उल्लेख है, किन्तु इस पद्मपत्रों से बना प्रभामंडल है इसके ऊपर तेज कलाकृति की विलक्षणताए, विशेषताए' कुछ मंडल भी दर्शनीय है। प्रभामंडल के दोनों ओर अधिक सोचने को विवश करती है। मूलनायक कैवल्य वृक्ष के एक एक पत्ते बने है । और प्रभामंडल बीसवें तीर्थङ्कर सुव्रतनाथ का लांछन कच्छप के मध्य में त्रिछत्र दंड बना है । ऊपर त्रिछत्र है (कछुमा) दांयी ओर को मुह किए सनाल कमल नीचे मुनिसुव्रत सुशोभित हैं जिस पर अमृतघट पर बना है । इसी की बांयी पोर दाँयी पोर आमने- तदपुरान्त देवदु'दभिवादक का अंकन है। सामने मुह किए वस्त्राभूषणों से सजे नमस्कार त्रिछत्र के बराबर दोनों ओर एक-एक सजे मुद्रा में क्रमशः स्त्री पुरुष विराजमान हैं। पुरुष के डाढ़ी है। ठीक कच्छप के ऊपर ही षोडश पारों का __ हुए हाथी (ऐरावत) जिन पर सवार हैं । बाँयी चक्र है जिसके बीच से वस्त्र बाहर को निकला हुआ ओर दो सवार भी हैं पिछला सवार कलश लिए है, ऐसा हो सकता है कि इन्द्र मूलनायक है। चक्र के ऊपर वताकार में नक्काशी का वेष्टन की अभ्यर्थना हेतु अमृत ला रहा हो। दसरी तरफ भी ऐसा बना होगा किन्तु इस समय खंडित ही है । तदुपरान्त प्रासन का भार वहन करने वाले दोसिंह बने हैं। जो एक पैर को उठाए हुए हैं तथा तदुपरान्त मूलनायक के अंकन के ऊपर दो दोनों ही के मुह सामने को खुले हुए हैं। इसके खम्भों का सहायता से मन्दिर या गर्भगह बना पास ही दोनों ओर एक-एक अलंकृत स्तम्भ थे है जिसके भीतर ध्यानस्थ जिन बने हैं । इनके दोनों किन्तु दाँयी ओर का स्तम्भ टूट गया है। प्रासन अोर चतुर्भुजी एक-एक देव प्रतिमाएं भी बनी चौकी पर सामने की ओर तीन बड़े फूल हैं जो पांच है। बांयी ओर की मूर्ति के हाथों में गदा, शंखादि लघु पुष्पों के गुच्छे हैं बाकी भाग को छोटे चार- बने हैं दायी तरफ की मूर्ति के सिर पर सर्पफण, खानों से सजाया गया है और बीचोंबीच में हल, मूसल, पात्र आदि बने हैं। इस प्रकार क्रमशः मनकों का अंकन है। इसी के नीचे आसन का बिछा ये श्रीकृष्ण एवं बलराम के रूप में पहचाने जा वस्त्र लटक रहा है जिस पर वक्र रेखाओं का सकते हैं । अस्तु बीच में ध्यानस्थ जिन नेमिनाथ मनोहारी विलेखन है और तीन कीर्तिमुखों के मुह भगवान स्वयं सिद्ध हो जाते हैं। इन्हीं बलराम से निकलने वाली मुक्तालड़ियों को दर्शाया है। श्रीकृष्ण के निकट ही वीणा एवं बांसुरी वादक भी तत्पश्चात् कमल पर ध्यानस्थ मुनिसुव्रतनाथ को बने हैं । नेमिनाथजी की वेदी के ठीक ऊपर बड़ा बैठाया गया है। मुनिसुव्रतनाथ के वक्षस्थल पर कीर्तिमुख है जिसके मुख से मोतियों की मोटी बटी श्रीवत्स एवं शिर पर घुघराले केश है। मूल- हुई लड़ी दोनों ओर नीचे को जा रही है तथा नीचे नायकोचित भाव का सफल चित्रण है। मुख से एक-एक पुरुष इसे दृढ़ता से पकड़े बने हैं। यद्यपि शान्ति एवं करुणा को प्रभा फूटी पड़ती है । मूल. इन पुरुषों के ऊपरी भाग टूट चुके हैं किन्तु निचले नायक के बाँए एवं दाँए एक जैसी वेश सज्जा वाले भाग शेष हैं। 2-64 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसुव्रतनाथ की प्रतिमा संवत 1036 प्रागरा राज्य संग्रहालय, लखनऊ के सौजन्य से छायाशिल्पी- श्री रज्जन क्रमांक जे. 776 www.Jainelibrary.org Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्पश्चात् मुकुट, केयूर, अधोवस्त्रादि से शासनदेवी तथा सरस्वती इन सभी को वाहनपरिवेष्टिटत कायोत्सर्ग मुद्रा में कमल पर दोनों विहीन दर्शाया है । मोर एक २ दिव्य पुरुष खड़े हैं । इन पर त्रिछत्र या जहां तक सरस्वती की वाहन हीनता का कैवल्य वृक्ष नहीं बना है । ये कौन हैं इन्हें पहचानना । __ संबंध है तो इसी संग्रहालय में (जे-24) सरस्वती कठिन प्रतीत होता है। कहीं जीवन्तस्वामी या इन्द्र जो कुषाण कालीन हैं उस पर भी वाहन नहीं है। तो नहीं है ? इन्हीं के नीचे दोनों प्रोर एक-एक किन्तु जैन प्रतिभाशास्त्रीय मत का उल्लघन कायोत्सर्ग मुद्रा में कमल पर खड़े तीर्थङ्कर हैं। इनके कलाकार का अभिप्राय नहीं प्रतीत होता अपितु श्रीवत्स बना है, ऊपर त्रिछत्र एवं कैवल्यवृक्ष है । ऐसा लगता है कि शासन देवता और देवियों को अधोवस्त्र को भी दर्शाया है। इस प्रकार से यह भक्तों के अधिक समीप लाने का प्रयास किया है प्रतिमा श्वेताम्बर मतानुसार बनायी गई प्रतीत होती क्योकि इन्हीं से भक्त अपनी सीधे प्रार्थना कर है । इन तीर्थङ्कर प्रतिमानों के मुखमंडल से तप की सकता है। कई मुख भी शायद इसी कारण से तेजस्विता प्रस्फुरित होती है। नहीं पाते है। यद्यपि जैन प्रतिमा शास्त्रीय ग्रन्थों मलनायक के परिकर के बॉयी प्रोर उपरोक्त में यहां बनी कृतियों के अनुसार वर्णन नहीं पाते कैवली प्रतिमा के नीचे सिंहवर अद्ध पर्यकासीन हैं। यह भी सम्भव है कि अन्य मतों के प्रभाव के द्विभुजी अम्बिका का अकन है जिनकी बायी तरफ कारण इसी तरह से इन्हें बनाया हो। गोद में बालक है तथा दॉयी हाथ से पाश पकड़े हैं। इनके पास चवरधारिणी बनी है जो ऊपर प्रस्तु, यहां पर रूपायित प्राकृतियों के से खंडित है। किन्तु हाथ में चँवर स्पष्ट है। अलकरण, केश विन्यास भाव, मुद्रादि पर विचार करने पर यह कलाकृति चौहान युगीन प्रतीत दांयी तरफ मोढे पर द्विभुजी वरुण शासन होती है। क्योकि अन्य स्थलों से उपलब्ध इसी देवता हैं जिनके एक हाथ में नेवला तथा की शैली से परिपूर्ण प्रतिमाए चौहान राज दूसरे में निधिपात्र या बड़ा नीबू बना है। दांयी कुलीन कला से सम्बद्ध कलाविदों द्वारा ठहरायी मोर ही त्रिभंगमुद्रा में खड़ी, वस्त्राभूषणों से गई है। समलंकृत द्विभुजी एक कर में पुस्तक लिए तथा दूसरे में वस्त्र या पाश ? जैसी वस्तु लिए देवी का जैसा कि ऊपर निवेदित हो चुका है कि पालेखन है। उपरोक्त निदर्शन जमुना के तट से प्राप्त हमा है। इसी के निकट प्राज भी ऐतिहासिक किला खड़ा देवी के हाथ में पुस्तक का होना इस बात का है। इस विषय पर मैंने लब्ध प्रतिष्ठित जैन संस्कृति स्पष्ट प्रमाण है कि यह ज्ञान की देवी शारदा के मूर्धन्य विद्वान डॉ. ज्योतिप्रसादजी जैन का ही प्रकन है | इन्हें श्रु तदेवी माना जा सकता से फोन पर चर्चा की। उन्होंने सदैव की भांति है । ऐसा लगता है कि भगवान के श्रीमुख से निसृत सरलता से मेरा पथ पालोकित कर दिया। अमृतवाणी के प्रसरण हेतु सरस्वती देवी को यहां उनका मत है कि आगरे का वर्तमान किला ही पर रूपायित किया गया है । शीतलनाथ जी का प्राचीन मंदिर था किन्तु __इस प्रकार से यहां पर इतना स्पष्ट हो जाता मुस्लिमकाल में उसे ध्वस्त कर प्राज का आगरे है । पता नहीं कलाकर ने क्यों शासन देवता व का किला बना है। इसका उस समय "बादलगढ़ महावीर जयन्ती स्मारिका 77 2-65 Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का किला नाम था। यह विचार इस कृति के संक्षेप में यह कृति मुनिसुव्रत के अतिरिक्त प्राप्ति परिवेश को सहज ही स्पष्ट कर देता है। तीन अन्य तीर्थङ्करों जिनमें एक नेमिनाथ तथा दो अन्य, के अलावा जीवन्तस्वामी या इन्द्र, यक्षप्रतिमा के अभिलेख का संवत् 1063 का यक्षी, सरस्वती प्रादि के समुपस्थिति के साथ ही 1006 ई० पड़ता है जिस समय दिल्ली एवं तत्कालीन लोक-संस्कृति को उन्मुख करने वाली राजस्थान पर चौहान शासनकाल था। इस प्रकार वस्त्राभूषण, केशकलाप, चेहरों को भावभंगिमा, से प्रस्तुत चौहानकालीन कलाकृति न निर्मम यथा, मुद्राओं, उत्कीर्ण प्रभिलेख प्रादि से सुसम्पन्न काल के प्रभाव को विफल करने में सफल हुई होकर एक मनोज्ञ कला रत्न सहज ही सिद्ध हो अपितु मूर्ति भजंकों से भी सुरक्षित रही जो कम जाती है । ऐसी प्रद्वितीय रचना को 'एक विचित्र अचरज की बात नहीं हैं। अब तो यह राज्य जिन-विम्ब" से सम्बोधित करना क्या उचित न संग्रहालय लखनऊ की अक्षय निधि है। होगा? 1. 2. यदि व को च मान लें तो। इस सूचना हेतु मैं अपने पूज्य गुरुवयं डॉ० ज्योतिप्रसाद जैन का कृतज्ञ हूं। सुधी पाठकों से निवेदन है कि यदि पहचान कर सूचित करें तो अनुगृहीत होऊंगा। इस सुझाव के लिए मैं अपने परम मित्र डॉ० व्रजेन्द्रनाथ शर्मा, कीपर, नेशनल म्यूजियम, नई दिल्ली का अति प्राभारी हूँ। अहिंसा नहीं है हिंसा का नकारात्मक बोध अहिंसा एक मौलिक शोध चिन्त्य है जिसमें दृष्टि से परे दर्शन जीवन से परे प्रात्मा जिसकी मीमांसा अनेकान्त भूमिका सर्वोदय -श्री सेठिया 2-66 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ site श्रमण संस्कृति को प्राचीनता को पुष्ट प्रमाणों से प्रमाणित करते विदुषी लेखिका ने बताया है कि मोहनजोदडो और हडप्पा की खुदाई से प्राप्त अवशेषों से यह भली प्रकार प्रमाणित है कि पार्यों के कथित भारत प्रागमन से पूर्व भी यहां एक समृद्ध सभ्य और सुसंस्कृत सभ्यता थी। लोग प्रात्मविद्या के प्रकाण्ड विद्वान् थे । ये लोग भमरण संस्कृति से सम्बद्ध थे इस की प्रबलतम संभावना है। प्र० सम्पादक श्रमण संस्कृति को प्राचीनता श्रीमती चन्द्रकला जैन, जयपुर मोहनजोदड़ो और हड़प्पा के ध्वंसावशेषों ने यह तो सर्वसम्मत रूप से प्रमाणित कर दिया है पुरातत्व के क्षेत्र में एक नई हलचल पैदा कर दी कि किसी युग में उत्तरी क्षेत्रों से बहुत बड़ी संख्या है। जहां आज तक सभी प्रकार की प्राचीन सांस्कृ- में आर्य लोग भारतवर्ष में पाये। उन लोगों की तिक धारणाएं प्रार्यों के परिकर में बन्धी थी, वहां एक व्यवस्थित सभ्यता थी। यहां के आदिवासी पर खुदाई से प्राप्त उन अवशेषों ने यह प्रमाणित लोगों को उन्होंने सामाजिक, राजनैतिक, प्राथिक कर दिया है कि पार्यों के कथित भारत प्रागमन प्रादि सभी क्षेत्रों में परास्त किया और उत्तर से के पूर्व यहां एक समृद्ध संस्कृति और सभ्यता थी। दक्षिण तक समग्र देश में अपनी संस्कृति का प्रभाव उस संस्कृति के मानने वाले मानव सुसभ्य, सुसंस्कृत बढाया। यह वही सभ्यता है जिसे लोग वैदिक और कलाविद् ही नहीं थे अपितु प्रात्मविद्या के सभ्यता के नाम से अभिहित करते हैं। भी प्रकाण्ड पण्डित थे। पुरातत्व विदों के अनुसार प्राग मार्य सभ्यता-इस गवेषणा के साथजो अवशेष मिले हैं, उनका सीधा सम्बन्ध श्रमण साथ अब तक यह तथ्य भी जुड़ा हुआ था कि संस्कृति से है। आज यह सिद्ध हो चुका है कि प्रार्यों के प्रागमन से पूर्व इस भारतवर्ष में कोई पार्यों के प्रागमन के पूर्व ही श्रमण संस्कृति भारत समुन्नत सभ्यता या संस्कृति नहीं थी। जैन और वर्ष में अत्यन्त विकसित अवस्था में थी। पुरातत्व बौद्ध परम्पराएं भी इसी संस्कृति की उत्क्रान्तियांसामग्री से ही नहीं अपितु ऋग्वेद प्रादि वैदिक मात्र हैं। इन दिनों में जिस प्रकार इतिहास करवट साहित्य से भी इस सम्बन्ध में पर्याप्त सामग्री ले रहा है उससे यह स्पष्ट होता जा रहा है कि मिलती है। प्रार्यों के प्रागमन से पूर्व यहां एक समुन्नत संस्कृति प्रार्यों का प्रागमन-मोक्समूलर, मैकडानल और सभ्यता विद्यमान थी। वह संस्कृति अहिंसा, तथा अन्य पाश्चात्य विद्वानों की गवेषणामों ने सत्य और त्याग पर माधारित थी। यहां तक कि महावीर जयन्ती स्मारिका 77 2-67 Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस संस्कृति में पले-पुसे लोग अपने सामाजिक, मतियों के साथ बैल भी अंकित हैं जो ऋषभ का राजनैतिक आर्थिक एवं धार्मिक हितों के संरक्षण पूर्व रूप हो सकता है। के लिए भी युद्ध करना पसन्द नहीं करते थे। अहिंसा उनके दैनिक जीवन-व्यवहार का प्रमुख इसी पर डा. राधाकुमुद मुकर्जी ने अपनी हिन्दु मंग थी। सभ्यता नामक पुस्तक में लिखा है : श्री चन्दा ने 6 अन्य मोहरों पर खड़ी हुई मतियों की ओर भी दैनिक जीवन की दिशा में भी वे लोग प्रगति ध्यान दिलाया है । फलक 12 और 118 प्राकृति के शिखर पर थे। उनके आवास, ग्राम और नगर 7 (मार्शल कृति मोहनजोदडो) कायोत्सर्ग नामक व्यवस्थित थे और वे हाथी व घोड़ों की सवारी भी योगासन में खड़े हुए देवताओं को सूचित करती करते थे। उनके पास आवागमन के साधन भी है। यह मुद्रा जैन योगियों की तपश्चर्या में विशेषथे। यहां तक कि उनमें भक्ति मोर पुनर्जन्म के रूप से मिलती है, जैसे मथुरा संग्रहालय में स्थापित विचारों का भी विकास था। तीर्थ कर श्री ऋषभदेव की मूर्तियाँ । ऋषभ का अर्थ है बैल जो प्रादिनाथ का लक्षण है। मुहर श्रमण संस्कृति और पुरातत्व-सिन्धघाटी के संख्या F.G.H. फलक दो पर अंकित देवमूर्ति में उत्खनन के सहयोगी श्री रामप्रसाद चन्दा ने अपने एक बेल ही बना है। सम्भव है यह ऋषभ का एक लेख में लिखा है-मोहनजोदडो से प्राप्त लाल ही पूर्व रूप हो। यदि ऐसा हो तो शंव धर्म का पाषाण की मूर्ति, जिसे पूजारी की मति समझ मूल भी ताम्र-युगीन सिन्धु सभ्यता तक चला लिया गया है, मुझे एक योगी की मूर्ति प्रतीत होती जाता है । है। वह मुझे इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए वैदिक साहित्य में श्रमण तत्व प्रेरित करती है कि सिन्धुघाटी में उस समय योगाभ्यास होता था और योगी की मद्रा में वात्य-अथर्ववेद में व्रात्य शब्द का कई बार मूर्तियां पूजी जाती थीं। मोहनजोदडो और हडप्पा प्रयोग हुआ है । हमारी दृष्टि से यह शब्द श्रमण से प्राप्त मोहरें जिन पर मनुष्य रूप में देवों की परम्परा से ही सम्बन्धित होना चाहिए। प्राकृति प्रकित है, मेरे इस निष्कर्ष को प्रमाणित वात्य शब्द अर्वाचीन काल में प्राचार और करती है। संस्कारों से हीन मानवों के लिए व्यवहृत होता रहा है ।अभिधान चिन्तामणि कोश में भी यही अर्थ सिन्धुघाटी से प्राप्त मोहरों पर बैठी अवस्था किया गया है। मनुस्मृतिकार ने लिखा है - में अकित मूर्तियां ही योग की मुद्रा में नहीं है क्षत्रिय, वैश्य और ब्राह्मण योग्य अवस्था प्राप्त किन्तु खड़ी अवस्था में अंकित मूर्तियां भी योग की करने पर भी असंस्कृत हैं क्योंकि वे व्रात्य हैं और कायोत्सर्ग मुद्रा को बतलाती हैं। मथुरा म्यूजियम वे पार्यों के द्वारा गहरणीय हैं ।' आगे लिखा हैमें दूसरी शती की कायोत्सर्ग में स्थित ऋषभदेव जो ब्राह्मण, सतति उपनयन आदि व्रतों से रहित जिन की एक मूर्ति है । इस मूर्ति की शैली सिन्धु से हो उस गुरु मन्त्र से परिभ्रष्ट व्यक्ति को व्रात्य नाम प्राप्त मोहरों पर प्रकित खडी हुई देव मूर्तियों की से निर्दिष्ट किया गया है । ताण्ड्य ब्राह्मण में एक शैली से बिल्कुल मिलती है। ऋषभ या वृषभ का व्रात्य स्तोत्र है जिसका पाठ करने से अशुद्ध व्रात्य अर्थ बैल होता है और ऋषभदेव तीर्थ कर का भी शुद्ध और सुसंस्कृत होकर यज्ञ आदि करने का चिह्न बैल है। मोहर नं. 3 से 5 तक की देव. अधिकारी हो जाता है । इस पर भाष्य करते हुए 2-68 महावीर जयन्ती स्मारिका 17 Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सायण ने भी व्रात्य का अर्थ प्राचारहीन किया है, वह व्रात्य है ।17 डा. हेवर प्रस्तुत शब्द का है।10 अर्थ लिखते हैं--व्रात्य का अर्थ व्रतों में दीक्षित है उपयुक्त सभी उल्लेखों में व्रात्य का अर्थ अर्थात् जिसने आत्मानुशासन की दृष्टि से स्वेच्छा पूर्वक व्रत स्वीकार किये हों वह व्रात्य है ।18 यह प्राचारहीन बताया गया है जबकि इनसे पूर्ववर्ती __ निर्विवाद सत्य है कि व्रतों की परम्परा श्रमरण जो ग्रन्थ हैं उनमें यह अर्थ नहीं हैं, अपितु विद्वत्तम, __संस्कृति की मौलिक देन है। डा. हर्मन जेकोबी महाधिकारी पुण्यशील और विश्वसम्मान्य प्रादि की यह कल्पना कि जैनों ने अपने व्रत ब्राह्मणों से महत्वपूर्ण विशेषण व्रात्य के लिए व्यवहृत हुए। ३५ लिए हैं। निराधार कल्पना ही है। वास्तविक है। 11 व्रात्यकाण्ड की भूमिका में प्राचार्य सायण सत्य उसमें नहीं है। अहिंसा आदि व्रतों की ने लिखा है-- इसमें व्रात्य की स्तुति की गई है। परम्परा ब्राह्मण संस्कृति की नहीं, जैन संस्कृति उपनयन प्रादि से हीन मानव व्रात्य कहलाता है। की देन है । वेद ब्राह्मण और प्रारण्यक ऐसे मानव को वैदिक कृत्यों के लिए अनधिकारी साहित्य में कहीं पर भी व्रतों का उल्लेख और सामान्यतः पतित माना जाता है। परन्तु नहीं पाया है उपनिषदों, पुराणों और स्मृतियों में कोई व्रात्य ऐसा हो जो विद्वान् और तपस्वी हो, जो उल्लेख मिलता है वह सारा भगवान पार्श्वनाथ ब्राह्मण उससे भले ही द्वेष करे परन्तु वह सर्वपूज्य के पश्चात का है। भगवान पार्श्व की व्रत परम्परा होगा और देवाधिदेव परमात्मा के तुल्य होगा। का उपनिषदों पर प्रभाव पड़ा और उन्होंने उसे यह स्पष्ट है कि अथर्ववेद के व्रात्य-काण्ड का स्वीकार कर लिया । यही तथ्य श्री रामधारी सिंह सम्बन्ध किसी ब्राह्मणेतर परम्परा से है । व्रात्य ने दिनकर ने निम्न शब्दों में बताया है-'हिन्दुत्व अपने पर्यटन में प्रजापति को भी प्रेरणा दी और जैनधर्म प्रापस में घुलमिलकर इतने एकाकार थी।13 उस प्रजापति ने अपने में सुवर्ण पात्मा हो गये हैं कि आज का साधारण हिन्दू यह जानता को देखा।14 भी नहीं कि अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और प्रश्न उठता है कि यह व्रात्य कौन है जिसने अपरिग्रह ये जैनधर्म के उपदेश थे, हिन्दुत्व के प्रजापति को प्रेरणा दी ? डा. सम्पूर्णानन्द व्रात्य का अर्थ परमात्मा करते हैं 13 और बलदेव वात्य प्रासीदीयमान एवं स प्रजापति समैरउपाध्याय भी उसी अर्थ को स्वीकार करते हैं.16 किन्तु व्रात्य काण्ड का परिशीलन करने पर प्रस्तुत यत्" इस सूत्र में "पासीदीयमान" शब्द का प्रयोग कथन युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता । व्रात्य-काण्ड में हुअा है । उसका अर्थ है-पर्यटन करता हुमा । जो वर्णन है वह परमात्मा का नहीं अपितु किसी यह शब्द श्रमण संस्कृति के सन्त का निर्देश करता देहधारी का है। हमारी दृष्टि से उस व्यक्ति का है । श्रमण संकृति का सन्त आदि काल से ही नाम ऋषभदेव है । क्योंकि भगवान ऋषभदेव एक पक्का घुमक्कड़ रहा है । धूमना उसके जीवन की प्रधानचर्या रही है। वह पूर्व, पश्चिम 22 वर्ष तक तपस्या में स्थिर रहे थे। एक वर्ष तक उत्तर और दक्षिण आदि दिशाओं में अप्रतिबद्ध निराहार रहने पर भी शरीर की पृष्टि और दीप्ति रूप से परिभ्रमण करता है। प्रागम साहित्य में कम नहीं हुई थी। अनेक स्थलों पर उसे अप्रतिबन्ध बिहारी कहा है। व्रात्य शब्द का मूल व्रत है। व्रत का अर्थ वर्षावास के समय को छोड़कर शेष पाठ माह तक धार्मिक संकल्प, और जो संकल्पों में साधु है, कुशल वह एक ग्राम से दूसरे ग्राम, एक नगर से दूसरे नगर नहीं।20 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 2-69 Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा विचरता रहता है ।24 भ्रमण करना उसके लिए प्राकृत व्याकरण के ई. श्री ह्रो क्रीत क्लान्त क्लेश प्रशस्त माना गया है । म्लानस्वप्नस्पर्शहर्हिगषु' (प्राकृत प्रकाश 3.62), डा. ग्रीफिथ ने व्रात्य को धार्मिक पुरुष के रूप सूत्र के अनुसार र ह के मध्य इकार का आगम में माना है ।26 एफ. प्राई सिन्दे ने व्रात्यों को होकर 'अरिहंत' तथा प्राकृत की परम्परा के अनुसार प्रार्यों से पृथक माना है। वे लिखते हैं - वस्तुतः प्रकार का प्रागम होकर 'अरहंत' रूप प्राकृत भाषा व्रात्य कर्मकाण्डी ब्राह्मणों से पृथक् थे। किन्तु में बनते हैं। अथर्ववेद ने उन्हें प्रार्यों में सम्मिलित ही नहीं किया, प्राचार्य कुन्दकुन्द ने प्राकृत भाषा में इसका एक उनमें से उत्तम साधना करने वालों को उच्चतम रूप 'अरुह' भी प्रयोग किया है-'अरुहा सिद्धापरियों स्थान भी दिया है 127 (मोक्ष पाहुड 6/104) सम्भवत: इस प्रहा शब्द व्रात्यलोग व्रतों को मानते थे, पहन्तों (सन्तों) पर तमिल का प्रभाव हो । की उपासना करते थे और प्राकृत भाषा बोलते थे। 'अर्हन्' शब्द के विभिन्न भाषामों में अनेक रूप उनके सन्त ब्राह्मण सूत्रों के अनुसार ब्राह्मण और क्षत्रिय थे।28 व्रात्यकाण्ड में पूर्ण ब्रह्मचारी को व्रात्य इस प्रकार देखने में आते हैं-- कहा है 129 निष्कर्ष यह है कि प्राचीनकाल में व्रात्य शब्द संस्कृत अर्हन प्राकृत का प्रयोग श्रमण संस्कृति के अनुयायी श्रमणों के अरिहंत तथा प्ररहत पालि लिए होता रहा है। अथर्ववेद के व्रात्य काण्ड में अरहन्त जैन-शौरसेनी रूपक की भाषा में भगवान् ऋषभ का ही जीवन उदृङ्कित किया गया है । भगवान् ऋषभ के प्रति मागधी प्रलहत तथा अलिहंत अपभ्रशं वैदिक ऋषि प्रारम्भ से ही निष्ठावान रहे हैं और अलहतु तथा अलिहतु तमिल उन्हें वे देवाधिदेव के रूप में मानते रहे हैं । अरुह कन्नड़ अरुहंत, प्रह जैन धर्मावलम्बियों के परमाराध्य देव हैं । इसी कारण अनादिनिधन मन्त्र में इन्हें सर्व- अरहंत शब्द का प्रति प्राचीन इतिहास है। प्रथम नमस्कार किया गया है-'णमो अरहताणं जैन वाङ्मय के अति प्राचीन ग्रन्थों में तो इस शब्द णमो सिद्धाणं' । अरहंत शब्द प्राकृत है। इसका का प्रयोग हुअा ही है, किन्तु वैदिक, बौद्ध एवं संस्कृत रूप है 'अर्हन्' । 'अहं पूजायाम्' अर्थात्-पूजा- संस्कृत वाङमय में भी इस शब्द का प्रयोग उपलब्ध र्थक 'अहं' धातु से 'प्रहः प्रशंसायाम्' पाणिनी-सूत्र होता है । से प्रशंसा अर्थ में 'शतृ' प्रत्यय होकर 'अर्हत्' शब्द विनोबा भावे ने ऋग्वेद के एक मन्त्र का निष्पन्न होता है । प्रथमा के एक वचन में 'उगिदचा' उद्धरण देते हुए जैन धर्म की प्राचीनता सिद्ध की सर्वनामस्थाने धातोः' पाणिनि से नुम्' का प्रागम है । वे कहते हैं- ऋग्वेद में भगवान की प्रार्थना में होकर 'अर्हन्' पद बनता है। सम्बोधन एक वचन एक जगह कहा गया है-अर्हन इदं दयसे विश्व. में भी 'महन्' रूप बनता है। म्बम्' (ऋग्वेद 214132110) हे अहन तुम इस प्राकृत भाषा में 'शतृ' प्रत्यय के स्थान पर तुच्छ दुनिया पर दया करते हो इसमें पहन और 'स्त' प्रत्यय होकर 'अर्हत' रूप बनता है। साथ में दया दोनों जैनों के प्रिय शब्द हैं, मेरी तो मान्यता प्रह 2-70 महावीर जयन्ती स्मारिका 17 Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है कि जितना हिन्दू धर्म प्राचीन है शायद उतना ही जैन धर्म प्राचीन है । ऋग्वेद का उपयुक्त मन्त्र इस प्रकार हैश्रन् विष सायकानि धन्वार्ह निष्कं यजत विश्वरूपम् । महं निदं दयसे विश्वम्बं न वा श्री जी प्रो रुद्र त्वदन्यदस्ति || - ऋग्वेद 214133110 'प्रतिष्ठातिलक के कर्त्ता प्राचार्य नेमिचन्द्र ऋग्वेद के उपर्युक्त मन्त्र से प्रत्यन्त प्रभावित प्रतीत होते हैं। उन्होंने उपयुक्त मन्त्र के प्रायः समस्त पदों को ग्रहण करके अन्त के गुणों का निम्न प्रकार विस्तार से वर्णन किया है मन् विभर्षि मोहारिविध्वंसिनयसायकान् । अनेकान्तधोति निर्बाध प्रमाणोदारधनुः च ।। ततस्त्वमेव देवासि युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् । दृष्टेष्टबाधितेष्टाः स्युः सर्वथैकान्तवादिनः ॥ श्रहं निष्कमिवात्मानं बहिरन्तर्म लक्षयम् । विश्वरूपं च विश्वार्थे वेदितं लभसे सदा ॥ अर्हन्निदं च दयसे विश्वमभ्यंतराश्रयम् । नृसुरासुरसंघातं मोक्षमार्गोपदेशनात् ॥ ब्रह्मासुरजी वान्यो देश रुद्रस्त्वदस्ति 132 हे अन् श्राप ! मोह- शत्रु को नष्ट करने वाले 'नय' रूपी बारणों को धारण करते हो तथा अनेकान्त को प्रकाशित करने वाले निर्बाध प्रमाण रूप विशाल धनुष के धारक हो । मुक्ति एवं शास्त्र से श्रविरुद्ध वचन होने के कारण आप ही हमारे श्राराध्य देव हो । सर्वथा एकान्तवादी हमारे देवता नहीं हो सकते क्योंकि उनका उपदेश प्रत्यक्ष एवं अनुमान से बाधित है । हे श्राप ! ऐसी श्रात्मा को धारण करते हो जो निष्कछि अर्थात् श्राभूषण या रत्न की तरह प्रकाशमान है बाह्य और अन्तः मल से रहित है और जो समस्त विश्व के पदार्थों को एक साथ महावीर जयन्ती स्मारिका 77 निरन्तर जानता है । हे प्रर्हन्, प्राप! मनुष्य, सुर एवं असुर सभी को मोक्षमार्ग का उपदेश देते हो, अतः विम्भ पर दया भाव से परिपूर्ण हो श्राप से अन्य कोई ब्रह्म अथवा असुर को जीतने वाला बलवान देवता नहीं है ।' ऋग्वेद के अन्य स्थानों पर भी श्रहन् शब्द का प्रयोग मिलता है अन् देवान् यक्षि मानुषत् पूर्वो श्रद्य । 33 तो ये सुदानवो नरो असामि शव सः । '34 श्रहन्ता चित्रोदधे शेव देवा वर्तने । '35 ऋग्वेद के उपर्युक्त उद्धरणों से ऐसा प्रतीत होता है कि ऋग्वेदकाल में जैन धर्मावलम्बी अन्त की उपासना करते थे । वराहमिहिरसंहिता, 36 योगवासिष्ठ, 37 वायुश्रीमद्भागवत 39 पद्मपुराण, 40 facu पुराण, 38 पुराण 41 स्कन्दपुराण, 42 मत्स्यपुराण 44 और देवीभागवत मत का उल्लेख मिलता है । शिवपुराण 18 में भी ग्रहन विष्णु पुराण अनुसार लोग श्रात् धर्मको मानने वाले थे । उनको मायामोह नामक किसी व्यक्ति विशेष ने आर्हत धर्म में दीक्षित किया था । 46 वे सामवेद, यजुर्वेद श्रौर ऋग्वेद में श्रद्धा नहीं रखते थे । 47 वे यज्ञ श्रौर पशु बलि में भी विश्वास नहीं रखते थे । 18 अहिंसा धर्म में उनका पूर्ण विश्वास था ।49 वे श्राद्ध और कर्मकाण्ड का विरोध करते थे | 50 मायामोह ने श्रनेकान्तवाद का भी निरूपण किया था। 51 ऋग्वेद में असुरों को वैदिक प्रार्यों का शत्रु कहा है 152 के बौद्ध वाङ् मय में अरहन्त शब्द महात्मा बुद्ध लिए प्रयुक्त प्रयोग है । अरहन्त के जो गुण पालि साहित्य में कहे गये हैं वे बहुत प्रशों में जैन अरहन्त के गुणों से समानता रखते हैं । पालि भाषा के बौद्ध प्रागम (त्रिपिटक), 'धम्मपद' में 'अरहन्त गो' नामक एक प्रकररण है इसमें दश गाथानों में 2 71 Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्ररहन्त का वर्णन किया है । धम्मपद के अनुसार तैत्तिरीयारण्यक में भगवान् ऋषभदेव के अरहन्त वह है जिसने अपनी जीवन यात्रा समाप्त शिष्यों को वातरशन ऋषि और उर्ध्वमंथी कहा करली है, जो शोक रहित है, जो संसार से मुक्त है है।56 जिसने सब प्रकार के परिग्रह छोड़ दिये हैं और जो कष्ट रहित हैं वातरशन मुनि वैदिक परम्परा के नहीं थे क्योंकि वैदिक परम्परा में संन्यास और मुनि पद __ गतद्धिनो विसोकस्स विप्पमुत्तस्स सब्बधि । को पहले स्थान नहीं था।' सब्बगन्थ पहीनस्स परिलाहों न विज्जति ।।" -धम्मपद प्ररहन्त बग्गो 921 श्रमरण श्रमण शब्द का उल्लेख तैत्तिरीयारण्यक और वातरशना श्रीमद् भगवान के साथ ही वृहदारण्यक उपनिषद श्रीमद्भागवत पुराण में लिखा है स्वयं रामायण58 में भी मिलता है । इण्डो ग्रीक और भगवान विष्णु महाराजा नाभि को प्रिय करने के इण्डो सीथियन के समय भी जैन-धर्म श्रमण धर्म लिए उनके रनिवास में महागनी मरुदेवी के गर्भ के नाम से प्रचलित था। मंगस्थनीज ने अपनी में पाए । उन्होंने वातरशना श्रमण ऋषियों के धर्म भारत यात्रा के समय दो प्रकार के मुख्य दार्शनिकों को प्रकट करने की इच्छा से यह अवतार ग्रहण का उल्लेख किया है । श्रमण और ब्राह्मण उस युग किया 153 के मुख्य दार्शनिक थे ।59 उस समय उन श्रमणों का ऋग्वेद की ऋचाए इस प्रकार हैं बहुत प्रादर होता था। काल ब्रुक ने जैन सम्प्रदाय मुनयो वातरशना: पिशंगा वसते मला । पर विचार करते हुए मैगस्थनीज द्वारा उल्लिखित वातस्यानु धाजिम् यन्ति यद्देवासो अविक्षत ॥ श्रमण सम्बन्धी अनुच्छेद को उद्धृत करतेहुए लिखा उन्मदिता मौने यन वातां प्रा तस्थिमा वयम् । है कि श्रमण वन में रहते थे सभी प्रकार के व्यसनों शरीरेदस्मांक यूयं भर्तासो अभि पश्यथ ।। से अलग थे। राजा लोग उनको बहुत मानते थे और देवता की भांति उनकी पूजा मोर स्तुति करते अर्थात् प्रतीन्द्रियार्थदर्शी वात रशना मुनि थे 160 मल धारण करते है जिससे पिंगलवर्ण वाले दिखाई देते हैं। जब वायु की गति को प्राणोसना द्वारा केशी धारण कर लेते हैं अर्थात् रोक देते हैं तब वे अपने जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति के वर्णनानुसार भगवान सप की महिमा से दीप्तिमान होकर देवता स्वरूप ऋषभदेव जब श्रमण बने तो उन्होंने चार मुष्टि को प्राप्त हो जाते हैं । सर्वत्र लौकिक व्यवहार को केशों का लोच किया था । सामान्यतः पांच-मुष्टि छोड़कर वे मौनेय की अनुभूति में कहते हैं । केश लोंच की परम्परा है भगवान केशों का लोंच "मुनिभाव से प्रमुदित होकर हम वायु में स्थित हो कर रहे थे। दोनों भागों का केश लोंच करना गये हैं। मयों ! तुम हमारा शरीर मात्र देखते अवशेष था। उस समय प्रथम देवलोक के इन्द्र हो।" रामायण की टीका में जिन वातवसन मुनियों शकेन्द्र ने भगवान से मिवेदन किया इतनी सुन्दर का उल्लेख किया गया है वे ऋग्वेद में वरिणत वात- केशराशि को रहने दें। भगवान ने इन्द्र की रशन मुनि ही ज्ञात होते हैं । उनका वर्णन उक्त प्रार्थना से उसको उसी प्रकार रहने दिया । यही वर्णन से मेल भी खाता हैं।54 केशी मुनि भी कारण है कि केश रखने के कारण उनका एक वातरशन की श्रेणी के ही थे । नाम केशरियाजी हुप्रा । जैसे सिंह अपने केशों के 2-72 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारण केसरी कहलाता है वैसे ही भगवान ऋषभ केशी, केसरी और केशरियानाथ के नाम से विश्रुत हैं । ऋग्वेद में भगवान ऋषभनाथ की स्तुति केशी के रूप में की गई है 162 वातरशना प्रकरण में प्रस्तुत उल्लेख आया है, जिससे स्पष्ट है कि केशी ऋषभदेव ही थे । अन्यत्र ऋग्वेद में hit प्रोर वृषभ का एक साथ उल्लेख भी प्राप्त होता है । मुद्गल ऋषि की गाए (इन्द्रियां ) चुराई जा रही थीं। उस समय केशी के सारथी ऋषभ के वचन से वे अपने स्थान पर लौट पायीं । प्रर्थात् ऋषभ के उपदेश से वे इन्द्रियां श्रन्तमुखी हो गयी 63 ॠग्वेद में भगवान ऋषभ का उल्लेख अनेक बार हुआ है 164 वैदिक आर्यों के भागमन के पूर्व भारत वर्ष में सभ्य घोर असभ्य ये दो जातियां थीं । प्रसुर नाग और द्रविड ये नगरों में रहने के कारण सभ्य जातियां कहलाती थीं और दास प्रादि जंगलों में निवास करने के कारण असभ्य जातियां कहलाती थीं । सभ्यता और संस्कृति की दृष्टि से प्रसुर अत्यधिक उन्नत थे । प्रात्मविद्या के भी जानकार थे 185 शक्तिशाली होने के कारण वैदिक पायें को उनसे प्रत्यधिक क्षति उठानी पडी । वैदिक वाङ्मय में देव-दानवों का जो युद्ध वर्णन प्राया है, हमारी दृष्टि से यह युद्ध असुर और वैदिक श्रार्यों का युद्ध है। वैदिक आर्यों के श्रागमन के साथ ही प्रसुरों के साथ जो युद्ध छिड़ा वह कुछ ही दिनों में समाप्त नहीं हो गया, अपितु वह संघर्ष 300 वर्ष तक चलता रहा 66 प्रार्यों का इन्द्र पहले बहुत शक्ति सम्पन्न नहीं था 167 एतदर्थ प्रारम्भ में श्रायं लोग पराजित होते रहे थे। 68 महाभारत के अनुसार असुर राजानों की एक लम्बी परम्परा रही है । 69 और वे सभी राजागरण व्रत परायण, बहुश्रुत लोकेश्वर थे | 70 पद्मपुराण के अनुसार असुर लोग हार स्वीकार करने के पश्चात् नर्मदा के तट पर निवास करने लगे 171 1. Ancient India (An Ancient History of India Part 1 ) उपयुक्त विवरण से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते है कि श्रमण संस्कृति भारत की एक महान संस्कृति और सभ्यता है जो प्राक् ऐतिहासिक काल से ही भारत के विविध प्रचलों में फलती धौर फूलती रही है। जैन संस्कृति, जिसे श्रमण संस्कृति कहा गया है, वैदिक प्रौर बौद्ध संस्कृति से पूर्व को संस्कृति है, भारत की श्रादि संस्कृति है । By Majumdar, Roy Chudhary and K.C. Datta, p. 23. 2. The Religion of Ahinsa, By prof. A. Chakaravarti p. 17. 3. Mohan-Jo-dro and the Indus Civilization (1931) vol. I p.p. 93-95. 4. Ancient India ( An Ancient History of India, Part I ) 5. पं. कैलाशचन्द शास्त्री का लेख " श्रमण परम्परा की प्राचीनता" अनेकान्त वर्ष 28 कि. 1 go 113-114 1 7. श्रत ऊर्ध्वं त्रयोऽप्येते यथाकालम् संस्कृताः । सावित्रीपतिता व्रात्या भवन्त्यार्थ विगर्हिताः ॥ महावीर जयन्ती स्मारिका 77 6. व्रात्यः संस्कारवर्जितः । व्रते साधुः कालो व्रात्यः । तत्र भवो व्रात्यः प्रायश्चित्तार्हः संस्कारोऽत्र उपनयनं तेन वर्जितः । -मभिधान चिन्तामरिणकोष 3/518 - -- मनुस्मृति 1 / 518 2-73 Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. द्विजातय: सवर्णासु, जनयन्त्यव्रतांस्तु तान् । तान् सावित्री परिभ्रष्टान् बाह्यानीति विनिर्दिशेत् । -- मनुस्मृति 10/20 9. हीना वा एते । हीयन्ते ये व्रात्यां प्रवसन्ति । षोडशो वा एतत् स्तोमः समाप्तुमर्हति । 10. व्रात्यान् व्रात्यतां श्राचारहीनतां प्राप्य प्रवसन्तः प्रवासं कुर्वतः । -- ताण्ड्य महाब्राह्मण सायण भाष्य 11. कञ्चिद् विद्वत्तमं महाधिकारं, पुण्यशीलं विश्वसंमान्यं । ब्राह्मण विशिष्टं व्रात्यमनुलक्ष्य वचनमिति मंतव्यम् ॥ 12. वही 15 / 1 /1/1 13. व्रात्य प्रासीदीयमान एव स प्रजापति समैरयत् । 14. सः प्रजापतिः सुवर्णमात्मन्नपश्यन् । वही 15/1/1/3 15. अथर्ववेदीयं व्रात्यकाण्डं पृ. । । 16. वैदिक साहित्य और संस्कृति ए. 229 17. बियते यद् तद्व्रतम्, व्रते साधु कुशले वा इति व्रात्यः । ' -- अथर्ववेद 15/1/1/1 सायरण भाष्य -- प्रथर्थवेद 15/1/1/1 18. Vratya as initiated in Vratas. Hence Vratyas means a person who has voluntarily accepted the moral code of vows for his own spiritual discipline. --By Dr. Habar 19. The Sacred Books of the East vol. XXII uitr. p.24 It is therefore probable that the Jainas have borrowed their on vows from Brahamans, not from Buddhists. 20. संस्कृति के चार अध्याय पृ. 125 21. 22. सः उदतिष्ठत् सः प्रतीचीं दिशमनुव्यचलत् ॥ 23. सः उदतिष्ठत् सः उदीचीं दिशमनुव्यचलत् । 24. दशवैकालिक चूलिका 2 गा. 11 । 25. विहार चरिया इसिणं पसत्था । -- दशवैकालिक चूलिका 2 गा. 5 26. "The Religion and philosophy of Atharva veda" Vratyas were outside the pale of the orthodox Aryans. The Atharva veda not only admitted them in the Aryan fold but made the most righteous of them, highest divinity. -FI. Sinde सः उदतिष्ठत् स प्राचीदिशमनुव्यचलत् । अथर्ववेद 15/1/2/1 2-74 27. ऋषभदेव : एक परिशीलन -- देवेन्दमुनि शास्त्री । 28. वैदिक इण्डेक्स दूसरी जिल्द 1958 पृ. 343, मैकडानल भौर कीथ । 29. वैदिक कोश, वाराणसेय हिन्दुविश्वविद्यालय 1963, सूर्यकान्त । 30. भगवान परमर्षिभिः प्रसादितो नाम प्रियचिकीर्षया तदवरोधायने मरुदेव्यां धर्मान् दर्शयितुकामा वातरशनानां श्रमणानाम् ऋषीणाम् उमन्थिनां शुक्लया तत्वावतार भगवत पुराण 5/3/20 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 श्रथर्ववेद 15 / 1 / 2 / 15 -- प्रथर्ववेद Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BI. विनोबा भावे श्रमण संस्कृति पृ० 57 32. प्राचार्य नेमिचन्द्र - प्रतिष्ठातिलक 374-78 33. ऋग्वेद 2/9/22/4/1 34. वही-4/3/9/52/5 35. वही - 3/86/5 36. दिग्वासास्तरुणो रूपवांश्च कार्योऽर्हतां देवः ।' वराहमिहिर संहिता 45/58 37. वाल्मीकि योग वासिष्ठ 6/173/34 वेदान्ताहत सांख्य सौगतगुरुयम्क्षादि सूक्तादृशो।" 38. ब्राह्म शैवं वैष्णवं चश्सौंर शाक्तं तथाईतम् ।" वायु पुराण 104/16 39. श्रीमद्भागवत 5/3/20 40. पद्मपुराण 13/350 41. विष्णुपुराण 17-18 अध्याय 42. स्कन्दपुराण 36-37-38 अध्याय 43. शिवपुराण 5/4-5 44. मत्स्यपुराण 24/43-49 45. देवी भागवत-4/13/54-57 46. अर्हततं महाधर्म माया मोहेन तेयतः । प्रोक्तास्त माश्रिता धर्ममाहतास्तेन तेऽभवनू । -विष्णु पुराण 3/18/12 47. विष्णु पुराण-3/18/13-14 48. वही 3/18/27 49. वही 3/18/25 50. वही 3/18/28-29 51. वही 3/18/8-11 52. ऋग्वेद 1/23/174/2-3 53. ऋग्वेद 10/11/136,2,3. 54. वातरशनाः वातरशनस्य पुत्राः मुनयः प्रतीन्द्रियार्थदशिनो जूतिवात जूतिप्रभृतयः पिशंगां पिशंगानि कपिलवर्णानि मला मलिनानि वत्कलरूपाणि वासांसि वसते आच्छादयन्ति । -सायरस भाष्य 10/136/2 55. वही 10/135-7 56. वातरशना हवा ऋषयः श्रमणाः उर्वमन्थिनो वभूवुः -तैत्तिरीयारण्यक 2,7/1 पृ. 137 57. वृहदारण्यकोपनिषद 4/3/22 58. तपसा भुञ्जते चापि श्रमण भुञ्जते तथा । -रामायण बालकाण्ड, सं. 14 श्लोक 22 महावीर जयन्ती स्मारिका 11 2-73 Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 59. एन्शियन्ट इण्डिया एज डिस्क्राइब्ड बाय मैगस्थनीज एण्ड एरियन, कलकत्ता 1926 पृष्ठ 97-98 60. अन्सलेसन भाव द फेग्मेन्टस भाव द इण्टिया प्राव मंगस्थनीज, पान, 1846, पृष्ठ 105 61. चउहि अट्टाहिं लोअं करेइ । मूल __ वृत्ति-तीर्थकृतां पंचमुष्टिलोच सम्भवेऽपि अस्य भगवतश्चमुमुष्टिक लोचगोचरः श्रीहेमाचायः कृत ऋषभचरित्राद्यभिप्रायोऽयं प्रथमेक्या मुष्ट्या श्मश्रु कूय॑र्योचे तिसृभिश्च शिरोलोचे कृत एका मुष्टिमवशिस्यामारणा पवनान्दोलितां कनकावदातयोः प्रभुस्कद्ययोरुपरि लुठन्तोमरकतोपमानभमाविभुतीं परमरमसीयां वीक्ष्य प्रमोदमानेन शक्रेण भगवन! मह्यमनुग्रहं विधाय ध्रियतामिय मित्थमेवेति विज्ञप्ते भगवताऽपि सा तथैव रक्षितेति । न ह्यकान्तभक्तानां याच्यामनुग्रहीतारः खण्डयन्तीति" -जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति व संस्कार 2,सू. 30 62. केश्यग्नि केशी विषं वित्ति रोदसी। केशी विश्वं स्वर्ट शे केशीदं ज्योति रुच्यते ।। -ऋग्वेद 10/11/136/D 63. ककर्दवे वृषभो युक्त, प्रासीदवावचीत्सार चिरस्य केशी दुधेयुक्तस्य द्रवत: सहानस ऋच्छान्तिष्मा निष्पदो मुद्गलानीम् । -ऋग्वेद 10/9/102/6 64. ऋग्वेद 1/24/190/1, ऋग्वेद 2/4/33/15, ऋग्वेद 5/2/28/4, ऋग्वेद 6/1/1/8, - ऋग्वेद 6/2/19/11, ऋग्वेद 10/12/166/1, 65. महाभारत शान्तिपर्ण 227/13 66. अथ देवासुरं युद्धमभूद वर्षशतत्रयम् । -मत्स्यपुराण 24/35 67. अशक्तः पूर्वमासीस्त्वं कथंचिच्छक्ततां गतः । कस्त्वदन्य इमां वाचं सुक्ररां वक्तुमर्हति ।। -महाभारत शान्तिपर्व 227/22 68. देवासुरमभूद् युद्ध, दिव्यमब्दशतं पुरा। तस्मिन् पराजिता देवा दैत्यद्धार्द पुरागमः ।। -विष्णुपुराण 3/17/7 69. महाभारत, शान्ति पर्व 227/49-54 70. महाभारत, शान्ति पर्व 227/59-60 71. नर्मदासरितं प्राप्य स्थिता दानवसत्तमा । -~-पद्मपुराण 13/412 2-16 महावीर जयन्ती स्मारिका 71 | Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर अपने स्थापना काल से ही जैनकला और संस्कृति का एक महत्वपूर्ण केन्द्र रहा है। बडे-बडे विशाल जैन मन्दिर यहां हैं। भट्टारकों की गद्दी यहां रही हैं। प्राचार्यकल्प पं० टोडरमलजी, सदासुखजी आदि विद्वानों के कार्यक्षेत्र होने का सौभाग्य भी जयपुर को ही है। बडे विशाल शास्त्र भण्डार यहां हैं जिनमें हजारों की संख्या में जैनाजन ग्रन्थ हैं । यहां जैनी बड़े बड़े प्रौहदों पर रहे हैं । शासन संचालन में उनका बहुत बड़ा हाथ रहा है। कई सामाजिक प्रान्दोलनों का वह केन्द्र रहा है। आज भी पर्याप्त संख्या में जैन विद्वान् यहां हैं । संख्या की दृष्टि से भी अनुमानतः यहां जैनों की संख्या भारत में सर्वाधिक है। इसीलिए प्रायः लोग इसे जैनपुर के नाम से भी संबोधित करते हैं। प्र० सम्पादक जैनपुर-जयपुर * डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल, जयपुर राजस्थान की राजधानी बनने के पूर्व जयपुर नहीं मिलते। यही नहीं सभी मन्दिर विशाल एवं नगर ढ़ढाड प्रदेश की राजधानी था। इसके पूर्व कलापूर्ण हैं । चौड़ा रास्तो स्थित ताड़केश्वरजी इस प्रदेश की राजधानी प्रामेर थी। महाराज का मन्दिर शैव मन्दिरों में सबसे प्रसिद्ध एवं सवाई जयसिंह द्वारा 18 नवम्बर सन् 1727 में प्राचीनतम मन्दिर है। इसी तरह गोविंददेवजी इस नगर की स्थापना की गयी । पहिले इस मन्दिर एवं रामचन्द्रजी का मन्दिर यहां के प्रसिद्ध नगर का नाम जयनगर था। बाद में यह सवाई एवं लोकप्रिय मन्दिरों में से हैं । जयपुर नगर एवं जयपुर के नाम से प्रसिद्ध हो गया और अब केवल उपनगरों में स्थित जैन मन्दिरों एवं चैत्यालयों की जयपुर के नाम से विख्यात है। इस नगर के संख्या पहिले 175 मानी जाती थी लेकिन वर्तमान निर्माण का सबसे अधिक श्रेय विद्याधर नामके में कुछ नये मन्दिर और बन गये हैं और कुछ व्यक्ति को है जिसे टाड ने जैन लिखा था लेकिन चैत्यालय कम हो गये हैं । नगर के अधिकांश जैन अधिकांश इतिहासकारों के अनुसार वह बंगाली था। मन्दिर विशाल एवं कलापूर्ण हैं । जिनमें अत्यधिक मनोज्ञ एवं प्राचीन मूर्तियां विराजमान हैं। विशाल मन्दिरों का नगर : दिगम्बर जैन मन्दिर पाटोदी एवं दिगम्बर जैन मन्दिर तेरहपन्यी बड़ा मन्दिर, यहां के प्राचीनतम जयपुर नगर प्रारम्भ से ही विशाल मन्दिरों का मन्दिर हैं। इनका निर्माण जयपुर के निर्माण के नगर रहा है। यहां जितनी संख्या में शैव, वैष्णव साथ हुआ था । विशाल मन्दिरों में जैन मन्दिर एवं जैन मन्दिर हैं उतनी संख्या में अयन्त्र कहीं भी बड़ा दीवानजी, दिगम्बर जैन मन्दिर छोटा महावीर जयन्ती स्मारिका 77 2-77 Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीवानजी, सिरमोरियों का मन्दिर, संघीजी का इसमें हजारों मूर्तियों की प्रतिष्ठा हुई। इसी तरह मन्दिर, खिन्दूकों का मन्दिर, ठोलियाँ का मन्दिर, संवत् 1861 में जयपुर में भट्टारक सुखेन्द्रकीति के महावीर स्वामी का मन्दिर, दारोगाजी का मन्दिर, निर्देशन में एक और विशाल प्रतिष्ठा समारोह बधीचन्दजी का मन्दिर, चाकसू का मन्दिर, हुआ। इन प्रतिष्ठानों से भट्टारकों के प्रति जनता चौबीस महाराज का मन्दिर, खानियां में राणाजी का सहज पाकर्षण हुप्रा और धार्मिक गतिविधियों का मन्दिर आदि के नाम उल्लेनीय हैं । में उनका सर्वोच्च स्थान माना जाता रहा । मट्टारक: विद्वान् : राजधानी बनने के साथ ही जयपुर पामेर जयपुर नगर विद्वानों एवं पंडितों का नगर गादी के भट्टारकों का केन्द्र बन गया। यही नहीं भी रहा। गत 250 वर्ष से यहां जितने विद्वान् उन्होंने अपनी गादी को भी आमेर से जयपुर एवं साहित्य-सेवी हुये उतने अन्यत्र किसी भी नगर स्थानान्तरित कर दिया। जयपुर की स्थापना में नहीं हो सके। यहां पंडित टोडरमलजी हुये भट्टारक देवेन्द्रकीति के शासन काल में हुई थी। जिन्होंने मोक्षमार्ग प्रकाशक जैसे ग्रन्थ की रचना की इनके पश्चात् संवत् 1792 में भट्टारक महेन्द्रकीर्ति एवं गोम्मट्टसार, लब्धिसार, क्षपणसार जैसे ग्रन्थों की हुये । यद्यपि उनका पट्टाभिषेक देहली में हुआ भाषा टीका की। इसी समय महाकवि दौलतराम था लेकिन जयपुर नगर इनकी सांस्कृतिक गति- कासलीवाल हुये जिन्होंने जयपुर में हरिवंशपुराण, विधियों का केन्द्र था। इनके पश्चात् भट्टारक पद्मपुराण, आदिपुराण आदि की भाषा टीका क्षेमेन्द्रकीति (संवत् 1815) भट्टारक सुरेन्द्रकीति लिखकर जन-जन में स्वाध्याय का जबरदस्त प्रचार (संवत् 1822), भट्टारक सुखेन्द्रकीर्ति (संवत् किया । इसी समय कविवर बख्तराम हुये जिन्होंने 1852), भट्टारक नरेन्द्रकीर्ति (संवत् 1880) बुद्धिविलास एवं मिथ्यात्वखंडन जैसे ग्रन्थों का एवं भट्टारक देवेन्द्रकीति (संवत् 1883) के जयपुर निर्माण किया। इनके बाद पं० जयचन्द्र छाबड़ा में ही पट्टाभिषेक हुये। इन भट्टारकों के कारण हुये जिन्होंने पं० टोडरमलजी एवं दौलतरामजी की ढूढाड प्रदेश में जबरदस्त सांस्कृतिक जागृति परम्परा को जीवित रखा और 15 से भी अधिक रही । मन्दिरों के निर्माण, बिम्ब प्रतिष्ठानों का ग्रन्थों की भाषा टीका निबद्ध की। इनमें समयसार आयोजन तथा व्रत विधान उत्सव आदि में इनका भाषा टीका, सर्वार्थसिद्धि भाषा, अष्ट पाहुडभाषा, सबसे अधिक योगदान रहा। संवत् 1780 में ज्ञानार्णवभाषा, आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। जयसिंहपुरा खोर में मन्दिर का निर्माण होकर उन्हीं के समकालीन ऋषभदास निगोत्या हुये प्रतिष्ठा हुई जिसमें भट्टारक देवेन्द्रकीर्ति का प्रमुख जिन्होंने मूलाचार की भाषा टीका संवत् 1888 में योगदान रहा । संवत् 1783 में जो बांसखों में पूर्ण की थी। ऋषभदास निगोत्या के सुपुत्र विशाल पंचकल्याणक प्रतिष्ठा हुई थी उसमें भी पारसदास भी साहित्यकार थे जिन्होंने ज्ञानसूर्योदय भट्टारक देवेन्द्रकीति का ही आशीर्वाद था। इसके नाटक की संवत् 1910 में भाषा टीका पूर्ण की। पश्चात् संवत् 1826 में भट्टारक सुरेन्द्रकीति के इसी नगर में पं० बुधजन हुये जो एक अच्छे कवि निर्देशन में सवाई माधोपुर में संघी नन्दलाल गोधा थे और जिन्होंने अपने प्रसिद्ध कृति बुधजन सतसई ने जो पंचकल्याणक प्रतिष्ठा करवायी थी वह संवत् 1879 में समाप्त की थी। इनके दूसरे अपने समय की सबसे प्रभावशाली प्रतिष्ठा थी। ग्रन्थ हैं तत्वार्थबोध, पंचास्तिकाय एवं बुधजन 2-78 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विलास । नगर में एक के पश्चात् दूसरे विद्वान, नहीं कभी-कभी स्वयं विद्वान् भी अपनी कृतियों पडित होते गये। 19वीं शताब्दी में ही यहां की प्रतिलिपियां करते थे । संवत् 1879 कार्तिक थानसिंह कवि हुये जिन्होंने सुबुद्विप्रकाश की बुदी 14 को पं० सदासुख कासलीवाल ने द्रव्य संवत् 1847 में रचना की तथा पन्नालाल खिन्दूका संग्रह भाषा की प्रतिलिपि सम्पन्न की थी। इसी ने संवत् 1871 में चारित्रसार भाषा को पूर्ण तरह पं० केशरीसिंह ने दर्शनसार की प्रति संवत् किया। पं० सदासुख कासलीवाल का जन्म संवत् 1850 में समाप्त की थी। 1852 में हुआ। इन्होंने भी कितने ही ग्रन्थों की भाषा टीका लिखी । 'अर्थ प्रकाशिका' इनकी सबसे दीवान : उत्तम कृति मानी जाती है । पारसदास निगोत्या जयपूर व राज्य के शासन में भी जैनों का इन्हीं का शिष्य था। केशरीसिंह भी जयपुर के भी जयपुर के जबरदस्त योगदान रहा। यहां के अधिकांश दीवान अच्छे विद्वान् थे । इन्होंने वर्द्ध मानपुराण की जैन हये। जिन्होंने धर्म एवं साहित्य की सेवा के भाषा टीका लिखकर स्वाध्याय की प्रवृत्ति को , साथ-साथ राज्य की भी अनुपम सेवाएं की। इन प्रोत्साहित किया। गत 50 वर्षों में होने वाले दीवानों की पहुंच दिल्ली दरबार तक थी। वे विद्वानों में पं० चैनसुखदास न्यायतीर्थ का नाम । युद्ध क्षेत्र में भी जाते और वहां वीरतापूर्वक युद्ध सर्वाधिक उल्लेखनीय है। इन्होंने जैनदर्शनसार, करते । महाराजा के वे विश्वस्त एवं कृपापात्र पावन प्रवाह, षोडशकारण भावना जैसे ग्रन्थों की होते थे। ऐसे दीवानों में राव कृपाराम पांड्या, संस्कृत में रचना की । पंडितजी बड़े क्रान्तिकारी दीवान श्योजीलाल, दीवान अमरचन्द, दीवान विद्वान् थे और समाज को नवीन दिशा देने में रतनचन्द साह, दीवान नन्दलाल गोधा, थाराम रतन इनका प्रमुख हाथ रहा था । पंडितजी के अतिरिक्त संधी (संवत 1881-1891) आदि के नाम उल्लेखपं० इन्द्रलालजी शास्त्री, पं. जवाहरलाल शास्त्री. नीय हैं। पं० नानूलाल शास्त्री, पं० श्रीप्रकाश शास्त्री एवं पं० प्रानन्दीलाल शास्त्री के नाम उल्लेखनीय हैं शास्त्र भण्डार : जिन्होंने साहित्य एवं संस्कृति की प्रशंसनीय सेवा की। शास्त्र भण्डारों की दृष्टि से जयपुर नगर का देश में सर्वोच्च स्थान है। अब तक के सर्वेक्षण एवं पंडित: खोज के आधार पर नगर में 20 से भी अधिक शास्त्र भण्डार हैं। वे शास्त्र भण्डार ज्ञान के विशाल उक्त विद्वानों एवं साहित्यकारों के अतिरिक्त संग्रहालय हैं जिनमें सभी विषयों की पाण्डुलिपियां यहाँ और भी अनेक पंडित हुये हैं जिन्होंने ग्रन्थों मिलती हैं। अपभ्रंश की अधिकांश कृतियों को की प्रतिलिपियां करके उनके स्वाध्याय में विशेष सुरक्षित रखने का श्रेय इन्हीं शास्त्र भण्डारों को योग दिया था। ऐसे पंडितों में पं० चोखचन्द, पं० है । इन भण्डारों में आमेर शास्त्र भण्डार, तेरहपंथी सुखराम, महा. शंभुराम, पं०नैनसागर, पं० रामचन्द्र, बड़ा मन्दिर का शास्त्र मण्डार, पाटोदी के मन्दिर सेवकराम के नाम विशेषतः उल्लेखनीय हैं । जयपुर का शास्त्र भण्डार, ठोलियों के मन्दिर का शास्त्र के शास्त्र भण्डारों में 200 से अधिक ऐसी पाण्डु- भण्डार, बवीचन्दजी के मन्दिर का शास्त्र भण्डार, लिपियां हैं जिनकी प्रतिलिपि इन्हीं विद्वानों द्वारा गोधों के मन्दिर का शास्त्र भण्डार, लाल भवन का अथवा इनके निर्देशन में सम्पन्न हुई थी। यही प्रन्थ संग्रहालय प्रादि के नाम उल्लेखनीय हैं। इन महावीर जयन्ती स्मारिका 77 2-79 Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्र भण्डारों में 14वीं शताब्दी से लेकर 20वीं करने में सफलता प्राप्त की। इनके अतिरिक्त यहां शताब्दी तक की पाण्डुलिपियां हैं । इन भण्डारों की और भी छोटे बडे कितने ही आन्दोलन हुये और ग्रन्थ सूचियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं। कितने ही भारतीय स्तर के अांदोलनों को समर्थन दिया गया। जयपुर बसाने वाले महाराजा सवाई जयसिंह इसके पश्चात् यहां महाराजा ईश्वरीसिंह (1743- शिक्षा और अनुसंधान के केन्द्रों में भी जयपुर 50) सवाई माधोसिंह (1750-1767) सवाई नगर ने अपना पूर्ण योग दिया। दिगम्बर जैन पृथ्वीसिंह (1767-1777), महाराजा प्रतापसिंह, अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी की ओर से सर्वप्रथम महाराजा जगतसिंह (1803-1818) सवाई बनारस विश्वविद्यालय में जैन चेयर की स्थापना जयसिंह ततीय (1876-1892), सवाई रामसिंह, की गयी लेकिन वह 3-4 वर्ष के पश्चात् ही बन्द सवाई माधोसिंह एवं सवाई मानसिंह जयपुर के हो गयी। क्षेत्र की ओर से छात्रवृत्ति योजना शासक हुये जिन्होंने अपने-अपने शासन में जैन धर्म, प्रारम्भ की गयी एवं जैन साहित्य की खोज एवं संस्कृति एवं साहित्य के विकास में अपना पूर्ण प्रकाशन हेतु साहित्य शोध विभाग की स्थापना की योगदान दिया। गयी जिसके द्वारा शोध के क्षेत्र में देश के अनेक शोधार्थियों में जैन साहित्य के शोध के प्रति गहरी सामाजिक प्रान्दोलन : . रुचि पैदा की जा रही है। जयपुर नगर सामाजिक प्रान्दोलनों का भी समाज में गत 100 वर्षों में जिन समाज केन्द्र रहा । यहां होने वाले सामाजिक आन्दोलनों सेवियों ने सामाजिक कार्यों में विशेष भाग लिया ने समस्त देश का ध्यान आकृष्ट किया। सर्वप्रथम उनमें धन्नालालजी फौजदार, मुशी प्यारेलाल यहां शिथिलाचार के विरुद्ध 19वीं शताब्दी के कासलीवाल, दारोगा मोतीलाल, मास्टर मोतीलाल प्रारम्भ में तीव्र आन्दोलन हुआ जिनके आधार पर संबी, अर्जुनलाल सेठी, मुशी सूर्यनारायण सेठी, तेरहपन्थ एवं गुमानपन्थ का उत्कर्ष हुआ और बन्जीलाल ठोलिया, कपूरचन्द पाटनी, जमनालाल धार्मिक क्रियाकाण्डों में पूर्ण शुद्धता लायी गयी। साह, रामचंद्र खिन्दूका, बधीचंद्र गंगवाल एवं ऐसे आन्दोलन का नेतृत्व पं० टोडरमलजी ने किया बख्शी केसरलालजी के नाम विशेषतः उल्लेखजिनको अन्त में अपने जीवन का भी बलिदान नीय हैं। करना पड़ा। विवाह, सगाई, मृत्यु-भोज आदि सामाजिक कार्यों में कम से कम खर्च के आन्दोलन जयपुर नगर का वर्तमान में भी साहित्यिक, का नेतृत्व दीवान अमरचंद जैसे व्यक्तियों ने किया सांस्कृतिक, शैक्षणिक एवं सामाजिक दृष्टि से देश और प्रत्येक रीतिरिवाज का महजरनामा तैयार में अपना विशिष्ट महत्व है। यहां दिगम्बर और किया। राष्ट्रीय आन्दोलन के समय छुआछूत श्वेताम्बर समाज के अपने अपने महाविद्यालय, निवारण का श्रीगणेश भी जयपुर से ही हुआ और उच्चतर माध्यमिक विद्यालय, माध्यमिक विद्यालय काफी वाद-विवाद के पश्चात् समाज को इसे एवं कन्या विद्यालय हैं। श्री महावीरजी क्षेत्र की स्वीकार करना पड़ा। पं० चैनसुखदास न्योयतीर्थ ओर से संचालित साहित्य शोध विभाग के अतिरिक्त ने लोहडसाजन आंदोलन का श्रीगणेश भी जयपुर टोडरमल स्मारक भवन, लाल भवन जैसी साहिसे ही किया और समाज को सही दिशा दी तथा त्यिक संस्थायें हैं । वर्तमान में यहा बीसों न्यायतीर्थ, समाज के एक अङ्ग को पूर्ण रूप से प्रात्मसात शास्त्री, दर्शनाचार्य, एम.ए.,पी.एच.डी. उपाधिधारी 2-80 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्वान् हैं जिनमें लेखक के अतिरिक्त, पं० भंवरलाल कारों में डा० शान्ता भानावत, श्रीमती सुदर्शनादेवी न्यायतीर्थ, पं० मिलापचन्द शास्त्री, पं० भंवरलाल छाबड़ा, श्रीमती सुशीला बाकलीवाल, स्नेहलताजैन पोल्याका जैनदर्शनाचार्य, पं० अनूपचन्द न्यायतीर्थ, कोकिला सेठी, सुश्री कमला जैन के नाम लिये डा० हुकमचन्द भारिल्ल, पं० गुलाबचन्द जैनदर्शना- जा सकते हैं। उदीयमान विद्वानों में सर्व श्री चार्य, पं० सुरज्ञानीचन्द्र न्यायतीर्थ, डा. नरेन्द्र प्रेमचन्द रांवका, प्रेमचन्द जैन, पं० निर्मलकुमार भानावत के नाम उल्लेखनीय हैं। महिला साहित्य- बोहरा के नाम उल्लेखनीय हैं । 1. ग्रन्थ सूची भाग 4-पृष्ठ संख्या पृष्ठ संख्या 133 अमृत वचन प्रतिष्ठा भूषण-लाडलीप्रसाद जैन पापड़ीवाल, सवाई माधोपुर 1. महापुरुषों ने कर्मरूपी योद्धात्रों को संग्राम में ज्ञानरूपी शास्त्र, चारित्र की सेना और दर्शन के बल से परास्त कर स्वातंत्र्य (मोक्ष) प्राप्त किया । 2. वास्तविक सुख कहीं बाहर नहीं है वह आत्मानुभूति में है । 3. अशांति का मूल है हिंसा और शांति का मूल है अहिंसा । 4. विजयी होने के लिये जितेन्द्रिय बनना होगा। 5. मानव जीवन की सार्थकता इसी में है कि वह कर्मों का संवर मौर निर्जरा करे । 6. राग और द्वेष में राग अधिक अहितकारी है और दोनों के दूर होने से ही वीतरागता प्रगट होगी। 7. शल्य जहां तक रहती है वहां तक सफलता नहीं मिलती। 8. प्राडम्बर शून्य धर्म कल्याण का मार्ग है। 9. अपने पाप की समालोचना संसार बन्धन से मुक्ति का प्रधान कारण है। 10. अपने आपको अपने में देखो तो निश्चित ही प्रात्म दर्शन होगा। महावीर जयन्ती स्मारिका 17 2-81 Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ मंगल-गीत ॥ * डॉ. बडकुल, डी. एल. जैन 'धवल', बरेली प्रायो-पायो रे, जनम त्योहार, त्रयोदशि मधु-मासा। ऐ-रे, धवल-पक्ष भिन्सार, ज्ञान-रवि प्रकासा ॥ टेक ॥ भयो-भयो रे, वीर-अवतार, गोद त्रिसला साजी। सुन-सुन रे, ध्वनि शहनाई, सिद्धारथ गृह बाजी ।। जुड़ि-गयो रे, देव परिवार, कुंडलपुर में खासा । प्रायो० ।। भयो-भयो रे, अचम्भो एक, चकित थे सब प्रानी। भयो गद्-गद् सकल जहान, शत्रुता-विसरानी ।। मिली-बैठे, बकरी-शेर, प्रीति का था वासा । प्रायो० ॥ मिट गया तिमिर मिथ्यात, हृदय राजीव खिला । भये निर्भय जग के प्राणि, अभय, वर-दान मिला। भये काम-क्रोध, सब नाश, रही नहीं अभिलाषा । प्रायो० ।। प्रभु ! सुनलो प्राज पुकार, समय वह फिर पाये। हो क्षमा दया सर्वत्र, अहिंसा मन भावे ॥ दस दिशा हो, 'धवल' धर्म का हो वासा । आयो० ।। महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाहर का विज्ञान बढ़ाया कितना? - निहालचन्द जैन, एम० एस०सी० ध्याख्याता, नौगांव (म०प्र०) बाहर का विज्ञान बढ़ाया कितनाअन्तर का ज्योति-कलश, छलकानो तो जाने । कागज पर कितने गीत छन्द रच डालेजीवन-सर्जक को, मन-दर्पण पर झलकानो तो जाने ॥ मन के तामस अन्धकार के, स्वप्नों ने हमें छला है। तृष्णा के एक अणु पर, अटके सुख में हमें ठगा है। मैं जड़ता का अनुगामी, माया त्रिशंकु पर लटका । मेरा नाम अलग हो मुझ सेजाने कहां कहां भटका ! मन्दिर को वेनो तो महकायो है फूलों सेमन को वेदी का बासापन धो डालो तो जाने अन्तर का ज्योति कलश छलकानो तो जाने ॥ मृत्यों के परिचय-संग्रह में, अमृत का इतिहास चुक गया। अपने से विस्मरण अपरिचय, अपना हो परिहास बन गया। महावीर जयन्ती स्मारिका 77 B-83 Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिट्टी के दीपों के बंटवारे मेंज्योति-पुरुष को मी खण्डित कर। मुझे दियों की कालिख को हो प्रांखों का ङ्गार बनाया। पर के कितने बिम्ब मिटाये अपना रूप सजानेपर को संवारने अपना बिम्ब मिटानो तो जाने । अन्तर का ज्योति-कलश, छलकानो तो जाने । आँख खुले के प्रेम निबाहे, सम्बन्धों को परम्परा में। हँसते को वरवान लुटाये, अरमानों की परम्परा में। फूलों को मदवाती गन्धों कोबहुत सहेला है हमने । पर कांटों को दंश-चमन को कितना परहेजा है हमने। अपने सुख की सेज सजाने हम कितने प्रकुलायेफरणा के नीर बहाकर दुखियों पर अकुलानो तो जाने । अन्तर का ज्योति-कलश छलकानो तो जाने ॥ धर्म बना व्यापारबाजारों के भावों सा। पर भावों की प्रणयीवेमोल ननारी जाती है। शील सत्य झुठलाया जाता, सरे माम चौराहे पर। लज्जा अनावरित होकर के खड़ी हुई दो राहे पर। जग को बहुत बनाया हमने छल छन्दों सेअपनी धूमिल तस्वीर जड़ा लो तो हम जाने, अन्तर का ज्योति-कलश छलकाओ तो जाने । 2-84 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कला के किसी भी क्षेत्र में जैन जैनेतरों से पीछे नहीं रहे। चित्रकला भी उसका अपवाद नहीं है । प्रन्थ भण्डारों में ऐसे हजारों जैन ग्रन्थ प्राप्त होते हैं जो सचित्र हैं । चित्रकला के विकास क्रम को समझने में ये पाण्डुलिपियां बड़ी महत्त्वपूर्ण हैं। प्रस्तुत निबन्ध में विदुषी लेखिका ने समयवार ऐसी पाण्ड. लिपियों का परिचय देते हुए बताया है कि जैनों के अन्य भण्डारों के प्रबन्धकों को असहयोग की भावना के कारण इस सम्बन्धी शोध के क्षेत्र में न कुछ के बराबर कार्य हुआ है। प्र० सम्पादक चित्रित जैन पाण्डुलिपियों का क्रमिक विकास * कु. कमला जैन, जयपुर वाघ, अजन्ता, एलोरा आदि से प्रस्थापित बौद्ध धर्म सम्बन्धी देवी-देवतानों का चित्रगण भित्ति चित्र परम्परा समाप्तप्रायः होने के पश्चात् मिलता है तथा जैन धर्म ग्रन्थों में भी प्रमुखतः लगभग दसवी ई० शताब्दी से भारतीय चित्रकला तीर्थङ्कगें की जीवन सम्बन्धित घटनाओं का अंकन में ऐसा मोड़ पाया कि चित्रों का निर्माण भित्तियों दृष्टिगोचर होता है। के स्थान पर ताड़ पत्रों पर होने लगा : भित्ति सचित्र जन पाण्डुलिपियों के रचनाकाल को चित्रों की अपेक्षा यद्यपि यह कार्य सहज था तथापि लालित्य व स्थायित्व की दृष्टि से भित्ति चित्रों की डा० मोतीचन्द्र ने निम्न भागों में विभक्त किया हैतुलना नहीं कर सका। हाँ, धर्म ग्रन्थों में समाविष्ट प्रथम . ताड़पत्र का समय किये जाने के कारण ताड़ चित्र सरस व आकर्षक (I110-1400 ई०) बने रहे । ताडपत्रों पर प्रारम्भिक सचित्र पाण्डु द्वितीय-कागज का समय लिपियां पूर्वी भारत में पाल राजाओं के संरक्षण (1400 ई० के पश्चात् में रची गई । ये ग्रन्थ मुख्यतः बौद्ध धर्म की महा (प्र) प्रारम्भिक काल - यान शाखा से सम्बन्धित हैं। (1400-1600 ई.) (प्रा) उत्तर कालपश्चिमी भारत से प्राप्त चित्रित पाण्डुलिपियां (1600 ई० के पश्चात् का समय) मुख्यतः जैनधर्म से सम्बन्धित हैं । इनमें प्रारंभिक ग्रन्थ ताड़पत्र पर लिखे हुए हैं। प्रतः सम्भव है डा० मोतीचन्द्र ने 1400 ई० को ताड़पत्र कि जैन ग्रन्थों को चित्रित करने का विचार जैन पोर कागज के समय की विभाजन रेखा माना है, धर्मशासकों द्वारा बंगाल में पाल राजाओं के संर. किन्तु एच० गोयेट्ज के मतानुसार 4वीं शती का क्षण में चित्रित बौद्धधर्मी ताडपत्रीय पाण्डुलिपियों उत्तराद्धं और 15वीं शती के प्रारम्भिक दस वर्ष से लिया गया हो। क्योंकि बौद्ध धर्म ग्रन्थों में का समय ताड़पत्रीय पाण्डुलिपियों के अन्त एवं महावीर जयन्ती स्मारिका 77 2-85 Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कागदीय पाण्डुलिपियों की शुरूपात का माना है। एक पुस्तक का उल्लेख किया है, जिसमें मात्र एक उपलब्ध सामग्री के प्राधार पर पूर्व मत ही इष्ट व हाथी का चित्रण मिलता है । यह पुस्तक एक मान्य प्रतीत होता है। व्यापारी के पुत्र प्रानन्द ने लिखकर मुनि चन्द्रसूरि १. ताड़पत्र युग (1100-1400 ई०) के शिष्य मुनि यशोदेव सूरि (1093--1123 ई०) चित्रगत शैली के आधार पर पश्चिम भारतीय को भेंट स्वरूप दी थी। प्रतीत होता है कि स्कूल की ताडपत्रीय सचित्र पाण्डुलिपियों का विभा- पाण्डुलिपियों को चित्रित करने की परम्परा इसके जन निम्न दो वर्गों में किया गया है। पश्चात् प्रारम्भ हुई। (अ) प्रथम वर्ग-(1100-1350 ई०) ताडपत्रीय पाण्डुलिपियों के अन्तर्गत 1112 ई० 'षटखण्डागम' तथा 1112-20 ई० 'महाबन्ध' (प्रा) द्वितीय वर्ग- (1350-1450 ई.) व 'कसायपाहुड'- इन प्रारम्भिक दिगम्बर जैन (अ) प्रथम वर्ग-इसके अन्तर्गत वे पाण्डुः पाण्डुलिपियों का भी उल्लेख मिलता है, जो मूडबिद्री लिपियां हैं, जिनका निर्माण मुजरात में सोलंकी में जैन सिद्धान्त बस्ती के संग्रह में स्थित हैं।15 राजाओं के संरक्षण में हुआ था। तत्पश्चात् (Jnata Dharma Katha), डा० कुमारस्वामी तथा मेहता ने प्राचीनतम 'ज्ञानसत्र'16 (1126 ई०) की दो ताडपत्रीय पाण्डुताडपत्र पर चित्रित 'कल्पसूत्र' को माना है। लिपि, दो काष्ठ पट्टिकाएं (जर्जरित) (ताड़पत्रीय इसका रचनाकाल 1236 ई० के लगभग निश्चित पाण्डुलिपि के मुख व पृष्ठ की), 'दसर्वकालिक लघुहोता है ।10 डा० गोयेट्ज के मतानुसार सबसे वृत्ति'17 (1143 ई०) 'उपनियुक्ति' (1161 प्राचीन चित्रित कृति ताडपत्र पर प्रकित 'निशीथ- ई०) तथा अन्य दूसरे ग्रन्थ चित्रित हुए।18 चूरिण' है, जिसकी रचना सिद्धराज जयसिंह के राज्यकाल में 1100 ई० में हुई थी। यह पाण्ड्र. उपरोक्त सभी पाण्डुलिपियों की प्रदर्शिनी लिपि पाटन के जैन भण्डार में स्थित है। इसमें 'पाल इण्डिया प्रोरियन्टल कान्फ्रेस' के सत्रहवें सत्र चित्रों के नाम पर कुछ बेल बूटे एवं पश-प्राकृतियां के अन्तर्गत प्रहमदाबाद में की गई थी। इसके हैं।11 डा. रामनाथ ने इससे भी पूर्व की एक अतिरिक्त 1143 ई० से 1174 ई० तक की प्रति 'भगवती सूत्र' का उल्लेख किया है, जो कि अवधि में रचित प्राचार्य हेमचन्द्र सूरि तथा राजा 1062 ई० की है। यह प्रति उक्त पाटन भण्डार कुमारपाल के अनेक व्यक्ति चित्रों के सन्दर्भ भी में ही स्थित है, किन्तु इसमें मात्र अलंकरण किया मिलते हैं 120 हुआ है। चित्र नहीं हैं। सम्प्रतिक शोध के फलस्वरूप कालं खण्डेलवाल इसके अतिरिक्त श्री खण्डेलवाल तथा डा० तथा सरयू दोषी द्वारा कुछ निम्न ताडपत्रीय पाण्डुसरयू दोषी ने प्राधुनिक खोजों के प्राधार पर इससे लिपियां भी प्रकाश में लाई गई हैं :-- भी पूर्व 1060 ई० को 'मोघ नियुक्ति' एवं 'दस- 1241 ई० की एक 'नेमिनाथ चरित' शान्ति वैकालिक-टीका' नामक ताडपत्रीय प्रति का उल्लेख भण्डार में स्थित है-- जिसमें बैठी हुई अम्बिका के किया है, जो इस समय जैसलमेर के जैन भंडार में एक प्राकर्षक चित्र सहित, चार पुस्तक चित्र स्थित हैं। इसमें एक चित्र श्री कामदेव का तथा कुछ हैं 21 फाइन प्राट्स बोस्टन संग्रहालय' में सुरक्षित, हाथी का चित्रण भी किया हुवा है ।13 तत्पश्चात् मेवाड़ में उदयपुर के पास सम्पादित की गई मठनियमों पर आधारित 'पिन्दनियुक्ति' नामक 1260 ई० की एक पाण्डुलिपि 'सावगपडिक्कमण2-86 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तत्रुणि' है, जिसमें केवल 6 पुस्तक चित्र हैं | 32 इन उपरोक्त प्रारम्भिक पाण्डुलिपियों में चित्रों की संख्या सामान्यतः बहुत कम है । 1288 ई० की सुबाहु कथा' नामक एक पाण्डुलिपि तथा अन्य कथाएं 'संघवी पाटन भण्डार' में सुरक्षित हैं । इसमें 23 चित्र हैं-- जिसमें चट्टानों, वृक्षों और जंगल के पशुभ्रों के प्राकारों को प्रकृति चित्रण के अन्तर्गत दर्शाया गया है । 23 व इसके अतिरिक्त खोज के आधार पर डा० रामनाथ ने 'प्र' गसूत्र', कथासरित्सागर' 'त्रिषष्ठिशलाका पुरुष चरित' आदि ग्रन्थों कार चनाकाल भी उक्त प्रथम वर्ग की अवधि के अन्तर्गत ही निर्धारित किया है 124 (प्रा) द्वितीय वर्ग - ( 1350-1450 ई०) -- स्थूल रूप से इसका प्रारम्भ गुजरात प्रान्त में युगल शक्ति की स्थापना से सम्बद्ध किया जा सकता है । कोई भी पाण्डुलिपि 1370 ई० से पूर्व की अबधि की उपलब्ध नहीं है । 1427 ई० की एक पाण्डुलिपि 'इण्डिया श्राफिस लायब्ररी' लन्दन में स्थित होने का वर्णन मिलता है 125 इसके अतिरिक्त चित्र रचना व लेखन कार्य के लिए ताड़पत्र का स्थान कागज द्वारा लिये जाने से पूर्व की अवधि के पट-चित्र व पट-ग्रन्थ उपलब्ध हुए हैं, जिनमें उल्लेखनीय है 'वसन्तविलास' । यह ग्रन्थ 1451 ई० की सचित्र रचना है 126 मनोहर कौल के अनुसार पट (वस्त्र) पर चित्रित 1433 ई० का एक चित्र 'जैनपंचतीर्थी' ताड़पत्रीय पुस्तक भण्डार पाटन में है । 27 विज्ञप्तिपत्र' भी उस समय के उच्चस्तरीय प्रलंकृत वस्त्र चित्र थे । 2. कागज युग- ( 15वीं शताब्दी के प्रारम्भ से पश्चात् का समय ) - ताड़पत्रीय चित्र परम्परा के पश्चात् हम ऐसे युग में पहुंचते हैं, जबकि भारत महावीर जयन्ती स्मारिक 77 मैं ताड़पत्रों के स्थान पर कागज का प्रयोग होने लगा था । कागज यद्यपि भारत में बहुत पहले प्रा चुका था, किन्तु ग्रंथ निर्माण कार्यों में कागज का उपयोग 14वीं शती से हुआ, ऐसा माना जाता है 1 28 कागज ग्रंथों की क्रमबद्ध सारिणी हेतु डा० मोतीचन्द्र द्वारा निर्धारित समय विभाजन 29 ही अधिक उचित प्रतीत होता है- (अ) प्रारम्भिक काल -- ( 1400 - 1600 ई०) कागजीय पाण्डुलिपियों के अन्तर्गत यू० पी० शाह ने आरम्भिक चित्रित पाण्डुलिपि 1346 ई० की 'कल्पसूत्र' व 'कालकाचार्यं कथा' को माना है | 30 किन्तु यह मत सर्वमान्य नहीं हुआ । डा० मोतीचंद्र ने शैलीगत आधार पर इसको 15वीं शताब्दी की पाण्डुलिपि माना है । श्रतः विभिन्न लेखों के आधार पर इनमें प्राचीनतम हस्तलिखित चित्रित पाण्डुलिपि 1366 ई० की 'कालकाचार्य कथा' निश्चित होती है । 31 1367 ई० की एक अन्य पाण्डुलिपि का उल्लेख मिलता है, जो मुनि जिनविजयजी के अधिकार में थी । मुनि जिनविजयजी इसे कागजीय पाण्डुलिपियों में प्राचीनतम मानते हैं । 32 इसी समय की 1370 ई० की 'कल्पसूत्र' व 'कालकाचार्य कथा' नाम की प्रतियां मिलती हैं, जो उज्जमफोई धर्मशाला अहमदाबाद के भंडार में है 133 अहमदाबाद के एल० डी० इन्स्टीट्यूट श्राफ इण्डोलॉजी के संग्रह में 1396 ई० की एक प्रति 'शान्तिनाथ चरित' हे 34 प्रारम्भिक कागजीय पाण्डुलिपियों में 'प्रिन्स श्राफ वेल्स म्यूजियम' में स्थित 'कल्पसूत्र' व 'कालकाचार्यकथा' बहुत सुंदर प्रतियां हैं, जो वेश-भूषा के आधार पर 14वीं शती प्रतिम चरण की प्रतीत होती है । 3 इसी समय की तिथिविहीन 'कल्पसूत्र' व 'कालकाचार्यकथा' नाम की अन्य प्रतियां जैसलमेर के भंडार में स्थित हैं, जिनको श्री नवाब ने प्रारम्भिक 15वीं शतीं की बताई है 136 2-87 Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० 1461/1404 ई० की एक दिगम्बर 1. वाशिंगटन की फायर गैलरी। पाण्डुलिपि 'पादिपुराण'-- जिसका उल्लेख डा० 2. 'फर वोलकर कुन्दे' का संग्रहालय, दोषी ने अपने लेख37 में किया है। 1415 ई० बलिन । की 'कल्पसूत्र' 'कालकाचार्यकथा', जिसमें 'कल्प 3. बलिन की रायल लायब्ररी । सूत्र' वाला भाग कलकत्ता के बिरला संग्रह' में 4. कलकत्ता का 'नाहर संग्रहालय'। . तथा कालकाचार्य' वाला भाग बम्बई में पी० सी० जैन के संग्रह में है .38 1420 ई० में दिगम्बर जैन 5. पाटन और जैसलमेर के अनेक जैन महापुराण' ग्रंथ चित्रित किया जो इस समय पुस्तकालय 148 दिगम्बर जैन नया मन्दिर, पुरानी दिल्ली में स्थित 'कल्पसूत्र' की उक्त सभी पाण्डुलिपियों में है।39 1426 ई० की 'कल्पसूत्र 'कालकाचार्यकथा' उनका रचनाकाल व्यक्त नहीं है किन्तु डा० कुमारनामक पाण्डुलिपि इण्डिया ऑफिस लायब्ररी' स्वामी ने चित्रशैली के आधार पर निश्चित किया लन्दन में स्थित है 140 1439 ई० में सुलतान है कि कुछ पाण्डुलिपियां तो 15वीं शती से पूर्व की महमूद शाह खिलजी के राज्यकाल में रचित 'कल्प- हैं तथा शेष 15वीं शती की हैं 147 सूत्र' की एक प्रति 'माण्डु' से प्राप्त हुई है।41 15वीं व 16वीं शती की कुछ अन्य निम्न 1464 ई० के लगभग चित्रित 'कल्पसूत्र' की प्रति पाण्डुलिपियों का वर्णन कार्ल खण्डेलवाल व श्रीमती 'ब्रिटिश संग्रहालय' लन्दन में संग्रहीत है । इसके 42 सरयू दोषी ने अपने लेख में किया हैअतिरिक्त डा० श्री कस्तरचंदजी कासलीवाल ने 1. 1430 ई०-- भविष्यत कथा' बसवा के शास्त्र भंडार में स्थित 1471 ई० की 2. 1442 ई०--पासनाह चरिउ' चित्रित 'कल्पसूत्र' का उल्लेख किया है । 43 3. 1440-50 ई०--'यशोधर चरित' विविध 4. 14.0-60 ई०--'शान्तिनाह चरिउ' उपरोक्त पाण्डुलिपियों के अतिरिक्त डा० 5. 1454 ई०--'जसहर चरिउ' कुमारस्वामी ने अपने लेख में कुछ अन्य निम्न 6. 1494 ई.---'यशोधर चरित' पाण्डुलिपियों का उल्लेख किया है : 7. 1590 ई०-- यशोधर चरित' 1. 1497 ई० में चित्रित 'कल्पसूत्र' और 8. 1596 ई०--'यशोधर चरित48 पौर 'कालकासूरि कथानकम् ।' विभिन्न विद्वानों एवं कलारसिकों द्वारा खोजी 2. लगभग 15वीं शती में चित्रित 'कल्पसूत्र' गई उक्त पाण्डुलिपियों के अतिरिक्त साम्प्रतिक व 'कालकाचार्यकथा' नामक पाण्डुलिपि जिसका शोध के फलस्वरूप यू० पी० शाह द्वारा पाण्डुरचनाकाल मज्ञात है। लिपियों का निम्न बहुभाग प्रकाश में लाया गया । .1. 1400 ई०--माण्डु शैली में चित्रित 3. 1566 ई० में चित्रित 'रतनसार' 144 __कालकाचार्य कथा इसके अतिरिक्त डा० कुमारस्वामी ने हटमैन के लेख45 के माधार पर भी फाइन आर्ट (ललित 2. 1420 ई०-- शत्रुजय महात्म्य' कला) के निम्न संग्रहालयों व पुस्तकालयों में स्थित 3. 1422-23 ई०--मेवाड़ में चित्रित 'सुपा'कल्पसूत्र' की 15वीं शती की पाण्डुलिपियों का सनाहचरिउ' उल्लेख किया है : 4. 1425-1440 ई० 'दमयन्ती कथा चम्पू' 2-88 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5. 1490 ई०--वेदनगर में चित्रित 'कल्प सूत्र' 6. 1492 ई०--पाटन में चित्रित 'उत्तरा ध्ययन-सूत्र' 7. 1493 ई०--पाटन में लिपिबद्ध 'माधव नल-कायकन्दल कथा' १. 1498 ई०--पाटन में लिपिबद्ध चन्द्र प्रभ चरित्र' 9. 1501 ई०- पाटन में चित्रित जामनगर कल्पसूत्र' और 'कालका कथा' 10. 1521 ई०--पाटन में चित्रित भावनगर कल्पसूत्र' 11. 1583 ई०--मटार में अनूदित तथा गोविंद द्वारा चित्रित 'संग्रहणीय-सूत्र' 12. 1587 ई.---कम्बे में अनूदित 'संग्रहणीय 1. (1636 ई०:--प्रिंस प्राफ वेल्स म्यूजियम __ में संग्रहीत-'सग्रहणीय सूत्र' । 2. (1644 ई०)--नूतनपुर में चित्रित 'कुमारसम्भव' । 3. (1650 ई०)--'कृष्णवेली' । 4. (1650 ई०)--'नपहरनगढ़' । 5. (1655 ई०)--'चन्दरास' । 6 (1659 ई०)--सूरत में चित्रित 'चन्द रास'। 7. (1669 ई०)--प्रशनिकोटा में चित्रित 'मेघदूत' । 8. (1685 ई० के लगभग)--मुनिश्री पुण्य. विजयजी के संग्रहालय में स्थित 'संग्रह णीय सूत्र' (तिथि अज्ञात) । 9. (1667 ई०)-'हरिबाला चौपाई' । 10 (लगभग 17वीं शती)--मुनिश्री पुण्य विजयजी के संग्रहालय में स्थित अपूर्ण 'नलदमयन्तीरास', जिसका रचनाकाल प्रज्ञात है। 11. (17वीं शती का उत्तरार्द्ध)--'प्रार्द्र कुमार रास' । 12. (1719 ई.)--प्रिंस प्राफ वेल्स म्यू जियम में संग्रहीत ‘देवी माहात्म्य । 13. (1812 ई०)--पूना में अनूदित श्री ___'चन्दराजानो रास'। 14. (1962 ई०)--जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति-प्रम रत्नमंजूषा । 13. 1600 ई० -उत्तराध्ययन सूत्र'49 (मा) उत्तर काल--(1600 ई० के पश्चात् का समय)--यह वह समय था, जबकि जैन चित्रकला ने मुगल तथा राजपूत चित्रकला का प्राश्रय लेकर निजस्व विस्मृत कर दिया अर्थात् इस समय के जैन ग्रंथों के चित्रों का निर्माण मुगल एवं राजपूत शैली में हुआ। वाचस्पति गैरोला के अनुसार 'समयसुदर' नामक एक जैन मुनि ने 17वीं शती में 'अर्थ रत्ना. बली' के नाम से एक अद्भुत ग्रंथ की रचना की थी, जिसे उन्होंने अकबर को भेंट किया था। इस ग्रंथ में अकबरयुगीन भित्तिचित्रों तथा अन्य प्रकार के चित्रों का भी वर्णन किया गया है 150 1600 ई० के पश्चात् की कुछ निम्न पाण्डु. उल्लेख यू० पी० शाह ने सम्प्रति खोज के प्राधार पर किया है, जो इस प्रकार है-- इस समय की कुछ अन्य पाण्डुलिपियों का वर्णन डा० कुमारस्वामी ने निम्न रूप दिया है 1. ब्रिटिश संग्रहालय में स्थित, 16वीं, 17वीं शती में चित्रित 'उत्तराध्ययन' । महावीर जयन्ती स्मारिका 77 2-89 Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. सम्भवतया 17वीं शती में चित्रित 'कल्प- यह है कि जन चित्रकला का प्रारम्भिक काल 7वीं सूत्र', जिसका रचना काल व्यक्त नहीं है। शती ई० की अपभ्रश शैली से माना गया है, यद्यपि तत्सम्बन्धित पाण्डुलिपियां 11वीं शती के 3. 1769 ई० में चित्रित क्षेत्र समास लघु पश्चात की ही उपलब्ध हैं । यह चित्रकला शैली प्रकरणम्' नाम की पाण्डुलिपि । प्रमुखतः 18वीं शती तक अर्थात लगभग एक हजार वर्ष से भी अधिक परिवर्तित रही। तदनन्तर वर्तइसके अतिरिक्त डा. श्री कस्तूरचन्द कासली. मान समय तक के लगभग 300 वर्ष की अवधि में वाल ने 18वीं शती में चित्रित 'यशोधर चरित्र' जैन चित्रकला का स्वरूप क्या रहा, यह शोध का की दो प्रतियों का उल्लेख किया है, जिसमें एक विषय है क्योंकि इस अवधि में रचित ग्रंथ सामग्री प्रति 1731 ई० की श्री लूणकरभाजी पांड्या का यद्यपि शास्त्र भण्डारों आदि में पर्याप्त मात्रा में मंदिर, जयपुर के शास्त्र भंडार में स्थित है तथा संकलित है, तथापि उन भण्डारों के प्रबन्धकों आदि दूसरी 1743 ई० की श्री पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन के असहयोग प्रथवा अन्य कारणवश यह महत्वपूर्ण मन्दिर, जयपुर के शास्त्र भंडार में स्थित है । सामग्री तद्विषयक गवेषकों को उपलब्ध नहीं हो ताडपत्रीय व कागदीय सचित्र पाण्डुलिपियों के सकी है । इसी कारण इस अवधि की रचनामों पर विकास से सम्बन्धित उपरोक्त ऊहापोह का सार शोध कार्य नहीं के बराबर हुआ। 3. Khandalavala, K.---Pahari Miniature Painting, P.4, Bombay,1958. Chandra, P. -- Indian illustrated Manuscripts, The Time of India Annual, P.42,1960. Khandalavala K. & Doshi, S.--Miniature Printing, Jain Art and Architecture (ed, by Ghosh, A.), vol II, P. 396, Delhi, 1975. Goetz, H. --Bulletin of the Baroda State Museum and Picture Gallery, vol. 4, Pts. 1-2, 1946-47. Chandra, M. --Jain Miniature Painting from Western India, P.S, Abmedabad, 1949. Ibid, Goetz, H, Opp. cit P. 27. Chandra M. --An illustrated Manuscript of the Kalpasutra and KalaKacharya Katha Bulletin of the Prince of Wales Muscom, No. 4, PP. 40-41, 1954-54. 9. Khandalaval, K., Chandra, M. & Chandra, P.--Miniature Paintings from the Shri Moti Chand Khajanchi Collection, Lalit Kala Akademi, P.१, N. Delhi 1960. 2-90 मनावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10. 4. Ana 86. Coomaraswamy, A. K.--Jain Painting, Pt. 4, Catalogue of Indias Collections in the Museum of Fine Arts, Bostan, P. 32, 1924. Mehta, N.C. --Indian Painting in the fifteenth century, an early illuminated manuscript, Rupam, P. 61, No. 22 & 23, 1925. Goetz, H. --Decline and Rebirth of Medieval Indian Art, Marg, vol. 4, No. 2, P, 37. रामनाथ : मध्यकालीन भारतीय कलाएं एवं उनका विकास, पृ० 3, जयपुर 1973 Todo PI 265 A, Jain Art and Architecture, vol. II, ed. by Ghosbe A., Delhi, 1975. Khandalavala K. & Doshi, S.--Opp. Cit, Pl. 270 B, P. 402. Doshi, S.--Twelfth Century illustrated manuscripts from Mudbidri, Bulletin of the Prince of Wales Museum, 8 PP. 29--36, 1962-64. Shivarama Murti, C.--South Indian Painitng, PP. 90-96, N. Delbe 1960. Goetz, H. --Opp. Cit. Jnata--Sutra. Chandra, M. --An illustrated Manuscript of the Kalpasutra and Kalakacharya Katha, Bulletin of the Prince of Wales Museum No. 4 PP. 40-41, 1953-54, Bombay. ibid, Kaul, M. Jain or Gujarati School, Trends in Indian Painting. PP. 31-32, Delhi, 1961. Goetz, H. --Opp. Cit. Khandalavala, K. & Doshi S.--Opp. Cit., P. 403. Ibid. Ibid, P. 404. 19914 : a r adt, 76Fiata wrata Farg' at 9aFT fare. TIFFAIR, Ç• 4, 1963 1 Apand, Mulk Raj --Jain Miniatures. An Album of Indian Paintings. PP, 5 -60 Delhi, 1973, Brow, W. N.--The Vasanta Vilasa (New Haven, 1942). Joata 17. 18. 20. 21. 22. 24. 5 26. att gyrat Farfrø 77 2-91 Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 27. 28. 29. 30. 31. 32. 33. 34. 35. 36 37. 38. 39. 40. 41. 2-92 Mehta, N. C.--Indian Painting in the 15th Century early illuminated manuscript, Rupam, Nos. 22-23, PP. 61-65, 1925. Mehta, N.C.-Gujarati Painting in the 15th Century (London 1931). Kaul, M.--Opp. Cit. Khandalaval K. & Doshi, S.--Opp. Cit P. 405 Chandra, M.--Jain Miniature Printing from Western India, PP. 3745, Ahmedabad, 1949. Chandra M. & Shah U. P.--New Documents of Jain Paintings, Shri Mahavira Jain Vidyalaya Golden Jubilee volume, p. 375, 1968, Bombay. Gorakshkar, S. V.--A dated Manuscript of the Kalakacharya Katha in the Prince of Wales Museum, BPWM, 9. PP. 56-57, Dc shi, S.--An illustrated Adipurana of 1404 A. D from Yogini. pura, Chhavi, P. 382, 1976. Khandalavala, K. & Doshi, S.--Opp. Cit, P. 437. Ibid, P. 405. Ibid, P. 407. Chandra, M.--An illustrated Manuscript of the Kalpasutra and Kalakacharya Katha, BPWM, 4, P 40, 1953-54. Khandalavala K. & Doshi, S.--Opp. Cit, P. 407. Doshi, S.--Opp. Cit, PP. 383-91. Khandalavala, K. & Chandra, M --New Documents of Indian Painting--areappraisal, P. 15, Bombay, 1969. Chandra, M.--An illustrated Ms. of the Maha purana in the Collection of Shri Digambara Jaio Naya Mandir, Lalit Kala, 5, PP. 6881, Delhi. Coomaraswamy, A. K --Journals of Indian Art. and Industry, vol. XVI, No. 127, P. 90, 1914. Khandalaval, K. & Chandra M.--A Consideration of an illustrated Ms. from Mandapadurga (Mandu), dated 1439 A.D., Lalit Kala, 6, P. 8. रामनाथ : अपभ्रंश शैली, मध्यकालीन भारतीय कलाएं और उनका विकास, पृ० 5, जयपुर, 1973 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46. 42. Coomaraswamy, A. K.--Ms. or 5.149. Notes on Jain Art, Journals of Indain Art and industry, vol. XVI, No. 127, P.91, 1914. 43. Kasliwala, K. C. ---Jain Grantha Bhandars in Rajasthan, P. 60, Jaipur, 1967. Coomaraswanmy, A. K.-Ibid, Huttemann, W.--Miniaturen Zum-~-Jinacarita, Bassler Archiv., vol. 4, (1914), PP. 46-47. Coomaraswamy, A. K. Ibid, P. 33. 47. Coomaraswamy, A. K.-Opp. Cit. Khandalavala, K. & Doshi, S.--Opp Cit., PP. 393-427. 49. Chandra, M. & Shah, U. P. --New Documents of Jaina Painting, Bombay, 1975. 50... वाचस्पति मैरोला : भारतीय चित्रकला, पृ० 140, इलाहबाद, 1963 1 51. Chandra, M. & Shah, U. P.--New Documents of Jain Paintings, PP. 13-15,Group III-VII, Bombay, 1975. 52. Coomaraswamy, A. K.--Notes on Jain Art, Journals of Indian Art and Industry, vol. XVI, No. 127, P.91, 1914. 53. Kasliwal, K. C.--Jain Grantha Bhandars in Rajasthan, P.47, Jaipur, 1967. 54. Kasliwal, K. C.--Jain Granth Bhandars in Rajasthan, P. 55, Jaipur, 1967. सुविचार्य करोतिबुद्धिमानथवा नारभते प्रयोजनम् । --चन्द्रप्रेभसरितम् बुद्धिमान् मनुष्य कोई भी काम हो, भले प्रकार विचार करके ही करता है। बिना विचारे कोई काम नहीं करता। महावीर जयन्ती स्मारिका 77 2-93 Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म ने भारतीय कला और संस्कृति के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिवा है । शायद ही कोई ऐसी कला छूटी हो जिस पर जैनों का प्रभाव न पड़ा हो । खजुराहो, पाबू, राणकपुर, उड़ीसा का हाथी गुफा प्रादि हमारे इस कथनं की पुष्टि में प्रस्तुत किये जा सकते है । संस्कृति के क्षेत्र में जैनों को अहिंसा परि भाषा अपना विशिष्ट स्थान रखती है । स्याद्वाद और अनेकान्त जैसे सिद्धान्तों पर उनका एकाधिकार है । कर्म सिद्धान्त भी उनका जैसा कहीं नहीं है। प्र० सम्पादक जैन धर्म का भारतीय कला और संस्कृति को योगदान * श्री सुदर्शन जैन, उज्जैन धर्म संस्कृति का पोषक और वाहक है । प्रत्येक दिया है क्योंकि वे प्रारम्भ से ही इसे धर्म प्रचार धर्म का मानव सस्कृति और सभ्यता के प्रभ्युदय का महत्त्वपूर्ण वाहक समझेते पाये है । गुफाओं, एवं विकास में अभिन्न योगदान रहा है । जैन धर्म स्तूपों, मन्दिरों, मूर्तियों, चित्रों आदि ललित ने देश की संस्कृति और सभ्यता के प्रत्येक अंग को कलाओं को प्रोत्साहन दे, देश के विभिन्न भागों को पल्लवित एवं प्रभावित किया है । इस धर्म ने देश सौन्दर्य से सजाया है और साथ ही साथ भारतीय की कला एवं संस्कृति को नवीन रूप एवं नयी कला को नया रूप दिया है । उड़ीसा में हाथी गुफा दिशा प्रदान की है । जैन धर्म की विभिन्न और में खारवेल का शिलालेख और मूर्तियां, गया की विपूल उपलब्धियों को जाने समझे बिना भारतीय प्राचीन गुफाए, खजुराहो की अपार कला सम्पदा, संस्कृति का ज्ञान परिपूर्ण नहीं कहा जा सकता। बाहुबलि की जैन मूर्ति, चित्तौड़ का विजय स्तम्भ, __ आबू के जैन मन्दिर आदि जैन कला के भारतीय देश समाज व धर्म के इतिहास को पूर्ण रूप से । कला को अद्वितीय योगदान हैं। समझने के लिये, उनके प्राश्रय में विकसित कलाओं के इतिहास का ज्ञान अति आवश्यक है कला का अहिंसा का सिद्धान्त, जैन धर्म का देश की उद्देश्य जीवन का उत्कर्ष है और सच्चे अर्थों में संस्कृति को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण योगदान है । जैन कला समाज का दर्पण है । जैन कला, धर्म के धर्म में अहिंसा पर सबसे अधिक बल दिया गया प्रांचल में पली है और सदैव धार्मिक भावना से है। इस सिद्धान्त ने न केवल भारतीय संस्कृति को प्रभावित रही है । जैन कला का उद्देश्य जन प्रभावित किया है अपितु पूर्ण मानव संसार इसे कल्याण और जन भावना का परिष्कार एवं उत्क- आधुनिक युग की समस्याओं की एकमात्र कुजी र्षण कर लोक का प्राध्यात्मिक एवं नैतिक स्तर समझता है । भगवान् महावीर, जैन धर्म के 24वें ऊपर उठाना रहा है । जैन शासकों एवं धर्माव- तीर्थङ्कर, जिनका 2500वां निर्वाण महोत्सव पूरे लम्धियों ने कला के उत्थान में एक विशेष योगदान देश में जोर शोर से मनाया जा चुका है, ने "अहिंसा 2-94 महावीर जयन्तीस्मारिका 77 Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमो धर्मः” का प्रचार उस समय किया जब अच्छाइयों को दर्शाया है जिससे अनार्यों को ठेस न समाज में देवताओं को प्रसन्न करने के लिये पशु पहुंचे । अनेकान्त का सिद्धान्त जैन धर्म में सहिष्णुता बलि दी जाती थी। भगवान् महावीर ने समाज में एवं समन्वय की भावना को प्रज्वलित करता है नई चेतना का जागरण किया और जनता को पाठ और उपर्युत उदाहरण इस बात का ज्वलन्त पढ़ाया कि सब जीव समान हैं; हत्या प्रधर्म है। प्रमाण है । वृक्ष एवं पत्थरों में भी जीवात्मा विद्यमान है और जैन धर्म में लोभ, भोग और मोह के स्थान प्रत्येक मानव का छोटे से छोटे जीव की रक्षा करना पर त्याग पर जोर दिया गया है । चार्वाक के कर्तव्य है। जैन प्राचार्यों ने प्राणी मात्र की रक्षा भौतिकवाद के विरोध में अपरिग्रह का सिद्धान्त इस एवं “जियो और जीने दो' की भावना का उद्- धर्म की भारतीय संस्कृति को मौलिक देन है । तृप्ति बोधन किया । जनमात्र की भावना से ऊपर उठ । और संतोष, खाने, पीने और मौज करने में नहीं प्राणीमात्र में प्रेम एवं आपसी रक्षा का प्राद्वान अपितु अपनी प्रावश्यकतानों को सीमित रखने में इस धर्म में किया गया है । यहाँ तक ही नहीं, जैन है। अपनी निजी आवश्यकतानों से अधिक वस्तुओं धर्म में मनसा, वाचा, कर्मणा किसी को कप्ट देना का संग्रह करना मानव साथियों को दैनिक प्रावभी हिंसा है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि इयकतानों से गंचित रखना है जो कि धर्म भावना अहिंसा का सिद्धान्त जिसके माध्यम से प्राणीमात्र के विरुद्ध है । बढ़ती हुई गरीबी, मंहगाई और के उत्थान एवं प्रगति की कामना की गयो है, जैन दैनिक जीवन की आवश्यक वस्तुओं की कमी प्रादि धर्म का तत्त्व एवं मम है। आर्थिक समस्याएं भौतिकवादी विचारधारा के परिणाम है । अपरिग्रह के सिद्धान्त को वास्तविक संस्कृति एवं विचार समन्वय के लिये अनेकांत जीवन में उतार कर ही हम आर्थिक समस्यामों का का सिद्धान्त, जैन धर्म की एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण समाधान कर सकते हैं । देन है । इस सिद्धान्त के अनुसार, सत्य के कई रूप जैन धर्म में सामाजिक विषमतानों के विरोध होते हैं, वस्तु के कई दृष्टिकोण होते हैं । इस में प्रावाज बुलन्द की गयी है । कर्म का सिद्धान्त सिद्धान्त के माध्यम से समाज में फैली कट्टरता एवं जैन धर्म का प्रमुख सिद्धान्त है । 'जो जस करहि संकीर्णता के विरुद्ध प्रावाज बुलन्द की गई । प्राज तो तस फल चांखा', 'जंसी करनी वैसी भरनी' प्रत्येक राष्ट्र, जाति एवं मानव दूसरों के दृष्टिकोण प्रादि अनेक कहावतें कर्म के सिद्धान्त की पुष्टि को समझे बिना स्वयं को सर्वोपरि समझता है। करती हैं । जैन धर्म में जन्म के आधार पर समाज यही विचारधारा प्राज अन्तर्राष्ट्रीय तनाव एवं विभाजन पद्धति की भर्त्सना की गयी है क्योंकि इस संघर्ष का मूल कारण है । अनेकान्त का सिद्धान्त धर्म ने जन्म की नहीं अपितु कर्म की प्रधानता स्वीविश्व में प्रचलित मतभेदों पोर झगड़ों के उन्मूलन कार की है। उच्च जाति द्वारा निम्न जाति पर के लिए एक महत्त्वपूर्ण कदम है । यह सिद्धान्त अत्याचारों की निन्दा की गयी है। हरिकेशी पारस्परिक संघर्षों एवं विवादों के स्थान पर शान्ति चाण्डाल को जैन धर्मशास्त्रो में अपने शुद्ध आचरण और मैत्री को बढ़ावा देता है । इसी बात को ध्यान के लिये सम्मानित स्थान प्रदान किया गया है । जैन में रखते हुये जैन धर्म में सभी धर्मों एवं धर्मनायकों समाज में नारी को सम्मान एवं प्रादर्श की रष्टि से को महान बताया गया । जैन धर्मशास्त्रों में राम, देखा गया है । नारी को अबला और शक्तिहीन नहीं कृष्ण और सीता के प्रादशों को प्रस्तुत किया है और समझा गया है अपितु समाज का एक महत्वपूर्ण साथ ही साथ रावण को बंशीधर की उपमा दे प्रग मानहै। 4) महावीर जयन्ती स्मारिका 77 2-95 Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2AHAAAAAAAAAAAAAAAAAAA यो विश्वं वेदवेद्य जननजलनिधे भंगिनः पारदृश्वा । पौर्वापर्याविरुद्ध वचनमनुपम निष्कलंक यदीयम् ॥ REASOSAAaaaaaaaa OSASSASOAAcAAOSASUHAAAAAAAAAA तं वन्दे साधुवंद्य निखिलगुणनिधि 20HWASHAAAAAAHHHHAHACHOHSASSIOHAMADHAON ध्वस्तदोषद्विषन्तम् । बुद्ध वा वर्धमानं शतदलनिलयं केशवं वा शिवं वा॥ -भट्टाकलङ्कदेव MMMM MMMMMMMMMMMMMMM महावीर जयन्ती स्मारिका 77 2-96 Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय NEEDEDERED खण्ड EDEDERED विविध Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्वास को रक्षा [ श्रीमती रूपवती किरण, किरणज्योति, जबलपुर ] पात्रानुक्रमणिका श्रेष्ठी धनंजय वसुमती चन्द्रकुमार सलिला सुदर्शन बलदेव जनसमूह [ श्रेष्ठी धनंजय के परिवार में वे उनकी पत्मी वसुमती एवं इकलौता पुत्र चन्द्रकुमार है । प्रातः काल का समय है। श्र ेष्ठी धनंजय जिन मन्दिर में पूजनार्थ जा चुके हैं। पत्नी वसुमती मन्दिर से श्राने वाली हैं । प्रासाद में प्रांगण के समीपवाले कक्ष में बालक चन्द्रकुमार व पडोस की बालिका सलिला खेल रहे हैं। भूमि पर खिलौने बिखरे हैं । प्रांगण में गुलाब, रजनिगंधा, बेला प्रादि फूलों की क्यारी महक रही है । ] सलिला - चन्द्र ! ये गुड्डा गुडिया बड़े प्यारे लग रहे हैं । चन्द्रकुमार धर्मात्मा कवि धनंजय की पत्नी धनंजय का पुत्र पड़ौसी बालिका पड़ौसी र-- ( खिलौने उठा उठाकर बतलाते हुये ) यह गुड्डा इस गुडिया का भैया है और गुडिया इसकी बहिन है । सलिला - ये तुझे किसने बतलाया ? चन्द्रकुमार -- मां ने ! वे कह रही थीं कि रक्षाबन्धन के दिन गुडिया गुढ्ढे को राखी बांधेगी । सलिला -- रक्षाबन्धन तो कल है । चन्द्रकुमार -- हां, हमारे यहाँ बुझा का निमंत्रण है। फूफाजी भी प्रायेंगे। हमारे यहाँ मिष्ठान्न बने हैं। सलिला -- क्या क्या बना है चन्द्र ? चन्द्रकुमार -- गुझिया, चन्द्रकला, इमरती, गुलाब जामुन, पेड़ा, पपडी, सेव ........ महावीर जयन्ती स्मारिका 77 3-1 Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सलिला - ( भोलेपन से ) हमारे यहाँ बर्फी बनी है । पर हमारे यहाँ फूफाजी नहीं प्रायेंगे । चन्द्रकुमार - तेरे फूफाजी नहीं है ? सलिला - माँ कहती है बुधाजी का विवाह होगा । फूफाजी घोड़े पर चढ़कर मायेंगे और बुना को डोली में बैठाकर ले जायेंगे । चन्द्रकुमार -- ( सरलता से ) क्यों ? बुझा को क्यों ले जायेंगे ? सलिला -- मैं क्या जानू ? माँ से पूछूगी। ( जाने लगती है ।) चन्द्रकुमार -- अरे तो अभी कहाँ चली ? मिष्ठान्न नहीं खायगी । सलिला -- इसीलिये तो घर जा रही हूँ । मुझे भूख भी तो लग प्राई है । चन्द्रकुमार तो तनिक रुक नहीं सकती ? माँ मन्दिर जी से भाती ही होगी। फिर हम दोनों खायेंगे। मुझे भी तो भूख लगी है। सलिला -- तू कहती है तो रुक जाती हूँ । चन्द्रकुमार -- लो माँ भी श्रा गई। ( वसुमती का प्रवेश ) माँ ! सलिला को भूख लगी है । वसुमती -- तो जलपान करा दो। न्द्रकुमार -- (समझाते हुये ) जल नहीं पीना माँ । प्यास थोड़े ही लगी है। मिष्ठान्न खायेंगे हम दोनों | वसुमती -- (हँसने लगती है ।) अच्छा तो मिष्ठान्न खायोगे ? प्रभी लाती हूँ बिटिया सलिल ! (वसुमती चली जाती है ।) सलिला -- चन्द्र ! तूने मोसीजी से क्यों कह दिया कि सलिला को भूख लगी है ? चन्द्रकुमार -- तो क्या हुना ? सच तो कहा है। तुझे भूख नहीं लगी ? सलिला -- लगी तो है । ( रूठकर) पर मैं तुझसे नहीं बोलू गी । चन्द्रकुमार क्यों नहीं बोलेगी ? अच्छा मत बोलना। मैं भी तुझसे रक्षासूत्र नहीं बंधवाऊँगा । सलिला -- प्रच्छा, धच्छा, बोलू गी । मेरा भैया चन्द्रकुमार बड़ा मच्छा है । वसुमती -- ( मिष्ठान्न लाकर) लो खाओ । ( वसुमती चली जाती है। दोनों खाने लगते हैं ।) सलिला -- पेड़ा मीठा लगा । erद्रकुमारर--प्रौर चन्द्रकला तो खाकर देख कितनी मीठी हैं । सलिला -- ( चन्द्रकला खाते हुये ) तेरे समान ही मीठी है चन्द्र । इसका नाम तेरे जैसा ही है न इसी - लिये । (सहसा फूले गुलाब की ओर दृष्टि जाती है। (दोडकर) ये फूल कितना प्यारा लग रहा है चन्द्र ! J-2 सान्द्रकुमार — तुझे चाहिये तो तोड़ ले । सलिला -- सच तोड़ लू । महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रकुमार--(तोड़कर देते हुये) ले मैंने ही तोड़ दिया। सलिल ! रजनीगंधा का फूल देखा तूने ? सलिला-छिः यह भी कोई फूल है। न सुन्दर न सुगन्ध । चन्द्रकुमार-ये रात को महकता है सलिला । रात को माना मेरे घर । प्रायगी? [इतने में चन्द्रकुमार जोर से चीख पड़ता है एवं सांप सांप कहते हुये प्रांगण में गिर कर मूच्छित हो जाता है । सलिला भी सांप को देखकर भयभीत हो चीखती है। वसुमती घबराकर वहां मा जाती है।) वसुमती--(चन्द्रकुमार को उठाते हुये) क्या हो गया बिटिया चन्द्र को ? सलिला--सांप था मोसी ! वसमती--सांप ! तूने देखा है ? सलिला- हां मौसी ! काला काला था । (हाथ फैलाकर बतलाते हुये) इतना बड़ा ! वसमती-सांप ने काट खाया मेरे चन्द्र को ? ___(सेवक सुखलाल भी पा जाता है ।) सुखलाल-क्या हो गया स्वामिनी बालक को ? वसुमती-सुखलाल ! (व्यथित स्वर में) जा दौड मन्दिर जी, स्वामी से कहना चन्द्रकुमार को नाम ने डस लिया है। सुखलाल - सांप ने ! हाय । मैं अभी बुलाकर लाता हूं स्वामिनी ! (चला जाता है।) (श्रेष्ठी सुदर्शन, बलदेव आदि पड़ोसी पा जाते हैं।) सलिला--(क्यारी की ओर संकेत कर) मौसी ! वो देखो, गुलाब के समीप बैठा है नाग । सदर्शन--(देखकर) उफ ! काला भुजंग रखा है । प्रत्यन्त विषैला नाग है। बलदेव-किसी मंत्रवादी को बुलाकर दिखलाना चाहिये । बन्धु धनंजय कहां है भाभीजी ! वसमती-अभी मन्दिर से नहीं लौटे। सुखलाल बुलाने गया है । (पैर से खून बहता हुआ देखकर) पैर में काटा है नाग ने । (तत्काल साड़ी फाड़कर कटे हुये स्थान के ऊपर बांध देती है ।) सुदर्शन-श्रेष्ठी शीघ्र प्रा जाते तो प्रयत्न करते; वरन् विष का प्रभाव तीव्र गति से बढ़ता चला जायमा । वसुमती-(मनहोनी अाशंका से भयभीत हो) हा मेरा चन्द्र ! बचालो कोई मेरे लाल को बचालो । (जन समूह एकत्रित होता चला जाता है ।। सुखनाल-(लौटकर दुख भरे स्वर में) जाने आज स्वामी को क्या हो गया है स्वामिनी ! वे मेरी सुनते ही नहीं हैं। वसुमती--तुमने कहा नहीं कि बालक को नाग डस गया ? सुखलाल-कहा स्वामिनी; बार बार कहा, पर वे हैं कि पूजन ही कर रहे हैं। बलदेव-कदाचित् सुखलाल की बात समझ में न आई हो। हम बुलाकर लाते हैं। महावीर जयन्ती स्मारिका 77 3-3 Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( जन समूह में से स्वर उभर कर भा रहे हैं ।) १ला स्वर - शीघ्र उपचार करें मां श्री । २रा स्वर - शीघ्रता न की गई तो हाथ धर कर बालक खो बैठेगी । वसुमती - ( घबराकर ) नहीं, नहीं ऐसा न कहो, मेरा एक ही तो पुत्र है । ३रा स्वर - छिः छिः कौन ऐसा दुष्ट है जो ऐसा सोचेगा। भगवान इसकी रक्षा करे । सुदर्शन - वंश का दीपक है बन्धु ! माता-पिता की इसी बालक पर समस्त प्राशायें केन्द्रित हैं । १ला स्वर- क्यों न हों, कुल तो इसी से जगमगायेगा | २रा स्वर - देखो तो भगवान मरे को ही मारता है । ४था स्वर - अरे भैया ! अरे भगवान क्या मारेगा ? जो जैसा करता है, वैसा ही भोगता है | भगवान तो वीतराग निस्पृही हैं । उन्हें अपने बीच घसीटकर क्यों अपना मुख मलिन करते हो ? २रा स्वर-धर्म की बातें दूसरों के संकट में बघारने के लिए हैं। अपने ऊपर विपति भावे तो भगवान को पानी पी पी कर कोसेंगे । ४था स्वर- कोसेंगे तो अपना ही अनर्थं करेंगे। भगवान क्या बिगाड़ लेंगे। सूर्य पर धूलि फेंकने से वह सूर्य तक तो पहुंचने से रही, अपने ऊपर गिर कर अपने को ही मलिन करेगी । बलदेव - ( लौटकर ) सुखलाल का कथन यथार्थ है बन्धु ! श्रेष्ठी सुनकर भी अनसुना कर रहे हैं । सुदर्शन - (प्राश्चर्ययुक्त हो) क्या कर रहे हो ? क्या उन्हें अपने पुत्र का जीवन प्रिय नहीं ? बलदेव - ये तो वे ही जानें । परन्तु मैं सत्य कह रहा हूं। मैंने उच्च स्वर से उन्हें सम्बोधित किया; किन्तु उन्होंने मेरी श्रोर मुख भी नहीं किया । न ही कुछ ऐसा भाव प्रदर्शित किया कि मेरी बात सुन ली हो । सुदर्शन - तो क्या पूजन ही करते रहे ? बलदेव - हां बंधु ! मैं स्वयं विस्मित हूं कि कोई इतनी भयंकर दुर्घटना सुनकर कैसे शांत रह सकता है। ४था स्वर - बात तो यही है। पूजन में लीन हो तो वे कैसे सुन सकते हैं ? एक बार में मन एक नोर ही लग सकता है । बलदेव -- कितनी ही तल्लीनता हो, पर ऐसा नहीं होता । पूजन फिर भी की जा सकती है। भगवान मंदिर से भाग थोड़े ही रहे हैं । ४था स्वर -- पर पूजन के भाव, उसका श्रानन्द क्या स्थिर रह पायेंगे ? वसुमती -- जीवन तो हो गया पूजन करते-करते और आगे भी करेंगे। पर बालक हाथ से निकल गया तो वह कहाँ मिलेगा । सुदर्शन -- प्राश्चर्य है कि जिसका एक मात्र पुत्र काल के गाल में हो, उसका मन पूजा में कैसे लग रहा होगा ? वसुमती -- ( व्यथित हो) कैसे कठोर हो गये श्रेष्ठी ! 3-4 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शन--(दृढतापूर्वक) कैसे नहीं पायेंगे ? उन्हें प्राना पड़ेगा । घबरानो नहीं भाभी ! मैं बुलाकर लाता हूं भाई को । (प्रस्थान) वसुमती--(करुण विलाप करते हुये) कोई बचालो मेरे लाल को । उतार दो इसका विष । हाय ! अब यह कभी नहीं बोलेगा? कभी मुझसे मा नहींकहेगा ? (दीर्घ उच्छवास लेते हुये) कैसा प्यारा है मेरा चन्द्र ! साक्षात् देव सदृश सुन्दर सलौना बालक । बोलता है तो मानो मुख से फूल करते हैं। बलदेव--धैर्य धरें प्राप! बालक अभी निविष हुना जाता है। मैंने मन्त्रवादी को सन्देश प्रेषित किया है । वह प्राता ही होगा। वसुमती--आपका उपकार कदापि नहीं भूलूगी। मेरे चन्द्र को एक बार जीवन दे दो बन्धु ! मैं अपनी समस्त सम्पत्ति न्यौछावर करती हूं। युवक-(प्राकर) मंत्रवादी किसी दूसरे ग्राम गया है । वसुमती--(माथा ठोककर) प्राह ! प्रब क्या होगा ? श्रेष्ठी भी अभी नहीं पाये। सुदर्शन--(प्राकर शीघ्रता से रोष में) और न पायेंगे। हमने ऐसी पूजन न देखी न सुनी । हम कह कह कर थक गये, पर वे तो जैसे बहरे हो गये हैं । बसुमती-क्या हो मया है इन्हें ? चन्द्र के जीवन मरण का प्रश्न उपस्थित है और उन्हें कोई प्रयोजन नहीं ? इतनी कठोरता ! ऐसी पूजा का क्या अर्थ है ? क्या मेरे लाल के प्राणों से भी बहमूल्य है पूजन ? वे नहीं आये तो मैं जाऊँगी वहां । (वसुमती गोद में बालक को लेकर मन्दिर की ओर चल देती है। पीछे-पीछे व्यथित सा जन समूह भी चला जा रहा है। उसमें परस्पर वार्तालाप चल रहा है।) १ला व्यक्ति --श्रेष्ठी मानव है या वज्र । बालक को नाग काटे और उसे पूजन की ही धुन बनी रहे ? असम्भव है। २रा व्यक्ति - अघेर कर दिया भाई श्रेष्ठी ने तो । ऐसा निर्मोही पिता तो आज तक नहीं देखा । ३रा व्यक्ति---बगुला भगत है पूरा । प्रदर्शन कर रहा है । बालक के बचने के लक्षण नहीं दिखते। १ला व्यक्ति---उपाय किया जाता तो बच भी जाता । पर अपने ही हायों अपने पैर पर कुल्हाडी पटकी जा रही है। २रा व्यक्ति--(निराशा के स्वर में) बहुत विलम्ब हो चुका, अब कोई भी उपाय व्यर्थ सिद्ध होगा । १ला व्यक्ति----बालक की ऐसी ही होनहार होगी। २रा व्यक्ति--बन्धु ! यह तो वैसा ही हुआ कि 'छलनी में दूध दुहें और भाग्य को दोष दें।'... ३रा व्यक्ति--विचित्र व्यक्ति है श्रेष्ठी धनंजय । (जिनालय आ गया । श्रेष्ठी अभी भी पूजन में तन्मय है । वसुमती बालक को उनके चरणों में डाल देती है।) वसुमती--(रोष एवं विषाद भरे स्वर में) माप पूजन ही करते रहे । बालक की रक्षा का कोई ध्यान महावीर जयन्ती स्मारिका 77 3-5 Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं ? निर्दयता की सीमा लांघ गये श्र ेष्ठी ! कोई पिता इतना निर्दय होता है। एकमात्र का भी आपको ध्यान नहीं ?...... . ( रुदन से अवरुद्ध स्वर में ) यदि चंद्र को कुछ हो गया तो ?............... मैं आपसे सम्बन्ध विच्छेद कर लूँगी । [ चंद समय पश्चात् श्रेष्ठी धनंजय की पूजन समाप्त होती है। वे एक दृष्टि मूच्छित निश्व ेट बालक पर डालकर तत्काल पुनः शांत भाव से स्वप्न में डूब जाते हैं । गद्गद् हो उनकी आंखों से मानंदाश्र भरने लगते हैं। श्रेष्ठी के स्तवन के स्वर सुनाई पड़ने लगते हैं । स्तवन की मार्मिकता का बोध होते ही शनैः शनैः कोलाहल शांत हो जाता है। ऐसा प्रतीत होता है मानो जन जन सम्मोहित हो एक ही प्रवाह में निश्चेष्ट बहा जा रहा है । ) धनंजय - हे प्रभु! आपके समीप यद्यपि वैभव के नाम पर एक तृरण भी नहीं है, तथापि भाप प्रद्भुत दानी हैं । सत्य है कि प्रकिचन व्यक्ति तत्काल फल देता है। जबकि वैभवशाली कृपरण विलम्ब से भी कुछ नहीं देता । जैसे शुष्क गिरिशिखर अनेक सरितानों को प्रवाहित कर तृषित प्राणियों को तृप्त करता है। किन्तु प्रगाध जलराशि के वृहद् भण्डार सागर ने कृपणता के कारण सरित दान तो दूर एक बिन्दु जल का भी दान नहीं किया । वसुमती--प्रो भक्त पुजारी ! हो जायगी । धनंजय - - (तन्मयता से भक्तिरत हैं) हे सर्वज्ञ ! आप अपने त्रैकालिक श्रात्मस्वभाव में सदैव संस्थित हैं । श्रतः प्रापका अवलोकन ग्रात्मदर्शन में निमित्त मात्र हो व्यक्ति को श्रात्मलाभ का प्रपूर्व मानन्द उपलब्ध कराता है। जबकि सांसारिक विशाल सम्पदा किसी को क्षण भर भी सुख नहीं दे सकती । कृपया बालक की रक्षा का उपाय करें। पूजन तो फिर भी १ ला व्यक्ति -- धन्य है श्रेष्ठी ! धन्य है भापको एवं धन्य है आपका आत्मगुणानुराग । सत्य ही आपकी भक्ति अद्वितीय है । धनंजय - - हे वीतराग ! वरदान प्राप्ति की तुच्छ आशा से प्रेरित हो मैंने प्रापकी भक्ति नहीं की; क्योंकि मुझे भलीभांति ज्ञात है कि आप राम से सम्बन्ध तोड़ निस्पृही हो गये हैं । और फिर कोई किसी को दे ही क्या सकता है ? प्रत्येक पदार्थ निरन्तर स्वकार्यरत है । फिर भी विनम्र भक्त अनायास मनोवांछित फल को प्राप्त कर लेता है। ऐसा कौन प्रज्ञानी है जो बृक्ष से स्वयमेव प्राप्त होने वाली छाया की याचना करेगा ? प्रत्येक श्रात्मा स्वभावत: अक्षय सम्पत्तिवान है । 3-6 ( श्र ेष्ठी धनंजय चन्द क्षरणों को मौन हो जाते हैं । तत्पश्चात् भूप्ररणत हो नमस्कार करते हैं और फिर मुडने पर पत्नी व मूच्छित पुत्र को देखते हैं ।) वसुमती -- ( व्यंग्य से ) हो गई श्रापकी पूजा अर्चा ? शेष रह गई हो तो वह भी पूर्ण करलें । धनंजय - (शांतिपूर्वक) देवी ! इस समय तुम यहां कैसे चली आई ? श्रोर क्रोध को भी साथ ले वाई | चन्द्र को क्या हो गया है ! महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुमती-पापको लज्जा नहीं पाती ऐसा कहते ? अपने लाडले चन्द्र को नाग ने डस लिया है और भाप पूजन में मग्न हैं । धिक्कार है ऐसी भक्ति को। धनंजय--क्रोध को धिक्कार करो देवी ! कष्ट देह प्रात्मविद्रोह मत करो। क्रोध का विष नाग के विष से अधिक भयंकर है; जो निरन्तर प्रात्मशान्ति को नष्ट कर रहा है। विष का विष से शमन नहीं होता। शांतिधारण करो। वसुमती--जिसका इकलौता पुत्र नाग दंशन से चार पांच घड़ी से मूच्छित पड़ा हो, उस प्रशान्त व्यथित मां को शान्ति का उपदेश दिया जा रहा है ? श्रेष्ठिन् ! मेरे नेत्रों के सम्मुख मृत्यु की विभीषिका का नग्न तांडव हो रहा है। मां की ममता अभी सोई नहीं है । शांति धारण करूं तो कैसे ! (मन विषाद से भर पाता है । प्रांसुमों की झड़ी लग जाती है।) धनंजय--देवी ! धैर्य रखो । प्रायुष्य शेष है, तो बालक की मूर्छा शीघ्र टूट जायगी। [श्रेष्ठी धनंजय प्रभु के अभिषेक का जल बालक पर छिड़कते हैं । क्षणेक पश्चात् चन्द्रकुमार प्रसन्नचित मुस्कराता हुआ उठकर बैठ जाता है । जय जयकार का जनरव गूंज जाता है । सब धन्य धन्य कह उठते हैं । वसुमती का हृदय गद्गद् हो जाता है। वे चन्द्र कुमार को वक्षस्थल से लगा हर्ष विभोर हो जाती है ।] तत्पश्चात्... वसुमती--(प्रायश्चित के स्वर में) मुझे क्षमा करें नाथ ! मैं मोह से बावली ममता से प्रशांत थी। धनंजय---तुम्हारा दोष नहीं है देवी ! मिथ्या दृष्टि के विष का ऐसा ही दुनिवार प्रभाव होता है । जब तक प्राणी धन-जन में मुख मानेगा; तब तक प्रशांति ही होती रहेगी। वसुमती--तब क्या करू श्रेष्ठिन् ? धनंजय--वस्तु स्थिति की स्वतन्त्रता को यथावत् समझकर मात्मसात् होने का सद् प्रयत्न करो। वसुमती-इसका सूत्र क्या है देव ! धनंजय--अपने प्रात्मा से अत्यन्त पृथक जन-धन, यहां तक कि मन को भी अनुकूल प्रतिकूल बनाने की वृत्ति दुखद है । संसार के समस्त पदार्थों की अवस्थायें स्वतन्त्र रूप से अपने में निरन्तर परिवर्तित होती रहती हैं । करने करने की वृत्ति से प्राकुल हो प्रात्मस्वभाव की हत्या क्यों करो! वसुमती--न करने की वृत्ति रूप पाचरण तो अत्यन्त कठिन है नाथ ! धनजय- पाचरण के पूर्व चिन्तनपूर्वक ऐसे विचारों का होना अनिवार्य है। विचारों के सुदृढ़ होते ही तद्रूप प्राचरण स्वयमेव हो जाता है । प्राचरण शारीरिक क्रिया का नाम नहीं प्रात्म स्वभाव में रमण करने का है, जो अन्तधिना से प्रकट हो जाता है। वसुमती--प्रात्मस्वभाव कैसा होता है श्रेष्ठी ! धनजय--अक्षय ज्ञान स्वरूप । ज्ञानस्वका एवं प्रज्ञान स्वको छोड़कर अन्य का संवेदन करता है। महावीर जयन्ती स्मारिका 71 3-7 Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुमती- -- काश ! यह अपूर्व रहस्य पहिले ज्ञात हो जाता । मैं तो तन के नाश को ही चेतन का नाश मान बैठी थी । श्रात्मा के अजर अमरत्व पर कभी दृष्टि ही नहीं गई । 3 ज्ञानः स्व पर प्रकाशक है दीप की भांति । यद्यपि वह सबको देखता जानता है: तथापि संवेदन अपना करता है । ४ या व्यक्ति -- मैंने कहा था न कि श्रेष्ठी धनंजय की भक्ति प्रपूर्ण है । जिसकी दृष्टि में जड़ पदार्थों की नश्वरता एवं चैतन्य की शाश्वतता प्रत्यक्ष हो ज्ञान ज्योति ज्योतित हो उठी है, वहां अज्ञान का अधकार प्रवेश करने का दुस्साहस कैसे कर सकेगा ? (एक वार पुनः श्रेष्ठी की जय जयकार की ध्वनि नभ मण्डल को गुंजा देती है । शनैः शनैः सब अपने घरों की ओर लौट पड़ते हैं ।) 3-8 .....पटाक्षेप मुक्तक चले अन्दर करतनी क्या करेगी हाथ की माला, मरी जब तक न इच्छाएं मिले न मोक्ष का प्याला । अगर है मोक्ष की इच्छा तो काका मन करो वश में, तुम्हारी वासनाओंों ने तुम्हें बरबाद कर डाला ॥ महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशाल जन मेदनी को सभा के मन्त्री श्री बाबूलाल सेठी सम्बोधित करते हुए क्षमापन पर्व समारोह 1976 क्षमा के महत्व को बतलाते हुए श्री मोहन छंगाणी, मन्त्री राजस्थान सरकार Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहानी उसकीकहानी:न मरण नमोक्ष -श्री सुरेश सरल, जबलपुर लम्बी विशिल के बाद कण्डक्टर ने छोटी-छोटी से मुस्कराया, फिर बुदबुदाने जैसी कुछ अस्पष्ट दो विशिल पौर दी। बस के चक्के घूमे कि एक प्रावाज में प्राप ही बोला-रायपुर तो मैं भी जा पादमी स्फूर्ति के साथ बस में घुस आया। उसने रहा हूँ। मैं चुप रहा। उसने अब दूसरा प्रश्न यहाँ वहां नजर दौड़ाई। सभी सीटें भरी नजर आई किया- 'तो माप जबलपुर में ही रहते हैं ?" "हां" उसे । “खैर गाड़ी तो मिल गई" शायद वह सोचते संक्षिप्त में ही मैंने कहना चाहा था । "मैं तो हुए उसने अपने माथे पर हाथ फेरा। वह पसीने की रायपुर का रहने वाला हूँ। यहां रिलेशन में पाया नवजात बूदों को पोंछ रहा था। तभी मेरी दृष्टि था। दो दिन रुका, प्राज जा रहा हूँ।" चेहरे पर उसकी दृष्टि से मिली तो वह प्रात्मीयता के भाव बनावटी हँसी लाकर मैंने इस बार कुछ ठीक से चेहरे पर लाकर बोला मुझसे-"भाई साहब, आपको कहा-प्रच्छा ! वह फिर बोलने लगा-भेड़ाघाट बहुत साइड में कोई नहीं है ?" मेरे उत्तर की प्रतीक्षा पसन्द आया मुझे । जब पाठवें दजे में था तो इसी किये वगैर ही वह मागे बोला-'मैं बैठ सकता हूँ' भेड़ाघाट पर एक निबन्ध लिखने दिया गया था एक बालसुलभ स्वच्छ मुस्कान उसके मोठों पर खिल परीक्षा में। तब मैने तपाक से प्रश्न कियागई। तभी आगे की सीट से दो युवतियों ने उसे "फिर ?"-फिर क्या देखा तो नहीं था किन्तु देखा। कुछ कहे वगैर मैं एक तरफ हो गया। वह पं० भवानीप्रसाद तिवारी का एक लेख पढ़ा था होले से मेरे बाजू में बैठ गया। उसकी टिकटें हो अपनी पाठ्य पुस्तक में। बस उसी के प्राधार पर चुकी थी। कण्डक्टर टिकटें मिला रहा था। गाड़ी धड़ाधड़ लिख दिया और उसमें अच्छे नम्बर भी मागे बढ़ने लगी थी। मिले थे। पुनः उसकी आवाज में कुछ बदलाहट धन्टे भर बाद ही ड्राइवर ने अन्दर की लाइट प्रायी और वह पूछने लगा-माप जानते हैं पं० बुझा दी । तब बाहर का अन्धकार बलात् भीतर भवानीप्रसाद तिवारी को? उसके सहज प्रश्न पर घुस माया, कालिमा की एक पतली झिल्ली पसर मुझे हंसी मा गई । मैं हंसता हुप्रा बोला-हो गई थी। गाड़ी का फाटक विधवा के इकलौते पूत बचपन से। की तरह शोर कर रहा था, तो बाजू वाले ने हाथ बस की तीव्र गति मंथर होने लगी। कोई बढाकर उसे भीतर की ओर एक झटके से खींच बस्ती प्राने वाली थी। जंभाई प्राने का क्रम टट लिया। शोर बन्द हो गया । गाड़ी बढ़ी जा रही थी। न रहा था। बस रुकने पर उसने मुझे चाय पीने “कहिये माप कहां जाइयेगा ?" उसने मुझसे के लिए अनुरोध किया। हम लोग चाय पीने पूछा । मैं उत्साह को बन्द करते हुए बोला-"बस लगे। मेरी चाय समाप्त हो कि उसने चाय का रायपुर तक !" यह सुनकर वह एक मीठी मुस्कान पैसा चुका दिया । हम फिर बस में प्रा गये । रात्रि महावीर जयन्ती स्मारिका 77 3-9 Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दस के ऊपर हो चली थी। मैं अब अपने स्थान ड्राइवर लोग गाड़ी मोड़ने के पूर्व उसे धीमी पर सो जाना चाहता था। मेरे कांधे पर हाथ तक नहीं करते और फिर जोर-तोर से ब्रेक लगाते गड़ाता हुआ वह बोला-'कहिये पाप साहित्य में हैं. इससे साइड के चक्के तक उठ जाते हैं । ऐसे में क्या पसन्द करते हैं गद्य या पद्य ?' एक कृत्रिम यदि गाड़ी न सम्भले, तो सब मरे । वैसे भी टायर सहजता वाणी में पिरोकर उसने मुझसे पूछा था। ज्यादा घिसते हैं।" मैंने उसके सन्तोष के लिये "सिर्फ साहित्य"-इस बार मेरी टोन में गंभीरता मध्यम स्वर में ड्राइवर को पुकारा - "धीरे चलायो कम बंकुरता अधिक थी। फिर भी वह हंसा और भाई, जल्दी किस बात की है ।" सभी लोग तन्द्रा चुप हो गया। में झूम रहे थे। शायद ड्राइवर के साथ साथ किसी __बस क्रमशः बेगवती होती जा रही थी। जब यात्री ने भी मेरे शब्दों पर ध्यान नहीं दिया । पाँख खुलती तो रात की कालिमा के गर्भ में पड़ी में 12 बज चुके थे। बड़ी सूई छोटी के गाड़ी की आवाज भर हमें सुनाई पड़ती थी। मैं साथ एकाकार हो गई थी। समय जाते देर नहीं क्षण भर को जागता मोर फिर सो जाता । एका. लगती। गाड़ी 50-60 की गति पर थी, फिर भी एक उसने मुझे झकझोर दिया-"देखिये भाई साहब, समय की गति मुझे अधिक वेगवान लगी। मैं फिर यह ड्राइवर कितनी रफ गाड़ी चलाता है। अभी तन्द्रा के बहकावे में प्राने लगा। 'ड्राइवर गाड़ी अब गाड़ी बांयी ओर काटी थी न, तब दांयी ओर रोको' एक सशक्त प्रावाज गाडी में ग्रज गई । के चक्के सड़क के ऊपर उठ गये थे । आप तो प्रावाज के बल पर कण्डक्टर ने भी एक दीर्घ सो रहे हैं ।" उसके कहने पर मुझे याद आया तो विशिल दी। गाड़ी रुकने के लिए धीमी होने लगी, लगा-हां क्षण भर पहले गाड़ी में खिंचाव के साथ भीतर की बत्तियां जल उठीं, देखा तो गाड़ी के झटका लगा था। मैंने कहा-रात का समय है । अन्दर सामान रखने की पट्टी पर से एक पटेची सड़क सूनी है। इसीलिए शायद ड्राइवर खुले दिल से गाड़ी चला रहा है । "अरे नहीं साब, ड्राइवर सरक कर मेरे बाजू वाले के सिर पर प्रा गिरी थी। क्रोध से उसकी आँखें पहले से बड़ी और को रोको, नहीं तो गाड़ी उलटते में समय नहीं रक्तिम हो पड़ी थीं। वह सहमी सहनी आवाज में लगेगा।" वह कुछ शिकायत के स्वर में बोला झल्ला रहा था.. गाडी धीरे चलाइये न क्यों था। मैं कुछ कहे वगैर फिर नींद में पाने लगा। पांखें मुदने लगीं । साहूकार को देखकर भागे हुए भागम-भाग मचाये हो ? किसी की जान लेना है कर्जदार की तरह गाडी भागी जा रही थी, यात्री क्या ? कि इतने में माड़ी रुक पड़ी, पर यह क्या मतंगी से हिल रहे थे। गाड़ी रुकी तो यह पीछे लुढ़कने लगी। हम सबको प्राभास हो गया कि पीछे की सड़क का गहरा ___ सड़क के साथ टायरों के घर्षण की एक ढाल है। ड्राइवर हैरान होकर खटाखट ब्रेक लगा भयंकर आवाज हुई । एक खिछाव-सा लगा शरीर रहा था । गाडी लुढकती ही जा रही थी । ड्राइवर को और तब झटके से दूसरी सीट की तरफ उछल झझलाकर जोर-जोर से वड़बड़ाया-बक नहीं लग गये थे हम लोग। रहे हैं। उसकी क्रियाओं में स्फूर्ति प्रा गई थी। __गाड़ी को इस तरह मोड़ा जाना मुझे भी इस गाड़ी के लुडकने में अब वेग मा गया था । बार कुछ अजीब सा लगा। पाजू वाला इस बार ड्राइवर ने एकदम गाड़ी को गेयर में डाल दिया । दबी मावाज को साफ करते हुए बोला-देखा एक छोटा सा झटका लगा हम लोगों को, पर मापने कितना शार्प मोड़ था वह, और ये गाड़ी रुकी नहीं। ड्राइवर ने क्षण भर के लिये 3-10 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलट कर देखा फिर चिल्लाया- 'पीछे टेक लगानी जल्दी ।' सुनते ही, मेरे बाजूवाला गाड़ी के फाटक को एक झटके से खोलकर तत्परता से बाहर कूद गया । उसके बाद शायद मैं या कण्डक्टर बाहर कूदता कि गाड़ी संतुलन खो बैठी मोर धड़ाम खटाखट्ट धड़ाम की आवाज से फाटक के बल वह एक खंडहर में गिर गई। श्रागे महिलायें चिल्लाई, जैसे एक साथ सैकड़ों श्रौरतें भयभीत होकर चीत्कार कर रही । बच्चों का कोहराम अलग सुनाई दे रहा था। सभी यात्री कुछ न कुछ चिल्ला रहे थे। कोई भगवान का नाम ले रहा था । कुछ चिल्ला रहे थे। मेरे पैरों में काफी चोट भा गई थी। कोई खिड़की तोड़कर बाहर निकला तो किसी ने ड्राइवर के सामने का कांच तोड़कर रास्ता बनाया । यात्री बाहर था गये थे। जिन्हें सा चोट थी वे बच्चों और महिलाओं को निकालने लगे। पांच मिनिट में सब बाहर श्रा चुके थे । कोलाहल शांत होने लगा । गाड़ी गड्ड में श्राराम सा कर रही थी। फर्स्ट एड का बाक्स अब काम आया, कण्डक्टर बच्चों को टिचर लगा रहा था । डर श्रौर दहशत कम होने पर सबने एक दूसरों को देखा । किसी को गम्भीर चोट न प्रा पाई थी । साधारण नोंच खरोच ही थी। फिर भी लोग अन्धकार में घबड़ा रहे थे । बच्चे पानी मांगने लगे । म मूर्छा की स्थिति में हम सब एक वृक्ष के समीप पड़े रहे । कुछ लोग भाग्य पर श्रीर कुछ ड्राइवर पर दोष प्रारोपित करने लगे। तभी पीछे से एक अन्य बस प्राती दिखी। हमें लगा हनुमानजी संजीवनी लेकर श्रा रहे हैं। हमारी बेचनी कम होने लगी । ड्राइवर और कण्डक्टर ने एक साथ हाथ उठाये । बस थम गई। इस बस के लोगों को घटना समझते देर न लगी । हम लोगों का सामान पहिचान पहिचान कर इस बस पर महावीर जयन्ती स्मारिका 77 रखा जाने लगा । टहलते टटलते सभी जन बस में बैठने लगे । कण्डक्टर ने आवाज लगाई - "सब लोग हैं न भाई.... अपने अपने बाजूवालों को देख लेना ।" " बाजू वालों को" । श्रावाज सुनी तो मुझे अपने बाजू वाले की याद भाई । मैं बिना कुछ सोचे एकदम जोर से चिल्लाया- मेरा बाजूवाला नहीं है भाई। मुझे एक घबराहट हुई। मुझे लगा मैं अपने किसी सगे-सम्बन्धी को बाहर छोड़ आया हूँ। मैं बस से उतर कर गड्ड में पड़ी बस की श्रीर भागा । एक साथ 2-3 टार्चे मेरी श्रोर ज्योतिशिखा बिखेरने लगीं । कुछ लोग मेरे पीछे हो श्राये । मैंने ड्राइवर के सामने वाले फूटे कांच में से झाँक कर देखा । वह भीतर नहीं था। किंकर्तव्यविमूढ़ की स्थिति में होते हुए भी मैं गाड़ी के उस तरफ पहुंचा तो मेरे साथ कई स्वर चिल्लाये"वह दबा पड़ा है ।" च च च... मैं उस पर झुक गया। इसकी छाती पर बस का वजन था । छाती के नीचे का भाग फाटक की भड़ास में सुरक्षित था। उसके सिर से खून निकल रहा था। वह बेसुध था । मैं तड़प कर उसके सिर पर हाथ फेरने लगा। लोगों ने जोर देकर बस की बाडी को कुछ ऊपर को हुमसाया और इसी बीच दो लोगों ने उसे बाहर खींच लिया। उसकी प्रांखें खुली थीं किन्तु चेतना जा चुकी थी । मैं लुटा सा रह गया । मेरे प्रसू उस सूखी काली रात में श्राता भरने लगे । वह मेरी मोर देख रहा था। मुझे लगा वह अपना वाक्य दोहरा रहा है- "दो दिन रुका, प्राज जा रहा हूं ।" शायद यही उसका शाश्वत परिचय था । श्रौर यही उसकी "श्रिय यात्रा" थी । श्याम विभावरी में विभीतिहीन शांति निर्मित हो गई । उसकी यात्रा पूर्ण हो गई थी, हम रास्ते में ही पड़े थे । 3-11 Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SOSSAS ASSASASTAISUS ASASCHSANAAAAHANGOSSASAHAHAAAAASSANDRS ROSINAASAASAASAASAASAASAASAHAAHAN नर, नारायण बना तोड़कर कर्मों की जंजीर * श्री कल्याण कुमार जैन, शशि, रामपुर पारमा का साक्षात्कार, अपरिग्रह में मिलता है सत्य अहिंसा संयम, इस सुख की प्राधारशिला है यही अमरता के पथ पर जीवन को ले चलता है इसी तपोवन में प्रात्मा का प्रमर फूल खिलता है परिणामों का पुष्ट परिरमरण गुरण ग्राहक गम्भीर । अन्तर्मुख निर्मल प्रात्मा को पहिचाने प्रतिवीर ॥ संयम निष्कलंक जीवन परमेष्ठी पद का वाता ये ही महंत के माध्यम से मुक्ति तलक पहुँचाता जन्म मरण के चक्रव्यूह से संयम पिण्ड छुड़ाता यही कसोटी मानव की उज्ज्वल भविष्य निर्माता नर नारायण बना तोड़कर कर्मों की जंजीर । अन्तर्मुख निर्मल आत्मा को पहिचाने प्रतिवीर ।। निर्विकल्प अस्तेय अहिंसा, पूर्ण मनोबल द्वारा शिव पथ पर बहने लगती है आत्म गंगा की धारा फिर न अभीप्सित रहते, मन्दिर मस्जिद मठ गुरुद्वारा इसमें सिद्धावस्था का दिखता अनन्त उजियारा अपने में दिखने लगती है अपनी ही तस्वीर । अन्तर्मुख निर्मल प्रात्मा को पहिचाने प्रतिवीर ।। सांसारिक व्यापूर्ति हमें अपने पन में उलझाती अपने भ्रष्ट-नियन्त्रण से यह आत्मा को बहकाती छीन हमारा अन्तबल अपना स्वामित्व जमातो इस प्रकार यह प्रारणो को नित निरुद्देश्य भरमाती मुक्ति मार्ग अवरुद्ध किये रहती इसकी प्राचीर । अन्तर्मुख निर्मल प्रात्मा को पहिचाने प्रतिवीर ।। MONUMUUWUS WEGGEWEEGSCOGS BODOWNowwODDDDDESIDDOOODOODoosvocacaosa 3-12 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टान्त को लड़ाई; लड़ाई का दृष्टान्त * श्री नीरज जैन, एम० ए०, सतना, समाज में दो उदाहरणों या दृष्टान्तों को प्रर्थ और भावार्थ अत्यन्त स्पष्ट हैं। किसी भी लेकर प्रायः विवाद के बादल घुमड़ रहे हैं। कवि. प्रकार उसका यह अर्थ नहीं निकाला जा सकता कि वर बनारसीदासकी- "सूकर के लेखें जस पुरीष 'पुण्य विष्ठा है।' यदि हम इस उदाहरण के पकवान है" यह पक्ति वर्षों से मालोच्य और समा- प्राधार पर पुण्य को विष्ठा कहना प्रारम्भ करें तो लोच्य बनी बिराज रही है । इधर कुछ समय से प. वह, कविवर के मतानुसार, शूकर की ही दृष्टि से दीपचन्दजी का एक गद्य उदाहरण चर्चा का विषय सम्भव है। विचार हमें करना पड़ेगा कि तत्त्वहै जिसका भावार्थ यह है कि- "जिस स्त्री का विश्लेषण करने वाले जिज्ञासु की दृष्टि से हमें बात पति बना हुआ है, वह यदि अन्य पुरुष से भी गर्भ को समझना है या मात्र अपने पूर्वाग्रह की पुष्टि के धारण करे तो उसे दोष न लगे।" लिये पुण्य को विष्ठा सिद्ध करते हुवे सुअर की दृष्टि से उसे देखना है। मैंने उक्त दोनों विद्वान लेखकों के उपरोक्त उदाहरण सप्रसंग पढ़े हैं। बात अत्यन्त सीधी है। बनारसीदासजी का इस तरह का उदाहरण लेखक जो विवेचन कर रहा था उस पर एकदेश रखना जैन साहित्य में कोई नई बात नहीं । बात ठीक बैठता हुआ भी उदाहरण जो जैसा सामने को समझने के लिये बड़े-बड़े प्राचार्यों ने इस तरह प्राया, उसने प्रस्तुत कर दिया । दृष्टान्त को एक- के उदाहरणों का सहारा लिया है । दो हजार वर्ष देश महीं मान कर उसका सर्वदेश प्रौचित्य सिद्ध पहले हमारे महान् प्राचार्य भगवन् समन्तभद्र ने करने का हठाग्रह यदि हम करेंगे तो निश्चित रत्नकरण्डश्रावकाचार के अन्तिम पद्य में यह ही विवाद जन्म लेंगे। मालिन्य बढ़ेगा । हम यही कामना की है कि सम्यक्त्व रूपी दृष्टि लक्ष्मी मुझे कर रहे हैं। इसी प्रकार सुखी करो जिस प्रकार कामिनी स्त्री - बनारसीदासजी उस मोही गृहस्थ की बात कामी पुरुष को सन्तुष्ट करती है। इतना ही नहीं, भगवान् ने इस एक ही छन्द में अपनी दृष्टि लक्ष्मी करना चाहते हैं जिसकी दृष्टि से मोक्ष के मूलभूत को कामिनी, जननी और कन्या के रूप में रखकर मभिप्राय स्खलित हो चुके हैं और पुण्य ही जिसे अपने लिये सुख, रक्षा और पवित्रता की कामना अपने पुरुषार्थ का परम श्रेष्ठ फल दिखाई देता है। उनका आरोप है कि जिस प्रकार शूकर-कूकर की है। यहां मैं श्री जुगलकिशोर मुख्तार की प्रादि को विष्ठा ही सबसे बड़ा पकवान प्रतीत व्याख्या सहित उस छन्द को प्रविकल उद्धृत कर रहा हूंहोता है उसी प्रकार मोही जीव को पुण्य ही सबसे बड़ा परमार्थ दिखाई देता है । उदाहरण का सुखयतु सुखभूमिः कामिनं कामिनीव महावीर जयन्ती स्मारिका 77 3-13 Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुतमिव जननी मां शुद्धशीला भुनक्तु । कुलमिव गुरणभूषा कन्यका संपुनीतान्जिन पति-पद-पद्म प्रक्षिणी दृष्टिलक्ष्मी । व्याख्या - "यह पद्य श्रन्त्य मंगल के रूप में है । इसमें ग्रन्थकार महोदय स्वामी समन्तभद्र ने जिस लक्ष्मी के लिये अपने को सुखी करने श्रादि की भावना की है वह कोई सांसारिक धन-दौलत नहीं है, बल्कि वह सद्दृष्टि है जो ग्रन्थ में वगित धर्म का मूल प्रारण तथा प्रात्मोत्थान की प्रनुपम जान है और जो सदा जिनेन्द्रदेव के चरणकमलों का -- उनके प्रागमगत पद-वाक्यों की शोभा का निरीक्षण करते रहने से पनपती, प्रसन्नता धारण करती और विशुद्धि एवं वृद्धि को प्राप्त होती है । स्वयं शोमा सम्पन्न होने से उसे यहां लक्ष्मी की उपमा दी गयी है । उस दृष्टि लक्ष्मी के तीन रूप हैं-एक कामिनी का दूसरा जननी का और तीसरा कन्या का । ।। १५० ।। ये क्रमशः सुखभूमि, शुद्धशीला तथा गुणभूषा विशेषण से विशिष्ट हैं। कामिनी के रूप में स्वामी ने यहां अपनी उस दृष्टि सम्पत्ति का उल्लेख किया है जो उन्हें प्राप्त है, उनकी इच्छाओं की पूर्ति करती रहती है और उन्हें सुखी बनाये रखती है । उसका सम्पर्क बराबर बना रहे. यह उसकी पहली भावना है । जननी के रूप में उन्होंने अपनी इस मूल दृष्टि का उल्लेख किया है जिससे उनका रक्षण पालन शुरू से ही होता रहा है और उनकी शुद्धशीलता वृद्धि को प्राप्त हुई है। वह मूल दृष्टि श्रागे भी उनका रक्षण - पालन करती रहे. यह उनकी दूसरी भावना है । कन्या के रूप में स्वामीजी ने प्रपनी उस उत्तरवर्तिनी दृष्टि का उल्लेख किया है जो उनके विचारों से उत्पन्न हुई है, तत्त्वों का गहरा मन्थन करके जिसे उन्होंने निकाला है और इसीलिये जिसके वे स्वयं जनक हैं वह नि:शकितादि गुणों से विभूषित हुई दृष्टि उन्हें पवित्र 3-14 करे और उनके गुरुकुल को ऊंचा उठाकर उसकी प्रतिष्ठा को बढ़ाने में समर्थ होवे, यह उनकी तीसरी भावना है ।" इस प्रकार भगवान ने स्वयं को कामी श्रौर दृष्टि लक्ष्मी को कामिनी की उपमा दी है। यानी हमारे झगड़ने के लिये काफी मसाला इस पद्य में उन्होंने दे दिया है । पर नहीं, हमें यहां भी यह विवेक करना पड़ेगा कि शब्द, पद और वाक्य, दृष्टान्त के शरीर हैं । उसकी श्रात्मा तो उसका भावार्थ या श्रभिप्रत अर्थ मात्र है । केवल सन्दर्भहीन शब्दार्थ से लड़ पड़े, यह हमारी मूर्खता होगी । दूसरे उदाहरण के सम्बन्ध में विचार करते समय हमें दो बातों पर ध्यान देना पड़ेगा। पहला लेखक के काल की समान व्यवस्था और दूसरा उसके शब्दों का आधार । लेखक अपने आसपास समाज में, राज्य में, श्रोर देश में जो कुछ देखता है उसका प्रतिबिम्ब उसके लेखन पर अनिवार्यतः पड़ता है । इसीलिये साहित्य को समाज का दर्पण कहा गया है | छहढाला में सम्यकदृष्टि जीव के सांसारिक भोगों के सम्बन्ध के उदाहरण बड़े सटीक हैं। 'नगर नारि को प्यार' और कांधे में हेम' हमेशा समझ में श्राते रहे हैं । गरिणका का प्यार प्रदर्शन श्रर्थप्राप्ति की धुरी पर हो तो घूमता है । परन्तु बुधजनजी की छहढाला में एक उदाहरण माया है 'ज्यों सती नारि तन को सिगार ।' इस पंक्ति का भी यही अर्थ पढ़ा, सुना, समझा और माना कि सती स्त्री अपने तन का श्रृंगार केवल अपने पति को रिझाने के लिये करती है। उसकी सज्जा पर पुरुष के लिये लेशमात्र भी नहीं है । कुछ वर्षो पूर्व राजस्थान का इतिहास पढ़ते समय अठारहवीं शताब्दी में वहां प्रचलित सती प्रथा का रोमांचकारी वर्णन पढ़ने को मिला । बुधजन उस सतीप्रथा के प्रत्यक्ष साक्षी बनकर ही महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपनी लेखनी चला रहे थे । वे देख रहे थे कि वरण समाज में नहीं था। इस परिप्रेक्ष्य में अपने चितारोहण करने के पहले नारी की देह सोल हों उदाहरण के द्वारा पंडितजी सिर्फ इतना कहना शृगार से संस्कारित की जा रही है। किन्तु उसका चाहते हैं कि भले ही कोई स्त्री अपने शील से डिगमन इस शृगार के प्रति एकदम उदासीन है। कर किसी अन्य पु ष द्वारा गर्भधारण करले परन्तु अपनी पारम्परिक प्रास्था के कारण उसकी अडिग जब तक उसका पति मौजूद है तब तक ऐसी स्त्री धारणा है कि वितारोहण करते ही उसके पति से के प्राचरण पर सन्देह प्रकट करना. दोष लगाना उसका चिर मिलन असंदिग्ध है। शरीर संस्कार या दण्डित करना समाज के लिये सम्भव नहीं है । उस चिरमिलन की प्रस्तावना के रूप में प्रव- स्त्री अपने पति का त्याग कर दे. पति स्वयं उसे श्यम्भावी एवं अनिबार्य है। ऐसा सोचकर वह नारी लांछित कर दे या, उससे जुदा रहने लगे तब तन के शृगार को अपने चिरमिलन में बाधक स्थिति बदल जायेगी । एक सहज बात को समझाने मानते हुए भी उसकी अनिवार्यता को स्वीकार के लिये पडितजी ने एक बहुत सहज उदाहरण करती है। किन्तु उसकी दृष्टि में उसका प्रियतम प्रस्तुत किया है। इसमें उन्होंने जरा भी इस बात झूलता है, शृगार नहीं । ऐसे ही ज्ञानी जीव के को वकालत नहीं कि ऐसी व्यभिचारिणी स्त्री ज्ञान में प्रतिष्ठित होने के पूर्व, उदय में माये हुए केवल अपने पति के अस्तित्व के कारण सचमुच ही भोगों से उसे निबटना पड़ता है । किन्तु तब भी निर्दोष बनी रहेगी और उसके शील को कोई दोष उसकी दृष्टि में प्रात्मा झूलती है, भोग नहीं । बुध- नहीं लगेगा या उसे किसी अशुभ कर्म का बन्ध नहीं जनजी ने ज्ञानी की जिस मानसिक विकलता का होगा । इन सब बातों का यहां कोई प्रसग ही चित्रण सती नारी के माध्यम से दिखाना चाहा है नहीं है। उनके उस महान प्राशय को तात्कालिक सतीप्रथा की ओर देखे बिना समझ लेना सम्भव ही मैं समाज के जिज्ञासू भाई-बहिनों से अत्यन्त नहीं है। नम्रतापूर्वक यह कहना चाहता हूं कि स्वाध्याय हमें पंडित दीपचन्दजी के उदाहरण को इसी करते समय शब्दार्थ और मतार्थ के साथ भावार्थ कसौटी पर कसना होगा। उनका समय सामाजिक को भी समझने का प्रयत्न करें। अपनी रुढ़ियों और जटिलतानों का समय था । व्यक्ति पूर्ति के लिये विद्वानों के वाक्यों का खींचतान समाज के अनुशासन से बहुत अधिक जकड़ा हग्रा वाला अर्थ लगाना और उसे प्रचारित करना था । उसके छोटे-बड़े सभी प्राचरणों की समाज ईमानदारी नहीं है । इतना प्रौर कि दृष्टान्त की द्वारा अनुवीक्षा की जाती थी और उसके हर एक एकदेश घटाकर उससे दाष्र्टान्त को समझने की स्खलन के लिये दण्ड दिया जाता था। प्राज जैसा कोशिश करनी चाहिये । दृष्टान्त को सवंदेश सत्य व्याक्त स्वातन्त्र्य का प्रथवा उच्छखलता का वाता. नही मानना चाहिये। महावीर जयन्ती स्मारिका 1 3-15 Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JOOOOOOOOOOOO - पं० प्रेमचन्द्र "दिवाकर", सागर 1. सचाई से डरो नहीं । चन्दन के तरुनों में भुजंग लिपटने पर भी सुरभि समाप्त नहीं होती । 2. प्रारुणिक जीवन उत्कर्षकारी और श्रानन्दप्रद होता है । 3. देखादेखी से नहीं, अपनी दृढ़ श्रद्धा श्रौर ज्ञान से कार्य करना है । 4. दुनियाँ एक रंगमंच है, 75 वर्ष करीब तक कलाकार नाटक के किसी एक पात्र की तरह का अभिनय कर मृत्यु के नेपथ्य में चला जाता है । प्रत्येक को नेपथ्य में नियम से जाना | अतः अच्छा अभिनय कल्याण का पैगाम है । 5. प्रेम, हृदय की निर्मलता का फल है । 6. अहिंसा : - - उदारता समानता और प्रशान्ति निवारक है । 7. ज्ञानी जन कष्टों और प्रभावों में भी सुखानुभूति करते हैं । प्राचरण मनुष्य जीवन का परम रत्न है । 9. रुकने का नहीं, गति का नाम जीवन हे । 10. हम हिम्मती हैं, उसे जागृत विकसित प्रौर अनुभव में लाने की आवश्यकता है । 11. कार्य की सफलतार्थं उसके कारण और परिणाम का विचार करना चाहिये । 12. ज्यादा दूर देखने की अपेक्षा पास में अधिक देखो । 13. दूसरों के पहिले स्वयं को सुधारो । 14. हमें जीवन में जीने की कला भी सीखना है । 15. दूसरों से सहायता की प्राशा न रखकर स्वयं अपने सहायक बनो । 16. सदैव खुशनजर आने का अभ्यास करना है । 17. वर्षा, दिवाकर, नदी, फल और ईश्वर किसी से भेद नहीं करता, बल्कि निरवांछित समान व्यवहार करते हैं । 8. विचार-बिंदु 18. प्रतिपल ज्ञानार्जन करते रहना है । यही अंगूर, रबड़ी, स्वर्ण, मखमली सैया, राकेश, वायुयान, दुरबीन, रेलगाड़ी, दिवाकर और स्वयं स्वरूप है । ऊपर देखने के पूर्व अधोभाग को निरख लेना चाहिये । 19. 20. 21. ♡♡♡ 3-16 विचारों में महानता, महत्वाकांक्षा, पवित्रता और पूर्णता अवश्य ही हो । ज्ञान- प्रानन्द और परम शांतिरूप है । 2000 ♡♡♡♡♡♡♡♡♡♡♡F महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिश्री १०८ श्री मुनिसुव्रतसागरजी महाराज विशाल जनसमुदाय के समक्ष प्रवचन करते हुए सच्चा चाहि क्षमापन समारोह 1976 मुख्य अतिथि श्री मोहन छंगाणी का स्वागत करते हुए सभा के प्रध्यक्ष श्री राजकुमार काला निर्वाणोत्सव समारोह 1976 कु० प्रीति जैन मंगलाचरण करते हुए . Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समय की माँग * डॉ. जयकिशनप्रसाद खण्डेलवाल, प्रागरा जीवन के सभी क्षेत्रों में समय की मांग को सराहा और अपने ढंग से वे इसे प्रयोग में भी महत्त्व दिया जाता है। चाहे वह भौतिक क्षेत्र हो लाये । हमें प्रसन्नता की बात है कि यह अपरिग्रह या प्राध्यात्मिक, सांस्कृतिक क्षेत्र हो या साहित्यिक. मणुव्रत के रूप में व्यक्तिगत कल्याण की दृष्टि से समय के अनुसार लोगों की विचारधारा परिवर्तित ज्यापक रूप में अपनाया गया। निर्वाणोत्सव को होती रहती है । कुछ प्रान्दोलन स्थायी प्रभाव उपलब्धियों का मूल्यांकन हुआ है और इस तथ्य वाले होते हैं, जिनका गहरा प्रभाव पड़ता है। वे पर सभी एकमत हैं कि व्यापक जागृति हुई है। युगादर्श को प्रस्तुत करते हैं। महावीर निर्वाणोत्सव एक ही बात है कि हमें उपलब्धियों को संजोकर के उपलक्ष में देश-विदेश में जो भी गतिविधि रखना है. उसे अपने जीवन का अंग बनाना है। दिखाई पड़ी, उनमें से कुछ के दूरगामी परिणाम त्रुटियों की ओर दृष्टिपात करने का समय होंगे। यथा, जैन दर्शन के अनेकान्तवाद को हम नहीं है। प्राज के युग की मांग कह सकते हैं। इस पर अनेक दृष्टिकोण से विचार हुमा मौर यह वाद अनेक ____साधु और समाज का धनिष्ठ सम्बन्ध है। दृष्टिकोणों का सम्मिलित रूप प्रस्तुत करता है। साधु-संस्था ने सदैव समाज का मार्ग निर्देशन किया सच्चाई के सभी पहलुओं को हम जान लें, तभी है और श्रावक पक्ष भी अपनी पूर्ण श्रद्धा से उनको हम पूर्ण सत्य को प्राप्त कर सकते हैं । जीवन का पूज्यतम विभूति मानता है । युग की मांग है कि साधु-संस्था समाज को जीवन-दर्शन के समन्वय का स्थूल रूप चारों सम्प्रदायों के एक प्रति नवीन ढंग से, प्राधुनिक शब्दों में प्रोत्साहित ध्वज, एक मंच और एक कार्यक्रम तथा 'सम्मरण- करे । उनकी रुचि धर्म की अोर लगावे । णमोकार सूत्र' के प्रकाशन में दिखाई पड़ा । यह समन्वय मन्त्र में साधुओं की कोटियां दी हुई हैं किन्तु जैन समाज में कितने गहराई से पैठ गया है, यही प्रत्येक कोटि में भी कोटियां हैं। चारित्र को तो समीक्ष्य है पोर जितनी गहराई से पैठा है, उतना सदैव महत्त्व दिया जाता रहा है और भविष्य में ही लाभकारी है, मनेकान्तवाद के अनुरूप है। भी यह रहेगा किन्तु दिखावे एवं रूढ़ियों को समाज इसी प्रकार अपरिग्रहवाद का सिद्धान्त भी बहुत लादे नहीं रहना चाहता । समय रहते इस दिशा व्यापक सिद्ध हुआ है । व्यक्ति से लेकर राष्ट्र तक में प्रवृत्त होने की प्रावश्यकता है वरन युवा-जन के जीवन में इसकी धूम मच रही है । इसके व्या- से हम क्या माशा कर सकते हैं। उनमें प्रास्था का वहारिक पक्ष पर भी चिन्तन-मनन हुमा है । यह प्रायः प्रभाव होता चला जा रहा है । किस प्रकार युग की मांग के रूप में उभर कर पाया और युवाजन के हृदय में दृढ़ प्रास्था हो, धर्म के प्रति, इसकी उपयोगिता को राष्ट्र के नेताओं ने समझा, सिद्धान्तों के प्रति, साधु संस्था के प्रति--इन प्रश्नों महावीर जयन्ती स्मारिका 77 3-17 Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर गम्भीरता से विचार करना चाहिये । साधु वह सब पूर्ण हुमा, सम्पन्न हुमा । अब तो हमें संस्था भी विचार करे और श्रावक जन भी । साधु अपने निर्वाणोत्सव की तैय्यारियां करनी हैं, उत्सव की भूमिका माधुनिक युग के परिप्रेक्ष्य में क्या करे तो पाने वाली पीढ़ी अपनावेगी और समापन हो ? यह ज्वलन्त प्रश्न है। हमें समाज के लिए तो इसका कभी होता ही नहीं । यह तो पीढ़ी दर कल्याणकारी मुद्दों को भुलाना नहीं है । महावीर पीढ़ी चलता रहता है। हमारा धर्म एवं दर्शन स्वामी का निर्वाणोत्सव पाने से पूर्व बड़ी तैय्या- परम्परावादी है, सृष्टि की परम्परा है । युग की रियां की जा रही थीं, शताब्दी वर्ष में भी बड़े-बड़े मांग की भी परम्परा है । जैन समाज के मार्गमायोजन एवं संगोष्ठियां हुई और समापन वर्ष में दर्शन हेतु प्रबुद्ध साधक अग्रसर हों, ऐसी हमारी विचार गोष्ठियों में उपलब्धियों का मूल्यांकन हुआ। कामना है । एक प्रकन्न ? महावीर स्वामी के तुम हो रजिस्टर्ड अनुयायी, एक प्रश्न मैं केवल तुम से पूछ रहा हूं। पाज अहिंसा की क्यों बिल्कुल बदल गई परिभाषा ? विफल हो गई लगा रखी थी सत्य धर्म पर प्राशा, और अचौर्य कहां टिक सकता बड़ी परेशानी है, कहाँ परिग्रह की सीमा जब तृष्णा मनमानी है, ब्रह्मचर्य की हुई प्राजकल कितनी छीछालेदर ? एक प्रश्न में केवल तुम से पूछ रहा हूँ। पहले जंसी कहाँ तुम्हारी, अब है प्रामाणिकता ? तथा सरलता सत्यप्रियता, प्रथवा धर्माचरिता, अपना हृदय टटोलो, और सोचो है कितनी खामी ? किस बूते पर कहलाते हो, जैन धर्म अनुगामी ? खानपान में लुप्त हो गई जब प्राचार निष्ठता ? एक प्रश्न में केवल, तुम से पूछ रहा हूँ। * श्री गुलाबचन्द जैन, वैद्य, ढ़ाना 3-18 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्वारण-शती वर्ष की महान् उपलब्धि ! प्राचार्य विनोबा भावे सर्व धर्म समभाव तथा समन्वय के लिए निरन्तर प्रेरणादायी बल देते रहे हैं। उनका सारा जीवन ही दलों को जोड़ने श्रौर उन्हें जोड़े रहने का रहा है। इसी जन-हित- दृष्टि से उन्होंने अनेक धर्म-ग्रन्थों पर दूरगामी कार्य किया है। भगवद् गीता, वेद, बाइबिल, कुरान, जपुजी श्रादि विशिष्ट प्रोर जनमान्य धर्मव्रन्थों के सार-संकलन तैयार किये और धम्मपद की तो उन्होंने नव-संहिता ही प्रस्तुत करदी । उनका गीता प्रवचन तो प्राज घर घर पढ़ा जा रहा है। इसी तरह वे चाहते थे कि जैनधर्म का भी एक समन्वयाहमक तथा सर्वमान्य ग्रन्थ तैयार हो । महावीर की वाणी भी कालमान्य हो । सर्व सेवा संघ प्रकाशन की ओर से लगभग चार वर्ष पूर्व इस दिशा में प्रयास शुरू किया गया। श्री जिनेन्द्र वर्णी जी के समक्ष विनोबाजी की यह भावना रक्खी गई, जो उनके हृदय को स्पर्श कर गई । फलस्वरूप जनवरी 1973 के प्रारम्भ में श्री वर्णीजी श्रीर बाबा के बीच ब्रह्म विद्या मन्दिर पवनार में दो दिन तक इस पर चर्चा हुई और उसके बाद श्री वर्णीजी ने विनोबा के मार्ग दर्शन में मर्यादाम्रों को ध्यान में रखते हुए 430 गाथा प्रमाण " जैन धर्म सार" नामक ग्रन्थ संकलित कर दिया जो 11 सितम्बर 1973 को विनोबाजी को समर्पित कर दिया गया। उनके प्रादेशानुसार वह ग्रन्थ मुद्रित हुप्रा पौर भारत के सभी साधुनों तथा विद्वानों के पास महावीर जयन्ती स्मारिका 77 * श्री प्रतापचन्द्रजी जैन, नागरा सम्मत्यार्थ भेजा गया। सभी ने उसमें गहरी रुचि ली; अनेक उपयोगी सुझाव श्राये। उन सुझावों को ध्यान में रखकर पं० दलसुख भाई मालवरिया ने 570 गाथा - प्रमाण एक नया संकलन तैयार किया; तदुपरान्त श्री वर्णीजी ने उन सारे सुझावों प्रौर उस नये संकलन को सामने रखकर 807 गाथा - प्रमाण " जिरा धम्म" नामक ग्रन्थ तैयार किया । इस नये संकलन पर विचार करने हेतु 2930 नवम्बर 1974 को भारत की राजधानी दिल्ली में विनोबाजी की प्रेरणा और संघ के ही सत्प्रयास से एक संगीति प्रायोजित की गई । भगवान महावीर के 2500 वें निर्वाण महोत्सव के कारण प्रायः सभी प्रधान जैन साधु- संघ श्रौर विद्वान उन दिनों सहज ही दिल्ली में उपलब्ध हो गये। उनमें श्राचार्यश्री तुलसीजी, श्री विजयसमुद्रसूरिजी भाचार्य श्री धर्मसागरजी, उपाध्याय श्री विद्यानन्दजी मुनि मुनिश्री सुशीलकुमारजी, मुनिश्री नथमलजी एवं मुनिश्री जनकविजयजी सहित देश के लगभग सभी चोटी के विद्वान सम्मिलित हुए । शुरू में तो हजारों वर्षों की मान्यता भेदरूपी दीवार को तोड़ कर इनका एकत्र होना ही प्रति कठिन लग रहा था; ऐसे ग्रन्थ का संकलन तो बहुत ही दुर्द्धर कार्य था तथा संगीति का प्रायोजन तो भोर भी दुश्वार । चोटी के बिद्वान ही नहीं मुनिगण तक इस बारे में संदिग्ध थे । लेकिन 3-19 Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य विनोबाजी के शब्दों में श्री वीर प्रभु यह गौरव ग्रन्थ जैन धर्म, जैन दर्शन तथा समन्वयाचार्य थे, परम वीर्यवान थे और माध्यस्थ्य जैन न्याय का पूर्ण परिचय प्रदान करता है, इसमें दृष्टि सम्पन्न थे । उनकी अहिंसा, अनेकान्त और निश्चय पोर व्यवहार तथा इन दोनों की समन्वय समता की पयोधारा में समस्त मताग्रह एवं वैर. रूपी त्रिवेणी का भव्य दर्शन होता है। यह चार विरोध समाप्त हो जाते हैं । एक शुभ संयोग हमें खण्डों में विभाजित है (1) ज्योतिर्मुखम्-इसमें भगवान महावीर के 2500 वें निर्वाण महोत्सव : व्यक्ति मिथ्यात्व की निम्न भूमि से उठकर रागवर्ष की पावन बेला का भी मिला । जबकि चारों द्वेष का परिहार, कषाय निग्रह तथा इन्द्रिय दमन जैन सरिताएं एक धार बन कर बह रही थीं वह करते हुए उत्तम क्षमा प्रादि दस धर्मों की उत्कृष्ट भी सहायक सिद्ध हुआ और असम्भव सम्भव बन भूमि में प्रवेश करता है और अप्रमाद का यथार्थ गया। परस्पर विश्वास का झरना फूट पड़ा और रूप में दर्शन करता है। (२) मोक्ष-मार्ग-इसमें सभी जैन आम्नायों के मुनिराज एक ही मंच पर सम्यकदर्शन, ज्ञान तथा चारित्र का भेद तथा प्रभेद विराजमान हुए । उनका हृदय एक हुमा । स्वरूप दर्शाया है। इसी के अन्तर्गत श्रावक तथा श्रमण-धर्म का विशद परिचय भी प्राप्त हुवा है, संगीति 29 और 30 नवम्बर 1974 को जिसमें प्रव्रती श्रावकों के लिए पांच अणुव्रत व दिल्ली के अणुव्रत विहार तथा जैन बालाश्रम में पाठ शीलव्रत तथा श्रमणों के लिए पांच महाव्रत, दो दिन तक चलती रही। हर गाथा पर खूब पांच समिति, तीन गुप्ति, षडावश्यक कर्म, ध्यान, विचार-मन्थन हुआ और अनेक सुझाव पाये। द्वादश तप तथा मनुप्रेक्षा व संलेखना के निश्चयदिगम्बर व श्वेताम्बर सभी मान्यतानों के विचारक व्यवहार-परक स्वरूप सम्मिलित हैं। (3) तत्व एवं प्राचार्यगण उस मिले जुले संकलन-ग्रन्थ को दर्शन-इसमें सात तत्व, नवपदार्थ षट् द्रव्य तथा अधिकृत रूप से सर्वसम्मत मान्यता देने के लिए सृष्टि -व्यवस्था का वर्णन है । (4) स्याद्वाद समुद्यत हो गये । संगीति में सर्वसम्मत निर्णय का विषयक इसमें प्रमाण, नय, निक्षेप, सप्तसंगी, सम्पूर्ण अधिकार सभी जैन माम्नायों के मुनिराजों न्याय तथा सर्व-धर्म समन्बय का भव्य रूप सामने को सौंप दिया गया। मुनिगणों तथा श्री जिनेन्द्र पाया है। वर्णीजी ने संगीति के पश्चात् 6-7 दिन तक ग्रन्थ तीन भाषानों में संग्रहीत है । मूल लगातार घंटों बैठकर ग्रन्थ का परिशोधित रूप गाथाएं प्राकृत की हैं। उनकी संस्कृत छायाएं तथा तैयार किया और उसका नाम 'समरण मुत्त" हिन्दी अनुवाद भी हैं । प्राचार्य विद्यासागरजी निर्धारित किया । इन सभी मुनिराजों ने 7 महाराज इसके हिन्दी पद्यानुवाद में संलग्न है । दिसम्बर सन् 1974 को उस पर अपने हस्ताक्षर करके उसे सर्वमान्य घोषित किया। श्री वर्णीजी ग्रन्थ के गुजराती, मराठी और अंग्रेजी भाषामों में तब उसे लेकर बाबा के पास पवनार पहुंचे । प्रकाशन की योजना भी चल रही है। ग्रन्थ नित्य बाबाने उसे देखकर अति प्रसन्नता व्यक्त की और पारायण योग्य बन गया है। उन्होंने भी गद्गद हृदय से 12 दिसम्बर 1974 बाबा ने अपने प्राशीर्वचन में कहा है कि मेरे को हस्ताक्षर करके उस 756 गाथा-प्रमाण-ग्रन्थ- जीवन में मुझे अनेक समाधान प्राप्त हुए हैं । राज को निर्वाण शती वर्ष की उस महान् उपलब्धि उनमें पाखरी अन्तिम जो शायद सर्वोत्तम समाधान को अपना आशीर्वाद प्रदान किया। हजारों वर्षों है, इसी साल (1974-76) प्राप्त हुआ है। मैंने से पली प्रारही बहुत बड़ी कमी पूरी हुई। कई दफा जैनों से प्रार्थना की थी कि जैसे वैदिक 3-20 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म का सार गीता के सात सौ श्लोकों में मिल से बढ़कर किसी का प्रसर मेरे चित्त पर नहीं है। गया है"वैसे जैनों का होना चाहिए। यह जैनों उसका कारण यह है कि महावीर ने जो प्राज्ञा दी के लिए मुश्किल बात थी, इसलिए कि उनके, है वह बाबा को पूर्ण मान्य है। प्राज्ञा यह कि भनेक पन्थ हैं और ग्रन्थ भी अनेक हैं । आखिर सत्यग्राही बनो।"सब धर्मों में, सब पन्थों में "सब वर्णी नाम का एक बेवकूफ निकला और बाबा की मानवों में सत्य का जो प्रश है उसे ग्रहण करना बात उसको जंच गई। वे अध्ययनशील हैं।" . चाहिए।" उन्होंने जैन धर्म सार" नाम की एक किताब प्रकाशित की। उसकी हजार प्रतियां निकाली और जिस सर्व-सेवा-संघ ने इस हरक्यूलिस कार्य जैन समाज के विद्वानों के पास तथा जैन समाज को हाथ में लिया और उसे मूर्तरूप दिया उसके के बाहर के विद्वानों के पास भेजदीं। विद्वानों के सम्बन्ध में भी यहां दो शब्द कह देना असंगत नहीं सुझावों पर कुछ गाथाओं का हटाना, कुछ का होगा। सर्व-सेवा-संघ गांधी जी द्वारा प्रवर्तित तथा जोड़ना. यह सारा करके "जिण धम्म” किताब संचालित विभिन्न रचनात्मक प्रवृत्तियों का एक प्रकाशित की। फिर उस पर चर्चा करने के लिए मिला जुला संगठन है। संघ के प्रकाशन विभाग बाबा के पाग्रह से एक संगीति बैठो मोर उसमें ने विनोबाजी की भावना को अमली जामा पहनाने मुनि, प्राचार्य और दूसरे विद्वान, श्रावक मिलकर के लिए इस प्रायोजन और प्रकाशन का दायित्व लगभग तीन सौ लाग इकट्ठे हुए । बार बार चर्चा उठाया है । वास्तव में यह कार्य सम्पूर्ण जैन करके फिर उसका नाम भी बदला, आखिर समाज का ही था। अब यह हमारा, प्रत्येक सर्वानुमति से "श्रमरण-सक्तम' जिसे प्रधं मागधी सत्याग्राही का पावन दायित्व हो जाता है कि में "समरण-सुत्त" कहते हैं तथा उसमें 756 'समरण-सुत्त" के द्वारा भगवान महावीर की गाथाएं हैं। 7 का प्रांकड़ा जैनों को बहुत प्रिय है। कल्याणकारी वाणी नगर-नगर, घर-घर पहुंचे । 7 और 108 को गुणा करो तो 756 बनता है। यह मानव जगत को उनके 2500 वे निर्वाण वर्ष पौर तय किया कि चैत्र शुक्ला त्रयोदशी को वर्धमान की एक अनुपम भेंट है। (इस ग्रन्थ राज का वही जयन्ती प्रायगी जो इस साल (1975) 24 स्थान है जो गीता, बाइबिल, कुरान शरीफ और पप्रेल को पड़ती है, उस दिन वह ग्रन्थ अत्यन्त धम्मपद का है।) क्या ही अच्छा हो यदि ऐसी ही शुद्ध रीति से प्रकाशित किया जायगा और मागे के एक अोर संगीति प्रायोजित की जाय जो श्रमण लोग जब तक जैन धर्म मौजूद है, तब तक सारे श्रावकों के लिए इस बदलते युग के परिप्रेक्ष्य में नैन लोग और दूसरे लोग भी जैन धर्म का सार एक प्रागम-सम्मत सर्वमान्य प्राचार सहिता तैयार पढ़ते रहेंगे। एक बहुत बड़ा कार्य हुप्रा है, जो करदे । वह काम भी कम महान नहीं होगा । हजार पन्द्रह सौ साल में हुमा नहीं था। उसका जैन धर्म में अनेक आगम ग्रन्थ हैं परन्तु उनमें कोई निमित्त मात्र बाबा बना लेकिन बाबा को पूरा एक भी ऐसा ग्रन्थ नहीं था जो जैन समाज के विश्वास है कि यह भगवान महावीर की कृपा है। सभी अनुयायियों को समान रूप से मान्य हो और मैं कबूल करता हूं कि मुझ पर गीता का जैन धर्म के जिज्ञासुग्रों को प्रतिनिधि ग्रन्थ के रूप में गहरा प्रसर है। उस गीता को छोड़ कर महावीर रिकमेन्ड किया जा सके । बहावीर जयन्ती स्मारिका 71 .3-21 Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर के उपदेशों की श्री हजारीलाल जैन 'काका' सकरार सत्पथ भटक चुका है मानव भूल गया उद्देश्य को, महावीर के उपदेशों की पुनः जरूरत देश को, आज क्षमा की जगह क्रोध का हर मन पर अधिकार है, मानवता ठुकराई जाती दानवता से प्यार है, तज कर मान कषाय छोड़ना होगा नकली वेष को, महावीर के उपदेशों की पुन: जरूरत देश को, सत्य भटकता बाजारों में झूठ पुज रहा है च पोर, संयम के बाने में लिपटे घूम रहे खल कामी चोर, तप से हमें शुद्ध करना है मन के इस आवेश को, महावीर के उपदेशों की पुन: जरूरत देश को, इच्छाओं का दमन न अब मानव के वश की बात है, सारे जग की मिलै सम्पदा यही फिकर दिन रात है, इसी चक्र में घूम रहा नर चैन नहीं लवलेश को, महावीर के उपदेशों की पुनः जरूरत देश को, पर वस्तु में रमण करे फिर भी बनता ब्रह्मचारी है, निज स्वरूप को भूला चेतन ऐसा बना अनारी है, 'काका' लोभ मोह को त्यागो रखो न लघु अवशेष को, महावीर के उपदेशों की माज जरूरत देश को, 3-22 महावीर जयन्ती स्मारिका " www.jainelib Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नव साहित्य कसौटी पर। "त्रिशला नन्दन महावीर" रचयिता-श्री हजारीलाल जैन “काका बुन्देलखण्डी" सकरार (झांसी) प्रकाशक- सेठ श्री भगवानदासजी जैन, सागर (म. प्र.) प्राकार- २०४३०/१६ श्री हजारी 'काका' हास्य रस के जाने-माने लोक प्रिय जैन कवि हैं । मक्ति स में भी इनको लेखनी पूर्ण तन्मयता से गोता लगा लेती है। प्रस्तुत पुस्तक में विश्व-वंद्य भगवान मह बोर की जीवनी को कवि ने सरल, सुबोध एवं प्राडम्बर-हीन लोक-भाषा में छन्दोबद्ध प्रस्तुत किया है । रचना वस्तुतः जैन जगत् को साहित्यिक धरोहर बन गई है। १०२ पृष्ठों को पुस्तक का मूल्य मनन मात्र है जो इसकी प्रतिरिक्त विशेषता है। महावीर जयन्ती स्मारिका 77 3-23 Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निग्रंथ रचयिता-कन्हैयालाल सेठिया प्रकाशक-भीलवाड़ा संस्कृति संसद, भीलवाड़ा (राजस्थान) मुद्रक-- मातादीन ढंढारिया, नेशनल प्रिंट क्राफ्ट्स, ६५ ए, चितरंजन एवेन्यू कलकत्ता-१२ सेठियाजी वस्तुतः शब्दों के सेठ हैं । प्रस्तुत पुस्तक में सेठियाजी ने धार्मिक, दार्शनिक, सांसारिक जगत से सम्बन्धित एक-एक शब्द को लेकर जो रचनायें दी हैं- वे वस्तुतः एक-एक हीरा हैं । गागर में सागर है । छोटे छोटे सूत्रों में जीवन व जगत का गहन रहस्य उद्घाटित हुआ है। पुस्तक में कागज का अपव्यय जरूर हुआ है। छपाई सुन्दर है किन्तु मात्र ८२ पेज को पुस्तक का मूल्य १०) रु० बहुत अधिक है। तीर्थंकर निर्वाण चयनिका विशेषांक, दिसम्बर १६७६ संपादक- डॉ. नेमीचन्द जैन प्रकाशक-हीरा भैया प्रकाशन, ६५, पत्रकार कॉलोनी, इन्दौर मूल्य ५) रुपये प्राकार- १८x२२/८ - इस विशेषांक में जैन जगत के शीर्षस्थ विद्वानों की धार्मिक एवं सामाजिक सारगभित संक्षिप्त रचनायें तो हैं ही साथ ही निर्वाणोत्सव वर्ष में सम्पूर्ण भारत में प्रकाशित जैन साहित्य का भी यह दिग्दर्शन कराता है तथा निर्वाणोत्सव वर्ष की उपलब्धियों का लेखाजोखा कतिपय लेखकों द्वारा बड़े निष्पक्ष दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया गया है। 3-24 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ OOOOO चतुर्थ खण्ड आंग्ल भाषा (English Section ) Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "TRI-RATNA” IN JAIN PHILOSOPHY Dr. Prem Chand Jain M.A. Ph.D. Jain Darsanacharya Department of Sanskrit, University of Rajasthan, JAIPUR These are : (1) SAMYAG DARSAN right faith, (faith and perception combir ed;) (2) SAMAG JNANA right knowledge; (3) SAMYAK CHARITRA right conduct. See the three gems Right faith, right knowledge and right conduct have, therefore, come to be known in Jaina ethics as the three gems (three jewels) that shine in a good life. In the very first sutra of “Tattvarthadhigama-Sutra" Umasvami states this cardinal teaching of Jainism : The Path to liberation lies through right faith, right knowledge and right conduct.1 Liberation is the joint effect of these three. outra" Umasvami in right know The reason why right faith or perception is put first is that right principles of conduct are derivable from right perceptions. And as precious stones and ordinary stones are of the same nature, but a whole load of mountain stones does not equal in value a small piece of precious stone, so conduct based on false-faiths may be the same in external manifestation as that based on right faith, but the rmer leads to final liberation. (ATMANUSASANA, V. 15, TRANSLATION PUBLISHED IN THE JAINA GAZETTE, VOL IV, 1907, P. 67.) A-RIGHT FAITH (SAMYAG DARSANA) Umaswami defines right faith as the attitude of respect (Sraddha) towards truth. This faith may be acquired by learning or culture. In any case faith can arise only when the Karmas that stand in its way (the tendencies that case disbelief) are allayed or worn out. Right faith is of two kinds 1 1. Right faith from the practical point of view, or Vyavahara-Samyag Darsana. It is right and steady faith of the true nature of the six DRAVYAS, the Mahaveer Jayanti Smarika 77 4-1 Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FIVE ASTIKAYAS, the seven TATTVAS, the nine PADARTHAS. The man who has this faith knows also the relative importance and the true significance of the TATTVAS. It also includes faith in true ideal, scriptures and teacher.4 2. Right faith from the real point of view or NISCHAYA SAMYAG DARSAN, right faith of the true nature of one's own soul. It is realisation of oneself as pure soul as something not distinct from the attribute which are peculiar to a perfect soul, namely, perfect knowledge, power and bless.5 Right faith is free from three errors of confounding it with false (1) Gods, (2) Place and (3) Teacher. The idea of God should be purged of all materialism or anthropomorphism. It should be the highest idal of the most perfect soul conceivable. There is from the highest point of view no special sanctity attaching to any place. The teacher also must be such as knows these doctrines and teaches them clearly and with emphasis. It must be free from all the kind of pride. Eight are usually given : pride of one's mother's or father's relations; pride of greatness, beauty, know ledge, wealth, authority and asceticism or spiritual advancement. Then it must be steady and with eight qualities which are given by SAMANTABHADRACHARYA IN HIS BOOK RATANAKARANDA SRAVA. KACHARA, 4. Right faith arises in ten ways or in two ways : IN TWO WAYS : Nisarga or by nature; adhigama or by external instructions, IN TEN WAYS : From discourses or Jaina Tirthankaras (AJNA) or of learned men, or Jaina sacred books from renunciation or worldly or jects (Marga), from knowing the topics of Jainism in out line (SAMKSHEPA DRISHTI); etc. (See-ATMANU. SASANA, VV. 11-14; Jaina Gezette; Vol. V, 1907, p. 67). RIGHT KNOWLEDGE ( SAMYAK JNANA ) Right faith makes us perceived the reality of life and the seriousness of our object in life, It saves us from the soul emptying, puzzling voisl of scepticism. It brings us nearer to the feeling and touch of the solid, substantial reality of our own and other souls, as also of the matter in union, with which the soul gives rise to the phenomena of life. 4-2 Mahaveer Jayanti Smarika 77 Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Right knowledge makes us examine in detail the matter brought into the mind by right faith. Of course both are mental processes; the difference is in degree, I see a nurse taking a boy on the pavement outside. This is preception. I have the right faith that there are a woman and a boy out there. I also perceive that the woman is a nurse. But I do not know the details who they are, where they live, why they are in this particular locality, and so forth. If I saw or or read about them, I should gain right knowledge. This knowledge must be free from doubt. It must be retained steadily and based on firm faith. Error is also recognized in Jainism. It reminds one some what of the ignorance (AVIDYA) of the Vedanta, the want of discrimination (AVIVEKA) of the Samkhya, and the illusion (MAYA) of the Buddhist systems of philosophy. Jainism insists that right knowledge can not be attained unless belief of any kind in its opposite (in wrong knowledge) is banished.7 The The soul of man is indirisible, and our intellect cannot really consent, even temporarily to what our faith has not grasped; and our conduct can not but be coloured by over intellect, from which it springs. Faith and knowledge leading to right conduct are at once the process and the goal; for right faith dispels weak doubt, right knowledge preserves us from ignorance, indifference, and laziness and right conduct enables us to create the best life of which we are capable. Right knowledge is of five kinds :8 1. ΜΑΤΙ ΝΑΝΑ Knowledge which is acquired by means of the five sences, or by means of the mind of man.9 2. SRUTA JNANA Knowledge in which on the basis of MATI JANAA one acquires know. ledge about things other than those to which the MATI JNANA relates 10 The difference between the two is thus stated. MATI JNANA deals with substances which exist now, and having come into existance, are not destroyed; SRUTA JNANA deals with all things now in existence and also with those which were in the past or may be in the future; an eclipse to-day may be in the future; an eclipse to-day may be known by MATI JNANA, but one in the time of Alexander, or one happen next year, can now only be known by SRUTA JNANA. Even a mineral or plant soul with one sense only can have SRUTA JNANA. Mahaveer Jayanti Smarika 77 4-3 Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) AVADHI JNANA Knowledge of the remote or past. It is possessed always be celestial and infernal souls; ascetics also sometimes acquire it by 'ansterities'11 (4) MANAHPARYAYA JNANA Knowledge of the thoughts and feelings of others. It is possessed by samnyasins only; by persons who are master of self-control and who have practised the restraint of body, mind and speech.12 (5) KEVALA JNANA Full or perfect knowledge, which is the souls characteristic in its pure and undefiled condition.13 FALSE KNOWLEDGE The first three kinds of knowledge sense knowledge, study knowledge and knowledge of the past may also be perverted or false. The sense may deceive us, our studies may be in-complete or erroneous; and the angels visions of the remote or past may not be perfect in detail or clearness.14 But mind knowing can not be false. We cannot have it, unless we can have knowledge of the exact thought or feeling in others mind. Full or perfect knowledge cannot be false. To take the Five kinds of knowledge in details : MATI JNANA Mati Jnana or sence knowledge is also called SMRITI, SAMJNA, CHINTA, ABHINIBODHA. It is acquired (1) by means of the five sences (2) by means of the mind. It is divided into four parts: 1. AVAGRAHA preception, taking up the object of knowledge by the sences. It is also called ALOCHANA GRAHANA OR AVADHARANA. 2. IHA the readiness to know more of the things perceived. It is also called UHA tarka PARIKSHA, VICARNA or JIJNASA. 3. APAYA finding out the perfection or otherwise (SAMYAKTA OR ASAMYAKTA) of thing. It is also called APAVAYA, APAGAMA, APANODA, APAVYADH, APETA, APAGATA, APAVIDDHA OR APANUTTA. Mahaveer Jayanti Smarika 77 4-4 Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. DHARNA retaining the detailed reality of a thing. It is also called PRATIPATTI, AVADHARANA, AVASTHANA, NISCHAYA, AVAGAMA OR AVABODHA. I see the boy and nurse going along outside, this is AVAGRAHA. I wish to know more about them: This is IHA. I go and make inquiries about them, and know all kinds of details about their ages, family etc. this is APAYA. I grasp the full significance and characteristics of the details which I have gathered: this is DHARNA. Each of the above four classes of sense knowledge has twelve sub-classes: bahu, much bahuvidha, manifold; KSHIPRA, quickly; ANISMITA, without the help of symbols or signs; ANUKTA, without being touched, DHRUVA, steady; ALPA, less; ALPAVIDHA, in few ways; AKSHIPRA, slowly, NISRITA, with help of signs; UKTA, taught; ADHURUVA, not steady. Thus Mati Jnana is 4X 12-48 kinds and, as each kind may be acquired by five senses or the mind in all it is of 48X6-288 kinds. Again the above distinctions apply to sense knowledge with reference to ARTHA the object itself. With reference to VYANJANA or (intermediating) sensation, sense knowledge is of only one kind, the AVAGRAHA (or preception) kind. This is never manifested in regard to the eye or the mind, therefore, it can only be of 4X 12 (the twelve classes above referred to)=48 kinds. Thus the total kinds of sense knowledge are 288+48=336. AVADHI JNANA or knowledge of the remote is of two kinds (1) Innate, as in the case of angels in Heaven or fallen ones in Hell; (2) acquired, by the precipitation or annihilation of karmic matter. The farmer is called BHAVA PRATYAYA and the latter KSHAYOPASAMA. This latter is acquired by men and animals and is of six kinds : 1. ANANUGAMIKA Limited to a particular locality, outside the man loses this faculty. 2. ANUGAMIKA not limited to any locality. 3. HIYAMANA knowledge of the remote comprehending innumerable worlds, seas, continents etc. becomes less and less, till it reaches the minimum. 4. Vardhamanaka, acquired from very slight beginnings, it goes on increasing. It is the converse of Hiyamana. 5. ANAVASTHITA, usteady, so that it fluctuates according to circums tances. Mahaveer Jayanti Smarika 77 4-5 Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6. AVASTHITA, never leaving the possessor in the locality where it is 100 acquired, and retained by him even in another form of existence. (For these see Tattvartha-sutra, Ch. I 21-3.) MANAH PARYAYA or mind reading knowledge is of two kinds : 1. RIJU MATI: This arises from the straight forwardness of man's mind, speech, and body and consists in discerning and knowing the forms of thoughts in other's minds. 2. VIPULA MATI: by this the finest karmic activity in the minds of others can be read. 3 The distinction between the two kinds is this : 1. VIPULA-MATI is finer and purer than RIJU MATI; 2. VIPULA-MATI can not be lost; whereas the possessor of the RIJU MATI mind reading power may lose it. Mind reading knowledge is purer and more refined than farreading 1. knowledge. 2. Mind reading knowledge is confined to the focality where men live. Far knowledge is not so limited. and may be extended to the whole universe. 3. Mind reading can be acquired only by men and also only by Sanyasins; men of control. Far knowledge can be acquired by all souls in all conditions of existence. 4. By mind reading we can all forms of thought etc., even their minutest modifications. By far knowledge we can know forms with only a few of their modifications. From this point of view sense and study knowledge applies to all substances, but only in some of their modifications. Far knowledge applies to coloured substances, but not to all their modifications. Mind reading applies to all coloured objects, even in their infinitesimal parts 15 PURE KNOWLEDGE 4-6 KEVALA JNANA pure knowledge applies to all things and to all their modifications. It is in fact a characteristic of the soul entirely liberated from the bondage of matter. Mahaveer Jayanti Smarika 77 Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ To conclude, a soul can have one, two, three or four kinds of knowledge at one and the same time. If one kind, it must be pure knowledge; if two kind it is the sence and the study knowledge. If three kinds, it is the sense and the study and the past knowledge; if four kinds, it is all except pure knowledge.16 RIGHT CONDUCT (SAMYAK-CHARITRAY Right conduct is briefly described in DRAVYA SANGRAHA (verse 45) as refraining from what is harmful and doing what is baneficial. In a word, it is what helps the self to get rid of the karmas that lead him to bondage and suffering. For the stoppage of the influx of new karmas, and eradication of the old, one must (1) take one five great vows (Panca-Mahavratas), (2) Practise extreme carefulness (Samiti) in walking, speaking, receiving alms and other things, and answering calls of nature so as to avoid doing any harm to any life, (3) Practise restraint (gupti) of thought, speech and bodily movements, (4) practise dharma of ten different kinds, namely, forgiveness humility, straight forwardness, truthfulness cleanliness, self-restraint, austerity (internal and external), sacrifice, non attachment and celibacy (5) meditate on the cardinal truths taught regarding the self and world (6) Conquer, through fortitude, all pains and discomforts that arise from hunger, thirst, heat, cold, etc., and (7) attain equanimity, purity, absolute greedlessness and perfect conduct. Right faith, knowledge and conduct are inseparably bond up, and the progress and degeneration of the one react on the others two. Perfection of conduct goes hand in hand with perfection of faith and knowledge when a person, through the harmonious development of these three succeeds in overcoming the forces of all passions and karmas, old and new, the soul becomes free from its bondage to matter and attains liberation. Being free from the obstacles of matter, the soul realizes its inherent potentiality. It attains the four fold perfection (Ananta-Catustaya), namely, infinite faith, knowledge, infinite power and infinite blisa. FOOT NOTES 1. Samyag-Darsana Jnana Caritrani Moksa Margah. 2. Tattvartha Sutra; 1, 2 & 3. 3. See Purushartha Siddy Upaya by Amrita Chandra Suri 5-8. 4. See Ratnakaranda Sravakacharya by Samantabhadraacharya, 4. 5. Same See above No. 4. 6. See Tattvartha Sutra, Ch. I, 3. 7. See Dravya Sangraha, 42. Mahaveer Jayanti Smarika 77 4 Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. See Tattvartha Sutra I, 9. 9. See Ibid. 14 (Mati Jnana is occasional through the five senses and the non sense (See insellect) 10. See Ibid. 20. 11. See Tattvartha Sutra, I. 21, 22, 27. 12. See Ibid. 23, 28. 13. See Ibid. 29. 14. Ibid 31. 15. Tattvartha-Sutra I, 25-7. 16. lbid 30. 17. Dravya Sangraha 35. 4-8 Nature made man not for eating flesh 'All animals whom nature has formed to feed on flesh have their long teeth, conical, sharp uneven and with internals between them of which kind are lions, tigers, wolves, dogs, cats, and others. But those who are made to subsist only on herbs and fruits have their teeth rharp, blunt, close to one another and distributed in even rhows.' Prof. Pierre Gassendi Mahaveer Jayanti Smarika 77 Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JAINISM AND LINGUISTIC ANALYSIS Dr. Harendra Prasad Verma Reader, Dept. of Philosophy Bhagalpur University (Bihar) The recent emphasis on the Analysis of Language: Linguistic analysis is the most dominant trend in the present day philosophy. Philosophers now generally believe that philosophy is nothing but the analysis of language. In course of the philosophical development, the emphasis has gradually shifted from Ontology to Epistemology, and from Epistemology to the Logic of language. The reasons thereof are many fold. First, the Analysts point ont that language is the most potent means of communication. We learn things through language, and at the same time we also express whatever we think, feel and desire through language. Hence for all meaningful communications, linguistic or conceptual clarity is essential. But we find that language is generally prone to be misused and confused. Certain expressions, says Ryle, are "systema tically misleading" and create confusions and generate the demand for queer entities. According to Wittgenstein also, "Most questions and propositions result from the fact that we do not understand the logic of our language......... It is the merit of Russell's to have shown that the apparent logical form of the proposition need not be the real form."2 Secondly according to the analysts, most of the philosophical puzzlements are due to the misunderstanding of the logic of language. Hence- if the logic of language is clearly understood, the philosophical problems also dissolve automatically. According to Wittgenstein, "philosophical problems arise when language goes on holidays."3 The treatment of the philosophical problems is like the treatment of neurosis. As neurosis dissolves when we understand how the complex has formed, the philosophical puzzlements also disappear when we understand how the concepts have been tangled. Thus the aim of philosophy is to attain the conceptual clarity, and the sign of clarity is the dissolution of the problem altogether, As Wittgenstein observed, "The object of philosophy is the logical clarification of thoughts. Philosophy is not a doctrine but an activity. A philosophical work consists of elucidations. The result of philosophy is not a number of philosophical propositions, but to make propositions clear and delimit sharply the thoughts which otherwise are. as it were, opaque or blurred."4 Mahaveer Jayanti Smarika 77 4-9 Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The Analysts maintain that the philosophers of the past could not solve the philosophical problems, because they did not question the meaning-fulness of the problem itself. They debated on the pseudo problems and as such could not arrive at any meaningful conclusion, because only a significant question can signi. ficantly be observed. As Moritz Schlick observes, :-The chaotic state in which philosophy has found itself during the greater part of its history is due to the unfortunate facts that, in the first place, it took certain formulations to be real questions before carefully ascertaining whether they really made any sense, and in the second place, it believed that the answers to the questions could be found by the aid of special philosophical methods different from those of the special sciences."5 All these led to the demand for the analysis of language, Linguistic analysis consists in the understanding of the logic of language with a view to attain complete clarity in matters of language. It is generally believed that in India there is nothing like linguistic. analysis. Hence it is thought by the westerners that Indian philosophy is only religion and not philosophy. It is, no doubt, true that Indian philosophy in general, and Jainism in particular, has religious orientation: because philosophy here aims at the solution of the existential problem, i.e., the problem of suffering, and does not intend to satisfy the intellectual curiosity only. The aim of almost all systems of Indian philosophy is to prepare the path for deliverance from the bondage of samsāra. The Tirthankaras are not the logicians but the ford-makers accross the ocean of the universe. However, it is also not true that linguistic-analysis is absolutely absent in India. As a matter of fact, almost all systems of Indian philosophy discuss the problem of the relation between language and reality, and make the analysis of language. In Jainism, the logicians, like Prabhachandra, Pujyapad, Manikyanandi and others have worked a good deal in this direction. Prabhachandra, in his Prameya Kamala Martanda and Nyaya Kumud Chandra,6 has analysed the concept of Meaning in the style of G.E. Moore with the logical acumen of Wittgenstein. Manikyanandi, in his Nyayavatara, has discussed the problem of Word and Meaning extensively. The question of the relation of Word and Meaning fills large spaces in the Sloka varttika,7 Sanmati-Tarka8 and Nyaya Manjari'. However, for Mahavira what counts most is the clarity of vision, and not the clarity of expression or language for, vision is more fundamental than expression and action. When the clarity of vision (Samyag darskpa) is attained, the expression automatically become clear, or even paradoxical or self-contradictory expressions become intelligible and gain meaning. Thus in India it is thought that 4-10 Mahaveer Jayanti Smarika 77 Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ philosophy is not logic or conceptual analysis but the vision of reality-Darśana. Moreover, clarity of vision also leads to uprightness in life and behaviour (Padhamam ņāņam tao dayā). When the supra mental gnosis dawns, all doubts and despair are despelled like the darkness at the noon day and all attachments are shaken The Jainas also believe with Socrates that "virtue is knowledge". In philosophy we are dealing with mystery, which cannot be reduced to this or that intellectual formula. Hence our aim is not only to attain the conceptual clarity. We are not dealing here only with the spheres of the sensible and the intellectual but with the spirit, which transcends the senses, mind and intellect. The conceptual and linguistic problems arise when philosophy impoverishes and vision goes on a holiday. We, then, fail to understand the words of the Tirthankaras. We then dwell simply on the words of the scriptures and miss the sense. In the absence of the spiritual experience the words of the seers seem to be unintelligible, and non-sensical, with the result we quarrel only with the words as the bad workman quarrels with his tools, and are lost into the philosophical controversies. However, we must note that logic is only a part of philosophy and not co-extensive with it. It is only a means and not the goal in itself. The linguistic-analysts are mistaken in identifying the means with the end by making linguistic analys the sole concern and the end of philosophy. We must remember that grammar is not literature, nor is prosody, poetry. The answer to the philosophical contro. versies must be sought in experience, and not in mere dialectics. For, reason cannot lead us too far. It goes to some extent and then it stops. There comes a level where logic becomes illogical and all arguments are the arguments in circle; they beg the question. Even the process of linguistic analysis, when consistently analysed, leads to regressus and infinitum. For, a statement is analysed by another statement which itself remains unanalysed. For the analysis of that statement, we require another statement, and so on ad infinitum. Thus in order to arrive at some categorical ground, language has to be related to experience and reality, otherwise everything will rest upon 'if-then' and be hypothetical. Reality, according to Mahavira, is beyond words, thoughts and logic. Words and thoughts return baffled when they try to comprehend the mystery. (Savve sarā piyattati, takkā taltha na vijjai, mai tattba na gābiyā).10 The experience of the Reality (Kevala jñāna) is inexpressible. Mahavira said, "The vision of the ordinary man is limited and conditioned; he cannot comprehend the Reality in its totality, nor can he describe it completely and adequately. Reality is many-faced, and is in a constant flux, which is ever changing and flowing. It is far beyond the grasp of the senses and intellect, and much less within the reach of language. Though appearing in the present, it encompasses both the past and future. It is known only through kevala jänna, the hundredth part whereof is grasped by intellect, and the hundredth fraction thereof is expressible through words". This necessitates one to keep silent, Mahavira, in fact, kept silent and Mahaveer Jayanti Smarika 77 4-11 Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ also tried to communicate through it. Whenever he qualified his silence through propositions, he used them only as elucidations or pointers to Truth. He declared that all propositions are partial, conditional and relative; none can describe the ality as it-is-in-itself in its entirety. Hence all statements are to be qualified by "Syāt" (Relatively speaking), Wittgenstein in the Tractatus seems to appreciate this truth when he says, "My propositions are only elucidatory in this way ; he who understands me finally recognizes them as senseless, when he has climbed out through them, on them, over them, (He must, so to speak, throw away the ladder after he has climbed upto it)"11 "whereof one cannot speak thereof must one be silent."12 Kinds of Analysis : There are three important schools of analysis, viz., logital atomism, logical positivism and Ordinary language philosophy. They have their different kinds of analysis. (1) Logical Analysis-The logical atomists, Russell and Wittgenstein of the Tractatus, have suggested that language is the picture of reality. They have propounded the ‘Picture theory' or Denotive theory of Meaning. According to them, every element in a proposition represents the elements of reality, and the logical structure of the proposition represents the structure of the reality. As Wittgenstein observed, “the proposition is the picture of reality"; "it shows how things stand if it is true."'13 The picture is a model of reality,"14 For example, when we say, 'This is brown', "This” refers to a particular and “brown" refers to a quality. The meaning of any word is what it stands for, or as Wittgenstein puts it, "what a picture represents is to sense."15 Thus from this, the logical atomists deduced the conclusion that the universe is constituted of the logical atoms which are externally conjoined, because the atomic propositions represent atomic facts and the compound propositions, which are the conjunction of atomic propositions, represent the logical construction of the atomic facts. Corresponding to the logical structure of language, the structure of reality is also of the nature of a & b & c. or a or b or c. On the above view of reality, the logical atomists proposed two types of analysis (1) logical analysis, and (2) Metaphysical analysis. They found that there are many words which are mere words or *verbal descriptions', and they do not denote any fact e.g., “unicorn", "circular square", etc. They masquerade as proper names_and as such create confusion and cause vagueness in language. As Russell observes, "Everythig is vague to a degree you do not realize till you have tried to make it precise, and everything precise is so far remote from anything we 4-12 Mahaveer Jayanti Smarika 77 Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ normally think, that you cannot for a moment suppose that is what we really mean when we say what we think" 16 Hence the verbal nature of these descriptions are to be made clear by the analysis of language. For example, "The king of France is bald' is to be analysed as, “There is one and only one thing which is the king of France and whoever is the king of France is bald." The metaphysical analysis consists in making the proposition an adequate picture of reality. It consists in reducing a compound proposition to simple atomic propositions so that they may represent the reality adevuately. For example, "An average Englishman has an 1. Q. of 50" is to be analysed thus : John has an 1.Q. of 45, Tom has an 1.Q. of 55, and so on. However, the analysts themselves found difficulty with their view of language and meaning. It was realized that language cannot be a picture of reality, because there is nothing in common between language and reality. The Jainas also criticize the Denotive theory of Meaning on this very ground. 17 As Prabhachandra argues, there cannot be identity between Word and Meaning, because, then, if the word 'sweet' is uttered, mouth would have been sweetened, and it should have cut injury when the word "knife' would have been uttered". 18 Wittgenstein also argued in the Philosophical Investigations that there is no identical relation between word and object. He observes, "It is important to notice that the word, 'meaning', is being used illicitly if it is used to signify the thing that "corresponds" to the word. This is to confound the meaning of a name with the bearer of the name, When Mr. N.N. dies one says that the bearer of the name dies. And it would be nonsensical to say that, for if the name ceased to have meaning, it would make no sense to say "Mr. N.N. is dead". 19 Further, we have many words like "and", "if-then", "either-or", etc. which are meaningful, but which do not represent any fact. Hence it cannot be said that words are the pictures of facts, and that the meaning of a word consists in what it stands for. Again, the meaning of a word can not also be said to be particular' because the particular which is given in knowledge by acquaintance, cannot be specified by any word. Russell believed that the particular is designated by proper names. But, in fact, the proper names also turn out to be descriptions' for they do not denote only a particular person or thing but several persons or things. Then Russell suggested to specify the particular through this' and 'that', but the diffi, culty which was with the proper name persisted with this' and 'that' also. Hence the meaning of a word cannot be said to be particular'. Further, in the Philosophical Investigations Wittgenstein realized that fact has no logical structure, hence it also became superfluous to reduce the sentences to their logical forms so as to make them the adequate pictures of facts, Mahaveer Jayanti Smarika 77 4-13 Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) Verificational analysis Instead of concentrating upon words, the logical positivists concentrated upon statements, because they found that certain words in a statement have meaning but no reference. Again, they felt that the simple facts are expressed through simple statements, and the compound statements are nothing but the combination of simple statements. The logical positivists also, to a great extent, supported the denotive view of language, and held that 'the meaning of any statement is the method of its verification. 'A meaningful proposition is that which can be either true or false. A statement which is neither is meaningless. All meaning. ful propositions fall within two categories: (1) Analytic, and (2) Synthetic. Analytic propositions are those which deal only with the concepts or "relation of ideas." In them the predicate is the explication of the subject. For example, 2+2=4, or Triangle has three angles. For the verification of such propositions, we need not refer to facts; their truth and falsity are determined within the symbolic scheme itself. On the other hand, the truth and falsity of the synthetic propositions is determined by reference to facts. However, this type of analysis was also found to be inadequate, because in the first instance, 'Meaning' cannot be identified with 'verification', for it is wider concept than verification. Secondly, the denotive theory of language cannot be maintained, because language is not always related to facts. The same word performs different functions in different uses. “We do various things with our sentences" says Wittgenstein". Think of exclamations alone, with their completely different functions. Water ! Away ! Aw! Help! Fine ! No! Are you still inclined to call these words "name of objects ?"'20 (3) Conceptual Analysis Wittgenstein, in his Philosophical Investigations, revised his previous theory as propounded in the Tractatus, and came to believe that language is not the picture of reality. Language is only a tool which can be used in several ways. Words are only instruments which perform different functions in different. 4-14 Mahaveer Jayant Smarika 77 Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ language-games. There is thus the "multiplicity of language-games,"21 and the same word gains different meaning in different language-schemes. However, in the Investigations language was completely displaced from reality. Wittgenstein believed that the meaning of the word is neither universal nor particular; it depends upon the sense in which it is used. Secondly, the meaning of any word is to be determined within the language-scheme, and not outside it by reference to any fact, for language is no longer the picture of reality. As Wittgenstein observes, "Asking 'Is this object composite ? Outside a particular language-game is like what a boy once did who had to say whether the verbs in certain sentences were in the active or passive voice, and who racked his brains over the question, whether the verb "to sleep" meant something active or passive.''22 Finally, any word or concept can be said to have meaning only when it has its function in the languagegame. Meaning of any word or sentence, thus, consists in its use in language. The conceptual analysts in the process of analysis do not try to improve the logical form of the proposition, like the logical atomists, to make it an adequate picture of reality, because the reality has no logical structure, but simply try to understand it. Again, they, like the logical positivists, do not also try to see whether any statement is verifiable or not, because meaning does not consist in verification. They also do not try to reduce all sentences into analytic and synthetic, because sentences may have different uses, and there may be more logical values than Truth and Falsity. They try to see as to what function does a concept perform in a language-game. Linquistic analysis in Jainism : Now, the Jaina view of Language and Meaning holds much similarity with the latter theory of Wittgenstein, of course, it has certain differences as well. The philosophy of Wittgenstein has obviously two phases. In the first phase, he believed in the Denotive theory of Meaning, whereas in the second phase he switched over to the Non-denotive theory or use-theory as he calls it. Now the Jainas criticize both the Denotive theory (of the Naiyayikas) and the Non-denotive theory (of the Buddhists), and adopt the middle position. They hold with Wittge. nstein that language is not the picture of reality, because there is neither identity nor causality between word and reality. However, they do not want to displace language altogether from the realm of reality, because, then, it would be impossible to communicate anything about reality. Morever, the truth and falsity of the judgements also cannot be determined. Although the Jainas believe in the relation of instrumentality between Word and Meaning, still in order to avoid the 'linguistic solipcism' in which Wittgenstein seems to be entrapped, they hold the partial identity between word and object, (Katchamcid vācya vācaka-sambandha). Although words are not related to objects, still due to the natural capacity (sahaja yogyatā) and indicative nature (saṁketa) or convention or usage (samaya), they describe them. It appears that Wittgenstein is entrapped into the "lingua-centric Mahaveer Jayanti Smarika 77 4-15 Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ predicament" when he says, 'The limit of my language means the limit of my world.'24 He does not want to go beyond the language-scheme to judge the meaning of words and concepts. But the Jaina view overrides this difficulty by maintaining that of the diverse functions, denoting is also one of the functions of language. And it seems that Wittgenstein would also accept this view, because he believed in the diverse uses of language. Moreover, it is due to this merit that the Jainas do not discard the metaphysical utterances as non-sensical like the logical positivists. They believe that the talk about Reality, despite its inadequacies, is possible. The reality, according to Jainism, has many facets. Hence it is not possible to encompass to entire reality in one judgement. We view the reality from different angles of vision and have partial views of it. Thus there are numerous language-games (Vacana paths). The multiplicity of linguistic-schemes is due to the multiple nature of reality. Again, as each language-game (vacana path) is the vision of reality from a particular angle of vision and takes into account only one aspect of reality, all statements are independent and cannot be reduced to one another. This reminds one of Ryle's dictum, "Every statement has its own logic." On this very ground Ryle maintains that one language-game should not be confounded with the other, otherwise that involves into the fallacy of "category-mistake." Bi-polar logic vs. Multipolar logic: Although the Jainas accept the multiplicity of language-games, but they try to subsume different judgements into seven broad heads Sapta bhangi naya. For them, Truth and Falsity are not the only logical values, rather besides these, there are other five logical values as well. Hence they talk of seven logical values and in place of the bi-polar logic, they offer multipolar logic. According to them, besides 'True' (Asti) and 'false' (Nasti), there can be such categories as 'both time and false' (Asti ca nasti ca). 'Ineffable' (Avyaktam), True and Ineffable (Asti ca Avyaktam ca), false and Ineffable (Nasti ca Avyaktam ca), and True, False and Ineffable Asti ca nasti ca Avyaktam ca'. The Jainas, like the Analysts, believe in the relativity of language-games; they take all judgements to be partial and conditional, and true only from a relative standpoint. As language belongs to the world of relativity, it cannot describe the reality in its totality and absoluteness. The limit of language is thus the limit of the world; it cannot extend to the realm of the noumenal reality. However, with the relative judgements also, we communicate at least something about the reality. Thus the Jainas do not displace language completely from the reality, Like the Analysts, they also believe that the aim of philosophy is to attain 'clarity', but their emphasis is more on the clarity of vision rather than the clarity of concepts, because they deal with the Mystery which can 4-16 Mahaveer Jayanti Smarika 77 Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ not be reduced to intellectual categories. Sometimes, even paradoxical or selfcontradictory language is used to describe the mystery. However, Syadvad is an attempt to attain clarity in thought and language, and the Jainas solve the problem of contradictory predication through it. The Language-Strata : Like the Analysts, the Jainas have also talked of the 'Language-strata'. According to them, the reality can be viewed from different points of view. Hence, we have a language-strata consisting of seven kinds of language-games corresponding to the seven points of view of reality, viz., (1) Naigama Naya (2) Riju sūtra Naya (3) Vyavahāra Naya (4) Samgraha Naya (5) Sabda Naya (6) Samabhirudha Naya (7) Evamsambhūta Naya We may, first, view the object in its essential or universal aspect and use the words like, "reality" "substance", "Unity", etc. These gain meaning from Naigama naya. Secondly, we may consider the object in its particular aspect and use the words like "atom", "sensation", etc. The words denoting the particular gain meaning from Riju Sutra naya. Although the objects are the combination of atoms, for example, a table is a collection of so many atoms, but in practical life, we do not view it in such a way. We describe it as a gross object. We do not say that we are sitting on a collection of atoms. Hence in the third sense, we use words to denote the objects which are so called from the practical standpoint. The words which are the 'logical constructions' out of the particulars gain meaning from Vyavahranaya. Fourthly, we may also talk of the collection of things and persons, like "society", "library" etc., These words gain meaning from saṁgraha naya. Apart from these, we may also talk about language, for we also use language to analyse language. This we deal with in sabda naya. Further, the same object or person may appear in different roles in different contexts and may acquire different qualities. Hence there may be diffe rent words having different meaning but denoting the same object or person. For example, "Indra", "Shakra", "Purandra" represent three different characteristics but denote the same deity. These are granted meaning by Samabhi ruddha naya. Mahaveer Jayanti Smarika 77 4-17 Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Finally, certain words gain meaning through action a thing or individual performs, For example, one is called "worshipper" because of the act of worship. Such words gain meaning from Evam sambhūta naya. The Restoration of Metaphysics. In this way, we find that while the logical atomists had included only the three kinds of words (viz., words denoting a particular, words denoting a logical construction, and words denoting words) in the category of meaningful words, the Jainas have added to these a few more. Above all, they also grant meaning to such words which denote the essential aspect of reality. Such words have been denied meaning by the logical positivists and the conceptual analysts. A J. Ayer and T. R. Miles, etc. explicitly say that words dealing with "absolute existence" have no meaning. 26 Only those words have meaning which have a spatiotemporal frame of reference. But the Jainas permit the talk about reality and accept the use of the words in the absolute sense, because one is established in the reality as such or pure Being through samādbi. In Kevala Jnāna we view the reality as itis-in-itself, and hence talk about the essential aspect of reality from Niścaya naya. This opens the door for metaphysical use of language. The Jainas believe that the universal expresses itself through the particular. Hence, words may denote both the universal and the particular in different contexts. Thus broadly speaking, there are two kinds of statements. (1) Dravyārthika naya (2) Paryāyārthika paya. We thus find that the Jainas have two types of analysis : (1) Meta-physical analysis (Arthaviślesapa) (2) linguistic analysis (Sabda viślesana). In metaphysical analysis, the meaning of the words is judged by reference to facts, In linguistic analysis, the meaning of the word is judged from 'use' and 'usage'. FOOT NOTES Ryle, "Systematically Misleading Expressions", Logic and Languago, 1st series, (ed.), A. Flew, Basil Blackwell, Oxford, 1952, Tractatus Logic-philosophicus, Routledge and Kegan Paul Ltd., Ist impression, 1922, (4.0031), 4-18 Mahaveer Jayanti Smarika 77 Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5. 3. Philosophical Investigations, Basil Backwell, Oxford. 1953, p. 19. 4. Tractus, 4.112. Moritz Schlik, "Positivism”in Logical Positivism (ed.) A. J. Ayer, The Free Press : Illionis, 1960. p. 86. 6. vide, Prameya Kamala Martanda, foll. 124-135 Nyaya Kumuda Chandra, vol. II, pp. 533-47. 7. Sloka varttika (trans.) pp. 254–261, 347–374. 8. Sammati Tarka pp. 173–77. 434-440. 9. Nyaya Manjari, pp. 340-414. 10. A-cārānga sūtra, 1.6 11. Tractatus, 6.54 12. Tractatus, 7 concluding remarks. 13. Tractatus, 4.01, 4.022 14. Tractatus, 4.4611 15. Tractatus, 2.221 16. Russell, Monist, 1918, p. 498. 17. For a detailed view of the Jaina view of meaning vide my article, “Word and Meaning" : the Jaina Point of view" Mahavira Jayanti Smarika, Jaipur, 1976. 18. Nyaya Kumud Chandra, vol. II, Manika Chandra Digambara Jaina Granth Mala, Bombay, 1941, p. 586. 19. Philosophical Investigations, p. 20. 20. Philosophical Investigations, p. 13 21. Ibid., p. 13. 22. Ibid., p. 22. 23. Ibid., p. 13. 24. vide, Manikyanandi, "Sahaj yogyatā samketa vasodbl sābdādayo vasto parti patti hetavah. (Pariksāmukha) 25. Tractatus, 5.6, 5.61, 5-62. 26. vide, A. J. Ayer, Language, Truth and Logic, II ed. Victor Gollancz, London, 1946 T.R. Miles, Religion and Scientific Outlook, George Allen & Unvin, London, 1959, Mahaveer Jayanti Smarika 77 4--19 Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PENANCE *Penance performed with the desire of earning fame etc., is not pure penance. That is to say, selfpurification must be the only purpose of penance. Penance is of two kinds external and internal. External penance comprises fasting; taking a very limited quantity of food (so as to leave the stomach partly empty); acceptance of particular food only from a particular place, at a particular time and in particular condition; abstinence from including in tastes of the tongue; endurance of physical hardship and self-abstraction. Internal penance consists of expiation, lofty and pious mentality, hospitality, study, meditation and seclusion.' "That some Jeevas have attained, are attaining, or will attain emancipation, should be understood to be the result of such penance.' LORD MAHA VIRA Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INDIA OF MAHAVIRA'S TIME Dr. S. M. Pahadiya, Khandwa (M.P.) The time of Mahāvira is epoch-making in Indian history. It was rather a revolutionary period. Many new thoughts developed. Changes occurred in almost every field of life. In political field, organized states came up; the position and functions of the king gained in importance. In social field, the supremacy of the Brahmins was defied; joint-family system came to the forefront; gotra and pravara came into existence; niyoga came almost to an end. In economic field, trade, commerce and industry prospered. Coins came into prevalence. Iron was used on a large scale. In the field of religion, there was, as it were, a world-wide revolution. In the field of art, considerable progress seems to have been made. For knowing the art of this period, we have to depend largely on literary sources. Introduction of Northern Black Polished Ware was unique in itself. POLITICAL CONDITIONS : There were sixteen big states, known as Solasmahājanapada. These states formed some definite territorial units, and included both monarchies and republics. The small republics were ruled by autonomous or semi-independent clans such as the Säkyas of Kapilavastu, the Koliyas of Devadaha and Rāmagā ma, the Bhaggas of Sumsumāra hill, the Bulis of Allakappa, the Kālamas of Kesaputta and the Moriyas of Pipphalivan. Generally, the rulers of the monarchical states were Kshatriyas. Though a despot, the king was to follow Dasrājadharma. Moral course of life was one of them. Main duty of the king was to protect the country against internal and external peril. Kingship was usually hereditary. King's eldest son used to be the Uparāja (viceroy). Below Uparājā, there was Senāpati, usually the king's kinsman. The council of ministers was there to assist the king. The ministry generally consisted of five members called amachchhas. Mahaveer Jayanti Smarika 77 4-21 Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Provincial administration was almost autonomous. Grāmabbojakas occupied an important place in village administration. In judicial matters, the king was supreme, though the minister of justice, Vinichchbayamāchchha used to advise him. Military organization was good. The army consisted of chariots, elephants, cavalry and infantry. About the organization and administration of republics (the like of which are known to have been found in Sparta, Athens, Rome and mediaeval Venice), we have to depend upon the Buddhist Jātakas. The seven points of excellence pointed out by Buddha to Varshākāra (the chancellor of the then king of Magadha) may be regarded as the directive principles of state policy. These are follows: (1) holding full and frequent public assemblies, (2) meeting together in concord, rising in concord, carrying out business in concord, (3) enacting nothing not already established; abrogating nothing already enacted, (4) honouring, esteeming, revering and supporting the elders, (5) not detaining the girls or women by force or abduction, (6) honouring, esteeming, revering and supporting the shrines (Chaityas), (7) protecting, defending and supporting the Arhants. It seems that the right of citizenship was confined to aristocratic Kshatriyas. Each republican state seemed to bave a separate supreme assembly. The place where the assembly met was called Santhāgāra. In the assembly, there were different groups that clashed from time to time for power. Transaction of the essembly business strictly required a quoram. Resolutions in the assembly were moved according to set Rules. Voting was sometimes done by secret method, sometimes by whispering method, and sometimes by open method. Generally the assembly controlled the executive the membership to which varied with the size and traditions of each state. The judicial administration of the republics was remarkable and the liberty of citizens was efficiently guarded. The aim of judiciary here was to find guiltlessness whileas that of Tibet was to find guilt of the accused. SOCIAL CONDITIONS : The Kshatriyas, now enjoyed the highest position, though there are references in certain Buddhist texts to the contrary. The influence of the Brahmins diminished. Many of them took up objectionable practices like hunting, carpentry and chariot-draving. Brahminical literature, however, speaks otherwise. The Vaisyas no more remained homogeneous in their profession. The condition of the Sūdras before Mahāvira was pitiable. Mahävira tried his best to improve the lot of the Sūdras. The low castes like Chāņdālas, Venas. Nisbādas, Rathakäras, and Pukusas also appeared at this time. However, there does not seem to have been any ban on attaining religious merit. One Harikesh bala, born in the family of Chaņdālas, is known to have become a monk. Many mixed castes also came into existence. 4-22 Mahaveer Jayanti Smarika 77 Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Slavery was common those days. Chandanā, the first female disciple of Mahāvira, was a slave. The Sannyāsa Aśrama became quite distinct from Vānaprastha Aśrama this time. Joint-family system was the order of the day. The relationship between different members of the family was mostly cordial and affectionate. There are, however, also instances which reveal otherwise, Owing to an enormous increase in trade and commerce, and independent earning by the members of the family, the conception of proprietary rights came into existence, It appears that Brāhma, Prājāpatya, Asura, Gāndharva, and Rākshas marriages were common those days. There are instances of Svayamvara type of marriage also. The marriage of princess Nivvui was of this type, Gotra, now, seemed to play an important part in settling marriages. Some of the law-givers prohibit sagotra marriages. We have a few examples of brothers marrying their own sisters. The Sākyas are known to have married their sisters. Incestuous marriages were also prevalent among the Lichchavis. Marriage with one's own cousin was also in vogue. The marriage of Jyeshthā to Nandivardhana, the elder brother of Mahāvrra, belongs to this category. Anuloma (marriage of a groom of higher caste with a bride of lower caste) and Pratiloma (marriage of a high-caste girl with a low-caste boy) marriages were also practised, though not very frequently. The usual age of the bride at the time of wedding was sixteen. A man could remarry after the death of his wife. But evidence regarding widow remarriage is conflicting. Marriage after divorcing the husband or wife on certain grounds was also prevalent. Monogamy was a general practice. Polygamy was a luxury of the tich. Courtesans became a special feature of city life; they were the custodians of fine arts such as singing, dancing and music. Both literary and archaeological sources (esp. excavations at Ter and Nevasa) reveal that rice wheat and pulses were main cereals. A few special preparation of this period are : Sattu, Kummāsa, Puvā, Khājā, and Tila-kuta. Milk and milk products like curd, butter and clarified butter were largely used. Vegetables like cucumber, pumpkin. gourd, and fruils like mango, and jamboo were included in the diet of the people. That the people ate meat also becomes clear from the bones discovered at different archaeological sites. However, Mahāvira was deadly against non-vegetarianism, and he made many people vegetarians. Vegetariansm,in its turn, increased longevity, and made people non-violent. Drinking as also common. However, the religious people abstained from it. The dress of the people consisted of Antaravāsaka, Uttarāsanga, Uśaņişa. Both men and women wore Kāñchuka. Women wore Säris. The fibres used for preparing clothes were : cotton, wool, hemp, palm leaves, silk and linen. Sewing and stitching of clothes were in fashion. The Sadhus, Sadhavis and distinguished persons had their specific wear. The ornaments worn by men and Mahaveer Jayanti Smarika 77 4-23 Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ women were both costly as well as cheap. Some of the well-known ornaments of this period are : finger-rings, car-rings, and torques, The are elaborate references to the toilet-articles in the contemporary literature. Different types of furniture, say chairs, bedsteads etc. have been mentioned both in the Jaina and the Buddhist literature. Utensils like bowls of various kinds and material, and pottery vessles were used, as is proved by archaeological excavations. The most remarkable thing of this period is what is now known as North Black Polished Ware. People used to participate in Samājjas (festive gatherings). Salabhanjikā was a most popular festival. Some other festivals were Kaumudi and Hātbiman. gala. Monks and nuns used to abstain from festivities. Besides, festivals, people amused themselves in many other ways, say, singing. visiting parks and garden. Education was imparted to all those who deserved. Mercy, charaeter. personality-development, inculcation of civil and social duties etc. were the main objectives of education. Initiation was necessary both for men and women, The Gurukula system was one of the most important features of education. The teacher-tought relations were cordial. The subjects of study were many. The duration and contents of the course were largely determined by the will, capacity, and convenience of the students. Female education was also given impetus. The art of writing is also said to have been evolved in Mahā vira's time. Prakrit became the medium of expression. There was also a general efflorescence of literary activities. Science of engineering seems to have become very popular. The construction of cities, forts, tanks, canals etc. would not have been otherwise. ECONOMIC CONDITIONS : Grāma (village) was the cenre of rural economy. Agriculture became the mainstay of village-population. Many new methods (of agriculture) were devised, The literary sources of this period refer to ploughing and fencing of fields, sowing the seeds, getting the weeds pulled up, reaping the harvest, and arranging the crops in bundles. Irrigation was done by wells and tanks. Remains of these have been found in the excavations at Ujjain and Vaišali, Agriculture depended upon cattle comprising cows, buffaloes, goats, sheep, asses, camels, pigs and dogs. Among the crops, mention may be made of cotton, wool, hemp, linen, rice, wheat, gram, beams, pear, castor oil seed, mustard oil seeds, sesame, ginger, clove, turmeric, cumin, pepper and sugarcane. Many vegetables, flowers, fruits. and betel-leaves were also grown. For the protection of standing crops from animals and birds various steps were taken by the farmers. Next to agriculture, spinning (clay spindles have been 4-24 Mahaveer Jayanti Smarika 77 Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ found), weaving, carpentry, smithy (iron furnaces have been referred to in literature, and iron objects have been found in excavations) and mining were some of other important occupations. Ivory-work, garland making and perfumery were also practised. There were small industries of gums, drugs, chemicals, dyeing, and leather. Industry of precious metals made its mark. House-building activities also increased. Trade and commerce both inland and oversea prospered to a greater extent. There are literary and archaeological evidences for maritime trade between India and Western countries. A beam of Indian cedar in the palace of Nebuchadnezzar of Birs Nirmud has been found. The Baveru and the Supparaka Jātaka, the Digha Nikaya and the Ceylonese chronicles also refer to India's trade with foreign countries. The most remarkable feature of the economic life of this time was that trade and industries were organized for the first time into Sreņis, Another conspicuous feature is the introduction of regular coins (known as punchmarked coins) in business transaction. The coins of this period have been found at Bhir, Paila, Patraha, Machchhautoli etc. There was also in vogue the system of loans and debts. Panini mentions of different weights and measurements. Excavations at Chirand, Vaisall and Eran have brought to light the weights and measurements of this time. For buying and selling of commodities, there were big markets. A few references are there which mention actual market price of certain commodities, and a number of references show how prices were determined by haggling. RELIGIOUS CONDITIONS: In the field of religion, not only India, but the whole world witnessed a radical change. The time when Mahavira lived may be called an age of enlightenment for total human race. Suddenly and almost simultaneously, there started religious movements at separate centres of civilization. Toroaster in Iran preached monotheism and revolted against useless rituals. In Greece, Heraclitus and Pythagoras spoke about the rebirth of soul, and inspired the people to do good deeds. Confucius and Lao-tse in China put new religious ideologies against the conventional ones. The Jews in their Babylonian captivity developed tenacious faith in Jehova In India, many ascetic and intellectual movements arose against Brahminism. Buddhism and Jainism are chief amongst them, and the originators of these religions did in the sixth century before Christ what Luther and Calvin did in the nineteenth century. The feelings of non-violence, non-stealing, nonhoarding, truth etc. were exhorted. Religious tolerance was insisted upon. Emphasis was laid on final beatitude. The clash of rival schools and sects led people to spiritual quest. Belief in heaven and hell was widespread, and it was said that those who perform various noble acts attain heaven while those who indulge in evil acts go to hell. Mahaveer Jayanti Smarika 77 4-25 Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ART: From the literary sources we know that the palace was built at the centre of the capital, and that it was surrounded by a rampart (a special feature). The palace was divided usually into three courts and had two distinct parts-the ground floor and the upper floor. The pillars and walls of the palace were overlaid with many beautiful motifs. The common dwellings were made of stone, brick, wood. Provisions were made for windows, elaborate doors, verandahs, dwelling rooms etc. Hygienic arrangements were kept in view while constructing royal and common buildings. Some literary sources refer to Devaklikas or Chaityas. The evidence of early structures of Stupas is available in the archaeological remains discovered at some places. From the Jaina Sarva Tirtha Samgraha, we know that Pradyota installed Jivant Svami (life-time) images of Mahavira at Ujjain, Dasapura, and Vidiśa. There are references to the statues of Indra in the Jataka literature. About the terra-cotta figurines as well as the ceramics in the time of Mahavira, we get some knowledge both from literary and archaeological sources. From the Jaina and Buddhist literature, it becomes clear that painting (both secular and religious) was considered to be an important form of artistic expression. Some pointings of this period seem to have been preserved in the rock shelters at Mahadeo hill (Panchmarhi), Bhim Baithaka (Bhopal), Mori (Mandsor), Singhanpura and Kabra Pahar, Likunia, Kohbar, Mehria, Bhaldaria and Bijagarh (Mirzapur), and Manikpur (Banda). Some metal, bone, and stone objects too have been unearthed from certain sites. Seals, and sealings, potters' dabbers, stamps, stone pestles, querns, dises, etc. of this period give a fair idea of art. 4-26 what is PURUSHA An individual who is awakened realises the truth and excells in Ahimsa and never wishes for pleasure or indulge in passions, but exerts for self realisation consider him a true PURUSHA (the manly man). -Lord Mahavira. Mahaveer Jayanti Smarika 77 Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Pre-Mediaeval Jaina Novels -Dr. Jyoti Prasad Jain Lucknow The modern ‘novel' and short-story forms of prose fiction are of comparative recent growth, in the west dating since about the beginning of the 18th century, and in India since the last quarter of the 19th century. Literally meaning some. thing 'new and strange', the term ‘novel' is used to denote that literary form of fictitious prose narrative or tale which presents a picture of real life, especially of emotional crisis in the life-history of the men and women portrayed. It does not, however, follow that such tales were unknown to world literature before, only they are not always and necessarily in prose, many being in verse as the bulk of the ancient and mediaeval literature, particularly of the didactic and religious type, is. Western historians of Indian literature, like Weber, Buhler, Hertel, Keith, Macdonell and Winternitz, have all been well impressed with the fact that Jaina monks and authors have always been very good tellers of tales. The commentaries to the canonical texts, even many an early didactic and philosophical work, contain, besides a mass of traditions and legends, numerous fairy-tales and stories. The Jaina Puranas and the many Charitras (Pauranic Kavyas), Kathas, and Kathapankas were often only a frame in which all manner of fairy-tales and stories were inserted. The Champus are ornate novels in prose and verse mixed. and the Dharma-parikshas are didactic-polemical works so closely inter-wiven with narratives that they may well be included in the story literature, while there are also satirical humorous tales like the Dhurtakhyana. In some cases, as in the Malayasundari Katha, of unknown authorship and originally written in Prakrit. “The author", says Winternitz, "has worked up popular fairy-tale themes into a Mahaveer Jayanti Smarika 77 4--27 Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jaina legend. A veritable deluge of the most phantastic miracles and magic feats almost takes away the reader's breath in this work. Countless motifs well-known in fairy-tale literature are interwoven with the novel." (cf. HCL, II, p. 533), In addition to all this, there is a vast independent fairly-tale literature of the Jainas, in prose and in verse, in Prakrit, Sanskrit, Apabhramsha, even in Kanada, Tamil and the vernaculars, available in the many collections of stories, the Kathakosbas (treasuries of tales). There is no doubt that all these works, be they stories in plain prose or in simple verse, or elaborate poems, novels or epics, are all essentially sermons. They are never intended for mere entertainment, but always serve the purpose of religious instruction and edification'. (ibid., p. 521). In the Jaina novels, it is true, the heroes and heroines after all sorts of adventures usually renounce the world at last and become monks and nuns for the purpose of attaining liberation, copious instructions on religion are inserted in all convenient places, and underly. ing the main "narrative and most of the inserted stories there is the doctrine of Karma, according to which even the slightest peccadillo must have the effects in future rebirths. But even in modern times, the novel has been made a vehicle for the teaching of history, the advocacy of causes, the showing up of abuses, and so on, there being so much necessary overlapping of the didactic and aesthetic. (cf. Scot James, The Making of Literature, pp. 362-363). So even if writers like Winternitz describe the Jaina novels as 'religious novels', which is nothing but a literal translation of the Jaina term 'Dharma-Katha', the fact does not detract from their being novels. Several of these Jaina novels are fine romantic tales of love and adventure, and in the numerous stories, parables and fairly-tales inserted one comes across many themes which are often found in non-Jaina narrative literature, and some of which belong to universal literature. As Winternitz avers, the vast Jaina narrative literature is of great importance not only to the student of comparative fairy-tale lore, but also because to a greater degree than other branches of literature the Jaina tales allow us to catch a glimpse of the real life of the common people- (HIL, II, p. 545). Prominent among the pre-mediaeval Jaina novels are : Tarangavai-Kaha of Padalipta Suri (circa 3rd-4th century A.D.), Varangacharitra of Jatasirnhanandi (7th century), Samaraicca -Kaha and Dhurtakhyana of Haribhadra Suri (8th century), Kuvalayamala of Udyotana (778 A.D.), Nagakumara-charju of Svayambhu (circa 800 A.D.) Jinadatta-charita of Gunabhadra (circa 850 A.D.), Upamitibhava-prapancha-Katba a very popular allegorical novel of Siddharshi (906 A.D.), Yashastilaka-Champu of Somadeva (959 A.D), Nagakumara-chariu and Jasahara-charita of Mahasena (circa 975 A.D.), Bhavishyadatta-Kaha of Dhanapala Dharkata, Tilakumanjari of another Dhanapala (970 A.D.), Dharmapariksha of Harisena (988 A.D.) and of Amitagati (1014 A. D.), Jivandhara. 4—28 Mahaveer Jayanti Smarika 77 Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Champu of Harichandra, Gadyachintamani and Kshatrachudamani of Vadibha. simha, Jivaka Chintamani in Tamil by Tirutakkatevara (circa 8th century AD.), Yashodhar Charita of Vadiraja, Yashodhar Kavya in Tamil (anonymous) Surasundari-charium of Dhaneshvara and Malayasundari Kaha (anonymous)-all circa 11th century; Mrigavati charita of Devaprabha and Samyaktva-Kaumuedi (circa 13th century); Mahipalala Charitra of Charitrasundara, ChampakaShreshthi-Kathanaka, Pala-Gopala-Kathanaka and Dana-Kalpadruma of Jina. kirti, Ratna-Chuda Katha of Jinasagara, Ambada-Charitra of Amarasuri, Papabuddhi-Dharmabuddbi.Katbanaka, Aghataknamar-Katha, and Uttama Kumara-Charitra (all circa 15th century), Silappadhikaram by Illango (circa 2nd century A, D.), Neelkesi (anonymous) (circa 4th-5th century A. D ), Valaiyapati (anonymous) (circa 10th century A.D.), Chudamani by Tolamolitevara, Perunkadai by Prince Konguvela are some specimens of Jain novels written in Tamil, and there are more than a dozen in Kannada. The list is by no means exhaustive, "TO FORGET IS A CRIME. TO BE LAZY IS A GREATER CRIME, TO NEGLECT WORK AND OFFER EXCUSES IS A GREATEST CRIME, ACTION WITHOUT DELAY IS THE SOUL OF EFFECIENCY." Mahaveer Jayanti Smarika 77 4–29 Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AHINSA Ahinsa is the true character of life for it appeals to all the men and beasts alike. It engenders in them love, trust and friend. lyness. 2. Ahinsa does not mean any religious faith, it rather represents that sweet and loving character which makes life worth living, which sustains it through helpless condition and makes it capable of growing into society. 3. Ahinsa is the inner urge of life to love and behave other in a way, as one would like to be loved and behaved by others. 4. Ahinsa is born of the universal outlook, which recognizes oneness of truth, oneness of self and oneness of purpose through all the veried forms of life. 5. Love begets love and hatred begets hatred so a seeker after love should ever live a life of Ahinsa. 6. The essence of all great men and their philosophies is that Ahinsa is the greatest good and Hinsa, is the greatest evil. 7. Ahinsa like mother is the greatest protector in life. It is the safest royal road to happiness. 8. Ahinsa is the art of living by which one can live and let others live, 9. The life of Ahinsa costs little but enriches all. 10. Ahinsa is double blessing, it blesses him that gives and him that takes. LOVE ALL, SERVE ALL Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ male & Personal Use Only