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अहिंसा का पालन करना चाहिए । भगवान् महा- करने से। पाप उन दीन-दुखियों की सेवा करो, वीर ने कहा है कि हमें किसी के जीने में मदद जो मेरी सेवा से कहीं अधिक श्रेयस्कर हैं । वो करनी चाहिए और समय पाने पर स्वयं की भी भी मेरे भक्त महीं जो मेरी प्राज्ञा को नहीं मानते । पाहुति दे देनी चाहिए। मैं उस जीवन से घृणा मेरी प्राज्ञा है कि प्राणी मात्र की सेवा करना व करता हूं एवं व्यर्थ समझता हूं जो जनहित में काम प्राणीमात्र को कष्ट नहीं पहचाना ।। में न पा सके।"
उन्होंने जो धर्म चलाया वो धर्म हैं - जैन
. धर्म। जैनधर्म एक बहुत ही अच्छा धर्म है । परन्तु भगवान् ने जनहित के लिए अनेक महत्त्वपूर्ण बम
इसके दो भाग कर दिये गये हैं-श्वेताम्बर और कार्य किए उनमें से प्रमुख निम्न है :
दिगम्बर । ___ हिंसा की रोकथाम : भगवान् महावीर ने ये कुछ मतभेद होने के कारण हुआ । परन्तु हिंसा के विरुद्ध बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य किए। पे उन्हीं माचिस और तिलियों के समान है जो उन्होंने हिंसा के विरुद्ध व्याख्यान दिये और अहिंसा
एक दूसरे के बिना नाकाम हो जाती है। को प्रमुख धर्म बताया। कई व्यक्ति भगवान् के ।
वास्तव में जैन धर्म को देखना चाहें तो एक उपदेशों को सुनकर उनके शिष्य बन गये । उनमें
कवि के शब्दों में निम्न हैं। से प्रमुख गौतम थे। जिन्होंने भी केवल्यज्ञान प्राप्त कर लिया एवं महावीर के उपदेशों को सब जगह अन्तई ष्टि है वहां, अर्थात् विदेशों तक पहुंचाया।
जहां न पक्षपात का जाल ।
करूणा-मैत्री है सब जीवों पर जहां, उन्होंने समाज में होने वाले कर्मकाण्डों का
जैन धर्म है वह सुविशाल || विरोध किया। उन्होंने यज्ञों का भी विरोध किया।
वास्तव में भगवान् महावीर, उनके वचन, जिसमें कई पशुओं की बलि दी जाति थी। उन्होंने
उनके उपदेश पवित्र और पावन हैं। उनके उपदेशों कहा इस प्रकार के यज्ञों के बजाय आप अहिंसा
से कोटि-कोटि मानवों ने शिक्षा ली हैं, लेंगे एवं रूपी यज्ञ करें, जिससे प्रापका कल्याण हो
अपना जीवन सफलता की तरफ अग्रसर करते हैं सकता है।
व करेंगे । मानवों व सब प्राणियों के लिए भगवान् भगवान महावीर ने एक बार कहा था कि वे महावीर, उनके उपदेश, मंगल रूप, ज्ञान रूप और मेरे भक्त नहीं है जो मेरी पूजा करते हैं, सेवा करते वरदान रूप साबित होते प्राये हैं, हो रहे हैं और हैं, माला फेरते है। माप मेरे भक्त नहीं बनेंगे भक्ति आगे भी होंगे।
महावीर ने कहा सब प्राणियों में एक जैसी प्रात्मा है अतः दूसरों के सुख-दुःख को हमें अपना जैसा समझना चाहिये । घृणा का पात्र पाप है, पापी नहीं । अतः पापी को पाप से छुड़ा कर उसे सन्मार्ग पर लाने का प्रयत्न करना चाहिये ।
--भगवान् महावीर
महावीर जयन्ती स्मारिका 77
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