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'स्व' की संकीर्णता को त्यागे बिना हम किसी भी होगी न स्वतन्त्रता । संयम की आवश्यकता से तरह पर-महत्व को, दूसरे की स्वतन्त्रता को समा- विमुख नहीं रहा जा सकता । महावीर ने ब्रह्मचर्यदर प्रदान नहीं कर सकते । प्राज यदि बन्धकों को व्रत में संयम को जीवन के लिए स्पृहणीय माना है । विमुक्त किया गया है, भूमिहीनों को भूमि प्रदान की ब्रह्मचर्य अस्वाद का ही शाश्वत अभ्यास है। अच्छागई है, बेरोजगारों को रोजगार की समुचित बुरा, खट्टा-मीठा नीरस-सरस, आकर्षक-विकर्षक सुविधाएं प्रदान करने के लिए सरकार की ओर से के बीच समत्व स्थापित करना ही ब्रह्मचर्य है । यहाँ कम, प्रासान शर्तों पर ऋण देने की व्यवस्था की । शरीर का ममत्व स्वत: विसर्जित हो जाता है । गई है तो यहां भी दूसरों की स्वतन्त्रता की स्वीकृति इसके द्वारा हम शरीर के प्रति ममत्व का परित्याग ही है।
कर अपरिग्रह या परिमाण-परिग्रह की अोर उद्ग्रीव
होते हैं । जब तक वैभव का प्रदर्शन किया जाएगा यह माना कि पराधीनता में सुख-सुविधाओं
तब तक समाज में ऊंच-नीच की दीवारें उंची ही का मार्ग खुला रहता है लेकिन ऐसी सुख सुविधाएं
रहेंगी अगर वैभव की दीवारों को नीचा करेंगे -- अधिकतर शारीरिक आवश्यकताओं- भोजन, वस्त्र की उपलब्धियों तक ही परिसीमित रहती हैं जबकि
उन्हें धराशायी करेंगे तो समाज में सभी समानता
के धरातल पर खड़े हो सकते हैं। जहां वैभव होगा स्वतन्त्रता का मार्ग कष्ट और असुविधानों का मार्ग
वहां एक व्यक्ति दूसरे से पृथक रहेगा, अपने आपको होता है । कष्ट और असुविधाओं के कटकाकीर्ण
दूसरे से परिसम्पन्न समझने के कारण समाज में मार्ग पर चलकर ही स्वतन्त्रता का, मुक्ति की परम
विसंगतियां और विद्र पताए वातावरण को प्रदूषित सुख-सुविधाओं का गन्तव्य हाथ पाता है । परतंत्रता
करती रहेंगी। वैभव का विसर्जन समाज में एकता में हमें घर मिलता है-आवास मिलता जबकि
की भावना उद्बुद्ध करने वाला है। प्रजातन्त्र में स्वतन्त्रता में हम घर से मुक्ति पाते हैं । घर व्यक्ति
इस प्रकार के विसर्जन को प्राथमिकता देना आवको सीमा में-बन्धन में बांधकर रखता है, स्व
श्यक है । जब तक विसर्जन नहीं होगा--- त्याग-वृत्ति तन्त्रता में हम घर से बाहर प्राकर चौराहे पर खड़े
नहीं होती तब तक तो हम दूसरी को अपने साथ होते हैं- दूसरों के साथ रहते हैं या दूसरों को अपने
कैसे ले चलेंगे? त्याग ही तो हमारे अन्दर वह साथ रखते हैं । जब हम स्वाधीनता की लड़ाई लड़
अनुभूति और चेतना उदित करता है जिसके द्वारा रहे थे तब घरों से बाहर आ गये-नौकरी, प्राफिस
हम दूसरों में जा मिलते हैं; परिग्रह में हम दूसरों से सभी की दीवारें ढह गई । घर से बाहर पाना
अपने पापको पृथक् रखते हैं, अपरिग्रह में या त्यागघर और परिवार के प्रति ममत्व का विसर्जन कर
वृत्ति में हम दूसरों के साथ मिलकर उनसे तादात्म्य सभी प्राणियों को अपने परिवार में शामिल कर
स्थापित कर लेते हैं । अतः प्रजातन्त्र के लिये लेते हैं-"वसुधैव कुटुम्बकम्' के उच्चादर्श का
व्यक्तियों को संग्रह-वृत्ति के स्थान पर त्याग-वृत्ति संस्पर्श करने लगते हैं । महावीर की अहिंसा इसी ।
को महत्व दिया जाता है। संग्रह वृत्ति, स्वतन्त्रता-प्राणिजगत की स्वतन्त्रता का ही तो
वैभव-प्रदर्शन, अहंकार या भ्रमकार का ही प्रतिरूपआदर्श प्रस्तुत करती है । महावीर ने कहा है
साक्षात् रूप है, प्रजातंत्र में यदि अहंकार की 'अहिंसा निबरणा दिठ्ठा सबभूएसु संजमो।' भावना ने डेरा जमा लिया तो वह प्रजातन्त्र
अर्थात् प्राणिमात्र के प्रति जो संयम है, वही तानाशाही का भयावह रूप धारण कर लेता है। पूर्ण अहिंसा है । और जब तक जीवन में संयम की जहां ममत्व है, प्रासक्ति है, अहंकार है मूछी है कलियां प्रस्फुटित नहीं होंगी तब तक न अहिंसा वहीं अधर्म है, बही तानाशाही है।
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महावीर जयन्ती स्मारिका 77
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