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किया गया है, सचमुच अद्भुत है, आश्चर्य है । ऐसा विभाव पर्यायों का बोध हुए बिना हमारी रष्टि बाहरी कथन केवल सर्वज्ञ ही कर सकते हैं, यह विश्वास धरातल पर ही अटकी रहती है। किन्तु पर्याय की अपने आप ही पैदा हो जाता है और यही इस धर्म निर्मलता को जानकर द्रव्य की शुद्ध दशा से एकत्व की सब से बड़ी महत्ता है।
करने के लिए उसे त्याग देना पड़ता है । क्योंकि
जिनकी दृष्टि व्यवहार में ही मोहित हो रही है, स्वाधीनता का उपाय
वे पुरुष सच में परमार्थ को नहीं जानते हैं । जो
धान के छिलकों पर ही मोहित हो जाते हैं. वे जैनदर्शन व अध्यात्म का उद्देश्य है-सर्वतन्त्र-स्व. बास्तविक चावलों को नहीं जान पाते हैं। किन्तु तन्त्र स्वाधीन होना । स्वाधीनता कहीं से लाने की जो पुरुष किसी भी प्रकार से मोह के दूर होने पर
आवश्यकता नहीं है। स्वतन्त्रता कहीं बाहर से नहीं शुद्ध चैतन्य मात्र ज्ञान-चेतना का माश्रय ले कर मिल सकती है। पर पदार्थों के संयोग से मिलने साधकपने को प्राप्त होते हैं, वे निर्वाण को प्राप्त वाली स्वतन्त्रता प्रस्थायी होती है। क्योंकि उस कर सिद्ध हो जाते हैं । परन्तु जो मोही, अज्ञानी, स्वतन्त्रता का सम्बन्ध पर-पदार्थों के टिकने तक विपरीत श्रद्धानी मिथ्यादृष्टि हैं, वे इस भमिका को रहता है और पर-पदार्थों का संयोग सम्बन्ध कभी
प्राप्त न कर संसार में ही परिभ्रमण करते रहते शाश्वत नहीं होता। इसलिये उन से मिलने वाली स्वतन्त्रता भी नित्य नहीं होती है । हां आध्यात्मिक स्वतन्त्रता ही वास्तविक है । इस प्रकार की निश्चय ही भगवान महावीर ने ज्ञाननय के सम्पूर्ण स्वाधीनता निर्वाण की स्थिति में उपलब्ध द्वारा परमतत्व को पहचान कर स्वसंवेदनमयी परम होती है । निर्वाण किसी स्थान या भाव विशेष का स्थिति को प्राप्त किया था, जिसे योगी जन "निर्विनाम नहीं है। यह तो वस्तु की वह स्वाभाविक कल्प समाधि" कहते हैं, जो परमानन्दमयी स्थिति स्थिति है, जिसकी शुद्धता व स्वतन्त्रता के कारण है, जिसे एक बार उपलब्ध हो जाने पर फिर से उसका अपना अस्तित्व है और अन्य वस्तुओं से उसे सांसारिक सुख-दुःख की बाधा नहीं पड़ती है, अपने पृथक कर देखा जा सकता है । इस स्वाधीनता को ही प्रक्षय, अविनाशी, परम सुख में सदा प्रात्मा लीन पाने के लिए वस्तु स्वभाव तक पहुंचना होता है। रहती है और उस परमानन्द का ही सतत भोग वस्तु-स्वभाव तक पहुंचने के लिए वस्तु की द्रव्य- करती रहती है। यही निर्वाण की स्थिति कही दृष्टि अपनानी होती है। द्रव्य की शुद्ध दृष्टि के जाती है, जिसमें प्रात्मा सब प्रकार के कर्म-मलों बिना द्रव्य को नहीं समझा जा सकता है । हालांकि से मुक्त हो अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख द्रव्य को समझना जितना प्रावश्यक है, उससे कहीं और अनन्त शक्ति के प्रकट हो जाने पर सच्चे सुख अधिक आवश्यक पर्याय को समझना है । स्वभाव- को उपलब्ध हो जाती है ।
मुक्तक तेता प्रारम्भ ठानिए, जेता तन में जोर । तेता पांव पसारिये, जेती लांबी सोर ॥
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महावीर जयन्ती स्मारिका 71
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