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से रहित नहीं है । साथ ही वह कथन की सौपा- 1976 में प्रस्तुत किया था। मैं भी यहां इस प्रश्न धिकता एवं सापेक्षता का भी सूचक है। अनेकान्त पर गम्भीर विचार तो प्रस्तुत नही करूगा केवल का द्योतक होना एवं कथंचित् 'अर्थ का प्रतिपादक होना यह दो भिन्न-भिन्न बातें हैं। अनेकान्त का
मात्र निर्देशात्मक रूप में कुछ बातें कहना चाहूंगा। द्योतक होना यह कथन के उद्देश्य को सामान्य रूप
वस्तुतः कथन में स्यात् शब्द की योजना को स्पष्ट से उसके पूर्ण परिप्रेक्ष्य में ग्रहण करने का सचक प्रयोजन यह है कि हमारा कथन वस्तु के अनूवत और है जबकि कथंचित् अर्थ का प्रतिपादक होना यह
अव्यक्त धर्मों का निषेधक न बने । यहां पर अनुक्त कथन के विधेय को सीमित विशेष या माँशिक रूप
और अव्यक्त इन दोनों के अर्थों का स्पष्टीकरण से ग्रहण करने का सूचक है । स्यात् शब्द उद्देश्य
आवश्यक है। अनुक्त धर्म वे हैं, जो व्यक्त तो है को तो व्यापक परिप्रेक्ष्य में ग्रहण करता है किन्तु
किन्तु जिनका कथन नहीं किया जा रहा हैं, जब कि स्यात् के साथ 'अस्ति' तथा एवं' शब्द की
जबकि अध्यक्त धर्म में वे है जो सत्ता में तो है किन्तुं जो योजना की जाती है तो वह विषय को प्रांशिक
अभिव्यक्त नहीं हो पाये हैं जैसे बीज में वृक्ष की रूप से ही ग्रहण कर पाती है (स्याच्छष्दादप्यनेकान्त
सम्भाव्यता का धर्म । जैन परम्परा की भाषा में सामान्यस्य विबोधते शब्दान्तर प्रयोगोऽत्र विशेष
इन्हें वस्तु की भावी पर्याय भी कहा जा सकता है । प्रतिपत्तये-श्लोकवार्तिक 55)। स्यात् शब्द के
भगवतीसूत्र में निश्चय और व्यवहार नयों की इन भिन्न भिन्न अर्थों की स्पष्टता पर मैं इसलिए
चर्चा के प्रसंग में महावीर ने यह स्पष्ट किया है बल देना चाहता हूँ ताकि इन अलग अर्थों के कि वस्तु में प्रकट एवं दृश्यमान धर्मों के साथ आधार पर खड़ी हुई प्रमाण सप्तभंगी और नय ।
सो अव्यक्त एवं गौ धर्मों की सत्ता भी होती है । सप्तभगी की भिन्नता को ठीक से समझा जा सके।
यदि स्यात् शब्द की योजना का उद्देश्य केवल प्रमारण सप्तभंगी उद्देश्य की अनन्त धर्मात्मकता
कथन में अनुक्त धर्मों का निषेध न हो, इतना ही पर बल देती हैं जबकि नय सप्तभंगी विधेय की होता तब तो उसे सम्भाव्यता के प्रथ' में ग्रहण सीमितता एवं कथन की सापेक्षता पर बल देती है। करना आवश्यक नहीं था किन्तु यदि स्यात् शब्द इस पर हम आमे विचार करेंगे।
के कथन में अव्यक्त धर्मों की सत्ता का भी सूचक है क्या स्यात् प्रसंभाव्यता (Possibility) का सूचक
तो प्रसम्भाव्यता के प्रय' में गृहीत किया जा सकता है। किन्तु हमें यह स्पष्ट रूप से ध्यान रखना चाहिए
कि अाकस्मिकता एवं अकारणता सम्बन्धी सम्भामाधुनिक त्रिमूल्यात्मक तर्क शास्त्र के प्रभाव वनाएं जैन दर्शन में स्वीकार्य नहीं हैं क्योकि वह के कारण यह प्रश्न उठा है कि स्यात् शब्द को इस असत् से सत् की सम्भावना को स्वीकार नहीं सम्भाव्यता के अर्थ में ग्रहण किया जा सकता है करता है । यदि सम्भावना का अर्थ' 'जो असत् था यद्यपि अाधुनिक विचार सम्भाव्यता को उस उसका सत्ता में पाना है तो ऐसी सम्भाव्यता को अनिश्चयात्मक एवं संशयपरक अर्थ में नहीं लेते हैं व्यक्त करना स्यात् शब्द का प्रयोजन नहीं है । जैन जैसा कि प्रायः पहले उसे लिया जाता था । पूना दर्शन जिन सम्भाव्यताओं को स्वीकार करता है वे विश्वविद्यालय के डा. बारलिंगे एवं डा. मराठे हैं ज्ञान सम्बन्धी सम्भावनाए जैसे वस्तु का जो ऐसा सोचते हैं कि स्यात्-सम्भाव्यता का सूचक है। गुण अाज हमें ज्ञात नहीं है वह कल ज्ञात हो डा. मराठे ने तो इस सम्बन्ध में एक निबन्ध पूना सकता है, क्षमता सम्बन्धी सम्भावनाए जैसे जोक विश्वविद्यालय को जैनदर्शन सम्बन्धी संगोष्ठी (सन में पूर्ण क्षमता है और अभिव्यक्ति या भावी पर्याय
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महावीर जयन्ती स्मारिका 77
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