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है। शब्द, बन्ध, सूक्ष्मता, स्थूलता, संस्थान, भेद, बन्धनों से मुक्त होना । प्रात्मा का अपने शुद्धरूप अंधकार, छाया, प्रकाश, पातप (गर्मी) आदि में निज रूप में, स्वभाव में अपनी स्वतन्त्र सत्ता पुद्गल द्रव्य की पर्यायें हैं, (त. सू-5/24; द्रव्य लिए हुए स्थित रहना ही मोक्ष है, मुक्ति है। यह संग्रह-16 ।
प्रात्मा की पूर्णता की स्थिति है। मुक्तावस्था में जब इस विश्व में फैली हुइ वस्तुओं पर दृष्टि
प्रात्मा के ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य प्रादि स्वाभाविक पात करते हैं तब प्रत्येक वस्तू रूप, रस, गंध तथा
गुण विकसित हो जाते हैं। मुक्त हो जाने के बाद स्पर्श से युक्त और शब्द, बंध, सूक्ष्मता, स्थूलता,
जम्म-मरण, रोग शोक, दु.ख भय आदि बाधायें
समाप्त हो जाती हैं। क्योंकि ये सब बाधायें कर्मसंस्थान, भेद, अन्धकार, छाया, प्रकाश, पातप स्थितियों में ही प्राप्त होती है। अतः यह ज्ञात
जनित बाधायें हैं, देह के साथ उत्पन्न होने वाली होता है कि यह समस्त दृश्य-जगत पुद्गल का ही
बाधायें हैं, मुक्तावस्था में जब कर्म ही नष्ट हो
जायेंगे तब कर्म जनित अवस्थायें कैसे रह विस्तार है।
सकती हैं ? आधुनिक विज्ञान की पुस्तकों के अनुसार ध्वनि, ऊष्मा, प्रकाश आदि ऊर्जायें भौतिकता की प्रतीक
___इस प्रकार भौतिक जगत् और मोक्ष मात्मा हैं, इन ऊर्जाओं के कारण ही यह जगत् भौतिक
की दो अवस्थायें हुई', किन्तु दोनों एक दूसरे से जगत् कहलाता है । शब्द, प्रातप, प्रकाश प्रादि ये
नितान्त विरोधी हैं । भौतिक जगत् नश्वरता अर्थात् भौतिक ऊर्जायें पुद्गल की पर्यायें प्रथवा स्थितियां जन्म और मृत्यु का प्रतिनिधि है तो मोक्ष इसके हो तो PHAT faarg मरा मत विपरीत शाश्वतता का प्रतीक है। भौतिक जगत् पौद्गलिक है; अर्थात् यह दृश्य जगत् भौतिक जगत् दृष्ट है और मोक्ष अदृष्ट, अतः अनन्त पुद्गल परमाणुषों के स्कन्धों का बनाव है। इनके अस्तित्व व सत्यता के बारे में जिज्ञासा होती
मोतिकता का क्षेत्र समस्त भौतिक-जगत् है किन्तु है। इस सम्बन्ध में भारतीय दार्शनिकों में मतप्राध्यात्मिकता केवल प्रात्मा तक ही सीमित है, वैभिन्य है । एक मोर चार्वाक दार्शनिक दृष्ट-भौतिक क्योंकि प्राध्यत्मिकता की प्राधारभित्ति प्रात्मा ही जगत को ही सत्य अथवा अस्तित्वशील मानते हैं, है, जिसकी चरम परिणति मोक्ष है।
उनके अनुसार मोक्षावस्था कोरी कल्पना है। इसके ___ 'मोक्ष' प्रात्मा की स्वाभाविक और सांसारिक
विपरीत अद्वैतवेदान्त दार्शनिकों का कहना है कि अवस्था उसकी वैभाविक स्थिति है। स्वाभाविक
'ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या' अर्थात् मोक्ष ही सत्य है, स्थिति में प्रात्मा शुद्ध रूप में होती है, उसका
गट प में होती है, उसका अस्तित्वशील है, यह भौतिक जगत् मिथ्या है, भ्रम किसी अन्य द्रव्य अर्थात पूगल के साथ संयोग है सत्यता का प्राभास है। नहीं रहता जबकि वैभाविक स्थिति में प्रात्मा का उपरोक्त दोनों स्थितियां एक दूसरे से नितान्त पुद्गल के साथ संयोग रहता है। जब तक आत्मा का विरुद्ध स्थितियां हैं. दो छोर है, रुतियां पुदगल के साथ संयोग रहता है तब तक वह भौतिक (extremes) हैं। किन्तु जैन-दर्शन इन दोनों प्रतियों जगत की सीमा में रहती है, किन्तु जब आत्मा का (extremes) को अपने अन्दर समेटे हुए है। पुद्गल से वियोग हो जाता है तब ही वह शुद्ध उसके अनुसार यह भौतिक जगत् और मोक्ष दोनों अवस्था में स्थित होती है और प्रात्मा की यह शुद्ध ही सत्य हैं, अस्तित्वशील हैं। क्योंकि यह जगत अवस्था ही तो मोक्ष है; क्योंकि मोक्ष का अर्थ है पोद्गलिक है, पुद्गल का विस्तार है। पुद्गल छूटना, मुक्त होना अर्थात् प्रात्मा का समस्त कर्म द्रव्य है, जैन-दर्शन के अनुसार द्रव्य सत् है, अस्ति
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महावीर जयन्ती स्मारिका 77
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