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इस विश्व में परस्पर विरोधी गुणों वाले दो पदार्थ मिलते हैं1. चेतन, 2. जड़। जैनदर्शन में चेतना गुण वाले द्रव्य को जीव नाम से अभिहित किया जाता है । पुद्गल, धर्म, अधर्म, प्राकाश और काल ये पांच द्रव्य चेतना विहीन हैं। इनमें से केवल पुद्गल ही क्रियाशील है । सांसारिक अवस्था में जीव का पुद्गल के साथ सयोग रहता है। जीव का और पुद्गल का संबंध विच्छेद होने पर जोब को जो शूद्ध अवस्था होती है वह ही मोक्ष है । विदरी लेखिका ने जीव की दोनों प्रवस्थानों का किञ्चित् वर्णन इन पंक्तियों में किया है।
प्र० सम्पादक
भौतिक जगत् और मोक्ष
(जैन-दर्शन में मान्य 'प्रात्मा' के सन्दर्भ में)
* कुमारी प्रीति जैन, शोध छात्रा, जयपुर इस विशाल विश्व के किसी भी प्रश पर जैन-दर्शन के अनुसार संक्षेप में जीव-द्रव्य का दृष्टिपात करने पर हमें केवल दो ही प्रकार की स्वरूप हैं। सत्तायें दृष्टिगोचर होती हैं-1. चेतन और दूसरी
__“जीव: उपयोगमयः प्रमूर्ति कर्ता स्वदेहपरिमाणः 2. जड़ । साधारण भाषा में चेतन सत्ता' का तात्पर्य प्रात्मा प्रथवा जीव से और 'जड़' का अचेतन से, भोक्ता संसारस्थः सिद्धः सः विस्रसा ऊर्ध्वगतिः ।" प्रजीव से; और दार्शनिक सन्दर्भ में 'चेतन' का
(द्रव्य संग्रह गा. 2) तात्पर्य प्राध्यात्मिकता से व 'जड़' का तात्पर्य अर्थात् जो (चार प्राणों से) जीता है, उपयोगभौतिकता से है।
मय है, प्रमूर्तिक है, कर्ता-भोक्ता है, स्वदेह परिणाम
वाला है, संसारस्थ है (संसार में स्थिति रखने वाला जैन-दर्शन के अनुसार 'चेतनसत्ता' केवल है), सिद्ध होने की शक्ति युक्त है, स्वभाव से उर्ध्वप्रात्मा या जीव है, इसके कोई भेद नहीं हैं, किन्तु गति को जानेवाला है, साथ ही जिसमें ज्ञान, दर्शन, अचेतन (जड़) सत्ता के पांच भेद हैं-पुद्गल, धर्म, वीर्य सुख प्रादि गुण हैं वहीं जीव है, चेतन है प्रधर्म, अाकाश और काल। जैनागम में इन्हें द्रव्य और जिसमें रूप, रस, गन्ध तथा स्पर्श गुण कहा जाता है, इस प्रकार कुल छः द्रव्य हैं । इन हों वह पुद्गल है; रूप, रस, गंध तथा स्पर्श गुण छहों द्रव्यों में क्रियाशील द्रव्य जीव व पुद्गल ही हैं, युक्त होने के कारण पुद्गल मूर्तिक (जो प्रांखों द्वारा शेष चारों द्रव्य निष्क्रिय हैं, गतिहीन हैं । अतः देखा जा सके) द्रव्य है। मूल रूप से पुद्गल परमाणु चेतना का प्रसार जीव द्रव्य से और जड़ता का रूप है, किन्तु अनेक पुद्गल परमाणुनों का संघात प्रसार पुद्गल द्रव्य से ही है।
भी होता है, परमाणुओं का संघात स्कन्ध कहलाता
महावीर जयन्ती स्मारिका 77
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