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त्वशील है (सत् द्रव्यलक्षणम्, त० सू० 5/29) अनन्त, सुख चाहें दुख ते भयवन्त" । प्रत्येक प्राणा अतः यह पौद्गलिक जगत् भी सत्य है अस्तित्वशील इष्ट वियोग, अनिष्ट-संयोग, राग द्वेष से पीड़ित है, है; और मोक्ष जो प्रात्मा की शुद्धावस्था है, चरम- दुखी है, अतः वह सुख प्राप्ति व दुःख निवृति की परिणति है, वह भी सत्य है, अस्तित्वशील है, चेष्टा करता है । इसके लिये वह नये-नये साधनों क्योंकि प्रात्मा भी द्रव्य है, जब द्रव्य अस्तित्वशील की खोज करता है उनकी प्राप्ति के लिये एड़ी-चोटी है तो आत्मा भी अस्तित्वशील है व प्रात्मा की का पसीना बहा देता है, अधिक से अधिक साधन शुद्धावस्था मोक्ष भी सत् है ।
जुटाना चाहता है, उसके सारे प्रयत्न येन-केनजब दोनों स्थितियां मन तो प्रश्न उठता प्रकारेण सुख प्राप्ति के लिये ही होते हैं । इसी कि प्रात्मा के लिए श्रेयस क्या है. श्रेष्ठ क्या है ? भावना से वशीभूत प्राज प्राणी ने एक से एक क्योंकि केवल प्रात्मद्रव्य ही चेतनद्रव्य है, कर्ता- प्राश्चर्य जनक वस्तुओं का निर्माण कर जीवन के भोक्ता है प्रतः समस्त भौतिकता व प्राध्यात्मिकता प्रत्येक क्षेत्र में सुख-सुविधाओं का सम्बार लगा दिया की उपादेयता केवल प्रात्मद्रव्य के सन्दर्भ में ही है। है, ऐसा प्रतीत होता है कि शायद उसने अपने अतः यहाँ मूल्यात्मक दृष्टिकोण से विचार करना लक्ष्य, सुख-प्राप्ति में पूर्णता करली हो। किन्तु होगा कि प्रात्मा के लिए मूल्यवान् क्या है ?
सुख-शान्ति के भौतिक साधनों की बढ़ोतरी के
बावजूद भी वह सुखी नहीं है । सुख प्राप्ति की __ मूल्य के प्रत्येक निर्णय में प्रात्मा की सन्तुष्टि- दिशा में प्राज भी वह वहीं है जहां से वह चला असन्तुष्टि अन्तनिहित होती है । मूल्य-निर्णय में हेय था, अथवा शायद आज वह पूर्वापेक्षा अधिक दुःखी पोर उपादेय का निर्णय प्रावश्यक है। मूल्य, लक्ष्य है, संत्रस्त है, भयभीत है, क्योंकि उसकी खोजें, प्राप्ति में सहायक है, क्योंकि जीव उसी को मूल्य उसके प्रयास और उसके द्वारा प्राप्त साधन, सभी प्रदान करता है जिसे वह प्राप्त करना चाहता है, भौतिकता की पोर झुके हुये हैं, सभी साधन भौतिक जो उसका प्राप्तव्य है। प्रात्मा के लिए वही है। भौतिक समृद्धि नश्वर हैं, सीमित हैं, अस्थायी मूल्यवान् है, श्रेयस् है जो उसके लक्ष्य मे साधक हैं। हम देखते हैं कि जो वस्तु प्राज सुख प्रदान हो, उसके अभीष्ट की पूर्ति करे और परमश्रे यस् करती है, वही कल दुःख उत्पन्न करने लगती है । वह है जो सर्व प्रकार उपादेय है । सामान्यतः जबकि वह चाहता है कि उसका सुख अपरिमित प्रत्येक जीवका लक्ष्य पृथक्-पृथक् है,
हो, कभी न समाप्त होने वाला हो; और सुख की में भी देखा जाता है कि कोई शिक्षा-प्राप्ति को परिभाषा भी तो यही है कि जो प्राकुलता रहित अपना लक्ष्य मान उसे मूल्यवान् समझता है तो हो. स्थायी हो. जिसके बाद फिर किसी प्रकार का कोई धन-प्राप्ति मूल्यवान् समझता है और कोई
दु ख शेष न रहे (पंचाध्यायी उत्तरार्ध-224), मान-प्रतिष्ठा को ही मूल्यवान् समझता है, किन्तु सब प्रकार की बाधायें दूर हो जायें किन्तु भौतिकता इन सभी मूल्यों में एक बात समान रूप से अन्त
_इतनी समर्थ नहीं है। प्राज पाश्चात्य देशवासी निहित है सुख प्राप्ति की इच्छा, सुख प्राप्ति का भौतिक-साधनों से सम्पन्न होते हये भी विकलता लक्ष्य; क्योंकि शिक्षा प्राप्ति, धन-प्राप्ति, पद
का अनुभव कर रहे हैं, जीवन की बढ़ती असुरक्षा प्रतिष्ठा पाने की इच्छा अन्ततोगत्वा सुख प्राप्ति की के कारण भयभीत हैं, पलायन की ओर उन्मुख हैं। इच्छा पर ही प्राधारित है, अर्थात प्रत्येक जीव सुख इससे ज्ञात होता है कि प्राणी को जिस सन्तोष, का अभिलाषी है. दुख से भयभीत है । पं० सुख व शान्ति की कामना है, खोज है वह भौतिकता दौलतरामजी ने कहा भी है-"जे त्रिभुवन में जीव से प्राप्त नहीं है । वस्तुतः भौतिकता निराकुल सुख
महावीर जयन्ती स्मारिका "
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