________________
लेते रहते हैं । गांधीजी हमेशा कहते थे कि मेरी कल की बात अब व्यर्थ समझनी चाहिए । विश्व का कथा-साहित्य परस्पर विरोधी एवं अनन्तमुखी अनुभूतियों एवं प्रवृत्तियों में सामंजस्य स्थापित करने की दृष्टि से बड़ा मूल्यवान है। इन सब से स्पष्ट है कि प्रत्येक व्यक्ति अनेकान्ती होता है श्रौर वास्तविकता तो यह है कि अनेकान्ती हुए बिना कोई जीवित रह भी नहीं सकता ।
अनेकान्त का शब्दगत श्रर्थ अनेक + अन्त अर्थात् अनेक धर्मात्मकता है। प्रत्येक वस्तु या पदार्थ में अनेक धर्म होते हैं । एक समय में एक साथ कोई भी व्यक्ति वस्तु के अनेक धर्मों का प्रतिपादन नहीं कर सकता । अनेक का अर्थ एक से भिन्न भी होता है । भिन्न में दो से लेकर अनन्त तक समाविष्ट हैं। वस्तु में अनेक धर्मों के अस्तित्व की सार्थकता या उपयोगिता उनके ध्यान में नहीं श्राती सुख-दुःख, नित्य- अनित्य, सत् प्रसत् शाश्वत - प्रशाश्वत आदि विविध द्वन्द्वों का अपेक्षा मूलक सम्पूर्ण अस्तित्व प्रत्येक पदार्थ में निरन्तर रहता है, यह बात केवल जैनदर्शन ने ही व्यवस्थित एवं शास्त्रीय रूप से प्रतिपादित की है ।
अनेकान्त के साथ-साथ स्याद्वाद शब्द का प्रयोग भी होता है। लोक-व्यवहार में दोनों एकार्थ वाचक हैं | दोनों श्रन्योन्याश्रित हैं। जहां अनेकान्त वस्तु के समस्त धर्मों की ओर समग्र रूप से हमारा ध्यान खींचता है, वहाँ स्यादवाद वस्तु के एक धर्मं का ही प्रधान रूप से बोध कराता है। विविध धर्मात्मक वस्तु हमारे लिए किस प्रकार उपयोगी हो सकती है, यह बतलाना स्याद्वाद का कार्य है । अनेकान्त लक्ष्य है और स्याद्वाद इसे प्राप्त करने का साधन | स्यादुवाद एक वचनपद्धति या अभिव्यक्ति की प्रणाली हैं, जो वस्तु के एक एक धर्म का प्रतिपादन नय सापेक्ष दृष्टि से करती है । जैनदर्शन में 'स्यात्' शब्द का प्रयोग सापेक्ष कथंचित् के प्रथं में होता है । अन्य दार्शनिकों ने
1-96
Jain Education International
स्यात् का अर्थ शायद, सम्भवतः, 'हो सकता है, 'किसी तरह ' किया है जो सर्वथा गलत है । प्राकृत- पाली श्रादि प्राचीन जन भाषाओं में 'स्यात्' शब्द के प्रयोग का विश्लेषण करते हुए स्व० डा० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य ने लिखा है कोई ऐसा शब्द नहीं है जो वस्तु के पूर्व रूप का स्पर्श कर सके । हर शब्द एक निश्चित दृष्टिकोण से प्रयुक्त होता है और अपने विवक्षित धर्म का प्रतिपादन करने की शक्ति है, तब यह श्रावश्यक हो जाता है कि प्रविवक्षित शेष धर्मों की सूचना के लिए एक प्रतीक अवश्य हो, जो वक्ता धौर श्रोता को भूलने न दे । स्यात् शब्द यही करता है । वह श्रोता को विवक्षित धर्म का प्रधानता से ज्ञान कराके भी श्रविवक्षित धर्मों के अस्तित्व का द्योतन कराता है ।
स्यात् शब्द जिस धर्म के साथ प्रयुक्त होता है, उसकी स्थिति कमजोर न करके वस्तु में रहने वाले तत्प्रतिपक्षी धर्म की सूचना देता है ।
अनेकान्त का आधार नयवाद है। यह भी कहा जा सकता है कि स्याद्वाद वस्तु का प्रतिपादन किसी प्रपेक्षा से पूर्णरूप में करता है और नय उस वस्तु को ज्ञाता के अभिप्राय विशेष के सन्दर्भ में अंशरूप में प्रकट करता है । श्रभिप्राय, सन्दर्भ, काल, शब्द, ध्वनि, अर्थं श्रादि के आधार पर नयों के अनेक उत्तर-भेद हो सकते हैं ।
स्याद्वाद को सप्तभंगी न्याय भी कहते हैं । सप्तभंगी का अर्थ है वस्तु के अस्तित्व या सत्ता का विधेय और निषेध परक कथन के प्रकार । वस्तु है भी नहीं भी हैं और है- नहीं दोनों भी है श्रोर दोनों रूप अनिर्वचनीय भी हैं । इस प्रकार सात प्रकार से वस्तु-दर्शन किया जाता है। घड़ा-घड़ा है भी, घड़ा नहीं भी है - अन्य कुछ है । हम कैसे कह सकते हैं कि घड़ा घड़ा या मिट्टी ही है या नहीं है, क्योंकि उसके कण-कण में न जाने कितने तत्व, कितनी ऊर्जा, कितनी सम्भावनाएं हैं। इसीलिए वह श्रविर्वचनीय भी है । यह बड़ी गहरी पैठ है ।
महावीर जयन्ती स्मारिका 77
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org