________________
इसीलिये हमारे पूज्य हैं।
वास्तव में घटनामों के प्रकाशन में कथ्य तिरोहित
हो जाता है । सूर्य जैसे महान् व्यक्तित्व के सत्य को जैनधर्म में सरागता की पूजा नहीं है, बाहरी क्या हम किसी घटना से अधिक प्रकाशित कर वेश प्रोर आडम्बर की पूजा नहीं है, पूजा है सच्चे सकते है ? जैसे सूर्य अपने आप में सत्य है, उसी निर्ग्रन्थ दिगम्बर गुरु-देव की जो वीतरागता के प्रकाश को बताने के लिए कोई रोशनी नहीं फेंकनी परम शिखर थे, त्याग और तपस्या के हिमालय थे पडती हैं. उसी प्रकार महावीर अर्हन्त केवलज्ञान और जिन्होंने सब प्रकार से अकिंचन हो अपने दिवाकर स्वयं ज्ञान-सूर्य थे, स्वयं सत्य थे, उस चैतन्य भास्कर का अलौकिक प्रकाश प्रकट कर अप्रतिम प्रकाश को हम प्राने तुच्छ ज्ञान से क्या झान-चेतना का उद्योतन किया था। जो स्वय प्रकाशित कर सकते हैं। समयसार थे और जिन्होंने पात्मज्ञान की पूर्ण उपलब्धि कर बिना किसी अपेक्षा के संसार को सुख वीतरागता नितान्त नैयक्तिक है। अध्यात्म व कल्याण का मार्ग बताया था। जिस बीमारी के की शुद्ध दृष्टि के बिना आत्म तत्त्व व वीतरागता कारण संसार के सब लोग दुखी है, उसे उन्होंने समझ में माती नहीं है। आज के भौतिक जगत में समझा था, उसका स्वयं निदान किया था और जन्म जयन्तियां या निर्वाण तिथियां मनाना एक अपने पुरुषार्थ से महामोह नाम की बीमारी को फैशन-सा हो गया है । इस प्रदर्शन मात्र से हमारा मिटा कर वीतरागता के महान् वैद्य बने थे। वे भला नहीं हो सकता है । सम्भव है कि आप व्याअाजकल के डाक्टर और नैद्य के समान नहीं थे, जो पारी हों, और इसमें भी व्यापार का कोई उपाय स्वयं बीमार रहते हैं और पैसे के खातिर दूसरों निकाल कर यह कहें कि लाभ कैसे नहीं है ? ठीक का इलाज करते हैं। वास्तव में स्वस्थता प्राप्त है, लाभ लेने वाला चाहिये, हरेक काम से लाभ कराना ही धर्म व आरोग्यशास्त्र का उद्देश्य है। मिल सकता है। किन्तु प्रदर्शन मात्र से प्रात्मा का मात्मा स्वयं धर्मस्वरूप है । धर्म किसी प्रक्रिया में, कोई भला नहीं होने वाला है। पूजा-पाठ में, पालोचना-स्तुति में, जाति-कुल में, प्रशंसा-प्रदर्शन में न होकर मात्म-स्वभाव की उज्ज्व- भगवान् महावीर के दो ही उपदेश मुख्य हैं, लता को व्यक्त करने में है।
जिनकी विलक्षणता को देखकर हम अन्य भारतीय
धर्म व दर्शनों से जैनधर्म को भिन्न निरूपित कर यदि एक शब्द में कहना हो तो इसमें कोई सकते हैं । ये विशेषताए हैं -स्वतन्त्रता और वीतसन्देह नहीं कि महावीर व्यक्ति थे । हम और पाप रागता । जैनधर्म की स्वतन्त्रता अद्भुत है। नाम के ही व्यक्ति हैं, किन्तु महावीर सचमुच व्यक्ति प्रणु मात्र से लेकर पेड़-पौधे, कीड़े-मकोड़े, खानथे, पूर्ण व्यक्ति थे । शक्ति रूप से तो हम और प्राप चट्टानें-पर्वत आदि प्रत्येक वस्तु की स्वतंत्रता का सभी महावीर हैं । क्योंकि सभी प्राणियों की प्रात्मा दिव्य गान जैन आगम-ग्रंथों में भरा पड़ा है । स्वमें अनन्त शक्तियां हैं, अनन्त गुण हैं, अनन्त सुख है, तंत्रता भी ऐसी कि अणु मात्र भी कोई पदार्थ किन्तु वे सभी सुप्त हैं । महावीर ने उनको अपने किसी अन्य पदार्थ को परिणमा नहीं सकता है। ज्ञान-पुरुषार्थ से व्यक्त कर लिया था। पूर्ण रूप सभी वस्तु प्रों का परिणमन स्वाधीन है। कोई से प्रकट कर उस परम ज्योति को प्रकाशित कर किसी के प्राधीन नहीं हैं यह ऐसा क्रांतिमूलक दिया था। इसलिये उनका व्यक्तित्व पूर्ण कहा जा विचार है कि कोई सत्यार्थद्रष्टा ही इसे निरूपित सकता है, वह किन्हीं घटनामों की वस्तु नहीं है। कर सकता है। अनन्त वर्षों की काल-कसौटी पर
1-26
महावीर जयन्ती स्मारिका 77
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org