________________
पर गम्भीरता से विचार करना चाहिये । साधु वह सब पूर्ण हुमा, सम्पन्न हुमा । अब तो हमें संस्था भी विचार करे और श्रावक जन भी । साधु अपने निर्वाणोत्सव की तैय्यारियां करनी हैं, उत्सव की भूमिका माधुनिक युग के परिप्रेक्ष्य में क्या करे तो पाने वाली पीढ़ी अपनावेगी और समापन हो ? यह ज्वलन्त प्रश्न है। हमें समाज के लिए तो इसका कभी होता ही नहीं । यह तो पीढ़ी दर कल्याणकारी मुद्दों को भुलाना नहीं है । महावीर पीढ़ी चलता रहता है। हमारा धर्म एवं दर्शन स्वामी का निर्वाणोत्सव पाने से पूर्व बड़ी तैय्या- परम्परावादी है, सृष्टि की परम्परा है । युग की रियां की जा रही थीं, शताब्दी वर्ष में भी बड़े-बड़े मांग की भी परम्परा है । जैन समाज के मार्गमायोजन एवं संगोष्ठियां हुई और समापन वर्ष में दर्शन हेतु प्रबुद्ध साधक अग्रसर हों, ऐसी हमारी विचार गोष्ठियों में उपलब्धियों का मूल्यांकन हुआ। कामना है ।
एक प्रकन्न ? महावीर स्वामी के तुम हो रजिस्टर्ड अनुयायी, एक प्रश्न मैं केवल तुम से पूछ रहा हूं। पाज अहिंसा की क्यों बिल्कुल बदल गई परिभाषा ? विफल हो गई लगा रखी थी सत्य धर्म पर प्राशा,
और अचौर्य कहां टिक सकता बड़ी परेशानी है, कहाँ परिग्रह की सीमा जब तृष्णा मनमानी है, ब्रह्मचर्य की हुई प्राजकल कितनी छीछालेदर ? एक प्रश्न में केवल तुम से पूछ रहा हूँ।
पहले जंसी कहाँ तुम्हारी, अब है प्रामाणिकता ? तथा सरलता सत्यप्रियता, प्रथवा धर्माचरिता, अपना हृदय टटोलो, और सोचो है कितनी खामी ? किस बूते पर कहलाते हो, जैन धर्म अनुगामी ? खानपान में लुप्त हो गई जब प्राचार निष्ठता ? एक प्रश्न में केवल, तुम से पूछ रहा हूँ।
* श्री गुलाबचन्द जैन, वैद्य, ढ़ाना
3-18
महावीर जयन्ती स्मारिका 77
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org