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प्रात्मा मुक्ति प्रादि के सम्बन्ध में प्रश्न किये जाने पर भगवान् बुद्ध ने कहा था कि उनके बारे में कहना सार्थक नहीं क्योंकि न तो वह मिक्षुचर्या के लिए उपयोगी है और न निर्वाण के लिए। यह बौद्ध दर्शन आगे चलकर 1. सौतांत्रिक, 2. वैमासिक, 3. योगाचार और 4. माध्यमिक इन चार परस्पर विरोधी दर्शनों में विभक्त हो गया। माध्यमिक शाखा के प्रवर्तक प्रसिद्ध शून्यवादी विद्वान् नागार्जुन थे जो मध्यमकारिका तथा विग्रहव्यावतिनी नामक ग्रंथों के कर्ता ईसा की तीसरी शताब्दी के विद्वान् थे। जैन न्यायशास्त्रियों ने इसी शून्यवाद का खण्डन अपने विभिन्न ग्रंथों में किया है। उन्हीं को प्राधार बनाकर विद्वान् लेखक ने यह निबंध प्रस्तुत किया है।
प्र० सम्पादक
शून्यवाद समीक्षा
डा० रमेशचन्द जैन, बिजनौर
माध्यमिक बौद्धों का कहना है कि यह समस्त इसी प्रकार समस्त वस्तुओं के दोषों की जानकारी जगत् शून्य है. प्रमाण और प्रमेय का विभाग स्वप्न होने पर रागभाव चिरकाल तक नहीं ठहरता है। की तरह है । शन्यता दर्शन से ही मुक्ति होती है, एक ही पदार्थ में कोई राग करता है, उसी में कोई अन्य समस्त क्षणिकत्वादि भावनायें शून्यता के द्वेष करता है, उसी में कोई मोहित होता है प्रतः पोषण के लिए ही हैं । 'भाव, प्रभाव, भावाभाव विषय की इच्छा निरर्थक है। कल्पना के बिना तथा अनुभय इन चार कोटियों से विलक्षण तत्त्व रागादि भावों का अस्तित्व नहीं होता है। यदि हो शन्य है। बुद्धि से विवेचित किए जाने पर पदार्थों का अस्तित्व होता तो कल्पना की प्रावपदार्थों के स्वभाव का अवधारण नहीं होता प्रतः वे श्यकता ही नहीं थी।10 भव का बीज विज्ञान है अनभिलाप्य और निःस्वभाव हैं। इस संसार में जो और गोचर पदार्थ उसके विषय हैं। पदार्थ के नर पश-पक्षी घट-पट प्रादि पदार्थों का प्रतिभास नैरात्म्य स्वभाव को समझ लेने पर भवबीज निरुद्ध होता है, वह सब मिथ्या है। भ्रान्ति से ही वैसा हो जाता है।11 प्रतिभासित होता है, जिस प्रकार स्वप्न अथवा इन्द्रजाल में हाथी आदि का मिथ्या प्रतिभास होता इस प्रकार माध्यमिक बौद्धों का अभिप्राय है है। सभी गोचर वस्तुयें प्रतिबिम्ब के समान हैं। कि हमारा विज्ञान और उसके विषयीभूत वाह्य यह भी निश्चय नहीं कि इन प्रलीक पदार्थों का पदार्थ न तो पूर्ण रूप से वास्तविक और न पूर्ण कहां से उदगम और कहां लय होता है । यथार्थ रूप से काल्पनिक ही हैं। माध्यमिक शब्द मध्यम में जगत की न कोई उत्पत्ति होती है और न से बनता है। मध्यम बीच को कहते हैं। दोनों विनाश ही होता है । जिस प्रकार प्रतिकूल अन्त के सिद्धान्तों को छोड़ने के कारण यह व्यक्तियों में स्नेह भाव चिरकाल तक नहीं ठहरता, माध्यमिक कहलाता है अर्थात् यह न तो सर्वास्ति
महावीर जयन्ती स्मारिका 77
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