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जैन दर्शन में भौतिक पदार्थों के संग्रह को परिग्रह नहीं कहते श्रपितु मूर्छा को परिग्रह कहते हैं और मोह के उदय से उत्पन्न हुना ममत्व परिगाम मूर्च्छा कहलाता है। इसलिये धन धान्य प्रावि बाह्य परिग्रहों के बिना भी ममत्त्व परिणाम रखने वाला परिग्रही कहलाता है। धन धान्य आदि तो मूर्च्छा भाव के उत्पन्न होने के कारण होने से काररण में कार्य का उपचार करने से परिग्रह कहलाते हैं। परिग्रह के अन्तरंग और बाह्य ऐसे दो भेद हैं और ये हिंसा की ही पर्यायें होने से पाप रूप हैं। मिथ्यात्व और प्रनान्तानुबंधी चार कषायों के सद्भाव में कभी भी सम्यग्दर्शन नहीं हो सकता जो कि शास्त्रों में मोक्ष महल की पहली सीढ़ी कहा गया है। परिग्रह का उल्टा अपरिग्रह है। इस व्रत का विस्तृत विवेचन विद्वान् लेखक ने इन पंक्तियों में किया है ।
प्र० सम्पादक
महावीर द्वारा प्रतिपादित
अहिंसा को परमधर्म माना गया है। अहिंसा के साथ सत्य, प्रचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह को मिलाने से पांच व्रत हो जाते हैं। 23वें तीर्थंङ्कर भगवान् पार्श्वनाथ का धर्म चातुर्याम कहलाता था, क्योंकि उसमें ब्रह्मचर्य व्रत अपरिग्रह में सम्मिलित था । भगवान् महावीर ने ब्रह्मचर्य को अलग महत्त्व देकर पांच व्रतों का व्याख्यान किया । मूल व्रत हिंसा ही है । सत्य, प्रचीर्य अपरिग्रह प्रादि सभी व्रत अहिंसा के ही रक्षक हैं। चोरी करने से जिस व्यक्ति का धन चला जाता है, उसे दुःख पहुंचता है । प्रसत्य भाषण से भी लोगों को कष्ट होता है उसी प्रकार एक व्यक्ति के पास सम्पत्ति का संग्रह हो जाने से दूसरे निर्धन लोगों को पीड़ा होती है । इसलिए अपरिग्रह व्रत भी अहिंसा की रक्षा के लिए है ।
एक बार महावीर वैशाली के पास वाणिज ग्राम गए, वहां एक प्रानन्द नामक सेठ रहता था,
महावीर जयन्ती स्मारिका 77
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अपरिग्रह व्रत
* डा. कछेदीलाल जैन, शहडोल
उसके खजाने में 4 करोड़ मुद्राएं रिजर्व थीं, इतनी ही मुद्राएं ब्याज पर दिए था. और इतनी ही राशि व्यापार में लगाए था । चार गोकुलों में दसदस हजार गौएं थीं, पांच सौ हलों का खेती थी, बहुत लोगों को महावीर के दर्शनार्थ जाते देखकर वह भी महावीर के पास पहुंचा । श्रानन्द ने प्रणुव्रत पालने की इच्छा व्यक्त की- महावीर ने कहा कि तुम्हारे जैसे सम्पन्न सेठ के रहते हुए, कई लोगों के चूल्हे अन्न के प्रभाव में नहीं जलते हैं जबकि तुम्हारे यहां भ्रन्न का इतनी अधिकता है कि लापरवाही से चूल्हे में रोटियां जल जाती हैं । तुम्हारा इतना संग्रह लोक- शोषक एवं लोक पीडक है । पहले प्रत्येक व्यक्ति का पेट भरे इतना ध्यान रखना चाहिए, पेटी भरते रहना उचित नहीं है ।
श्रानन्द ने महावीर से पूछा- अपरिग्रह प्रणुव्रत किस प्रकार पाला जा सकता है। महावीर ने बताया कि सबसे महान् व्रत तो यह है कि समस्त
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