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जब स्रोत बाहरि वस्तुनों की इच्छा रूपी कीचड़, पत्थरों से बन्द हो जाता है तो प्रात्मा की हौज जैसी स्थिति हो जाती है । जैसे हौज में बाहर का पानी लाकर भरना पड़ता है तथा उसमें रोज बदल बदल कर नया पानी भरना पड़ता है इसी प्रकार श्रात्मा के अन्तरंग सुख का स्रोत बन्द हो जाने पर मनुष्य बीड़ी, सिगरेट, शराब, सिनेमा, रेडियो श्रीर सेक्स आदि में सुख खोजता है परन्तु लगातार इनके सेवन से भी सुख नहीं मिलता है । गर्मी में कूलर में सुख प्रतीत होता है तो शीत ऋतु में हीटर में । यदि मनुष्य श्रात्मा रूपी कुए में सुख रूपी स्रोत के बन्द कर देने वाले विकार, दुर्व्यसन, बाहरी पदार्थों की चाह रूपी कीचड़, पत्थरों को अलग करदे तो सदैव ऐसा सुख मिलता रहेगा जिसमें बाहरी सुख रूपी जल की जरूरत नहीं है । एक कवि ने बहुत अच्छी बात कही है
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गो धन गज धन वाजि धन, सवै रतन धन खान जब श्रावे सन्तोष धन सब धन धूलि समान ॥
जिस मनुष्य के पास सन्तोष रूपी धन विधमान है वही सुखी है । इसलिए इच्छात्रों के बढ़ाने में नहीं, बल्कि इच्छों के कम करने में सुख है । एक व्यक्ति जिसे बीड़ी, शराब, तम्बाकू, सिगरेट, चाय की इच्छा बनी रहती है उसे इन वस्तुओंों के सेवन करने पर सुख प्रतीत होता है । परन्तु वस्तुस्थिति यह है कि जिसे बीड़ी, शराब, गांजा, भांग की इच्छा नहीं होती है वही सुखी है क्योंकि उसे उन चीजों के बिना बेचैनी का अनुभव नहीं होता है ।
शेक्सपियर ने बहुत अच्छी बात कही है कि सोना एक बुरा विष है । The greatest hum - bing in the world is the idea that money can make a man happy. Gold is worst Poision for man's soul, doing more murders in this loath. Same is the world. than any mortal drug.
एक बार दुर्योधन ने अपने मामा शकुनि से
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कहा था कि मैंने युधिष्ठिर के यहाँ यज्ञ में यह अनुभव किया कि सोना श्रग्नि के समान चमकदार तो होता है परन्तु श्रग्नि से भी अधिक जलन पैदा करता है, क्योंकि अग्नि तो छूने पर ही जलती है जबकि युधिष्ठिर के पास भेंट में प्राप्त सोने को देखकर मुझे जलन पैदा हो गई थी ।
समाज में दान की प्रवृत्ति आसक्ति भाव को कम करने के लिए चालू हुई है जैसे किसी बांध में छोटा सा छिद्र कर देने से उसके द्वारा पानी निकलता रहता है और पूरे बांध को फूटने से बचा लेता है। पान की प्रवृत्ति से परिग्रह के दुर्गा कम हो जाते । जितने द्रव्य का दान किया जाता है उतने के प्रति आसक्ति कम हो जाती है । सम्पन्न होकर भी जो लोग दान के द्वारा समाज या देश का कल्याण करते हैं वे मरकर भी अमर रहते हैं । राजा श्रेयांस, महाराजा भोज तथा भामाशाह दान की प्रवृत्ति के कारण अमर हैं ।
लोग परिग्रह केवल अपने लिए नहीं बल्कि आगे आने वाली पीढ़ियों के लिए संचय करते हैं । एक विचारक ने बहुत अच्छी बात कही है । पूत सपूत तो क्यों धन संचय । पूत कपूत तो क्यों धन संचय ॥ यदि पुत्र सुपुत्र होगा तो पूर्वजों की कम सम्पति होने पर भी स्वयं कमाकर सम्पन्न ही जावेगा, यदि पुत्र कुपुत्र निकल जावेगा तो पूर्वजों की जोड़ी हुई सम्पत्ति को भी नष्ट कर देगा । इस लिए उसके निमित्त बहुत अधिक संग्रह करना व्यर्थ है ।
महावीर ने राग द्वेष आदि विकारी भावो को भी परिग्रह की श्र ेणी में गिना है । केवल रुपया पैसा ही नहीं, दासी, दास, बर्तन भांडे, जमीन, मकान, धान्य (अनाज) सोना चांदी आदि वस्तुनों के संग्रह की भावना को भी परिग्रह माना है । इस प्रकार अन्तरंग तथा बहिरंग दोनों प्रकार के परिग्रह को सीमित करना ही गृहस्थों के लिए अपरिग्रह का व्रत है । 883
महावीर जयन्ती स्मारिका 77
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