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एक-दूसरे के दुःख सुख और जीवन-मरण का कर्ता मानना प्रज्ञान है ।
सो ही कहा है
सर्व सदैव नियतं भवति स्वकीयकर्मोदयान्मरणजीवतदुःखसौख्यम् । श्रज्ञानमेतदिह यत्तु पर: परस्य, कुर्यात्पुमान्मरणजीवितदुःखसौख्यम् ॥'
यदि एक प्राणी को दूसरे के दुःख-सुख और जीवन-मरण का कर्ता माना जाए तो फिर स्वयंकृत शुभाशुभ कर्म निष्फल साबित होगे । क्योकि प्रश्न यह है कि हम बुरे कर्म करें और कोई दूसरा व्यक्ति, चाहे वह कितना ही शक्तिशाली क्यों न हो, क्या वह हमें सुखी कर सकता है ? इसी प्रकार हम अच्छे कार्य करें और कोई व्यक्ति, चाहे वह ईश्वर ही क्यों न हो, क्या हमारा बुरा कर सकता है ? यदि हाँ, तो फिर अच्छे कार्य करना बुरे कार्यो से डरना व्यर्थ है क्योंकि उनके फल को भोगना तो श्रावश्यक है नहीं ? और यदि यह सही है कि हमें अपने अच्छे बुरे कर्मों का फल भोगना ही पड़ेगा तो फिर पर के हस्तक्षेप की कल्पना निरर्थक है । इसी बात को श्रमितगति प्राचार्य ने इस प्रकार व्यक्त किया है :--
स्वयं कृतः कर्मयदात्मना पुरा फलं तदीयं लभते शुभाशुभम् । परेण दत्तं यदि लभ्यते स्फुटं स्वयं कृतं कर्म निरर्थक तदा || निजाजितं कर्म विहाय देहिनो, न कोपि कसयपि ददाति किंच ज । विचारयन्तेवमनन्यमानसः परो ददातीति विमुच्य शेमुषीम् ॥ २
आचार्य श्रमृतचन्द्र तो यहाँ तक कहते हैं कि पर द्रव्य श्रीर श्रात्म तत्व में कोई भी सम्बन्ध नहीं है तो फिर कर्ता कर्म सम्बन्ध कैसे हो सकता है ।
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नास्ति सर्वोऽपि संबंध: परद्रव्यात्मतत्वयोः । कर्तृ कर्मत्वसंबंधाभावे तत्कता कुतः ॥
विभिन्न द्रव्यों के बीच सर्व प्रकार के सम्बन्ध का निषेध ही वस्तुतः पूर्ण स्वतन्त्रता की घोषणा है । पर के साथ किसी भी प्रकार के सम्बन्ध की स्वीकृति परतन्त्रता को ही बताती है ।
अन्य सम्बन्धों की अपेक्षा कर्ता-कर्म सम्बन्ध सर्वाधिक परतन्त्रता का सूचक है । यही कारण है कि जैन दर्शन में कर्तावाद का स्पष्ट निषेध किया है । कर्तावाद के निषेध का तात्पर्य मात्र इतना नहीं है कि कोई शक्तिमान ईश्वर जगत का कर्ता नहीं है, श्रपितु यह भी है कि कोई भी द्रव्य किसी दूसरे द्रव्य का कर्ता हर्ता नहीं है। किसी एक महान् शक्ति को समस्त जगत का कर्ता हर्ता मानना एक कर्तावाद है तो परस्पर एक द्रव्य को दूसरे द्रव्य का कर्ता हर्ता मानना अनेक कर्तावाद |
जब-जब कर्तावाद वा अकर्तावाद की चर्चा चलती है, तब-तब प्रायः यही समझा जाता है कि जो ईश्वर को जगत का कर्ता माने वह कर्तावादी है और जो ईश्वर को जगत का कर्ता न माने वह कर्ताfवादी । चूंकि जैनदर्शन ईश्वर को जगत का कर्ता नहीं मानता, अतः वह अकर्तावादी दर्शन है ।
जैन दर्शन का प्रकर्तावाद मात्र ईश्वरवाद के निषेध तक ही सीमित नहीं, किन्तु समस्त परकर्तृत्व के निषेध एवं स्वकर्तृत्व के समर्थन रूप है । कर्तावाद का अर्थ ईश्वर-कर्तृत्व का निषेध मात्र तो है ही नहीं, पर मात्र कर्तृत्व के निषेध तक भी सीमित नहीं, स्वयं कर्तृत्व पर आधारित है । अकर्तावाद यानि स्वयकर्तावाद । प्रत्येक द्रव्य अपनी परिणति का स्वयंकर्ता है। उसके परिणमन में पर का रंचमात्र भी हस्तक्षेप नहीं है । स्वयं कर्तृत्व होने पर भी उसका भार भी जैन दर्शन को
महावीर जयन्ती स्मारिका 77
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